कनाडा में हिन्दी ग़ज़ल जसबीर कालरवी 1 ․ रोज़ यूँ मर-मर के जीना जि़न्दगी होती नहीं। हम से अब तो रोज़ ही ये ख़ुदकुशी होती नहीं। ज़र्द प...
कनाडा में हिन्दी ग़ज़ल
जसबीर कालरवी
1․
रोज़ यूँ मर-मर के जीना जि़न्दगी होती नहीं।
हम से अब तो रोज़ ही ये ख़ुदकुशी होती नहीं।
ज़र्द पत्ता हूँ बढ़ाऊँ काँपता सा हाथ मैं,
पर मेरी पागल हवा से दोस्ती होती नहीं।
जिसकी आँखों में भी झाँकूँ भीड़ सी आये नज़र,
हम से इतने शोर में तो बंदगी होती नहीं।
फूल खिलते ही गिरी हो लाश भँवरे की अगर,
उस जगह कोई भी खुशबू बावरी होती नहीं।
मैं मेरे अंदर से बोलूँ इस जगह कैसे रहूँ,
दम मेरा घुटता यहाँ भी बाँसुरी होती नहीं।
अब तो बस इतिहास बनना चाह रहा हर आदमी
अब किसी चेहरे पे कोई ताज़गी होती नहीं।
पत्थरों के शहर ने पत्थर बना डाला मुझे,
अब किसी आईने से भी दोस्ती होती नहीं।
2․
सारी दुनिया में ढूँढ़ कर देखा।
खु़द में ही गुलशन-ए-दहर देखा।
सब दीवारों से बाँहे निकली थीं,
जब भी मुद्दत के बाद घर देखा।
यूँ तो दिये तले अँधेरा था,
फिर भी माथे के दाग़ पर देखा।
एक दिल मेरा एक दिल तेरा,
इतना लम्बा नहीं सफ़र देखा।
उसको पढ़ते किताब के मानिंद
जिसको भी हमने इक नज़र देखा।
बस वही चार लोग थे अपने,
फिर न कोई भी हमसफ़र देखा।
3․
टूटा दिल तो दिमाग़ ने सोचा।
राख हुए तो आग ने सोचा।
इतना गहरा न जख़्म दे कोई
जख़्म सूखा तो दाग़ ने सोचा।
जब भी जागे मुझे बुझा देंगे
मतलबी सब, चिराग़ ने सोचा।
जब मेरा घर ही जल गया सारा
तब ही मल्हार राग ने सोचा।
सारी दुनिया में ढूँढ़ कर देखा
घर चले तो विराग ने सोचा।
अब तो जसबीर बच नहीं सकता
छोड़ आए सुराग़ ने सोचा।
4․
कब कहाँ कैसे हुआ कुछ भी पता चलता नहीं।
है अँधेरा हर तरफ़ दीया कोई जलता नहीं।
मैं बड़े से पेड़ के साये तले इक बीज हूँ
जो महज संभावना है पर कभी पलता नहीं।
जिसको भी मिलता हूँ लगता है कहीं देखा हुआ
खाक किस किस भेष में मिलती पता चलता नहीं।
उम्र भर पीता रहा हूँ जल्द ही जल जाऊँगा
पर बड़ा कमबख़्त दिल हूँ आग में जलता नहीं।
मैं सुनूँ आवाज़ तेरी अपने ही अंदर कहीं
पर तू अंदर है कहाँ मेरे पता चलता नहीं।
लोग मेरी दोस्ती पे कर रहे हैं फ़भ़ सा
सब को बस ये भरम है जसबीर तो छलता नहीं।
5․
दर्द जब से हुआ है अम्बर सा।
दिल हमारा हुआ समुन्दर सा।
मेरे माथे पे जल रहा दीया
जैसे हो मयकदे में मन्दिर सा।
तूँ कहाँ ढूँढ़ने मुझे निकला
मैं नहीं हूँ किसी आडम्बर सा।
कह रहा है मुझे वो आईने सा
अब तू लगता नहीं सिकंदर सा।
जिंदगी अब के साल यूँ गुज़री
हादसों से भरा कैलेंडर सा।
6․
वो मुझको पहनकर जब अपने घर को लौट जाते हैं।
तो हर दीवार को शीशा समझकर मुस्कराते हैं।
बना डालें तेरी तस्वीर मिलकर एक दूजे से
वो तारे इस तरह भी रात को कुछ झिलमिलाते हैं।
वो कैसे खोलें दरवाज़े अगर चुपचाप हो दस्तक
हवा की उँगलियाँ लेकर लुटेरे भी तो आते हैं।
अभी हैं इस जगह कल जाने फिर ये किस जगह होंगे
कदम मेरे बिना मुझको लिए ही दौड़ जाते हैं।
बसाया है मुझे आँखों में आँसू की तरह उसने
मुझे बस देखना है कब मुझे मोती बनाते हैं ।
7․
जि़न्दगी ऐसे मिली जैसे सज़ाएँ ही मिलें।
फिर भी लम्बी उम्र हो ऐसी दुआएँ ही मिलें।
अब सभी रिश्तों में गर्मी सी नज़र आए मुझे
मैंने ये सोचा ही क्यों ठंडी हवाएँ ही मिलें।
दूर जाता हूँ कहीं खु़द से निकलकर जब कभी
मुझ को फिर मेरे लिए मेरी सदायें ही मिलें।
सब के चेहरों पे बहारें ही बहारें थी खिलीं
जब ज़रा झाँका किसी अंदर खिजाएँ ही मिलें।
पास अपने हो सभी कुछ तो जियेंगे जि़न्दगी
पर सभी कुछ में मुझे हँसती क़ज़ाएँ ही मिलें।
8․
न अब कर फ़ैसला ऐसा के जो अकसर अटक जाए।
शुरू से मत करो इतना शुरू के राह थक जाए।
मुझे उसने कहा आकर मिलो मुझको मेरे मन में
कहीं ऐसा न हो मैं पहुँच जाऊँ वो भटक जाए।
खु़दा को गर समझ लेते तो अब तक तुम खु़दा होते
भला इससे कोई पहले ही क्यूँ सूली लटक जाए।
चले तो थे मेरे सपने मगर कदमों को पाते ही
कभी राहें तिलक जाएँ कभी मंजि़ल सरक जाए।
सुना है आजकल आँखें तेरी ऐसे छलकती हैं
मेरा हर जाम तेरे नाम से जैसे छलक जाए।
9․
फ़लसफ़ों की रोशनी में कुछ नज़र आया नहीं।
इस घने जंगल से कोई रास्ता पाया नहीं।
लोग कितने ढूँढ़ने निकले खलाओ में उसे
कौन वो, रहता कहाँ, कोई पता लाया नहीं।
वो जो मेरे बौनेपन पे उम्र भर हँसता रहा
आदमी वो था मेरे अंदर मेरा साया नहीं।
अब जहाँ दिल की ज़मीं है जर्द पत्तों से भरी
इस जगह कोई बहारों की तरह आया नहीं।
झूमते थे जो कभी अब है घरों की क़ैद में
अब किसी भी पेड़ का होता घना साया नहीं।
10․
तुम ने मंजि़ल सोच ली हो रास्ता लाये कोई।
किस तरह इस दोस्ती को छोड़ कर जाए कोई।
तुम कभी विरह के सहरा में तो भटके ही नहीं
फिर भला तेरे लिए मल्हार क्यों गाये कोई।
हमने अपने ही कहीं अंदर दबा दी आग सी
अब कहाँ उठता हुआ धुँआ नज़र आए कोई।
मैं भला पहचान पाऊँगा कहाँ चेहरा मेरा
अब अगर माजी से मुझको छीनकर लाये कोई।
एक पल तेरा हो मेरा, एक पल मेरा तेरा
ये न हो दो पल खड़े हों बीच आ जाए कोई।
मानोशी चटर्जी
1․
हर हुनर हम में नहीं हम ये हक़ीक़त मानते हैं।
पर हमारे जैसा भी कोई नहीं है जानते हैं।
जो खु़दा का वास्ता दे जान ले ले और दे दे
हम किसी ऐसी खु़दाई को नहीं पहचानते हैं।
हम अगरचे गिर गये तो उठ भी खुद ही जायेंगे पर
अपने बूते ही करेंगे जो दिलों में ठानते हैं।
जो हमारा नाम है अख़बार की इन सुख्रख़यों में
हम किसी नामी-गिरामी को नहीं पहचानते हैं।
हम नहीं हैं ‘दोस्त' गिर के, झुक वफ़ा की भीख माँगें
दिल इबादत है मुहब्बत को खु़दा हम मानते हैं।
2․
हज़ार कि़स्से सुना रहे हो।
कहो भी अब जो छुपा रहे हो।
ये आज किस से मिल आये हो तुम
जो नाज़ मेरे उठा रहे हो।
जो दिल ने चाहा वो कब हुआ है
फि़जूल सपने सजा रहे हो।
सयाना अब हो गया है बेटा
उम्मीद किस से लगा रहे हो।
तुम्हारे संग जो लिपट के रोया
उसी से अब जी चुरा रहे हो।
मेरी लकीरें बदल गई हैं
ये हाथ किससे मिला रहे हो।
ज़रूर कुछ ग़म है आज तुम को
ख़ुदा के घर से जो आ रहे हो।
3․
आशना हो कर कभी नाआशना हो जायेगा।
क्या ख़बर थी एक दिन वो बेवफ़ा हो जायेगा।
मैंने अश्क़ों को जो अपने रोक कर रक्खा, मुझे
डर था इनके साथ तेरा ग़म जुदा हो जायेगा।
क्या है तेरा क्या है मेरा गिन रहा है रात-दिन
आदमी इस कश्मकश में ही फ़ना हो जायेगा।
मैं अकेला हूँ जो सारी दुनिया को है फि़क्र पर
तारों के संग चल पड़ा तो क़ाफि़ला हो जायेगा।
मुझको कोई ख़ौफ़ रुसवाई का यूँ तो है नहीं
लोग समझाते हैं मुझको तू बुरा हो जायेगा।
मैं समंदर सा पिये बैठा हूँ सारा दर्द जो
एक दिन गर फट पड़ा तो जाने क्या हो जायेगा।
पत्थरों में ‘दोस्त' किसको ढूँढ़ता है हर पहर
प्यार से जिससे मिलेगा वो खु़दा हो जायेगा।
4․
मैं राह में गिरा तो जैसे टूट कर बिखर गया।
मिला जो तेरा हाथ तो वजूद ही सँवर गया।
वो कह रहा था मुझसे कि हाँ देगा मुझपे जान भी
मगर मैं ऐतबार के ही नाम से सिहर गया।
जो उसके रुख़ से गिर गया हिजाब मेरे सामने
मेरी नज़र से धुल के वो कुछ और भी निखर गया।
सुना जो उसकी बज़्म में हुआ था तेरा जि़क्र, मैं
हज़ार बार तेरा हाल जानने उधर गया।
जो पूरी एक उम्र की बेचैनी उसके पास थी
वो जाते जाते अपनी पूँजी मेरे नाम कर गया।
जो ज़र्रे को भी चल गया पता अब अपनी हस्ती का
वो उड़ के थोड़ी देर फिर ज़मीन पर उतर गया।
महक रही है जि़ंदगी अभी भी जिसकी खु़श्बु से
वो कौन था ऐ ‘दोस्त' जो क़रीब से गुज़र गया।
5․
कहने को तो वो मुझे अपनी निशानी दे गया।
मुझ से लेकर मुझको ही मेरी कहानी दे गया।
जिसको अपना मान कर रोएँ कोई पहलू नहीं
कहने को सारा जहाँ दामन जुबानी दे गया।
घर में मेरे उस बुढ़ापे के लिए कमरा नहीं
वो जो इस घर के लिए सारी जवानी दे गया।
आदमी को आदमी से जब भी लड़ना था कभी
वो ख़ु़दा के नाम का कि़स्सा बयानी दे गया।
हमने तो कुछ यूँ सुना था उम्र है ये प्यार की
नफ़रतों का दौर ये कैसी जवानी दे गया।
उस के जाने पर भला रोएँ कभी क्यों जो मुझे
जि़ंदगी भर के लिए यादें सुहानी दे गया।
याद है कल ‘दोस्त' हम तो हँसते हँसते सोये थे
कौन आकर ख़्वाब में आँखों में पानी दे गया।
6․
आपकी यादों को जाते उम्र इक लग जायेगी।
कौन जाने जिंदगी अब फिर सँवर भी पायेगी।
हर तरफ़ चर्चा है उनके दिल के तोड़े जाने का
शोर-ओ-गुल की आदतें तो जाते जाते जायेंगी।
टूटते रिश्तों में पलता टूटता बचपन यहाँ
राह में भटकी जवानी गोली ही बरसायेगी।
एक करके भूल जाये सारे वादे तोड़ दे
जो नहीं दोनों तरफ़ वो क्या निबाही जायेगी।
हौसला है जीने का इतनी बुलंदी पर ऐ दोस्त
मौत भी आने से पहले थोड़ा तो घबरायेगी।
7․
दुआ में मेरी भी कुछ असर हो।
तेरे सिरहाने भी इक सहर हो।
जहाँ के नाना झमेले सर हैं
कहाँ किसी की मुझे ख़बर हो।
यहाँ तो कुछ भी नहीं है बदला
वहाँ ही शायद नई ख़बर हो।
मिले अचानक वो ख़्वाब में कल
कहीं दुबारा न फिर कहर हो।
दिलों दिलों में भटक रही है
कहीं तो अब जिंदगी बसर हो।
न याद कोई जुड़ी हो तुम से
कहीं तो ऐसा कोई शहर हो।
चलो चलें फिर से लौट जायें
शुरू से फिर ये शुरू सफ़र हो।
8․
ये जहाँ मेरा नहीं है।
कोई भी मुझसा नहीं है।
मेरे घर के आइने में
अक्स क्यों मेरा नहीं है।
उसकी रातें मेरे सपने
कुछ भी तो बदला नहीं है।
आँखों में तो कुछ नहीं फिर
पानी क्यों रुकता नहीं है।
सीने में इक दिल है मेरा
तेरे पत्थर सा नहीं है।
दिख रही है आँख में जो
बात वो कहता नहीं है।
मैं भला क्यों जाऊँ मंदिर
ग़म ने आ घेरा नहीं है।
देखते हो आदमी जो
उसका ये चेहरा नहीं है।
एक ढेला मिट्टी का भी
मेरा या तेरा नहीं है।
9․
मुझको अपना एक पल वो दे के अहसाँ कर गये।
जाने अनजाने मेरे जीने का सामाँ कर गये।
क्या कहें कि सबसे आके किस तरह से वो मिले
मुझको मेरे घर में ही जैसे कि मेहमाँ कर गये।
बाद मुद्दत के ज़रा सा चैन आया था अभी
हाल मेरा पूछ कर वो फिर परेशाँ कर गये।
लोगों का अब चाँद से तो फ़ासला कम हो गया
अपने घर की ही ज़मीं को ‘दोस्त' वीराँ कर गये।
10․
मुझसे है ये सारी दुनिया मान कर छलता रहा।
अब ज़मीं में दफ़्न हूँ ऊपर जहाँ चलता रहा।
बस मुकम्मल होने की उस चाह में ताउम्र यूँ
ख़्वाब इक मासूम सा कई टुकड़ों में पलता रहा।
आग थी ना था धुआँ फिर क्या हुआ कि रात भर
बेवजह ही जागकर मैं आँख यूँ मलता रहा।
दुनिया की कुछ रस्मों में मैं यूँ हुआ मस्रूफ़ कि
अपने मरने का भी मातम ना मना, टलता रहा।
उसको अब मुझसे शिकायत है कि मैं कमज़ोर हूँ
‘दोस्त' जिसकी ख़्वाहिशों में उम्र भर ढलता रहा।
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साहेब, अब तो वाह वाह कहते सुनते सभी मिलने जुलने वाले भी थक गए हैं..पर दिल है कि मानता नहीं..... वाह वाह वाह वाह वाह वाह ......
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