ह मारे शहर में जब से दूरदर्शन केन्द्र प्रारंभ हुआ , कवि दूरबीन लाल दूरदर्शी तभी से बेहद खुश थे , खुश होते भी क्यों न , आखिर उनके मन की बात...
हमारे शहर में जब से दूरदर्शन केन्द्र प्रारंभ हुआ,कवि दूरबीन लाल दूरदर्शी तभी से बेहद खुश थे, खुश होते भी क्यों न, आखिर उनके मन की बात जो पूरी हो गई थी, अब उन्हें कविता पाठ के लिये दिल्ली दूरदर्शन केन्द्र का मुंह नहीं ताकना पडे़गा और नह ही बारबार कर्ज लेकर दिल्ली जाना पड़ेगा।
वैसे भी देखा जाये तो दिल्ली उनसे बहुत दूर है उनसे․․․․․ही क्यों, देश के उन समस्त लोगों से दूर है, जिनके पास सिफारिश की कविताएं और भाई भतीजावाद के मुक्तक नहीं है। वैसे भी दूरदर्शीजी अपने अनुभव के आधार पर इतना तो समझ ही गए कि दिल्ली दूरदर्शन केन्द्र पर स्थानीय कवियों का कब्जा है, जो किसी अन्य शहर के कवियों को घुसपैठ करने ही नहीं देते।
दूरदर्शी को याद है, शहर में जब दूरदर्शन केन्द्र प्रारंभ हुआ था, तब वह शहर के सवसे पहले व्यक्ति थे, प्रधानमंत्री को धन्यवादपत्र प्रेषित करने वाले उस समय उन्हें पहली बार लगा कि हमारे देश के नेता, मंत्री निकम्मे नहीं हैं बल्कि उपयोगी हैं, पहली बार उन्होंने वर्तमान सरकार को धन्यवाद दिया था और मन ही मन ईश्वर से उसके दीर्घायु होने की कामना की थी, पहली बार उन्हें लगा कि उनका वाट व्यर्थ नहीं गया पहली बार उन्हें अपने घर के श्वेत-श्याम टीवी पर प्यार आया था जो कविताएं उन्होंने नेताओं, मंत्रियों, सरकार को कोसते हुए लिखीं थीं, पहली बार उन्हें बेमानी सी लगी लगा कि वास्तव में देश विकास की ओर अग्रसर है।
घर में बच्चे टी0वी0 देखते हुए उन्हें आश्चर्य से देखने लगे कि पिताजी को आजकल हो क्या गया है टीवी देख न ले से मना क्यों नहीं कर रहे हैं?
दूरदर्शी जी ने तो दबी जुबान से कहना शुरू कर दिया, बच्चों, टीवी देखा करो, आजकल टीवी पर अच्छे अच्छे कार्यक्रम आने लगे हैं बच्चे खुश थे खुशी के इस वातावरण में एक दिन दूरबीन लाल “दूरदर्शी” अपनी पत्नी से गर्व से बोले, “सुनो, अब वह दिन दूर नहीं, जब हम तुम्हें दूरदर्शन पर दर्शन देंगे तब तुम मानोगी, हम एक अच्छे कवि हैं और देखो, पड़ोसियों से अच्छे संबंध बना लो, उनके यहां रंगीन टीवी है हम उनके यहां रंगीन नजर आयेंगे”।
उनकी पत्नी ने चिढ़कर जवाब दिया, “हां, पड़ोसियों के यहां तो रंगीन नजर आओगे ही․․․ घर में तो ब्लक एण्ड व्हाइट हो, वह भी पोर्टेबल, बिना एन्टिना के आये दिन मैकेनिक के यहां पड़े रहते है”
“जो तुम समझ रही हो, वह बात नहीं है, हमारी बात का मतलब टीवी से है”
“मैं भी तो टीवी की ही बात कर रहीं हूं”, पत्नी ने जवाब दिया“कई बार आपसे कहा है, रंगीन टीवी ले आओ, तब घर में ही रंगीन नजर आओगे, परंतु मेरी सुनते तो हो नहीं․․․”
दूरबीन लाल “दूरदर्शी”चुप हो गए। इसी में उन्होंने अपनी भलाई समझी। वह जानते थे कि अगर वह अब और कुछ बोले तो जवाब में पत्नी अंतहीन “सास भी कभी बहु थी” सीरियल की तरह बोलती चली जायेगी, और पलटकर यह भी नहीं पूछेगी कि आपको यह सीरियल कैसा लगा?
अब दूरबीनलाल “दूरदर्शी”को इंतजार था, दूरदर्शन केन्द्र के बुलावे का आते जाते कई दिनों तक डाकिए की राह देखते रहे डाकिया मोहल्ले में तो आता था, परन्तु उनके घर की और न देखता तो मन मसोस कर रह जाते वह सोचते, “कम्बख्त तुझसे तो दशहरे-दीवाली पर ही निपटूंगा”
कई दिन बीत गए तो उनके दिमाग में अनेक अच्छे-बुरे विचार उठने लगे, “क्या हमारी प्रसिद्वि दूरदर्शन केन्द्र तक नहीं पहुंची? या हमारे साहित्यिक दुश्मन सक्रिय हो गए? यह भी हो सकता है कि दूरदर्शन पर स्टॉफ से बाहर से आया हो और उसे पता न हो कि इसी शहर में हास्य व्यंग्य के कवि दूरबीन लाल “दूरदर्शी”स्थायी रूप् से रहते हुए हिन्दी की छाती पर पिछले 20 वर्षो से कलम घसीट रहे हैं” एक दिन यही सोचकर उन्होंने दूरदर्शन केन्द्र की ओर जाने का निर्णय लिया, घर से निकलते समय उन्होंने पत्नी को निर्देश दिया, “सुनो, आज हम दूरदर्शन केन्द्र जा रहे हैं, आज दिन भर टीवी खोलकर रखना, बच्चों को स्कूल मत भेजना और पड़ोसियों को भी बता देना, ओ सकता है हमारे कविता पाठ का दूरदर्शन से सीधा प्रसारण हो जाए”
दूरदर्शन केन्द्र पर लोगों की लंबी कतार देखकर उन्हें कुछ भ्रम सा हुआ कि कहीं वह रोजगार दफ्तर में तो नहीं आ गए, परंतु नजदीक जाने पर उन्हें कई जाने माने चेहरे नजर जो आए, वे शहर के कवि, लेखक, कलाकार थे, दूरदर्शी को देखते ही उन्होेंने पहचान लिया․․․․ और सभी एक स्वर में बोले, “आईए दूरदर्शी जी․․․आइए, कतार में खड़े होकर अपना रजिस्ट्रेशन करवा लीजिए”
“दूरदर्शी” ने कतार में खड़े होकर सभी का अभिवादन किया, वैसे देखा जाए तो उनका भ्रम सही था, दूरदर्शन केन्द्र भी तो लेखकों, कवियों एवं कलाकारों का रोजगार दफ्तर ही होता है, जिस का नंबर लग जाए, उसके वारे न्यारे हो जाते है, और पारिश्रमिक के रूप् में एक मोटी रकम मिलती रहती है, कतार में खड़े-खड़े दूरदर्शी सोचने लगे, “इस देश में कतार में लगकर सिवा तसल्ली के कुछ नहीं मिलता है, रजिस्टे्रेशन तो उन्होंने दिल्ली दुरदर्शन पर भी करवाया था क्या मिला? आजा तक निमंत्रण पत्र नहीं आया, लिहाजा दूरदर्शन पर कार्यक्रम देना है, तो सामने से नहीं, पीछे के दरवाजे से घुसपैठ करनी होगी, कतार में खड़े-खड़े तो युग बीत जाएगा, और उन्हें कोई पूछने भी नहीं आयेगा” वहीं पर खड़े-खड़े उन्होंने एक योजना बनाई और कतार से बाहर आकर घर की ओर चल दिए, दूरदर्शी को घर आते देख पत्नी ने आश्चर्य से पूछा, “अरे आप तो टीवी पर आने वाले थे, घर कैसे आ गए?”
वह क्या जवाब देते, तुरंत बहाना खोज लिया, “आज दूरदर्शन वालों का कैमरा खराब हो गया है”।
पत्नी को उनके बहाने पर विश्वास हो गया, “तभी तो आज दिन भर टीवी पर रूकावट के लिए खेद आ रहा था, मैं सोच रही थी, आप जहां भी जाते हैं, वहां रूकावट के लिए खेद क्यों हो जाता है? आज पत्रिकाओं में कविताएं भेजते हैं, तो वे खेद सहित वापस आ जाती हैं, और अब खुद ही खेद सहित वापस आ गए”।
वह कुछ बोलते उसके पूर्व उनकी छोटी बिटिया आ गई-“पिताजी, आज हम दिन भर टीवी पर आपको देखते रहे, परंतु टीवी पर एक आंटी बार-बार आकर कह रहीं थीं, ढूंढते रह जाओगे․․․․․”
कहते हैं, अनुभव कैसा भी हो, वक्त पर काम आ ही जाता है, दूरदर्शी को कवि सम्मेलनों का अनुभव था, कवि सम्मेलनों में अक्सर उस कवि को बुलाया जाता है, जो किसी कवि सम्मेलन का संयोजक होता है, यह होशियार कवियों का एक अलिखित परस्पर समझौता है, कि तुम मुझे बुलाओ मैं तुम्हें बुलाऊंगा, दूरदर्शी ने अपने अनुभव के आधार पर योजना बनाई, क्यों न दूरदर्शन केन्द्र के किसी अधिकारी को बुलाकर कवि गोष्ठी में मुख्य अतिथि बनाया जा, ताकि बदले में वह हमें दूरदर्शन पर मौका दे, योजना को क्रियान्वित करने के लिए उन्होंने अपनी साहित्यिक संस्था के बिखरे सदस्यों को एकत्रित किया, और असंतुष्टों को दूरदर्शन के नाम पर संतुष्ट किया, कुछ असंतुष्टों ने दबी जबान में विरोध किया, “कम्बख्त हमें सीढ़ी बनाकर दूरदर्शन पर जाना चाहता है”।
परंतु उनका विरोध चल न सका और पूर्ण बहुमत से प्रस्ताव पारित कर दिया गया, संस्था के सभी सदस्य युद्व स्तर पर दूरदर्शन केन्द्र में घुसपैठ को निकल पड़े, दूरदर्शी ने दूरदर्शन केन्द्र के एक अधिकारी योगेन्द्र योगी को बातों ही बातों में अपना परिचय दिया और कवि गोष्ठी का निमंत्रण पेश किया, योगी जी ने उसे सहर्ष स्वीकार कर लिया,निश्चित समय पर गोष्ठी प्रांरभ हुई, संस्था के सभी सदस्यों ने योगी जी के सामने अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन कुछ इस तरह किया, मानो वह किसी दूरदर्शन के अधिकारी के सामने नहीं, बल्कि कैमरे के सामने कविता पाठ कर रहे हों, स्वाभाविक है, योगी जी को खुश होना ही था, वह खुश हुए अंत में धन्यवाद देते हुए वह बोले,“आप लोगों में प्रतिभा हे, लेकिन मुझे आश्चर्य है, कि देश और समाज को नई रोशनी देने वाले अभी तक अंधेरे में कैसे पड़े हैं, वह क्या कहते हैं․․․․․․ जहां न पहुंचे रवि, वहां पहुंचे कवि ․․․․․․․․आश्चर्य है, रवि से आगे पहुंचने वाले अभी तक दूरदर्शन पर नहीं पहुंचे? समाज को दिशा देने वाले। मैं तुम्हें दिशा दूंगा, और एक-एक को दूरदर्शन पर पहुंचाने का भरसक प्रयास सरूंगा”
करीब 15 दिनों के बाद दूरदर्शी को दूरदर्शन केन्द्र से निमंत्रण पत्र मिला, “कृपया अगले माह की 10 तारीख को अपने कार्यक्रम की रिकार्डिग करवाने के लिए आप सादर आमंत्रित है”
दूबले-पतले दूरदर्शी निमंत्रण पत्र पा खुशी से फूले नहीं समा रहे थे, सो इस खुशी को अपने मित्रों, रिश्तेदारों, परिचितों, अपरिचितों में बांटते जा रहे थे, उनकी संस्था के सदस्यों ने एक गोष्ठी करके उन्हें बधाई देते हुए, उनका सम्मान कर दिया, क्योंकि वे जानते थे, आज नहीं तो कल जब उन्हें निमंत्रण मिलेगा, तब वे भी सम्मान के अधिकारी हो जाएंगे, और उन्हें विरोध का सामना नहीं करना पडे़गा, एक दिन दूरदर्शी अचानक मुझसे टकरा गए, मैंने उनसे कतराने का असफल प्रयास किया था, कि उन्होंने फौरन लपक लिया, “भैया, आपका ज्यादा समय न लेते हुए सिर्फ एक मिनिट लूंगा।”
मुझे आश्चर्य हुआ, अब क्या दूरदर्शी जी एक मिनिट की भी कविता लिखने लगे हैं? बुझे मन से कहा, “अब जो कुछ भी सुनाना है, वह अब हम टीवी पर ही सुनाएंगे” फिर थोड़ा रूककर बोले, “मित्र यह पोस्ट कार्ड हमारी प्रशंसा में दूरदर्शन केन्द्र को लिख देना”
मैंने पोस्ट कार्ड लेते हुए कहा, “ठीक है, लिख देंगे और कुछ सेवा?” वह बोले, “बस इतना ही काफी है। कार्यक्रम जरूर देखिएगा”
निश्चित समय पर “दूरदर्शी” दूरदर्शन केन्द्र पहुंचे, योगेन्द्र योगी ने उन्हें देखते ही पहचान लिया और बोले, “आईए दूरदर्शी जी, आईए अरे साहब, हमें पता ही नहीं था, आप तो बहुत प्रसिद्व हैं अभी आपने कार्यक्रम दिया ही नहीं और आपकी प्रशंसा में पत्र आने लगे”
दूरदर्शी ने म नही मन उन रिश्तेदारों, मित्रों को कोसा, “कम्बख्तों, भले ही कार्यक्रम नहीं देखते परंतु कुछ दिनों बाद ही पत्र लिखते तो तुम्हारे बाप का क्या बिगड़ जाता, पोस्ट कार्ड तो हमारा ही खर्च हुआ था”
“आप तैयार हैं?” योगी ने टोका”
“जी, बिलकुल”
“तो फिर चलिए, मेकअप वाले कक्ष में चलते हैं”
वहां पहुंच कर योगी बोले, “अब आप अपने कपड़े उतारिए।”
“कपड़े क्यों? कपड़े उतराने की क्या जरूरत है कविता पाठ करने के लिए?”दुरदर्शी ने आश्चर्य से पूछा।
“कार्यक्रम देने के लिए आपको यहां की पोशाक पहननी पड़ेगी”
दूरदर्शी ने कोई विरोध नहीं किया चुपचाप वहां की पोशाक पहन ली अब वह कैमरे के सामने खड़े थे योगी ने उन्हें निर्देश दिया, “जैसा मेैं करता हूं आपको भी वैसा ही करना है”
दूरदर्शी की समझ में नहीं आ रहा था वह चिढ़कर बोले, “आप क्या करवाना चाहते हैं? हम यहां कविता पाठ के लिए आए हैं, किसी नाटक के रिहर्सल के लिए नहीं।”
“देखिए साहब, यह योगा का कार्यक्रम है और मैं योगेन्द्र योगी इस कार्यक्रम का निर्देशक हूं आपको मेरी सिफारिश से ही निमंत्रण मिला है”
आपने जिस तरह हाथ पैर फेंक-फेंक कर कविता पाठ किया था उसमें हमें लगा था, आप कविता पाठ से कई गुणा बेहतर योगा कर सकते हैं
कैमरा दूरदर्शी के सामने था अब वह कर ही क्या सकते थे योगी के निर्देश पर शुरू हो गए शायद यह सोचकर कि चलो, योगासन ही सही यह क्या कम है कि वह दूरदर्शन के कैमरे के सामने आ गए वरना इस देश में कई महान कलाकार हैं, जो चापलुसी, भ्रष्टाचार के सामने अपने आपको असहाय महसूस कर अपनी कला के साथ असमय ही अपने सीलन भरे अंधेरे कमरे में दम तोड़ देते हैं
दूसरे दिन मोहल्ले के लोग दूरदर्शी को उनके घर जाकर बधाई दे रहे थे, और वह पलंग पर पड़े-पड़े पत्नी से अपने हाथ पैरों की मालिश करवा रहे थे भीतर के कमरे से टीवी की आवाज आ रही थी
मैंने उन्हें बधाई दी। उसी समय भीतर से टीवी की आवाज आई “यही है, राइट च्वाइस, बेबी․․․․”
इधर दूरदर्शी के मुंह से निकला- “हाय․․․․․․हा․․․․․”
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सुरेश भाटिया
23, अमृतपुरी खजुरीकला रोड,
पिपलानी भेल, भोपाल-462022
मोबाईल नं0-9165424119
Kushbhatia50@gmail.com
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