हिं दी काव्य में आदिकाल से लेकर आज तक समाज, राजनीति, धर्म संस्कृति आदि में व्याप्त अन्याय-अत्याचार के खिलाफ विद्रोह के स्वर प्रत्यक्ष-अप्रत्...
हिंदी काव्य में आदिकाल से लेकर आज तक समाज, राजनीति, धर्म संस्कृति आदि में व्याप्त अन्याय-अत्याचार के खिलाफ विद्रोह के स्वर प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप में सुने जा सकते हैं, जो किसी भी काव्य धारा के सजीवता के प्रमाण है । आदिकाल में जहाँ विदेशी शासकों के अन्याय-अत्याचार का विरोध किया गया वही भक्तिकाल में संतकवियों ने समाज एवं धर्म में व्याप्त पाखण्ड एवं शोषण का विरोध कर समाज में जागृति एवं एकता प्रस्थापित करने की कोशिश की । वही रीतिकाल में नारी के अंग-प्रत्यंगों के वर्णन के साथ-साथ राष्ट्रीयता एवं देशभक्ति का परचम लहराया गया । समय बीतता गया और यही विद्रोह आधुनिककाल में हिंदी कविता में कभी प्रत्यक्ष तो कभी अप्रत्यक्ष रूप में हमारे सामने आता है । हिंदी काव्य में यह विद्रोह पहले पहल किसी चोले को धारण कर सामने आता था । किन्तु साठोत्तरी काव्य में यही विद्रोह अपनी पूरी प्रखरता एवं नग्नता से सामने आता है । साठोत्तरी विद्रोही कवियों के रूप में हम अनेक नाम गिनवा सकते हैं किन्तु उन सब कवियों में धूमिल अग्रणी रहे हैं, जिनका समस्त व्यक्तित्त्व एवं कृतित्त्व विद्रोह से भरा पड़ा है ।
स्वतंत्रता के १०-१५ वर्षों के उपरान्त भी देश आत्मनिर्भर बनने की अपेक्षा और अधिक समस्यापूर्ण बन गया । आजादी को लेकर भारतीयों ने जो सपने देखे थे वे सपने ही रह गये और सभी आशा आकांक्षाएँ समाप्त हो गई, जिसके कारण साठोत्तरी काव्य में मोहभंग का स्वर सुनाई देता है । मोहभंग का वर्णन करते हुए धूमिल अपनी विद्रोही भाषा में लिखते हैं -
‘‘क्या आजादी सिर्फ थके हुए रंगों का नाम है ।
जिन्हें एक पहिया ढोता है
या इसका कोई खास मतलब होता है ।’’१
आजादी से आम जनता का मोहभंग हो चुका था । ‘‘आजादी के कुछ वर्षों बाद का साहित्य मोहभंग का साहित्य है । गांधी की हत्या वास्तव में जनाकांक्षा की हत्या थी । गांधी के बाद भारतीय जनता के सपने बिखर गये । सन् १९६० के बाद की हिंदी कविता में भारत लोकतंत्र की अव्यवस्था, असमानता, उत्पीड़न, लोलूपता, पाखंड और अहंकार आदि के हजारों चित्र मिलेंगे।’’२
सन् साठ के बाद भारतीय जनता में निराशा की भावना बढ़ने लगी थी । समाज एवं राजनीति में चारों और हाहाकार मचा हुआ था । आम आदमी गरीबी, महंगाई आदि अनेक कारणों से शोषण की चक्की में पिसा जा रहा था । जिसके कारण जनमानस विचलित हो गया था । राजनीति के मूल्य विघटन ने भाई-भतीजावाद एवं कुर्सीवाद को प्रोत्साहन दिया । देश एवं आम आदमी के प्रगति करने की जगह राजनेता, सत्ताधारी अपनी तिजोरियाँ भरने लगे। सन् १९४७ में स्वतंत्रता के समय भारत-पाक बटवारा, शरणार्थियों की समस्या, सन् १९६२ में चीन से युद्ध, १९६५ और १९७१ में पाकिस्तान से हुए युद्धों के कारण भारत की आर्थिक स्थिति और दयनीय बनती गई । इन तीनों युद्धों ने भारत को एक महत्त्वपूर्ण सबक सिखलाया और हमारी अनेक कमजोरियों हमें अवगत कराया । वही दूसरी ओर राजनीतिक भ्रष्टाचार, सामाजिक कुरीतियाँ, पाखण्ड अंधश्रद्धा, उँच-नीच आदि के कारण देश में अराजकता की स्थिति उत्पन्न हो गई थी । चुनाव जीतने के समस्त नारे कुर्सी हथियाने के बाद खोखले साबीत हुए । इन परिस्थितियों ने युवा पीढ़ी में कुंठा, निराशा, विद्रोह और आक्रोश को भर दिया । जिसके साक्षात्कार हमें साठोत्तरी काव्य में होते हैं । ‘‘नई कविता में युगीन पीड़ा तो थी किन्तु विद्रोह और आक्रोश की बहुलता नहीं थी । उसमें आशा-आकांक्षा की किरण थी, जबकि साठोत्तरी कविता में सामाजिक, राजनीतिक विसंगतियों के साथ-साथ विद्रोह और आक्रोश का स्वर ही प्रमुख है । मोहभंग की स्थिति ने इन युवा कवियों को विद्रोह की ओर उन्मुख किया जिसके परिणामस्वरूप उनके काव्य में सपाटबयानी, अस्वीकृति, कुंठा, हताशा, निराशा, अनास्था और व्यंग्य का स्वर व्यंजित होने लगा ।’’
आजादी के बाद राजनीतिक, सामाजिक आदि मूल्यों का नाश हुआ । आम आदमी ने सब स्थितियों को झेला था, इसीलिए वह इन स्थितियों में परिवर्तन चाहता था । किन्तु ऐसा कुछ नहीं हुआ । परिणामस्वरूप आम आदमी के मन में इन सब स्थितियों के खिलाफ विद्रोह पनपने लगा जिसकी प्रखर अभिव्यक्ति साठोत्तरी काव्य में नजर आती है ।
धूमिल शोषकों के विरोधी और शोषितों के पक्षधर थे । इसीलिए धूमिल अपनी हर दूसरी कविता में विद्रोही स्वर में क्रान्ति का राग अलापते नजर आते हैं ।
‘‘इसीलिए मैं फिर कहता हूँ कि हर हाल में
गीली मिट्टी की तरह हाँ-हाँ मत करों
तनो/अकड़ों
अमरबेली की तरह मत जीयों
यह दुनिया बदल रही है / जड़ पकड़ों ।’’४
धूमिल इस भ्रष्ट व्यवस्था के खिलाफ क्रान्ति कर समाज में समानता प्रस्थापित करना चाहते थे । धूमिल के क्रान्तिकारी विचारों पर प्रकाश डालने के पश्चात डॉ. काले लिखते हैं - ‘‘क्रांति के लिए यह भी आवश्यक है कि लोगों को उनकी दुरावस्था से परिचित करवाया जाए लोगों को कुव्यवस्था के विरूद्ध खड़ा किया जाए । क्रान्ति के लिए मानसिक तैयारी और संगठन परमावश्यक है । कवि अपनी कविता के माध्यम से वैचारिक परिवर्तन की भूमिका तैयार करता है ।
साठोत्तरी कवियों में सामाजिक, राजनीतिक, शैक्षणिक, आर्थिक सांस्कृतिक, धार्मिक आदि क्षेत्रों में व्याप्त अन्याय अत्याचार के खिलाफ विद्रोह का स्वर बुलंद करनेवाले धूमिल प्रमुख कवि रहे हैं । धूमिल ने अपने काव्य में शोषकों को बेनकाब कर उनके शोषण वृत्ति का विरोध किया । आम आदमी में एकता प्रस्थापित कर भ्रष्ट व्यवस्था के खिलाफ आवाज उठाने की प्रेरणा दी । धूमिल के काव्य में आम आदमी की दयनीय स्थिति को देख डॉ. मिश्र लिखते हैं - ‘‘प्रजातंत्रीय माहौल में आए परिवर्तन ने जैसे जिन्दगी के स्वत्व को ही निगल लिया है। जिसके अभाव में बेहतर परिवर्तन का कोई भी आव्हान विफल होता है । दरअसल धूमिल के काव्य की प्रतिबद्धता जनता को उसकी अपनी शक्ति का परिचय कराने में हैं । साथ ही वह यह भी बताता है कि कैसे प्रजातंत्र की मूल शक्ति होने के बावजूद जनता निस्सहाय एवं विवश शोषण की पीड़ा झेलती है... यथार्थ का भयावह बोध उसे निराश भी करता है, जिसके सबब प्रजातंत्र को वह षड़यंत्र एवं कारागार कहने के लिए विवश होता है ।’’६ धूमिल इसी जनतंत्र को खोखला साबित करते हुए उस पर व्यंग्य कसते हैं ।
‘‘हवा में चमकदार गोल शब्द
फेंक दिया है - जनतंत्र
जिसकी रोज सैकड़ों बार हत्या होती है
और हर बार
वह भेड़ियों की जुबान पर जिन्दा है ।’’७
देश की प्रगति या अधोगति से शोषकों को कुछ मतलब नहीं, मतलब है तो सिर्फ अपनी तिजोरियाँ भरने से । स्वार्थी राजनेताओं के हाथों देश को लूटता देख धूमिल लिखते हैं -
‘‘देश डूबता है तो डूबे
लोग उबते हैं तो उबे’’८
आम आदमी के साथ हो रहे विश्वासघात को देखकर धूमिल को दुःख होता है । आदमी के प्रति धूमिल की संवेदना को देखकर डॉ. मीनाक्षी जोशी लिखती है - ‘‘वे यथार्थ के संवेदनकार भी थे और शिल्प की सृष्टा भी । उनमें आवेश, आक्रोश, अनुभवजन्य सोच एवं उर्जापुर्ण अदम्य साहस था । इसलिए राजनीतिक विचार हो या सामाजिक विसंगति हो सबको उन्होंने इस प्रकार रचा कि विद्रोह में पीड़ा के स्वर सुनाई दे, क्रांति में करूणा प्रकट हो, विसंगति में क्षोभ दिखाई दे तथा जन एवं जनतंत्र में पूरे राष्ट्र की अस्मिता का भाव-राग अभिव्यक्ति हो । धूमिल उसी भाव-राग के तेजस्वी कवि थे ।’’९
आम आदमी के प्रगति की जगह स्वार्थी सत्ताधारी अपना ही विकास करते नजर आते हैं। जिसके कारण राजनीति समाज सेवा का क्षेत्र न रहकर पैसे कमाने का क्षेत्र बन गया है । ऐसी गन्धी राजनीति को देखकर धूमिल को राजनेता और राजनीति से घृणा होती है । धूमिल के काव्य पर दृष्टिक्षेप करने के बाद डॉ. मंजुल उपाध्याय लिखते हैं - ‘‘राजनीति की वर्तमान की वर्तमान स्थितियों से उन्हें घृणा हो चुकी थी क्योंकि कोई भी बुद्धिजीवी वर्तमान स्थितियों से सहमत नहीं हो सकता । फलतः वह क्रांति की बात करने लगता है । संसद से सड़क तक की लड़ाई वह स्वयं लड़ने की चुनौती देता है । प्रांतीय एवं केंद्रीय स्तर पर राजनीतिक स्थिति पर असन्तोष हर स्तर पर है । पूँजीवाद से घृणा, साम्यवाद के प्रति आस्था, क्रान्ति का समर्थन...। परिवेश के प्रति उनके मन में जो स्थायी घृणा थी, वह उनकी कविता को महत्त्वपूर्ण बनाती है ।’’१० धूमिल राजनीति के गिरते स्तर को देखकर राजनीति को संसार की सबसे सुन्दर वेश्या तक कहते हैं । धूमिल के यह शब्द उनके अन्दर छिपे विद्रोह को ही व्यक्त करते हैं ।
धूमिल के काव्य में राजनीतिक विद्रोह के साथ-साथ सामाजिक विद्रोह भी नजर आता है। धूमिल समाज में फैली स्वार्थ वृत्ति का विरोध करते हैं । समाज में हर कोई अपने स्वार्थ के लिए दूसरे का गला काटने के लिए तैयार है । समाज में वह स्वार्थ वृत्ति इतनी बढ़ चुकी है कि पड़ोस में ये रास्ते पर कोई मर रहा हो तब भी कोई उसकी सहायता करने के लिए आगे नहीं आता । एक समय ऐसा भी था कि अगर कोई दुःख में है तो पूरा समाज उसकी मदद करता था किन्तु अब परिस्थितियाँ बदल चुकी हैं उसी की ओर संकेत करते हुए धूमिल कहते हैं -
‘‘वह बहुत पहले की बात है
जब कही, किसी निर्जन में
आदिम पशुता चीखती थी और
सारा नगर चौक पड़ता था मगर अब ।’’११
धूमिल के मन में समाज के प्रति आत्मीयभाव रहा है । समाज में फैली पशुवृत्ति पर धूमिल अपनी लेखनी के माध्यम से प्रहार करते हैं - ‘‘एक जिम्मेदार रचनाकार की तरह वह समाज की पशुप्रवृत्तियों पर सांघिक चोट करता है और कविता की भाषा में अपनी सजग आत्मीयता से इन छदमवेशी पशु आचरणों के पीछे छिपे सामाजिक तथ्यों का उद्घाटन करता है ।’’१२ कवि धूमिल समाज में फैली अनैतिकता एवं दृष्ट प्रवृत्तियों पर प्रहार कर समाज में नैतिक मूल्यों की स्थापना करना चाहते हैं । धूमिल ने समाज एवं राजनीति में व्याप्त ऐसे अनेक चेहरों को बेनकाब किया जो ईमानदारी का चोला पहने हुए थे । धूमिल के काव्य में समाज के हर एक पहलू पर विचार किया गया है । धूमिल के काव्य को खासकर पटकथा को देखकर नेमिचन्द्र जैन लिखते हैं - ‘‘देश की और अपनी ऐसी बेरहम तस्वीर इतनी बेबाकी से उतार सकना एक सार्थक सर्जनात्मक प्रतिभा द्वारा ही सम्भव है और उचित ही यह कविता धूमिल को समकालीन कवियों में एक अलग खाँस और उँचा दर्जा देती है ।... उसमें एक ऐसे कवि का आत्मसाक्षात्कार है जो समाज में बहुत से सूत्रों से जुड़ा है और उसकी हलचल, कशमकश और यातना का सहभागी है ।’’१३ आम आदमी इन दयनीय सामाजिक स्थितियों से बहुत ज्यादा परेशान एवं निराश हो चुका था । इन स्थितियों के जिम्मेदार शोषक वर्ग के खिलाफ वह विद्रोह करना चाहता है किन्तु अन्दर ही अन्दर शोषकों के आतंक से डरता भी है । आम आदमी के इसी विद्रोह को धूमिल कुछ इस तरह वाणी देते हैं -
‘‘यद्यपि यह सही है कि मैं
कोई ठण्डा आदमी नहीं हूँ...
मुझमें भी आग है - मगर वह
भभककर बाहर नहीं आती
क्योंकि उसके चारों तरफ चक्कर काटता हुआ
एक पूँजीवादी दिमाग है ।’’१४
धूमिल के काव्य में राजनैतिक, सामाजिक विद्रोह के साथ-साथ धार्मिक विद्रोह नजर आता है । धर्म के नाम पर हो रहे पाखण्ड, दंगा फसाद, मार-काट आदि का धूमिल ने विरोध किया है। धर्म के नाम पर लूट-पाट आज आम बात हो गई है । शोषक वर्ग अपने फायदे के लिए विभिन्न समुदायों की धार्मिक भावना को भडकाकर अपनी स्वार्थ की रोटी सेंकते हैं । धर्म शोषकों के हाथों का खिलौना बन चुका है । मन्दिर-मस्जिदों में धर्म के नाम पर आतंकवाद को बढ़ावा दिया जा रहा है । जिसके कारण आज तक हजारों निरापराधों की जाने गई है । ऐसे धार्मिक स्थलों का भण्डाफोड करते हुए धूमिल कहते हैं -
‘‘मैंने अचरज से देखा कि दुनिया का
सबसे बड़ा बौद्ध मठ
बारूद का सबसे बड़ा गोदाम है ।’’१५
आम आदमी ऐसे धार्मिक स्थलों को देखकर शर्मिंदगी महसूस करता है और इन सब बातों से उसका धर्म एवं ईश्वर पर से विश्वास उठने लगा है । धूमिल का धार्मिक विद्रोह स्पष्ट करने के लिए हम यहां धूमिल के अनुज कन्हैया पांडेय का एक वक्तव्य हम यहां प्रस्तुत करेंगे - ‘‘वे धर्म के ढोंग में विश्वास नहीं करते थे । चोटी तथा जनेऊ धारण करना वे पसन्द नहीं करते थे । हर बात में स्वतंत्र बुद्धि का इस्तेमाल करते थे । छुआछूत को वे नहीं मानते थे । मुसलमानों के घर खाना खाने के लिए ईद के दिन घर पर खाना नहीं खाते थे । ईसाईयों के घर भी खाना-खाने के लिए वे हिचकिचाते नहीं थे । चमार तथा ब्राह्मण उनके लिए बराबर थे, बल्कि ईमानदार तथा मेहनतकश उनके लिए बेईमान तथा दूसरों की कमाई पर जीने वाले ब्राह्मण से कई लाख गुना अच्छे थे ।’’१६ कन्हैया की इन बातों से यह साफ हो जाता है कि धूमिल किसी भी प्रकार की विषमता, भेदा-भेद, उँच-नीचता, जातिभेद, छुआछूत आदि को नहीं मानते थे । धूमिल समाज में फैली स्वार्थ वृत्ति का विरोध करते थे ।
संक्षेप में हम कह सकते हैं कि इस तरह धूमिल ने राजनीति, समाज धर्म आदि में व्याप्त अन्याय-अत्याचार का पुरजोर विरोध अपने काव्य में कर समाज एवं आम आदमी में जागृति पैदा करने का महत्त्वपूर्ण काम किया है ।
संदर्भ सूची :
१) संसद से सड़क तक - धूमिल, पृ. १०
२) आलोचना के हाशिए पर साहित्य की बीसवीं शताब्दी - विश्वनाथ प्रसाद तिवारी, पृ. ९५
३) धुमकेतु धूमिल और साठोत्तरी कविता - मीनाक्षी जोशी, पृ. २८
४) संसद से सड़क तक - धूमिल, पृ. ४८
५) धूमिल और नारायण सुर्वे की कविता का अनुशीलन - डॉ. न.पू. काळे, पृ. १६४
६) धूमिल और उसका काव्य संघर्ष - डॉ. ब्रह्मदेव मिश्र, पृ. १३५
७) संसद से सड़क तक - धूमिल, पृ. ४४
८) वही, पृ. ९६
९) धूमकेतु धूमिल और साठोत्तरी कविता - मीनाक्षी जोशी, प्राक्कथन, पृ. ११
१०) दूसरे प्रजातंत्र की तलाश में धूमिल - कुमार कृष्ण, पृ. १००
११) संसद से सड़क तक - धूमिल, पृ. १०५
१२) कल सुनना मुझे - धूमिल, पृ. १५
१३) धूमिल और उसका काव्य संघर्ष - डॉ. ब्रह्मदेव मिश्र, पृ. ७३
१४) संसद से सड़क तक - धूमिल, पृ. ११५
१५) वही, पृ. १२
१६) वही, पृ. ८
----
दीक्षित स्वानंद शिवप्रसाद
शोध छात्र, हिंदी विभाग,
डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर मराठवाडा
विश्वविद्यालय, औरंगाबाद ।
COMMENTS