भगदड़ में बदलते धार्मिक मेले प्रमोद भार्गव देश के धर्म स्थलों पर लगने वाले मेले अचानक फूट पड़ने वाली भगदड़ से बड़े हादसों का शिकार हो रहे ...
भगदड़ में बदलते धार्मिक मेले
प्रमोद भार्गव
देश के धर्म स्थलों पर लगने वाले मेले अचानक फूट पड़ने वाली भगदड़ से बड़े हादसों का शिकार हो रहे हैं। मध्यप्रदेश के दतिया जिले के प्रसिद्ध रतनगढ़ माता मंदिर में नवमीं पूजा के दौरान आस्था के सैलाब में पुल टूटने की अफवाह से मची भगदड़ से 115 लोग मारे गए और करीब 200 घायल हैं। इसी मंदिर में 3 अक्टूबर 2006 को इसी शारदेय नवरात्रि की पूजा के दौरान 49 श्रद्धालु मारे गए थे। यह हादसा शिवपुरी के मणीखेड़ा बांध से बिना किसी पूर्व सूचना के सिंध नदी में पानी छोड़ देने के कारण घटा था। बावजूद शासन-प्रशासन ने कोई सबक नहीं लिया। भीड़ प्रबंधन के कौशल में प्रशासन - तंत्र न केवल अक्षम साबित हुआ, बल्कि उसकी अकुशलता के चलते किए गए पुलिस लाठीचार्ज से मेला हादसे की शक्ल में बदल गया। अब प्रशासन इस पूरे मामले को श्रद्धालुओं द्वारा फैलाई अफवाह को हादसे का आधार बताकर खुद की गलतियों पर पर्दा डालने में लगा है।
भारत में धार्मिक यात्राओं के दौरान हादसों का घटना अब आमफहम हो गया है। उत्तराखण्ड इसी यात्रा की त्रासदी थी। इससे पहले इसी साल फरवरी माह में इलाहाबाद के कुंभ मेले में बड़ा हादसा हुआ था, जिसमें 36 लोग मारे गए थे। मथुरा के बरसाना और देवघर के श्री ठाकुर आश्रम में मची भगदड़ से लगभग एक दर्जन श्रद्धालु मारे गए थे। करीब दो साल पहले विश्व में शांति और सद्भावना की स्थापना के उद्देश्य से हरिद्वार में गायत्री परिवार द्वारा आयोजित यज्ञ में दम घुटने से 20 लोगों के प्राणों की आहुति लग गई थी। महज भगदड़ से अब तक पौने दो हजार से भी ज्यादा भक्त मारे जा चुके हैं। बावजूद लोग हैं कि दर्शन, श्रद्धा, पूजा और भक्ति से यह अर्थ निकालने में लगे हैं कि इनको संपन्न करने से इस जन्म में किए पाप धुल जाएंगे, मोक्ष मिल जाएगा और परलोक भी सुधर जाएगा। गोया, पुनर्जन्म हुआ भी तो श्रेष्ठ वर्ण में होने के साथ समृद्ध व वैभवशाली भी होगा।
देश में हर प्रमुख धार्मिक आयोजन छोटे-बड़े हादसों का शिकार होता रहा है। 1954 में इलाहाबाद में संपन्न हुए कुंभ मेले में एकाएक गुस्साये हाथियों ने इतनी भगदड़ मचाई कि एक साथ 800 श्रद्धालु काल-कवलित हो गए थे। धर्म स्थलों पर मची भगदड़ से हुई यह सबसे बड़ी घटना है। सतारा के मांधर देवी मंदिर में मची भगदड़ में भी 300 से ज्यादा लोग काल के गाल में समा गए थे। केरल के सबरीवाला मंदिर, जोधपुर के चामुण्डा देवी मंदिर, गुना के करीला देवी मंदिर और प्रतापगढ़ के कृपालू महाराज आश्रम में भी मची भगदड़ों में सैंकड़ों लोग मारे मारे जा चुके हैं।
भारत में पिछले डेढ़ दशक के दौरान मंदिरों और अन्य धार्मिक आयोजनों में उम्मीद से कई गुना ज्यादा भीड़ उमड़ रही है। जिसके चलते दर्शनलाभ की जल्दबाजी व कुप्रबंधन से उपजने वाले भगदड़ों का सिलसिला जारी है। धर्म स्थल हमें इस बात के लिए प्रेरित करते हैं कि हम कम से शालीनता और आत्मानुशासन का परिचय दें। किंतु इस बात की परवाह आयोजकों और प्रशासनिक अधिकारियों को नहीं होती। इसलिए उनकी जो सजगता घटना के पूर्व सामने आनी चाहिए, वह अकसर देखने में नहीं आती। रतनगढ़ हादसे की पुरनरावृत्ति भी इसी सोच का नतीजा है। लिहाजा आजादी के बाद से ही राजनीतिक और प्रशासनिक तंत्र उस अनियंत्रित स्थिति को काबू करने की कोशिश में लगा रहता है, जिसे वह समय पर नियंत्रित करने की कोशिश करता तो हालात कमोबेश बेकाबू ही नहीं होते। रतनगढ़ मेला पूर्व नियोजित था, बावजूद दतिया कलेक्टर संकेत भोंडवे छुट्टी पर थे और आयुक्त ग्वालियर केके खरे विदेश गये हैं। इस लिहाज से दतिया विधायक और कैबिनेट मंत्री नरोत्तम मिश्रा कह रहे हैं कि प्रशासन से चूक हुई है और लापरवाही बरती गई है, तो यह बात सत्य के निकट है।
हमारे धार्मिक-आध्यात्मिक आयोजन विराट रुप लेते जा रहे हैं। इलाहाबाद कुंभ में मौनी अमावस्या के दिन करीब तीन करोड़ लोग जुटे थे। उत्तरप्रदेश सरकार को इतने ही लोगों के जुटने की उम्मीद थी। किंतु इस अनुपात में यातायात और सुरक्षा के इंतजाम नहीं थे। कमोवेश यही स्थिति रतनगढ़ में बनी। जिला प्रशासन का पहले ही आकलन था कि चार लाख लोग देवी दर्शन को पहुंचेंगे, लेकिन सुरक्षा का भरोसा सिर्फ पुलिस और होमगार्ड के 60 जवानों पर छोड़ दिया गया। ये लोग भी भीड़ का नेतृत्व करने में अप्रशिक्षित और अकुशल थे, जाहिर है जब पुल टूटने की अफवाह फैली तो इनहोंने भीड़ के विवेक को संयम में बांधने की कोशिश करने की बजाय अफरा-तफरी मची तो लाठियां बरसाना शुरु कर दीं। नतीजतन भीड़ बेकाबू हो गई और बड़ा हादसा घट गया। बताया तो यहां तक जा रहा है कि पुलिस ने वाहनों से अवैध वसूली कि और उन्हें नदी के तट तक आने दिया, जो भीड़ का जमावड़ा पुल पर हो जाने की मुख्य वजह बनी। दरअसल, कुंभ या अन्य मेलों में जितनी भीड़ पहुंचती है और उसके प्रबंधन के लिए जिस प्रबंध कौशल की जरुरत होती है, उसकी दूसरे देशों के लोग कल्पना भी नहीं कर सकते ? इसलिए हमारे यहां लगने वाले मेलों के प्रबंधन की सीख हम विदेशी साहित्य और प्रशिक्षण से नहीं ले सकते ? क्योंकि दुनिया किसी अन्य देश में किसी एक दिन और विषेश मुहूर्त के समय तीन करोड़ की जुटने की उम्मीद की नहीं जा सकती। बावजूद हमारे नौकरशाह भीड़ प्रबंधन का प्रशिक्षण लेने खासतौर से योरुपीय देशों में जाते है। प्रबंधन के ऐसे प्रशिक्षण विदेशी सैर-सपाटे के बहाने हैं, इनका वास्तविकता से कोई संबंध नहीं होता।
प्रशासन के साथ हमारे राजनेता, उद्योगपति, फिल्मी सितारे और आला अधिकारी भी धार्मिक लाभ लेने की होड़ में व्यवस्था को भंग करने का काम करते हैं। इनकी वीआईपी व्यवस्था और यज्ञ कुण्ड अथवा मंदिरों में मूर्तिस्थल तक ही हर हाल में पहुंचने की रुढ़ मनोदशा, मौजूदा प्रबंधन को लाचार बनाने का काम करती है। नतीजतन भीड़ ठसाठस के हालात में आ जाती है। ऐसे में कोई महिला या बच्चा गिरकर अनजाने में भीड़ के पैरों तले रौंद दिया जाता है और भगदड़ मच जाती है। कभी-कभी गहने हथियाने के नजरिए से भी बदमाश ऐसे हादसों को अंजाम देने का षड्यंत्र रचते हैं।
धार्मिक स्थलों पर भीड़ की आमद करने का काम मीडिया भी कर रहा है। इलेक्ट्रोनिक मीडिया टीआरपी के लालच में इसमें अहम् भूमिका निभा रहा है। वह हरेक छोटे बड़े मंदिर के दर्शन को चमत्कारिक लाभ से जोड़कर देश के भोले-भाले भक्तगणों से एक तरह का छल कर रहा है। इस मीडिया के अस्तित्व में आने के बाद धर्म के क्षेत्र में कर्मकाण्ड और पाखण्ड का आंडबर जितना बड़ा है, उतना पहले कभी देखने में नहीं आया। निर्मल बाबा, कृपालू महाराज और आशाराम बापू जैसे संतों का महिमामंडन इसी मीडिया ने किया है। हालांकि यही मीडिया पाखण्ड के सार्वजनिक खुलासे के बाद मूर्तिभंजक की भूमिका में भी खड़ा हो जाता है। निर्मल बाबा और आशाराम के साथ यही हुआ। मीडिया का यही नाट्य रुपांतरण अलौकिक कलावाद, धार्मिक आस्था के बहाने व्यक्ति को निष्क्रिय व अंधविश्वासी बनाता है। यही भावना मानवीय मसलों को यथास्थिति में बनाए रखने का काम करती है और हम ईश्वरीय अथवा भाग्य आधारित अवधारणा को प्रतिफल व नियति का कारक मानने लग जाते हैं। दरअसल मीडिया, राजनेता और बुद्धिजीवियों का काम लोगों को जागरुक बनाने का है, लेकिन निजी लाभ का मारा मीडिया धर्मभीरु राजनेता और धर्म की आतंरिक आध्यत्मिकता से अज्ञान बुद्धिजीवी भी धर्म के छद्म का शिकार होते दिखाई देते हैं। जाहिर है धार्मिक हादसों से छुटकारा पाने की कोई उम्मीद निकट भविष्य में दिखाई नहीं दे रही। लिहाजा हादसों का सिलसिला फिलहाल टूटता दिखाई नहीं देता।
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प्रमोद भार्गव
लेखक/पत्रकार
शब्दार्थ 49,श्रीराम कॉलोनी
शिवपुरी म․प्र․
मो․ 09425488224
फोन 07492 232007
लेखक प्रिंट और इलेक्ट्रोनिक मीडिया से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार है।
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