अमरीका में हिन्दी ग़ज़ल गुलाब खण्डेलवाल 1․ कुछ हम भी लिख गए हैं तुम्हारी किताब में। गंगा के जल को ढाल न देना शराब में। हमसे तो जि़न्...
अमरीका में हिन्दी ग़ज़ल
गुलाब खण्डेलवाल
1․
कुछ हम भी लिख गए हैं तुम्हारी किताब में।
गंगा के जल को ढाल न देना शराब में।
हमसे तो जि़न्दगी की कहानी न बन सकी
सादे ही रह गए सभी पन्ने किताब के।
दुनिया ने था किया कभी छोटा-सा एक सवाल
हमने तो जि़न्दगी ही लुटा दी ज़वाब में।
लेते न मुँह यूँ फेर हमारी तरफ़ से आप
कुछ खूबियाँ भी देखते ख़ाना ख़राब में।
कुछ बात है कि आपको आया है आज प्यार
देखा नहीं था ज्वार यों मोती के आब में।
हमने ग़ज़ल का और भी गौरव बढ़ा दिया
रंगत नई तरह की जो भर दी गुलाब में।
2․
दुनिया को अपनी बात सुनाने चले हैं हम।
पत्थर के दिल में प्यास जगाने चले हैं हम।
हमको पता है खूब, नहीं आँसुओं का मोल
पानी में फिर भी आग लगाने चले हैं हम।
फिर याद आ रही है कोई चितवनों की छाँह
फिर दूध की लहर में नहाने चले हैं हम।
मन के हैं द्वार-द्वार पे पहरे लगे हुए
उनको उन्हीं से छिपके चुराने चले हैं हम।
यों तो कहाँ नसीब थे दर्शन भी आपके!
कहने को कुछ ग़ज़ल के बहाने चले हैं हम।
कुछ और होंगी लाल पंखुरियाँ गुलाब की
काँटों से जि़न्दगी को सजाने चले हैं हम।
3․
अब क्यों भला किसी को हमारी तलाश हो।
गागर के लिए क्यों कोई पनघट उदास हो।
कहते हैं जिसको प्यार है मजबूरियों का नाम
क्यों हो नज़र से दूर अगर दिल के पास हो।
क्यों कर रहे बहार के जाने का ग़म हमें
कोयल की हर तड़प में अगर यह मिठास हो।
वादों को उनके खूब समझते हैं हम, मगर
क्या कीजिये जो दिल को तड़पने की प्यास हो।
भाती नहीं है प्यार की खु़शबू जिसे, गुलाब
शायद कभी उसे भी तुम्हारी तलाश हो।
4․
बात जो कहने की थी, होठों पे लाकर रह गये।
आपकी महफि़ल में हम ख़ामोश अक्सर रह गये।
एक दिल की राह में आया था छोटा-सा मुक़ाम
हम उसी को प्यार की मंजि़ल समझकर रह गये।
यों तो आने से रहे घर पर हमारे एक दिन
उम्र भर को वे हमारे दिल में आकर रह गये।
क्यों किया वादा नहीं था लौट कर आना अगर
इस गली के मोड़ पर हम जि़न्दगी भर रह गये।
रौंदकर पाँवों से कहते, ‘खिल न पाते क्यों गुलाब!'
दंग हम तो आपकी इस सादगी पर रह गये।
5․
यों तो रंगों की वो दुनिया ही छोड़ दी हमने।
चोट एक प्यार की ताज़ा ही छोड़ दी हमने।
सिफ़र् आँचल के पकड़ लेने से नाराज़ थे आप
अब तो खु़श हैं कि ये दुनिया ही छोड़ दी हमने।
आप क्यों देख के आईना मुँह फिरा बैठे!
लीजिये, आपकी चरचा ही छोड़ दी हमने।
क्या हुआ फूल जो होठों से चुन लिए दो-चार
और खु़शबू तेरी ताज़ा ही छोड़ दी हमने।
पूछा उनसे जो किसी ने कभी, ‘कैसे हैं गुलाब?'
हँसके बोले कि वो बगिया ही छोड़ दी हमने।
6․
हमसे यह बीच का पर्दा भी हटाया न गया।
उनको बढ़कर कभी सीने से लगाया न गया।
इसपे मचले थे कि देखेंगे तड़पना दिल का
उनसे देखा न गया, हमसे दिखाया न गया।
कुछ इस तरह थी नज़र, रात, हमारी बेताब
उनसे छिपते न बना सामने आया न गया।
दर्द वह दिल को मिला, उम्र की हद तक हमसे
चुप भी रहते न बना, कह के बताया न गया।
यों तो खिलने को नये रोज़ ही खिलते हैं गुलाब
पर ये अंदाज़ किसी और में पाया न गया।
7․
हमें तो हुक्म हुआ सर झुका के आने का।
नहीं ख़्याल भी उनको नज़र उठाने का।
ये किस बहार की मंजिल पे रुक गए हैं क़दम
नज़र को आगे इशारा नहीं है आने का।
निगाहें बढ़के लिपटती रहीं निगाहों से
चले तो वक़्त नहीं था गले लगाने का।
नहीं जो प्यार हो हमसे तो दोस्ती ही सही
गरज की कुछ तो बहाना हो मुस्कुराने का।
गुलाब यों तो हज़ारों ही खिल रहे हैं यहाँ
है रंग और ही लेकिन तेरे दीवाने का।
8․
हमारी जि़न्दगी ग़म के सिवा कुछ और नहीं।
किसी के जु़ल्मो-सितम के सिवा कुछ और नहीं।
समझ लें प्यार भी हम उस नज़र की शोखी को
मगर ये अपने भरम के सिवा कुछ और नहीं।
वो जिसको आखि़री मंजि़ल समझ लिया तूने
वो तेरे अगले क़दम के सिवा कुछ और नहीं।
टिका है दम ये किस उम्मीद पे, पूछो उनसे
यहाँ जो कहते हैं, ‘दम के सिवा कुछ और नहीं'।
समझता है जिसे खुशबू, गुलाब! तू अपनी
वो इक हसीन वहम के सिवा कुछ और नहीं।
9․
कभी धड़कनों में है दिल की तू, कभी इस जहान से दूर है
ये कमाल है तेरे हुस्न का, कि नज़र का मेरी फितूर है।
तू भले ही हाथ न थाम ले, कभी मुझको अपना पता तो दे
कि भटक न जाऊँ मैं राह में, तेरा दर बहुत अभी दूर है।
जो ख़्याल में भी न आ सके, उसे प्यार भी कोई क्या करे!
तू खु़दा भले ही रहा करे, मुझे नाखु़दा पे ग़रूर है ।
इसे देखना भी नहीं था जो, तो जलाई थी ये शमा ही क्यों!
मेरे दिल को भा गयी इसकी लौ, तो बता ये किसका क़सूर है।
जिसे तूने था कभी छू दिया, वो गुलाब और गुलाब था
कहूँ अपने दिल को मगर मैं क्या, जो नशे में आज भी चूर है।
10․
फिर इस दिल के मचलने की कहानी याद आती है।
मुझे फि़र आज अपनी नौजवानी याद आती है।
बहुत कुछ कहके भी उनसे न कह पाया था प्यार अपना
तपिश सीने की बस आँखों में लानी याद आती है।
‘कहा क्या! कल कहूँगा क्या! न यह कहता तो क्या कहता!'
यही सब सोचते रातें बितानी याद आती है।
शरारत की हँसी आँखों में दाबे, नासमझ बनती
मेरी चुप्पी पे उनकी छेड़खानी याद आती है।
भुला पाता नहीं मैं पोंछना काजल पलक पर से
लटें आवारा उस रुख से हटानी, याद आती है।
कभी गाने को कहते ही, लजा कर सर झुका लेना
गुलाब! अब भी किसी की आनाकानी याद आती है।
अनन्त कौर
1
वो फि़जाँ और वो बहार कहाँ।
दिल को पहले सा वो क़रार कहाँ।
हर तरफ़ है ख़ला किधर जाएँ
घर कहाँ, दर कहाँ, द्य्यार कहाँ।
तूने आने में देर कर दी है
अब करुँ तुझको मैं शुमार कहाँ।
जि़न्दगी तो ‘अनन्त' नेमत है
साँस मिलती है बार बार कहाँ।
2․
तेरे लिए तो कोई इम्तेहाँ नहीं हूँ मैं।
मैं जानती हूँ कि अब तेरी जाँ नहीं हूँ मैं।
मैं अपना आप कहीं और छोड़ आई हूँ
जहाँ पे रहती हूँ शायद वहाँ नहीं हूँ मैं।
ये सोचती हूँ तो दिल को तसल्ली होती है
किसी के हिज्र मैं हूँ रायेगाँ नहीं हूँ मैं ।
तू चाहता है तो ये भी क़बूल है मुझको
तेरी ख़ुशी है इसी में तो ‘हाँ' नहीं हूँ मैं।
मुझे संभाल के रक्खा है तेरी यादों ने
थकन की धूप में बे-साएबाँ नहीं हूँ मैं।
3․
तेरे ख़याल के साँचे मैं ढलने वाली नहीं।
मैं खु़श्बुओं की तरह अब बिखरने वाली नहीं।
तू मुझको मोम समझता है पर ये ख़्याल रहे
मैं एक शम्मा हूँ लेकिन पिघलने वाली नहीं।
तेरे लिए मैं ज़माने से लड़ तो सकती हूँ
तेरी तलाश में घर से निकलने वाली नहीं।
मैं अपने वास्ते भी जि़ंदा रहना चाहती हूँ
सती हूँ पर मैं तेरे साथ जलने वाली नहीं।
हरेक ग़म को मैं हँस कर गुजार देती हूँ
कि जि़न्दगी की सज़ाओं से डरने वाली नहीं।
4․
जि़न्दगी तुझसे निभाना मेरी मजबूरी है।
अब तेरा बोझ उठाना मेरी मजबूरी है।
पाँवों पड़ते हुए रस्ते नहीं देखे जाते
पर तेरे शहर से जाना मेरी मजबूरी है।
तेरी आवाज़ पे मैं लौट भी सकती हूँ मगर
क्या करूँ अब ये ज़माना मेरी मजबूरी है।
मेरे हाथों से कलम छीन मत ऐ मेरे दिल
उसकी तस्वीर बनाना मेरी मजबूरी है।
चाहती हूँ कि तेरे नाम से जानी जाऊँ
पर तुझे दिल से भुलाना मेरी मजबूरी है।
5․
मेरे एहसास-ए-मुहब्बत का सिला है मुझ को।
ग़म मेरे अपने ही ख्वाबों ने दिया है मुझ को।
आरजू मिलने की जो दिल में बसी है मेरे
ये ख़लिश है तो ख़लिश में भी मज़ा है मुझको।
अब न वो मैं हूँ न वो शौक़-ए-मुहब्बत दिल में
तू बड़ी देर से ऐ दोस्त मिला है मुझको ।
ऐ मुझे छोड़ के जाते हुए हमराही मेरे
तेरा होना भी दुआओं का सिला है मुझ को।
घर में मेहमान की सूरत ही चली आती है
शाम दरवाज़े पे दस्तक़ की सदा है मुझ को।
6․
मेरे ग़म की नहीं दवा कोई।
अब न जीने की दे दुआ कोई।
अब यहाँ पर गुज़र नहीं मेरा
जि़न्दगी मुझको है सज़ा कोई।
उसकी आवाज़ खो चुकी हूँ मैं
अब न देगा मुझे सदा कोई।
मैंने तो जि़न्दगी का सोचा था
साथ दो दिन न दे सका कोई।
उसके दर से जबीं उट्ठे कैसे
मुझको लगता है वो खु़दा कोई।
मैं तो मायूस हो चुकी थी अनन्त
फिर अचानक ही मिल गया कोई।
7․
वो मुझे छोड़ दे अगर तन्हा।
कैसे गुज़रेगा फिर सफ़र तन्हा।
तेरा आना भी अब न आना हुआ
जि़न्दगी हो चुकी बसर तन्हा।
अब मुझे ख़्वाब भी नहीं आते
दिल सुलगता है रात भर तन्हा।
जि़न्दगी से गुज़र तो जाना है
हाए निकले न दम मगर तन्हा।
चार जानिब हजूम लोगों का
है मेरी जि़न्दगी मगर तन्हा।
8․
आईने ने सुना दी कहानी मिरी।
याद मुझको दिला दी जवानी मिरी।
जाने क्या बात थी सोचते ही जिसे
रुक गई धड़कनों की रवानी मिरी।
बात पहुँची मिरी उसके होंटों तलक
काम आई मिरे बेज़बानी मिरी।
वो जहाँ भी था अपना समझता मुझे
बात इतनी भी कब उसने मानी मिरी।
बेतलब बेसबब मुस्कुराती हुई
वो थी तस्वीर शायद पुरानी मिरी।
तुझसे बिछुड़ी हूँ लेकिन मैं तन्हा नहीं
अब मिरे साथ है रायगानी मिरी।
9․
दे रही है दिल पे दस्तक़ याद उसकी।
हो गई हूँ जैसे मैं हमज़ाद उसकी।
आस्माँ तक बेबसी पहुँचे न पहुँचे
तुझ तलक तो जायेगी फरयाद उसकी।
उम्र भर मैं जिस खसारे में रही हूँ
कहती है मेरी ग़ज़ल रुदाद उसकी।
मेरी बर्बादी का वो बाईस नहीं है
ऐ खु़दा! दुनिया रहे आबाद उसकी।
आस्माँ को छू रही थी जो इमारत
हिल गई दो रोज़ में बुनियाद उसकी।
10․
सदाएँ सुनने वाले सुन, सदा कुछ और कहती है।
कि अब ये बेयक़ीनी की फिज़ा कुछ और कहती है।
चलो हम अपने अन्दर के किसी मौसम में खो जाएँ
अगर इस शहर की आबो हवा कुछ और कहती है।
हम अपने हाथ पे दिल रख के आए हैं तेरे दर पे
दुआएँ सुनने वाले ये दुआ कुछ और कहती है।
तुम्हारा साथ दूँ या घर कि देखूँ चारदीवारी
हया कुछ और कहती है, वफ़ा कुछ और कहती है।
तो फिर हम रो ही लेते हैं अगर गिर्या का मौसम है
वर्ना दिल के मौसम की अदा कुछ और कहती है।
तेरे ही साथ रहना चाहती हूँ जि़न्दगी भर मैं
मेरी तक़दीर लेकिन राँझना कुछ और कहती है।
अंजना संधीर
1․
निकले गुलशन से तो गुलशन को बहुत याद किया।
धूप को छाँव को आँगन को बहुत याद किया।
घर जो छोड़ा तो हर इक चीज़ निगाहों में रही
दर को दीवार को दर्पण को बहुत याद किया।
जि़क्र छेड़ा कभी सखियों ने जो झूलों का यहाँ
हमने परदेस में सावन को बहुत याद किया।
तुझ को भी याद सताती है मुझे क्या मालूम
मैंने भाई तेरी दुल्हन को बहुत याद किया।
उसके साये में मुझे चैन से नींद आती थी
मैंने ऐ माँ तेरे दामन को बहुत याद किया।
2․
होंठ चुप हैं निगाह बोले है।
आँख सब दिल के राज़ खोले है।
उसका दुश्मन ज़माना हो ले है।
आज कल जो जु़बान खोले है।
हम तो राही हैं प्यार उल्फ़त के
जो मिले है वो साथ हो ले है।
आईना देख लीजिये साहिब
आईना साफ़-साफ़ बोले है।
मुझ को महसूस अब ये होता है
मेरी सोचों में तू ही बोले है।
हम हों, तुम हो कि बूटा-बूटा हो
मीर ही की ज़बान बोले है।
3․
उसकी सूरत मेरी नज़रों से हटा कर देखो।
फूल से तुम किसी तितली को छुड़ा कर देखो।
आ ही जाएगा कभी दिल में सुकूँ का मौसम
कोई तस्वीर निगाहों में बसा कर देखो।
जि़न्दा रहने की निकल आएगी कोई सूरत
अपनी आँखों में कोई ख़्वाब सजा कर देखो।
मैंने चाहा है तुम्हें मैंने तुम्हें पूजा है
मैं तुम्हारी हूँ मेरे पास तो आ कर देखो।
4․
ख़्याल उसका हर इक लम्हा मन में रहता है।
वो शम्अ बन के मेरी अंजुमन में रहता है।
कभी दिमाग़ में रहता है ़ख़्वाब की मानिन्द
कभी वो चाँद की सूरत गगन में रहता है।
वो बह रहा है मेरे जिस्म में लहू बन कर
वो आग बन के मेरे तन-बदन में रहता है।
मैं तेरे पास हूँ परदेस में हूँ, ख़ुश भी हूँ
मगर ़ख्याल तो हर दम वतन में रहता है।
ये बात सच है चमन से निकल के प्यार मिला
मगर वो फूल जो खिल कर चमन में रहता है।
5․
वो रूठता है कभी दिल दुखा भी देता है।
मैं गिर पड़ूँ तो मुझे हौसला भी देता है।
बहुत खु़लूस झलकता है तंज़ में उसके
वो मुझ पे तंज़ के नश्तर चला भी देता है।
वो मेरी राह में पत्थर की तरह रहता है
वो मेरी राह से पत्थर हटा भी देता है।
मैं ख़ुद को भूल न जाऊँ, भटक न जाऊँ कहीं
वो मुझको आईना लाकर दिखा भी देता है।
बहुत अज़ीज़ हैं उसको मेरी ग़ज़ल लेकिन
वो मेरे शेर ही मुझको सुना भी देता है।
6․
आप आते रहे मैं बुलाती रही।
यूँ तसव्वुर में झूला झुलाती रही।
आपने जो ग़ज़ल मुझ से मंसूब की
आपकी वो ग़ज़ल गुनगुनाती रही।
फूल चम्पा चमेली के खिलते रहे
मैं ख्यालों की सेजें सजाती रही।
याद की खु़श्बुएँ भी महकती रहीं
चाँदनी रात भी जगमगाती रही।
उनके ब़ख्शे हुए ग़म भी महबूब थे
मैं ग़मों को गले से लगाती रही।
प्यार मेरा खु़दा, प्यार तेरा खु़दा
रौशनी प्यार की जगमगाती रही।
अंजना प्यार की ओढ़नी ओढ़ कर
साज़े-हस्ती पे नग़मात गाती रही।
7․
हर तरफ़ बेहिसाब हैं चेहरे।
आप अपना जवाब हैं चेहरे।
दिल में कुछ है ज़बान पे कुछ है
कैसी ओढ़े नक़ाब हैं चेहरे।
जि़न्दगी का भरम है चेहरों से
जि़दगी की किताब हैं चेहरे।
ग़ौर से देख लीजिये इनको
गुज़रे दिन का हिसाब हैं चेहरे।
जिनको आता है झूठ ही कहना
बस वो ही कामयाब हैं चेहरे।
खुल गया है भरम तो अब संधीर
शर्म से आब आब हैं चेहरे।
8․
राज़े-दिल सब पे अयां हो ये ज़रूरी तो नहीं।
दिल जले और धुआँ हो ये ज़रूरी तो नहीं।
फिर मुहब्बत में हो तामीर कोई ताजमहल
फिर कोई शाहजहाँ हो ये ज़रूरी तो नहीं।
आपने जो भी सुना है वो बजा है लेकिन
वो हमारा ही बयाँ हो ये ज़रूरी तो नहीं।
ख़ैर-ख्वाहों में भी दुश्मन तो हुआ करते हैं
प्यार हर इक में निहाँ हो ये ज़रूरी तो नहीं।
दाग़ के हम हैं तरफ़दार मगर दिल्ली में
हर कोई अहले ज़बाँ हो ये ज़रूरी तो नहीं।
9․
हों परेशानियाँ कितनी भी हमें जीना है।
जि़न्दगी ज़हर सही ज़हर हमें पीना है।
हमने पहले भी लहू दे के सजाया है इसे
अब भी इस देश की रक्षा के लिये जीना है।
अपने हाथों से बना लेंगे हम अपनी किस्मत
ग़ैर के रहमो-करम पर भी कोई जीना है।
हमने इस देश की धरती पे जन्म पाया है
हमको इस देश में मरना है यहीं जीना है।
हम ख़ुद अपने लिये जीते हैं ये सोचा नहीं
अंजना हमको तो औरों के लिये जीना है।
10․
क़दम क़दम पे जो ख़तरा दिखाई देता है।
बहुत करीब उजाला दिखाई देता है।
करीब आए तो ये राज़ भी खुला हम पर
वो शख़्स दूर से अच्छा दिखाई देता है।
वो शख़्स टूट गया है, बिखर गया है बहुत
वो अपने आप में तन्हा दिखाई देता है।
वो दूसरों पे बहुत कहकहे लगाता था
वो आज बज़्म में तन्हा दिखाई देता है।
मैं अपने घर में जिधर भी नज़र उठाती हूँ
मुझे बुज़ुगोंर् का चेहरा दिखाई देता है।
कोई भी खुल के यहाँ सामने नहीं आता
हरेक चेहरे पे चेहरा दिखाई देता है।
जिधर भी देखो ग़रीबी-फ़साद-बेकारी
अजीब हिन्द का नक़्शा दिखाई देता है।
हमारा दौर-ए-सुख़न फिर भी कुछ ग़नीमत है
फिर उसके बाद अंधेरा दिखाई देता है।
देवी नागरानी
1․
मुखौटे की दुनिया में थी जि़ंदगानी।
फ़रेबों में पलती रही जि़ंदगानी।
भरोसों की बुनियाद पर थी खड़ी जो
वो धोखे ही खाती रही जि़ंदगानी।
फ़रेबों की साजि़श से अब तक घिरी है
रिहा उनसे कब हो सकी जि़ंदगानी।
नये मोड़ पर इक नया हादसा था
मिलन और जुदाई लगी जिंदगानी।
वो तिल-तिल जली, शम्अ सी बुझ गई फिर
कि यूँ ख़ाक होती रही जि़ंदगानी।
2․
अश्क से सींचा किए फिर भी शजर सूखे रहे।
पतझड़ी तेवर कड़े कुछ और ही कहते रहे।
चाँदनी के ख़्वाब हम बुनते रहे हैं धूप में
रात के सायों से लेकिन किस क़दर डरते रहे।
हैं जहाँ मंदिर वहीं है पास में मस्जिद कोई
साथ ही गूँजी अज़ानें, शंख भी बजते रहे।
था हमारा भी इबादतगाह से वादा कभी
या ख़ुदा वादा-खि़लाफ़ी हम मगर करते रहे।
ज़ालिमों के जु़ल्म का वो क्या करेंगे सामना
हम अगर आपस में खु़द ही बेसबब लड़ते रहे।
3․
लहू से लिखी वीरता की कहानी।
सुनाती सियाही कलम की जु़बानी।
वहीं जान की आहुति दी उन्होंने
जहाँ दहशतों की रही हुक्मरानी।
रक़ीबों के सीने पे आघात सहकर
रही मुस्कराती जवानी दिवानी।
हमारे ही परिवार के हैं सभी वो
लुटाते जो सरहद पे अपनी जवानी।
लहू जो बहा है सरे-जंगे मैदाँ
गुहर है वो अनमोल, समझो न पानी।
शहीदों के तन से जो लिपटा तिरंगा
उन्हें बा अदब देवी देती सलामी।
4․
इक सौदा बनके रह गये हो बार बार तुम।
ईमान अपना बेचते हो बार बार तुम।
नाकामियों की तुमने बना ली हैं आदतें
पापड़ अभी भी बेलते हो बार बार तुम।
घर तक तुम्हारे आग ये पहुँचेगी देखना
घर मुफ़लिसों का फूँकते हो बार बार तुम।
कूजागरी के फ़न से तुम्हें वास्ता नहीं
मिट्टी से फिर भी खेलते हो बार बार तुम।
हैरान हूँ कि तुमको ज़रा भी नहीं मलाल
दिल से हमारे खेलते हो बार बार तुम।
मैंने अना की आग में खु़द को जला लिया
घी मुस्कराके डालते हो बार बार तुम।
देवी समेट लो कभी, ख़ुद को संभाल लो
बिखरा वजूद देखते हो बार बार तुम।
5․
कभी दामन पे उसके दाग लगकर भी नहीं लगते।
मेरे दामन पे लेकिन दाग धुलकर भी नहीं धुलते।
नज़र से और की गिरकर उठाना ख़ुद को है आसाँ
नज़र से अपनी गिरकर लोग उठकर भी नहीं उठते।
बदन के इस हवन में जल रहा हर रोज़ मन मेरा
मगर अरमान आहुति में जलकर भी नहीं जलते।
बुराई की जो बुनियादों पे बुनते हैं महल अपना
वहाँ उनकी ख़ुशी के पाँव टिककर भी नहीं टिकते।
6․
चमन में खु़द को ख़ारों से बचाना है बहुत मुश्किल।
बिना उलझे गुलों की बू को पाना है बहुत मुश्किल।
किसी भी माहरू पर दिल का आना है बहुत आसाँ
किसी के नाज़ नख़रों को उठाना है बहुत मुश्किल।
न छोड़ी चोर ने चोरी, न छोड़ा साँप ने डसना
ये फि़तरत है तो फि़तरत को बदलना है बहुत मुश्किल।
किसी को करके वो बरबाद खु़द आबाद हो कैसे
चुरा कर चैन औरों का तो जीना है बहुत मुश्किल।
गले में झूठ का पत्थर कुछ अटका इस तरह ‘देवी'
निगलना है बहुत मुश्किल, उगलना है बहुत मुश्किल।
7․
गुलशनों पर शबाब है उसका।
ये करम बेहिसाब है उसका।
अश्क कितने मिले, खुशी कितनी
उलटा-सुलटा हिसाब है उसका।
मौत तो उसकी ओट लेती है
जि़न्दगी इक नक़ाब है उसका।
ये ख़ुदाई जो देखते हैं हम
कुछ नहीं, एक ख़्वाब है उसका।
तन की चादर महीन है इतनी
बस मुरव्वत हिजाब है उसका।
साज़ सरगम समाए हैं घट में
दिल की धड़कन रबाब है उसका ।
कौन समझा है ज़ीस्त को ‘देवी'
ढंग ही लाजवाब है उसका।
8․
ठहराव जि़ंदगी में दुबारा नहीं मिला ।
जिसकी तलाश थी वो किनारा नहीं मिला।
वर्ना उतारते न समंदर में कश्तियाँ
तूफ़ान आया जब भी इशारा नहीं मिला।
हम ने तो खु़द को आप संभाला है आज तक
अच्छा हुआ किसी का सहारा नहीं मिला।
बदनामियाँ घरों में दबे पाँव आ गईं
शोहरत को घर कभी भी, हमारा नहीं मिला।
खु़शबू, हवा और धूप की परछाइयाँ मिलीं
रौशन करे जो शाम, सितारा नहीं मला।
ख़ामोशियाँ भी दर्द से ‘देवी' पुकारतीं
हम-सा कोई नसीब का मारा नहीं मिला।
9․
हमने पाया तो बहुत कम है, बहुत खोया है।
दिल हमारा लबे-दरिया पे बहुत रोया है।
कुछ न कुछ टूट के जुड़ता है यहाँ तो यारो
हमने टूटे हुए सपनों को बहुत ढोया है ।
अर्सा लगता है जिसे पाने में वो पल में खोया
बीज अफ़सोस का सहरा में बहुत बोया है ।
तेरी यादों के मिले साए बहुत शीतल से
उनके अहसास से तन-मन को बहुत धोया है।
होके बेदार वो देखे तो सवेरे का समाँ
जागने का है ये मौसम वो बहुत सोया है।
बेकरारी को लिये शब से सहर तक ये दिल
आतिशे-वस्ल में तड़पा है, बहुत रोया है।
10․
अनबुझी प्यास रूह की है ग़ज़ल।
खु़श्क होठों की तिश्नगी है ग़ज़ल।
उन दहकते से मंज़रों की कसम
इक दहकती सी जो कही है ग़ज़ल।
नर्म अहसास मुझको देती है
धूप में चाँदनी लगी है ग़ज़ल।
इक इबादत से कम नहीं हर्गिज़
बंदगी सी मुझे लगी है ग़ज़ल।
बोलता है हर एक लफ़्ज़ उसका
गुफ़्तगू यूँ भी कर रही है ग़ज़ल।
मेहरबाँ इस क़दर हुई मुझपर
मेरी पहचान बन गई है ग़ज़ल।
उसमें हिन्दोस्ताँ की खु़शबू है
अपनी धरती से जब जुड़ी है ग़ज़ल।
उसका श्रृंगार क्या करूँ देवी
सादगी में भी सज रही है ग़ज़ल।
अमरेन्द्र कुमार
1․
ग़ुबार निकल जायेगा।
तो दिल भी बहल जायेगा।
खिलौनों से ही दोस्तो
ये मन तो मचल जायेगा।
कुरेद ज़रा ज़ख्म को
तो काँटा निकल जायेगा।
वो आके हवा की तरह
गुलाल सा मल जायेगा।
2․
छूते सबके होठों को
गीत कँवारे नहीं होते।
दिखते ठहरे-ठहरे से
ठहरे किनारे नहीं होते।
इस दिल को यकीन था लेकिन
सबके सितारे नहीं होते।
क्या होता इस दुनिया में
इश्क के मारे नहीं होते।
3․
अबके शामे दिवाली कुछ इस तरह से आयी है।
अरमानों के दीप बुझे हैं, फैली इक परछाईं है।
परचम आज़ादी का लेकर करते वो अगुवाई है
जल उठी है हर इक बस्ती ऐसी आग लगाई है।
रोशन कर लोगे तुम अपने घर-आँगन और गलियारे
उनका क्या है पुल के नीचे जिनकी ये चारपाई है।
हमने सब को इस दुनिया में प्यार सिखाया है यारो
दौरे-गफ़लत में हमने ही सबको राह दिखायी है।
4․
अकेलापन भी रास आने लगा है।
कि दिल महफि़ल में घबराने लगा है।
ये नज़रें झुकती हैं मिलने से पहले
वो अब हमसे भी शरमाने लगे हैं।
वो हमको सोचता रहता है अक़सर
हवाओं से पयाम आने लगे हैं।
करेंगे जी के हम भी क्या जहाँ पर
वही जब छोड़ के जाने लगे हैं।
वह कोई और था लड़ता था हरदम
वो अब तो देख शरमाने लगा है।
5․
हादसों का आशियाना आदमी।
हो गया खुद से बेगाना आदमी ।
हर घड़ी हर पल यहाँ पर दोस्तो
हसरतों का ही निशाना आदमी।
हँसते गाते हर घड़ी में देखिए
छेड़ता है कुछ तराना आदमी ।
लोग आते, लोग जाते ही रहे
हो गया लेकिन फ़साना आदमी ।
दर-ब-दर फिरता है ये मारा हुआ
ढूँढ़ता है पर ठिकाना आदमी।
धनंजय कुमार
1․
तेरे पहलू में यूँ उतरते हैं।
जैसे बादल कभी बरसते हैं।
रास्तों से जुदा है तो मंजि़ल
रुक गये जो वहीं पहुँचते हैं।
साथ चलने का ये नतीजा है
जब मैं गिरता हूँ तो संभलते हैं।
हमने दरिया में कूदकर पाया
लोग साहिल पे डूब मरते हैं।
कुछ तो ठहरेगा मेरी आँखों में
यूँ तो मंज़र कई बदलते हैं।
जबसे दुनिया को मैंने पहचाना
लोग मुझको ग़लत समझते हैं।
2․
आँख में आँसू सुखाना चाहिये।
रास्तों को यूँ मिटाना चाहिये।
रोशनी के पास जाने के लिये
बन्द आँखों को झुकाना चाहिये।
दूर तक फैले हुए इन्सान को
एक दिन मरक़ज़ पे लाना चाहिये।
ग़म किसी को अगरचे मिट जाए
राख को गौहर बताना चाहिये।
मंजि़लें आसान हैं, लेकिन कभी
रास्तों से हटके जाना चाहिये।
इक नई पहचान पाने के लिये
आग में गहना गलाना चाहिये।
3․
जो नज़र को दिया नज़ारों ने
वो दिया झील को किनारों ने।
ये ज़मीं आसमाँ से मिल जाती
है अलग कर दिया सितारों ने।
मुझको गुमराह कर दिया तो क्या
हौसला भी दिया है यारों ने।
बन्द कलियों का राज़ खोल दिया
कैसा तोहफ़ा दिया बहारों ने।
बेदिली का भी मुंतजि़र हूँ मैं
दिल तो बहला दिया इशारों ने।
अब तो लहरों के साथ रहना है
जबसे लौटा दिया किनारों ने।
4․
ये दर्द सभी को होता है।
कोई हँसता है कोई रोता है।
सागर में लहरें होती हैं
लहरों में सागर होता है।
अन्दर जो सोचा था हमने
बाहर वैसा ही होता है।
हर एक ख़्याली दरिया का
बस एक किनारा होता है।
जब मन ख़ाली ख़ाली सा हो
तब भी उसमें कोई होता है।
बाहर का होना, लगता है
अन्दर को लगना होता है।
5․
वीराने में फूल खिला है।
मुझमें कोई तुम जैसा है।
सबकी राहें अलग अलग हैं
फिर हमराह किसे कहता है।
एकरंगी दुनिया में सबने
सतरंगी चश्मा पहना है।
जैसे जैसे तुम बदले हो
कुछ तो मुझमें भी बदला है।
जैसे घूँघट में चेहरा है
हर कमरे में इक कमरा है।
गले हमारे मिलकर, उसका
चेहरा भी मुझसे मिलता है।
6․
राख सुलगेगी अंगारों की तरह।
तब वो लौटेगा सितारों की तरह।
हम नदी के साथ बहते जाएँगे
कौन रुकता है किनारों की तरह।
चेतना के द्वार पर सोई हुई
आरजुएँ हैं कतारों की तरह।
बन के दरवाज़ा कोई खुलता गया
बन्द कोई है दीवारों की तरह।
रंज कोई दिल पे छा जाता है जब
फूल भी लगते हैं ख़ारों की तरह।
बोन्ज़ाई सा किसी का दिल न हो
और न हो सर देवदारों की तरह।
7․
बादलों को निचोड़ कर देखा।
बोझ दुनिया का छोड़ कर देखा।
मुझसे छुपता रहा वजूद मेरा
आइने को भी तोड़ कर देखा।
होके तन्हा मिले सुकूँ शायद
साथ अपना भी छोड़ कर देखा।
वो किसी मोड़ पर नहीं मिलता
अपनी राहों को मोड़ कर देखा।
टूटना है जिन्हें वो टूटेंगे
हमने रिश्तों को जोड़ कर देखा।
छा गई रोशनी निगाहों में
जब अन्धेरों को ओढ़ कर देखा।
8․
जीवन रोज़ छलकता है।
उछला सिक्का लगता है।
यादें उसकी झूठी हैं
ग़म तो सच्चा लगता है।
रिश्तों की माला तो है
धागा कच्चा लगता है।
कुछ करता हूँ सोचके ये
उसको कैसा लगता है।
मिल कर तो आराम नहीं है
मिलना अच्छा लगता है।
बहुत सयाना होकर वो
बिल्कुल बच्चा लगता है।
9․
आसमान पर फूल खिला लो।
धरती को माला पहना लो।
आँधी खु़द ही रुक जाएगी
मन में बंद गुबार निकालो।
खेल करम और किस्मत का है
यूँ ही अपना दिल बहला लो।
कुछ यादों को जि़न्दा करके
मुर्दा सा त्यौहार मना लो।
वृक्ष खड़ा होकर झुकता है
ऐसा कुछ आकार बना लो।
प्रश्न अभी जि़न्दा रहने दो
उत्त्ार का भण्डार सम्हालो।
10․
मैं सफ़र का एक बहाना चाहता हूँ
ख़ुद से मैं कुछ दूर जाना चाहता हूँ।
उठ सको तुम आसमां तक इसलिये
बादलों का पुल बनाना चाहता हूँ।
अपनी हस्ती से मैं गोया एक दिन
उम्र का परदा हटाना चाहता हूँ।
मैं हिमालय की नसों को चूस कर
ख़ुद को ही गंगा बहाना चाहता हूँ।
अपनी दुनिया में बसाने के लिये
मैं तुम्हें फिर से बनाना चाहता हूँ।
यों समझ लो दोस्ताने का मज़ाक।
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वाह क्या बात है...
जवाब देंहटाएंखण्डेलवाल जी की गजल के दूसरे पैरा में किताब के है या किताब में.....
बहुत बहुत बधाई सभी रचनाकारों एवं रचनाकार को....
एक एक पंक्ति ऐसी कि जान निकल जाए...
वृक्ष खड़ा होकर झुकता है
ऐसा कुछ आकार बनालो...
रौंदकर पाँवों से कहते, ‘खिल न पाते क्यों गुलाब!'
दंग हम तो आपकी इस सादगी पर रह गये।
और इस पर तो सदके ही सदके....
जबसे दुनिया को मैंने पहचाना
लोग मुझको ग़लत समझते हैं।
और यह तो मुझे लगता है कि मैंने ही लिखी है.............या मेरे कलेजे से फूटी हैं...
रौंदकर पाँवों से कहते, ‘खिल न पाते क्यों गुलाब!'
दंग हम तो आपकी इस सादगी पर रह गये।
कहीं कहीं यूनीकोड की बजह से शायद कुछ मात्राओं की हल्की हल्की कंकरी हैं देसी घी की खुशबूदार परम स्वादिष्ट खीचरी में....
जैसे-- मैं हिमालय की नसों को चूस कर
ख़ुद को ही गंगा बहाना चाहता हूँ।
अब या तो यह होगा कि खुद को ही गंगा बनाना चाहता हूं
अथवा होगा कि
खुद की ही गंगा बहाना चाहता हूं...
. जो भी हो अति आनंद..
परमानंद...
सभी को प्रणाम
अनेकानेक प्रणाम...
सादर
रावत जी,
जवाब देंहटाएंजी हाँ, यह समस्या है - पेजमेरक फ़ाइल को यूनिकोड में बदलने पर बहुत सी त्रुटियाँ आ जाती हैं. प्रत्येक को ठीक करना श्रमसाध्य कार्य है. कोशिश रहती है कि त्रुटि रहित पाठ जाए. परंतु फिर भी कुछ त्रुटियां बनी रह जाती हैं, जिनके लिए क्षमा-प्रार्थी हैं.
अरे नहीं सर क्षमा वाली कोई बात ही नहीं है.... इतना परिश्रम आप करते हैं यह क्या कम है......
जवाब देंहटाएंकिस तरह जी रहा हूं मैं पी पीके अश्के गम..
कोई और जिए तो कलेजा निकल पड़े.....
यहां हम अपने रोजके सरकारी कागद कारे नहीं कर पाते
और आप इतना सब कर लेते हैं.... हम तो आपके आभारी हैं.....हम तो कंकरी के घी को चूस कर स्वाद लेने वाले ब्रजवासी हैं,,, जितना समझ में आ जाता है असीम आनंद आता है..... आपके प्रयासों को शत शत नमन...
सादर.