(लघुकथा) माटी की पुकार --------------------------- --- मनोज 'आजिज़' 'झारखण्ड में काम किये १० साल हो गए । ...
(लघुकथा)
माटी की पुकार
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--- मनोज 'आजिज़'
'झारखण्ड में काम किये १० साल हो गए । मैं यहाँ के लोगों को नस-नस से
पहचान चुका हूँ । गाड़ी बुलाइए और चलिए ।' इन्ही शब्दों से कड़क मिजाज का
सहारा लिए डी एम ने एस डी एम को भूनी गाँव की ओर जमीन अधिग्रहण की
प्रक्रिया को पूरा करने के लिए जल्द ही ग्राम सभा स्थल पहुँचने की बात
कही । वह दिन उस गाँव के लिए काफी खास था । पहली बार उस गाँव में आस पास
के सभी गाँवों के लोग एकत्रित हुए थे और वह भी अपनी जमीन को विदेशी बहु
राष्ट्रीय कम्पनी के हवाले करने के विरोध में । कभी छोटी-मोटी बात को
लेकर दो गांवों के बीच डंडे बरसते पर अपनी माटी आज सभी को साथ खड़े कर
रखी थी । छोटे बच्चों की आँखों में कल की धुंध थी, युवाओं के मन में आज
ही फैसला लेने की जज़्बा और बुढों के चेहरे में हताशा की लकीरें ।
सुबह के ११ बजे थे । पत्रकार और कैमरामैन काफी तादाद में मौजूद हो चुके
थे । कुछ ही पलों में सायरन लगे हुए गाड़ियों से चकाचक क्रीज धारी अफसरों
की टोली और साथ में कंधे पर रायफल और मोर्टार लादे हुए सी आर पी एफ़ और
जिला पुलिस के जवानों की फौज उतरी । अधकटे जंगल के बीच एक सभा स्थल और
झाड़ियों में इन जवानों ने अपनी पोजीशन ले ली थी । सादे लिबास में कुछ
अधिकारी गांववालों और संभावित छद्म भेषी नक्सलियों पर नज़र रखे हुए थे ।
सब कुछ बेहद नाटकीय । रंगीन प्लास्टिक कुर्सियों पर प्रशासनिक अधिकारियों
ने जगह लीं । ग्रामीण-प्रतिनिधि भी सामने बैठे हुए थे । वार्ता शुरू
हुयी । अधिकारियों ने लच्छेदार ढंग से सारी सुविधाएँ गिनाने लगे और
रिझाने की हर सम्भव कोशिश तब तक के मामूली विरोधों के बीच करते रहे ।
घंटों बीत गए पर फैसला कुछ भी नहीं । ग्रामीण धैर्य खो रहे थे । एक
अधिकारी ने ग्रामीणों को कॉरपोरेट सोशल रिस्पांसिबिलिटी के सम्बन्ध में
बताया पर ठीक उसी समय भीड़ से एक युवक खड़ा हुआ और कंधे में रखे टांगी के
धार को दिखाते हुए कहा -- ' तुम्हें यहाँ के बारे में क्या पता ? चुप
रहते हो या …। ' इतने में ही पुलिस जवान भी सतर्क हो गए । परंपरागत
शस्त्रों से लैश ग्रामीणों ने ' आपन माटी जिंदाबाद' के नारों से सस्वर हो
खड़े हुए । अधिकारियों ने ऐसा कभी नहीं देखा था कि एक साथ २० गाँव वाले
एकत्रित हो कंपनी के विरुद्ध खड़े हो और अपनी जन्मभूमि के लिए एकता के
सूत्र में बंधे हों । उन्हें ग्रामीणों के नाम पर बने अस्पतालों,
विद्यालयों या पार्कों में कंपनी कर्मचारियों का बोल बाला अब पसंद नहीं
थी । ग्रामीणों को यह खबर थी कि कहीं भी कंपनी स्थापना के बाद करीब १०-१५
किलोमीटर के दरम्यान ही विकास होता है और फिर सारे लोग पुनर्वास की
अव्यवस्था में फंस जाते हैं । डी एम ने अंतिम बार पूछा कि लोग जमीन देंगे
या नहीं तो सभी ने एक स्वर में कहा-- ' कभी नहीं, कभी नहीं । ' एक सहज
लोकतान्त्रिक प्रक्रिया के सामने रसूख और बेईमानी ध्वस्त होता देख डी एम
ने धीरे से कंपनी के प्रबंधक से कहा-- ' ये लोग जमीन को माँ मानने लगे
हैं । चलिए, कहीं बंजर भूमि देखें । ' भीड़ छंटी तो दौड़ता-हांपता एक
युवक डी एम के पास आकर कहता है-- ' साहब, पिकनिक के लिए यहाँ जरुर आना,
काफी अच्छी जगह है । ' लोगों के उत्साह भरी आवाज के सामने लाल बत्ती और
सायरन फीकी थी ।।
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लघुकथा
ढोंगी बहरे
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--- मनोज 'आजिज़'
काफ़ी दिनों पर अभिषेक पटना गया हुआ था । स्टेशन से काफ़ी भीड़-भाड़ के बीच निकलकर बाहर निकला और एक सज्जन से किसी अच्छे होटल की जानकारी ली । उस सज्जन ने अभिषेक को पास ही एक गली में एक होटल होने की बात कही । अपने थैले को उठाकर वह चल पड़ा और वहां जाकर देखता है कि लोगों की खचा-खच भीड़ और भीड़ से भी ज्यादा लोगों का शोर । बक-झक तो हो नहीं रही थी, लोग खा भी रहे थे, कर्मचारी खाना परोसने में व्यस्त थे पर ऊँची आवाज भी आ रही थी । अभिषेक कारण समझ नहीं सका और वह पास ही एक यात्री-पड़ाव में जा बैठा । सड़कों पर गाड़ियों की सरपट आवा-जाही, भिन्न-भिन्न प्रकार के लोगों के कार्य-कलाप, कुछ खास दृश्यों का अनुभव सहेजते वह कहीं खो सा गया था । इंजीनियरिंग डिग्री लिए महीनों बीत चुके थे, नौकरी हाथ नहीं लग रही थी पर ख़्वाब तो ऊँचा सज चुका था, युवा मन के महल में । यात्रा की थकान से और विभिन्न चिंताओं के बीच बैठे-बैठे आँखें बंद हो रही थी और बाहरी दुनिया से वह कटा जा रहा था, बाहरी शोर भी सुनाई नहीं पड़ रहा था पर अंतरमन की एक स्वप्निल दुनिया में जरुर प्रवेश कर चुका था जहाँ एकांत शोर था कि उसे कुछ करना है और वह कर दिखायेगा । वह पल भर में एक १००० मेगा वाट बिजली उत्पादन केन्द्र में मुख्य अभियन्ता के रूप में ख़ुद को पा रहा था जहाँ केन्द्र का उद्घाटन पर वह प्रधानमंत्री से रु-ब-रु हो रहा था ।
एक भिखारी अपने एक छोटी बच्ची के साथ कुछ बुदबुदाया पर उसकी तन्द्रा नहीं टूटी । बच्ची पाँव पकड़कर हाथ पसारने लगी तो वह जागा और भौंचक होकर घड़ी की तरफ़ देखा तो दोपहर के ढाई बज चुके थे । पॉकेट से एक सिक्का निकालकर उस बच्चे को थमाते हुए कहा-- क्यों नहीं किसी सरकारी स्कूल में दाख़िल हो जाते? खाने भी मिलेंगे और पढ़ भी लोगे । शायद तुम्हे हाथ पसारना न पड़े ! भिखारी सर झुका कर आगे बढ़ गया । अभिषेक अब होटल की ओर चला । फिर वही भीड़, पर किसी तरह एक सीट मिली । झट बैठ गया । खाना खाने लगा । दूसरे लोग भी खा रहे थे । शोर क़ायम था और वह समझने लगा था । उसने करीब दस बार सब्ज़ी माँगी पर किसी भी कर्मचारी ने ध्यान नहीं दिया । यही दशा दूसरों की भी थी । खा कर बाहर निकला तो एक व्यक्ति से होटल की कर्मचारियों के द्वारा दिखाई गयी गैर-ज़िम्मेदारी पर बात करने लगा । उस व्यक्ति ने कहा-- "बात तीस रुपये प्लेट की है । ये सब कुछ सुनते हैं पर ग्राहकों के कम और मालिक का ज्यादा । ये रणनीति है ताकि ग्राहक ज्यादा मांग न सके । मालिक अगर धीमी आवाज में भी बुलाये तो ये सुन लेते हैं और ऐसे में व्यर्थ की व्यस्तता दिखाते हैं । ये ढोंगी बहरे हैं ।"
सुनील अपने ऑफिस में सहकर्मियों से अभिषेक का यह अनुभव बाँट रहा था और वे होटल वाले पर ठहाके लगा रहे थे ।
(कथाकार बहु भाषीय साहित्य सेवी हैं, अंतर्राष्ट्रीय अंग्रेजी पत्रिका " द चैलेन्ज" के संपादक हैं और अंग्रेजी भाषा-साहित्य के व्याख्याता हैं । इनके ७ कविता-ग़ज़ल संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं । )
पता-- इच्छापुर, ग्वालापारा, पोस्ट-- आर.आई.टी.
आदित्यपुर-२, जमशेदपुर-१४ , झारखण्ड
फोन- 09973680146
Manyavar, Aajij Sahab.
जवाब देंहटाएंBadhai.
Aapki Katha achhi lagi.
Bahut bahut dhanyavad Arvindji! Aabhar!
जवाब देंहटाएंManoj 'Aajiz'
jamshepur
mkp4ujsr@gmail.com
BAHUT BAHUT DHANYAVAD ARVIND JI. AABHAR!
जवाब देंहटाएंManoj Aajiz
Jamshedpur
mkp4ujsr@gmail.com
your stories are related to very common life i always love them sir.
जवाब देंहटाएंgrear sir
जवाब देंहटाएंDhanyavad Chandeshwar. Ek abhiyanta ho kar bhi sahitya ke prati ruchi, kabil-e- tarif hai.
जवाब देंहटाएंkamal ka lekhan hai
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