रामदीन ‘‘ अर्द्धसत्य '' ‘ क्या होगा ' बोलें सत्य वकील सभी तो, न्यायालय का क्या होगा ॥? कर्णधार बेईमान नहीं तो, देश का...
रामदीन
‘‘अर्द्धसत्य''
‘क्या होगा'
बोलें सत्य वकील सभी तो, न्यायालय का क्या होगा ॥?
कर्णधार बेईमान नहीं तो, देश का आलम क्या होगा ॥?
गुंडे यदि सब पकड़े जायें, पुलिस का आलम क्या होगा ॥ ?
न्याय मिल गया यदि किसान को, गाँव का आलम क्या होगा ॥?
पुष्टाहार यदि बंद हो गया, बटवारे का क्या होगा॥?
अध्यापक यदि सिर्फ पढ़ाये, अक्षर ज्ञान का क्या होगा ॥?
अफसर कर लें मौका मुआयना, लैप्स बजट का क्या होगा ॥?
दूध पियें जहाँ पत्थर मूर्ति, बच्चों का फिर क्या होगा ॥?
चोर पुलिस यदि एक हो गये, बाजारों का क्या होगा॥?
सही हिसाब रखें लालाजी, टैक्स भवन का क्या होगा॥?
सत्य अगर बोलेंगें सब जन, झूठ बेचारे का क्या होगा ॥?
अगर सभी जन पीना छोड़ें, मयखाने का क्या होगा॥?
बाल ब्रहम्चारी सब हो गये, तो जनसंख्या का क्या होगा॥?
अगर सभी हो गये नपुंषक, सीमा पर फिर क्या होगा॥?
ढपली अपनी सभी बजायें, राग तुम्हारा क्या होगा॥?
सभी गरीबी यदि मिट जायें, अगले बजट का क्या होगा॥?
बिना बज के बिना दलाली, सत्ता का फिर क्या होगा॥?
सबको रोटी यदि मिल जाये, फूड विधेयक क्या होगा॥?
-रामदीन
जे-431,इन्द्रलोक कालोनी,
कृष्णानगर कानपुर रोड लखनऊ
मो0ः 9412530473
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जसबीर चावला
अखबार
ंंंंंंंंंंंंंंंंंंं
मुझे तो खाना ही है
चाहे जो परोसो
अख़बार के पन्ने पर
पूर्वाग्रह ग्रसित / एक पक्षीय
धर्म परोसो चाहे गॉसिप
रूढ़ियां / नफरत / पाखंड / चमचागिरी
धंधा परोसो
अख़बर को खबर बनाओ
खबर को अख़बर
सामाजिक सरोकारों से विरक्त रहो
तिल का ताड़ / ताड़ को तिल
दरी के नीचे छुपाओ
अफ़वाहें / कानाफूसी
जो मन आये परोसो
जानते हो
भाग नहीं सकता
दूसरे / तीसरे / चौथे ढाबे
वहां भी यही परोसा है
यही मालिक / बंधुआ रसोईये संपादक
हजूरिये संवाददाता
बेस्वाद / सारहीन / विचार शून्यता
कितनी बार बगावत
मन से
न खाने की / उपवास करूँ
कब तक
सब भकोस रहे
फ़ास्ट फुड
रंगबिरंगा अखबारी हिंगलिश खाना
चर्चे / चटखारे लेकर
यही नियति है
यही खाना / पढ़ना / चटखारों में जीना
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राजनीितक आकाश
ंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंं
वे ख़ुश हैं
अख़बार में नहीं देखते
कब होता है
सूर्योदय -'सनराइज़'
क्यों देखें
उनके सारे सन राइज़ कर रहे हैं
राजनीतिक आकाश में
और वे दुखी हैं
अप सेट हैं
उनके सारे पुत्र
राजनीति में फिसड्डी
ढलते सूरज
'सनसेट'हैं
------.
अब्दुल हमीद
ंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंं
पिछले दंगे में जो शख्स मरा
अब्दुल हमीद ही था
उसके पिछले
और उसके पिछले में भी
अब्दुल हमीद ही था
अब के जो मरा
अब्दुल हमीद ही था
खुदा की मार मुझ पर
क्या बयां करूं
अगली बार मरेगा जो शख्स
तो लिखा जायेगा
अब्दुल हमीद ही था
ओर मरेगा उस अब्दुल हमीद के बाद वाला
कहेंगे
अब्दुल हमीद ही था
*
अब्दुल हमीद
को तो मरना है बार बार
जब तक है अब्दुल हमीद
और उसका नाम
बदलेगा वह
फिर हम कह सकेंगे
शान से
बदला है जिस शख्स ने
नाम / ईमान अपना
दरअसल वह कोई और नहीं
अब्दुल हमीद ही था
-------------.
संत बनाम अदालत
ंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंं
बड़ा संत
बड़ा वक़ील
ऊंची अदालत
बड़ी दलील
बार बार
नई अपील
उड़ी फ़ाख्ता
मिंया ख़लील
लौटे बुद्धु
हुए ज़लील
-------------..
अकाल मृत्यु
ंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंं
कुछ पैदा होते हैं
असमय
झरने के लिये
ओर कहीं
विचार
जन्म / समय से पहले
मरने के लिये
----------.
स्खलन
ंंंंंंंंंंंंंंंं
स्खलन तो
स्खलन है
चाहे भू का हो
हिम का
धर्म का हो
आश्रमों में हो
या
स्खलन हो
विचारों का
-------.
कल और आज
ंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंं
कल
खंडहर बतलाते हैं
इमारत बुलंद थी
आज
मलवा बतलाता है
इमारत भ्रष्ट थी
------.
ब्लेक होल के किनारे
ंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंं
जिसे देखा न गया
पर माना गया
ब्लेक होल का सिधांत
अंतरिक्ष / ब्रह्मांण्ड में
पहुँच गये अगर
उसके मुहाने
गुरुत्वाकर्षण से
खिंचे चले जायेंगे पैर पहले
फिर बदन / सिर
खिंचेगा शरीर
खंड खंड बँटेगा
समर्पित होगा
समा जायेगा
ब्लेक होल की
अनंत गहराईयों में
सदा सदा के लिये
--------.
लकड़हारे कभी नहीं लौटे थे
ंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंं
उन्होंने सीखा है
जन्मना
बस नापना / काटना
फाड़ना / टुकड़ों में बाँटना
आिदम प्रवृित्त / आदिम कबीले
उनकी फ़ितरत / शोहरत / राजनीतिक वृत्ति
हांका
हडिम्बा हो
जंगल नहीं रहे
लकड़ी का अकाल
तो क्या
टोटा कहां
मनुष्यों का
-----------.
घात प्रतिघात
ंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंं
क्रिया की प्रतिक्रिया
प्रतिक्रिया भी अंततः
क्रिया होती है
फिर उसकी प्रतिक्रिया
पुनःक्रिया
आदि से अंत
अंत से अनंत
निरंतर
यही प्रक्रिया होती है
कब होगी ख़त्म
यह क्रिया प्रतिक्रिया
यह दास्ताँ
टूटेंगीं श्रंखला
जुड़ेगीं कड़ियाँ
सहज जीवन की
----------.
कछुआ और खरगोश
ंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंं
कछुए
आज भी दौड़ रहे
कछुआ चाल से
उनकी संतति भी
जो साथ दौड़े
वे भी कछुए हैं
कछुए ही रहेंगे
०
उधर खरगोश
दौड़ में शामिल ही नहीं हुए
फिर भी जीते
दौड़ नहीं / हर प्रतियोगिता / क्षेत्र
बिना योग्यता / भाग लिये
आगे रहे / रहेंगेनेता पुत्र जो हैं
---------------------
संजय बोरुडे
बनो तो इन्सान ।
कहां से से आये हैं ?ये बेतुके लोग ।
एक नया रोग । साथ लिये ।।१।।
कहीं भी पावोगे । इनके निशान ।
बेच के ईमान । फ़ैले हुये ।।२।
नहीं जानते ये । कोई माता पिता ।
पैसों से ही रिश्ता । रखते हैं ।।३।।
हर चौराहे पे । इनकी तस्वीरे ।
बेशर्म चेहरे । इश्तिहार ।।४।।
राजनीति से ही । चलाते ही काम ।
वाम मार्ग नाम । जपते हैं।।५।।
भेजे का नहीं । कोई आता पता ।
इनकी लपता ।आत्मा तक ।।६।।
ऐसे घिनौनों से ।गंदा है शहर ।
जिंदगी जहर । बन गयी ।।७।।
कोई तो ये सोचो । क्या होगा देश का?
क्या होगा होश का ? सोचो जरा ।।८।।
आपस में रखो ।यारों मेलजोल ।
एकी अनमोल । जान लेना ।|९। |
ऐसी गंदगी को ।मिटाना ही होगा ।
निभाना ही होगा । फर्ज यारों ।।१०।।
उखाड के फ़ेंको ।ऐसी प्रजाति को ।
नेकी की बस्ती को । बचाव भी ।।११।।
न बनो ईश्वर । न बानो हैवान ।
बानो तो इन्सान ।सिर्फ यारों ।।१२।।
@@@@
-- संजय बोरुडे ,
२०४,मुला,शासकीय निवासस्थाने,
डी .एस.पी .चौक,अहमदनगर,महाराष्ट्र ।४१४००१।
फोन-०९३७२५६०५१८,०९४०५०००२८०।
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--
मनोज 'आजिज़'
दुर्गा दुर्गति नाशिनी
आयें हम सब मिलकर पूजें
आदि दुर्गा मातृ को
सिंह वाहिनी, दुर्गति नाशिनी
अतुल शक्ति दात्री को ।
दिव्य होवें हम, प्रखर होवें हम
अज्ञान, अवगुण नाश करें
सदाचार को ग्रहण कर हम
पूण्य लोक में वास करें ।
धन-धान्य से पूर्ण हों सब
सुख-शांति मन में हो
शुभ चिंतन का भाव हमेशा
विश्व भर के जन में हो ।
नव-दुर्गा नव-रस से भर दे
जीवन-कलश में अमृत हो
राग-विराग, हिंसा-द्वेष का
भाव कभी न जागृत हो ।
पता-- इच्छापुर, ग्वालापारा , पोस्ट-- आर आई टी।, आदित्यपुर-२, जमशेदपुर -१३
फोन-- 09973680146
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यतीन्द्र नाथ चतुर्वेदी
मर गया : रावण !
हर साल जलाया जाता
मरता जाता
जलता जाता
फिर आ जाता
रावण सदियों से
फिर भी बचता आता
नगरों के जंगल में
आज भी सीता-हरण हो रहा
कितने जटायु मारे जाते
कितनी लक्ष्मण-रेखा
मिटती जाती।
जितने रावण पैदा होंगे
उतने राम सदा जन्मेंगे
यह भी अमृत ढीठ बड़ा
श्रोत सूख-सूख फिर फूट रहा
व्याकुल राम न विचलित होंगे|
राम प्रतिज्ञा में हथप्रभ
सारे रावण ढूंढ रहे।
पग पग रावण पनप रहा
राम भरोसा बोते जाते।
चलो आज सारे रावण
अपने हिस्से का
राम पा गए।
[यतीन्द्र नाथ चतुर्वेदी]
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विजय वर्मा
काँटों की ज़िद
काँटों का तो काम ही है
उन्निंदों को जगाना ,
खो न जाएं खुश्बुवों में
है बस इतना बतलाना ।
गुलों की तो खैर
सारी दुनियाँ मुरीद है,
पर काँटों की भी अपनी
एक अज़ब जिद है ।
हम कांटें तो गफ़लत में
सोये हुए को जगायेंगे ,
चाहे पुचकारे जाएँ या
दुत्कारे जाएंगे .
हमें मधुर -वचन और
स्नेहिल-स्पर्श की चाह नहीं है।
चुभना जरुरी है तो चुभेंगे
मान मिले या मज़म्मत
इसकी परवाह नहीं है।
फूल बनकर तो जी लेते है सभी
काँटा बनकर जीना आसान नहीं है।
क्या कहिये काँटों का ,उन्हें
मखमली राहों का अरमान नहीं है ।
काँटों ने ज़ख्म दिए है तो
ज़ख्म खाएं भी है,
औरो को झकझोरा है तो
खुद को आजमाए भी है।
दिए हो या फिर लिए हो
काँटा ज़ख्मों को गिनता नहीं है,
काँटा होने का एक फायदा भी है,
उसे सूख जाने की चिंता नहीं है. .
--
v k verma,sr.chemist,D.V.C.,BTPS
BOKARO THERMAL,BOKARO
vijayvermavijay560@gmail.com
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शंकर लाल
हास्य व्यंग्य कविता - गिरने का दौर
सुबह-सुबह अखबार को देखकर
मैं इतना घबराया
की मेरा सिर मेरे हाथों में चला आया |
मेरी ये हालत देखकर
पत्नी जी बोली, हाय दय्या
अखबार में ऐसा क्या लिखा है ?
की आपका चेहरा
सुर्ख लाल से पीला हो गया
हमने बतलाया इसमें लिखा है
रुपया और नीचे गिर गया |
इतना सुनते ही वो जोर से चिल्लायी
और घर से एक झोला उठा लाई
हमने पूछा ये क्या है भाई
वो बोली आप ही ने तो बोला है
रुपया और नीचे गिर गया
चलो चलो हम जल्दी से जाते है
गिरे हुए रुपयों का
एक झोला भर ले लाते है
और अपनी गरीबी मिटाते है
कितने रूखे हो गए है रुखा खाते खाते
चलो अब हम भी घी खाते है
एक नई ड्रेस बेटी बबली को भी दिलाते है
वैसे भी अपनी हालत है बहुत कड़की
पिछले कई साल से मेरे बदन पर
एक भी नई साडी नहीं भड़की |
मैं कुछ समझता इससे पहले ही वो बोली
अब जल्दी से चलो, वरना
दूसरे लोग रूपये लेकर चले जायेंगे
और आप पिछले साल की तरह
फिर से अगले साल साडी दिलाऊंगा
के आश्वासन देने लग जायेगे |
मैंने उसका हाथ पकड़ कर
बगल में बिठाया और समझाया
रुपया कहीं पर नहीं गिरा है
बल्कि, रूपये का मोल गिर गया है
सुनते ही उसने सवाल उठाया
मतलब ?
मैंने फिर से समझाया
डॉलर आसमान छू गया है
इसलिए अब, एक रूपये का मोल
बारह आने हो गया है
इस पर वो बोली आप भी गजब ढहाते है ं
रूपये का मोल गिर गया है कह कर
चार आना खुद ही मार लेना चाहते है
अब हमारी समझ में आ रहा है
घर का बजट क्यों बिगड़ता जा रहा है
क्योंकि रूपये में से चार आना तो
घर वाला ही गटक जा रहा है |
सुनते ही मुझे बहुत गुस्सा आया
मैंने कहा,
तुम मुझ पर झूठा इल्जाम लगा रही हो
खामखां मुझे चोर बता रही हो
मैं अब और नहीं सहूँगा
कल ही तुम्हारे खिलाफ मुकदमा दायर करूँगा |
इतना सुनते ही, उसने चंडी का रूप धर लिया
और ये ऐलान कर दिया
अब से मैं ही बाजार करने जाऊँगी
तुम जैसे चोर से कभी कोई समान नहीं मंगवाउंगी |
मैंने ने सोचा,
चलो हमेशा की लिये बला टल गयी
क्योंकि बीबी झोला लेकर बाजार को चली गयी |
मैंने अखबार का दूसरा पन्ना उठाया
लिखा था न्यायालय ने ऐतिहासिक फैसला सुनाया
चोर, गुंडों और अपराधियों को
चुनाव नहीं लड़ने दिया जायेगा
मैंने कहा अब तो जरुर सतयुग आएगा
कोई ईमानदार व्यक्ति ही देश को चलाएगा
मगर अगली ही खबर से
मेरी सारी खुशी काफूर हो गयी
क्योंकि लिखा था
दागियों को बचाने वाले नए कानून की
संसद में ध्वनिमत से मंजूरी हो गयी
इंतना ही नहीं, बकायदा गुंडों के लिए
रिजर्वेशन की घोषणा भी हो गयी
अब गुंडे बहुमत से सरकार बनायेंगे
और न्यायालय को खत्म कर
अपनी मर्जी से लोकतंत्र को चलायेंगे |
अगली खबर देख कर मेरा दिमाग सो गया
क्योंकि कल तक
दुनिया को नैतिकता ओर ब्रह्मचर्य की
शिक्षा देनेवाले वाला एक तथाकथित ब्रह्मज्ञानी
आज बलात्कार के आरोप में अंदर हो गया
देखते ही देखते भक्तों की भीड़ इकट्टा हो गयी
बलात्कार की शिकार महिला
मानसिक रूप से बीमार है
इसकी घोषणा हो गयी
लेकिन जब जाँच आगे बढ़ी
बाबा को पुलिस की सुई छड़ी
तो साधु के वेश में छिपे शैतान की
असलियत उजागर हो गयी
फिर भी लोगो की आँखे नहीं खुली
वो अब भी तैयार है
उस शैतान के लिए चढ़ने को सूली |
लोगो का अंधापन देख कर
मेरी आँखों के सामने अँधेरा छाया
देखकर वाइफ ने तुरंत डाक्टर को बुलाया
डाक्टर एक बड़ा सा सूटकेस ले कर चला आया
वाइफ ने बताया ये सुबह से बहकी बहकी बातें कर रहे है
दिमाग से ठीक नहीं लग रहे है
डाक्टर ने कहा
इसके घुटने का ओपरेशन करना पड़ेगा
तभी इसका दिमाग ठीक से चलेगा
मैंने कहा,
डाक्टर साहब, आप कहा ने पढ़कर आ रहे है
जो दिमाग के लिए घुटने का ओपरेशन बता रहे है
डाक्टर बोला पढ़ने से कोई डाक्टर नहीं बनता है
डाक्टर बनने के लिए बेटा 25 लाख लगता है
सुनते ही श्रीमती के दिमाग में थोड़ी जान आयी
उसने डाक्टर को घर की चौघट दिखाई
ओर एक गर्म चाय की प्याली
मुझे पिलाते हुए बोली हमें माफ़ कर दीजिये
लेकिन क्या करे हर तरफ गिरने का दौर
चल रह है
रूपये का मान गिर रहा है
न्यायालय का सम्मान गिर रहा है
संसद का विश्वास गिर रहा है
आस्था का भगवान गिर रहा है
और तो और
आपकी कविता का ज्ञान भी गिर रहा है
तो सज्जनों इससे पहले की
आपकी नजरों में मेरा मान गिरे
मैं कविता को ख़त्म करने की
इजाजत चाहता हूँ
और अपनी काली जिव्वा को यही विराम लगता हूँ |
..... यही विराम लगता हूँ |
...........शंकर लाल, इंदौर मध्यप्रदेश, 30.09.213
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चन्द्र कान्त बंसल
(1) ग़ज़ल (पता)
टुकड़ा तो तुम्हें कभी मेरे दिल का लगा ही नहीं
लगता है मिले वीराने सदा, पता महफ़िल का लगा ही नहीं
मेरी प्यार की कश्ती सदा है भटकी मझधारों में तूफानों में
भवरों का ही पाया है पता, पता साहिल का लगा ही नहीं
चलते रहे अंजानों से बेखबर और बेखुदी में
राहो की रही खबर पता मंजिल का लगा ही नहीं
कोई नहीं है मेरे क़त्ल का गवाहे चश्म
तभी तो अब तक मेरे पता कातिल का लगा ही नहीं
एक हल्का सा निशान है तेरे चेहरे पर भावों के नीचे
तभी तो एक नज़र में पता तेरे तिल का लगा ही नहीं
(2) ग़ज़ल (बिंदिया)
आसमा का सितारा है तेरे माथे की ये बिंदिया
मेरी कश्ती का किनारा है तेरे माथे की ये बिंदिया
हमारे सिवा कोई देखे तो जलता है यह दिल
नहीं हमको गवारा है तेरे माथे की ये बिंदिया
किसी ने कहा सूरज है गगन में निकलता
हमने तभी सुधारा है तेरे माथे की ये बिंदिया
किसी ने कहा चाँद कहते है किसको
हमने कर दिया इशारा है तेरे माथे की ये बिंदिया
कोई कह उठा क्या है तेरा जीवन, सपना सब कुछ
‘रवि’ ने बेधड़क पुकारा है तेरे माथे की ये बिंदिया
(3) ग़ज़ल (पायल)
लिपटी है गुलाबों में तेरे पाँव की पायल
दिखती है ख्वाबों में तेरे पाँव की पायल
इस पायल को सोहनी ने पहना था जवानी में
धुलती थी चेनाबों में तेरे पाँव की पायल
तेरे झूमके तेरे कजरे पर मिट जायेंगे कुछ दिल
ले लेती है बेहिसाबों में तेरे पाँव की पायल
हम तुम न रहेंगे मगर ये पायल रहेगी
होगी अमर किताबों में तेरे पाँव की पायल
चूमने को जब कभी होंठों से तुमने इसे लगाया
छुप गयी तभी नकाबों में तेरे पाँव की पायल
‘रवि’ देख ले इनको तो शराबी हो जाये
डूबी है क्या शराबों में तेरे पाँव की पायल
(4) ग़ज़ल (मांग)
इक रात के लिए ही बस अपना ख्वाब दे दो
कुछ तो कहो न चुप रहो अपना जवाब दे दो
कल दिया था जिसमे छुपा कर प्रेमपत्र तुमको
लाओ हमें तुम आज वापस वो ही किताब दे दो
इश्क में सोहनी ने माहि को पंजाब था दे डाला
हुइ तकरार तो कहा था लाओ मेरी चिनाब दे दो
जुदाई के गम में हम मैखाने नहीं जायेंगे
कह देंगे जानेजां की आँखों की शराब दे दो
परवाने तुम जलने को शमा क्यों ढूढते हो
कोई इनको उसका चेहरा ए आफताब दे दो
मेरे दिल में अब जख्मों की कोई जगह नहीं है
हुए जख्म कितने ए चारसाज तुम इसका हिसाब दे दो (चारसाज- चिकित्सक)
वो देखो मेरी जानम बेपर्दा हो जा रही है
ठहरो ए हसीनो जरा उसको नकाब दे दो
(5) ग़ज़ल (जुल्फें)
करती है तेरे चेहरे से अठखेलियाँ जुल्फें
तेरी है प्यारी प्यारी ये सहेलियाँ जुल्फें
दिल लिया करते दिल हुई बात पुरानी
देखो अब तो करती है दिल ले लिया जुल्फें
हमने जो छुआ तुनके उनको न कुछ कहा
दिन रात लबो से जो करे रंगरेलियाँ जुल्फें
कभी न देखा हमने उनके साथ किसी को
देखी तो बस पायल या अकेली या जुल्फें
हुए है कई बार शराबी उनको देखे से
शक सा है इस दिल में वो आँखे थी या जुल्फें
जब कभी भी देखा तो टोक दिया गया ‘रवि’
जबकि हर लम्हा झुमके को छूने दिया जुल्फें
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प्रमोद कुमार सतीश
आज की हकीकत
ओहदा बढ़ रहा है गद्दारों का
निशां मिट रहा है वफादारों का
तू यहां इंसानियत ढूंढ़ता है
ये शहर नहीं है खुद्दारों का
हर तरफ बिखरी पड़ी हैं लाशें
दौर है जिन्दगी के व्यापारों का
जो भी आता है बिक जाता है यहाँ
अजब रुतबा है खरीदारों का
शोहरत से तय होती है औकात
यही चलन है बाजारों का
शराफत सरेआम होती है नंगी
यहाँ कब्जा है गुनहगारों का
बगावत की बू हवा में उड़ जाती है
कोई हाकिम नहीं है राजदारों का
सियासत की नदी हद भूल बैठी है
सब्र टूट रहा है किनारों का
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विनय कुमार सिंह
‘जज़्बा-ए-ज़िंदगी’
वर्तमान की नीव पर, भविष्य की इमारत बनाना चाहता हूँ
दिल में सजे रूमानी ख्वाबों को, हक़ीकत में देखना चाहता हूँ
मायूसियों की काली रात है, उम्मीद की शमां रौशन करना चाहता हूँ
अफसोस नहीं गुज़रॆ वक़्त पर, फिलहाल ज़िंदगी जीना चाहता हूँ
मायूसियों को गले जो लगा ले, वो रंजूर बनना नहीं चाहता हूँ
ज़िन्दगी के हर मोड़ पर, अपना परचम लहराना चाहता हूँ
चट्टानी हौसलों से हूँ लबरॆज़, पत्थरों से टकराना चाहता हूँ
मुश्किलों से भरी है राह-ए-ज़िंदगी की डगर,
जलते शोलों पे चलना चाहता हूँ
वर्तमान की नीव पर, भविष्य की इमारत बनाना चाहता हूँ
लोगों को ठगना, लूटना मेरॆ उसुलों में नहीं
सच्चाई की ज़िंदगी जीना चाहता हूँ
परवान चढ़ती जा रही हैं मेरी कोशिशें
अब रुकना नहीं चाहता हूँ
विनय बनकर पैदा हुआ, अमर विनय बनकर मरना चाहता हूँ
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हास्य काव्य -
काव्य- 1(महँगाई)
मेरे मित्र के घर इनकम् टैक्स का छापा पड गया
मैंने मित्र से पूछा- यार
तू कँगाल गरीब आदमी
तेरे यहाँ छापा क्यूँ पडा?
तेरा पास काहे की सम्पत्ति है!
मित्र बोला- संपत्ति काहे की यार "बस पाँच किलो प्याज थे!"
काव्य- 2(शॉपिंग)
एक शॉपिंग माल में हमें प्यार हो गया
यूँ हीं आते जाते इकरार
हो गया
शॉपिंग की लत इतनी थी उन्हे क्या बताऊँ यार
शॉपिंग कराके प्यार में
कंगाल हो गया
कवि~ विनय 'भारत'
दशहरा मैदान,गंगापुर सिटी
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राधेश्याम भारतीय'
अजन्मी बेटी की पुकार
अजन्मी बेटी ने की पुकार
हे माँ ,तू दयामयी, तू क्षमामयी
तू है एक सच्ची इंसान
फिर क्यों तुली हो करने को
यूं घिनौना अपराध
माँ! याद रखना
तुम्हारी मूक वेदना को
शायद भईया समझ न पाए
पर, मैं तुम्हारे दुखों पर मरहम लगाऊँगी
पिता के लिए बन जाऊंगी बैसाखी
इस जग में नाम तुम्हारा
दूर तलक चमकाऊँगी
हे माँ !
पड़ा है जो अंकुर
उसको खिल जाने दे
इस स्वर्ग-सी धरती पर
मुझको भी आने दे
पेड़
इनमें ताल, इनमें लय, इनमें गीत-संगीत है
इनपे ही बने घरौंदे ,ये परिन्दों के मीत हैं
प्राण-वायु सदा लुटाते, ये ही तो इनकी रीत है
जान-ए-खतरा प्रदूषण भी इनसे ही भयभीत है।
प्रकृति का संतुलन इनसे, इनसे धरती का श्रृंगार है
नदियों का अस्तित्व इनसे ,इनसे ही होता जनकल्याण
मिट्टी की उर्वरता इनसे, इनसे ही कण-कण मे जान है
जो भी आया शरण में इनकी ,उनका हुआ उद्धार है।
सदा लुटाते बदले में कुछ न पाते ऐसे हैं ये दानी
घातक किरणों से सदा बचावे ,है न कोई इनका सानी
हिमखंड जो आज बचे है वो इनकी है मेहरबानी
इनके बिन सब यज्ञ अधूरे, ये स्वयं रहे कल्याणी
देवतुल्य पेड़ काट रहे, हे मानव, ये कैसी तेरी नादानी
अगली पीढ़ी चाहेगी शुद्धवायु, क्या सुनायेगा उन्हें कहानी
अब भी वक्त है सुधर जा, न कर मनमानी, न बन अज्ञानी
पेड़ लगा धरा को स्वर्ग बना, चलती रहे बस यही कहानी
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मनीस पाण्डेय
छप रहा है रोज के अखबार मेँ।
बिक रही हैँ बेटियाँ बाजार मेँ॥
मुँह अगर खोला तो मारे जाओगे।
सारे आदमखोर हैँ सरकार मेँ॥
जिनको ईश्वर मानते थे भक्तगण।
बापू भी लिप्त थे व्यभिचार मेँ॥
दुश्मनोँ को खुल के जो ललकार दे।
इतनी भी हिम्मत नहीँ सरदार मेँ॥
सिर्फ पुतले ही जलेँगेँ फिर मनीस।
पी के रावण झूमेँगे त्योहार मेँ॥
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Manoj Azij ki Durga Chalisha achhi lgi. Unse aagrah hai ki wo ise surbaddh kren.
जवाब देंहटाएंअच्छे लगे।
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हटाएंपढ़ने का अवसर मिलेगा