रामवृक्ष सिंह का आलेख - यूनीकोड के माध्यम से देवनागरी लिपि के गौरव की वापसी

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भाषावैज्ञानिक लेख यूनीकोड के माध्यम से देवनागरी लिपि के गौरव की वापसी (पंचम वर्ण, अनुस्वार और अनुनासिक के विशेष संदर्भ में) डॉ. रामवृक्ष ...

भाषावैज्ञानिक लेख

यूनीकोड के माध्यम से देवनागरी लिपि के गौरव की वापसी

(पंचम वर्ण, अनुस्वार और अनुनासिक के विशेष संदर्भ में)

डॉ. रामवृक्ष सिंह

आज से 64 वर्ष पूर्व जब हिन्दी को राजभाषा घोषित किया गया और सरकारी काम-काज में उसके प्रचार-प्रसार के विविध उपाय किए गए, तब एक प्रकार से उसके स्वाभाविक विकास को बाधित भी किया गया। भाषा के नियोजित विकास की प्रक्रिया में हिन्दी का कुछ हिस्सा (ठीक-ठीक कहें तो सरकारी काम-काज वाला हिस्सा) प्रधानतया ऐसे लोगों के हाथ में चला गया, जो रोजी-रोटी के लिए किसी साधन की तलाश में निकले थे। इन लोगों को अपनी योग्यतानुसार कुछ भी काम मिलता तो वे कर लेते। संयोग से इन्हें राजभाषा कार्यान्वयन का काम मिल गया और ये उससे जुड़ गए। इन्होंने राजभाषा हिन्दी को कहाँ पहुँचाया, यह अपने-आप में अनुसंधान का विषय हो सकता है, और कुछ हद तक विवाद का भी।

हिन्दी को सरकारी काम-काज की भाषा बनाने का जिम्मा जिन अधिकारियों, राजभाषा-कर्मियों आदि को मिला था, उनमें से सभी का हिन्दी-ज्ञान बहुत उच्च स्तर का रहा हो, यह न तो शक्य था, न संभव। कई अधिकारियों को किसी पद विशेष पर रहने के कारण ही यह दायित्व निर्वाह करना पडा। इस काम में दो-चार कदम इधर-उधर पड़ जाने पर भी किसी बड़ी दुर्घटना और विपदा के घटित हो जाने का डर नहीं था, इसलिए कई बार इससे ऐसे लोग भी आ जुड़े, जिन्हें भाषा का विवेक बिलकुल भी नहीं था। इनमें प्रशासनिक सेवा के भी कुछ लोग निश्चय ही रहे होंगे। तीन वर्ष पहले राजभाषा विभाग द्वारा जारी वार्षिक कार्यक्रम का आमुख पाठकों (खासकर राजभाषा-कर्मी पाठकों) को याद होगा, जिसमें सचिव महोदया ने हिन्दी को सरल बनाने का एक सूत्र सुझाया था। इस सूत्र का केन्द्रीय भाव यह था कि हिन्दी वाक्यों में अंग्रेजी के शब्द घुसा देने से हिन्दी भाषा सरल हो जाएगी, फिर चाहे यह घुस-पैठ जबरिया ही क्यों न हो। सचिव महोदया सफल-मनोरथ हो पातीं, इससे पहले ही राजभाषा विभाग को उनसे मुक्ति मिल गई। थैंक गॉड।

भारत के केन्द्र सरकार के दफ्तरों में हिन्दी को राजभाषा बनाने की प्रक्रिया में यंत्रों की भी बहुत बड़ी भूमिका रही है। इन यंत्रों में टंकण यंत्र, यानी टाइपराइटर भी शुमार हैं। एक-दो दशक पहले तक हमारे सरकारी दफ्तरों में बहुत-सा टंकण-कार्य इन्हीं टंकण यंत्रों पर होता था। इन टंकण-यंत्रों में प्रत्येक कुञ्जी पर दो वर्ण-चिह्न, व्यंजन, स्वर अथवा उनकी मात्राओं के टंकण की व्यवस्था थी, एक लोअर केस में और दूसरी अपर केस में। कुञ्जी-पटल का आकार भारतीय भाषाओं, खासकर नागरी में प्रयुक्त लिपि-चिह्नों की संख्या को देखते हुए बहुत छोटा था। इसके चलते हमारी भाषाओं के बहुत से अक्षर मैकेनिकल टाइपराइटर के कुञ्जी-पटल में अँट नहीं पाए और हमारे सरकारी भाषा-विदों ने प्रत्येक वर्ग के पंचम वर्ण की कुर्बानी देकर देवनागरी को टाइपराइटर के अनुरूप बनाने का उपाय पेश किया।

इस प्रकार राजभाषा हिन्दी की लिपि देवनागरी का एक मानकीकृत (और सच्चे मायनों में टाइपराइटर-अनुकूलित) रूप सामने आया, जिसमें ङ, ञ, ण, न और म आदि पाँचों पंचमाक्षरों के लिए भारतीय व्याकरण में सदियों से चली आती व्यवस्था को बदलकर अनुस्वार लगा देने का उपाय सुझाया गया। पहले से चली आ रही व्याकरण-सम्मत व्यवस्था यह थी कि जिस अक्षर के पहले नासिक्य ध्वनि का अंकन किया जाना हो, उस अक्षर के पहले हमें उस वर्ग का पंचम वर्ण लगाना चाहिए, जैसे चम्पा (क्योंकि प वर्ग का पंचम वर्ण म है), कङ्घा (क्योंकि क वर्ग का पंचम वर्ण ङ है) झञ्झा (क्योंकि च वर्ग का पंचम वर्ण ञ है), ठण्डा (क्योंकि ट वर्ग का पंचम वर्ण ण है), आदि।

हमारे पास लिपि के अंकन की जो व्यवस्था थी (यानी मैकेनिकल टाइपराइटर से टंकण की व्यवस्था) उसके कुंजीपटल की सीमा के कारण हमने अपनी लिपि के स्वाभाविक सौन्दर्य की कुर्बानी दे दी। यह उस समय की हमारी मजबूरी थी। उस मज़बूरी के चलते हम मानव मुख-विवर से उच्चरित होने वाली सभी ध्वनियों का अंकन देवनागरी में नहीं कर पा रहे थे, जबकि उच्चारण के स्तर पर हमने उक्त ध्वनियों को काफी हद तक अपना लिया था। उदाहरण के लिए ‘’हॉङ्गकॉङ्ग’ देश के नाम को ही लें। मैकेनिकल टाइपराइटर पर इसे हम या तो ‘हांगकांग’ लिखते या ‘हाँगकाँग’। दोनों ही स्थितियों में वास्तविक उच्चारण का लिप्यंकन नहीं हो पाता। ऐसी स्थिति में हम वह नहीं लिख रहे थे, जो उच्चरित हो रहा था। ऐसी सामग्री के उच्चारण में बहुत कुछ उच्चारण-कर्ता के निर्णय पर छोड़ दिया गया, जो हिन्दी और नागरी, दोनों के लिए भाषावैज्ञानिक दृष्टि से शुभ संकेत नहीं था।

अब हमारे दफ्तरों में टाइपराइटर की खटर-पटर समाप्त हो चुकी है, और वे पुरातत्व संग्रहालयों की सामग्री बनने के कगार पर हैं। कंप्यूटर के आ जाने पर भी कुछ समय तक हम उसी पुरानी लिपि-व्यवस्था को अपनाए रहे। लेकिन यह समस्या केवल भारतीय भाषाओं में नहीं थी। चीनी, जापानी आदि भाषाओं में शायद इस समस्या का आकार भारतीय उप महाद्वीप की भाषाओं के समक्ष पेश आ रही समस्या की अपेक्षा बहुत विकराल था। हाल में आए यूनीकोड ने इस मामले में पूरा युगान्तर ही उपस्थित कर दिया है। अब उच्चारण के अनुरूप लिप्यंकन न कर पाने की हमारी मज़बूरी खत्म हो चुकी है। अब हम हॉङ्गकॉग, बॉल, स्मॉल, चञ्चल, ठण्डा, चम्पा आदि सभी शब्द वैसे ही लिख सकते हैं, जैसे कि वे उच्चरित होते हैं।

टाइपराइटर के कुञ्जी-पटल की सीमाओं के कारण हमने अरबी-फारसी से गृहीत नुक्ता-युक्त ध्वनियों को भी पाठक के निर्णय के आसरे छोड़ दिया था। लेकिन अब उन ध्वनियों में लगने वाले नुक्ते की कुर्बानी देने की भी हमें ज़रूरत नहीं है।

हिन्दी के प्रबुद्ध पाठकों को स्मरण होगा कि क-वर्ग, च-वर्ग, ट-वर्ग, त-वर्ग और प-वर्ग, यानी पाँचों वर्गों में पञ्चम वर्ण यानी नासिक्य ध्वनि के अंकन के लिए निर्दिष्ट वर्ण के स्थान पर अनुस्वार लगाकर हमने टाइपराइटर के कुंजीपटल को कुछ छोटा कर लिया था, लेकिन इससे भी हमारा काम नहीं चला तो हमने अनुनासिक, यानी चन्द्र बिन्दु की भी बलि दे दी और उसकी जगह अनुस्वार, यानी बिन्दी से काम चलाने का निर्देश जारी कर दिया। इससे भी हिन्दी के भाषिक सौन्दर्य की बहुत क्षति हुई। हमें रंग और रंग(ना), हंस और हँस(ना) का विवेक ही नहीं रहा, जिसमें प्रथम संज्ञा रूप है और द्वितीय क्रिया रूप। जिस शब्द की वर्तनी को ‘आञ्चलिक’ होना चाहिए था, वह ‘आंचलिक’ भी नहीं रहा, बल्कि ‘आँचलिक’ हो गया। ऊपर जिन राजभाषा-कर्मियों की हम बात कर आए, उनमें से बहुत-से स्वनाम-धन्य और स्वतःसिद्ध विद्वान और विदुषियाँ ‘आँचलिक’ को ही शुद्ध वर्तनी मानते-लिखते हैं। इस अराजकता का जन्म उस शिथिलता से हुआ, जो यंत्रीकरण के कारण पैदा हुई। यह अराजकता उन हिन्दी-सेवियों के कारण परवान चढ़ी, जिन्हें हिन्दी के भाषिक-सौन्दर्य से कुछ भी लेना-देना नहीं था, बल्कि वे तो रोजी-रोटी का साधन होने के कारण हिन्दी की चाकरी बजा रहे थे। मज़े की बात यह भी है कि इस अराजकता को हमारे सरकारी निदेशालयों और विभागों के इस नारे ने भी हवा दी कि ‘हिन्दी में लिखना आसान है, शुरू तो कीजिए’। सरल-सरल का गायन करते-करते हमने गलत-सलत हिन्दी का भी समर्थन करना आरंभ कर दिया। टाइपराइटर की सीमाओं के व्याज से नागरी वर्तनी के तथाकथित मानकीकरण के नाम पर हमने उसके भाषावैज्ञानिक स्वरूप को भी क्षति पहुँचाई। अब समय आ गया है कि हम उस क्षति की पूर्ति करें।

अंग्रेजी आदि विदेशी भाषाओं से आगत कई शब्दों का उच्चारण उक्त (स्रोत) भाषाओं में दो अथवा अधिक तरह से होता है, किन्तु देवनागरी में उन सभी का लिप्यंकन हम एक ही वर्तनी में कर पाते हैं, जैसे पेन (कलम और दर्द, दोनों), जेल (कारागार और अर्धतरल, दोनों), सेल (कक्ष और प्लवन या बिक्री, तीनों)। यह सूची काफी लंबी है। मूल विदेशी शब्दों में, परस्पर पृथक अर्थ ज्ञापित करानेवाले इन शब्दों वर्तनी का अंतर तो है ही, उनके अनुरूप उच्चारण का अंतरण भी है। नागरी में इनका लिप्यंकन करते समय हम लिपि के स्तर पर कोई भेद नहीं रख पाते, इसलिए पढ़ते समय पाठक को लिखित सामग्री के उच्चारण में अपने विवेक से निर्णय का सहारा लेना पड़ता है। दक्षिण की भाषाओं में भी शायद यह समस्या है। उदाहरण के लिए, दक्षिण के लोग जब दर्द के अर्थ में पेन का उच्चारण करते हैं, तो कुछ खींचकर पेइन बोलते हैं। देवनागरी में उपलब्ध संस्कृत साहित्य में ध्वनियों के दीर्घीकरण के लिए एक चिह्न (S) प्रयोग होता था, जो हिन्दी के वर्तमान नागरी कुञ्जीपटल से गायब है। इस चिह्न के लगने से ही ओऽम् का वास्तविक उच्चारण संभव हो पाता है। बेहतर होगा कि देवनागरी वर्णों के लिए कंप्यूटिंग करनेवाले सॉफ्ट-विद् इस संकेत के अंकन के लिए भी नागरी कुञ्जीपटल में व्यवस्था करें। ऊपर लिखित ओऽम् में यह संकेत (जो रोमन वर्ण एस से सादृश्य रखता है) कहीं से काटा-चिपकाया गया है। नागरी कुञ्जीपटल पर तो यह उपलब्ध नहीं है।

इस आलेख के माध्यम से इन पंक्तियों का लेखक हिन्दी के नियोजित विकास की प्रक्रिया से जुड़े भारत सरकार, गृह मंत्रालय के राजभाषा विभाग और मानव संसाधन विकास मंत्रालय के केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय से यह विनम्र निवेदन करना चाहता है कि वे नागरी को अपने वैज्ञानिक, व्याकरण-सम्मत और मानक रूप में लौटाने की पहल करें, और इस विषय में पूरे हिन्दी-भाषी समाज के लिए निर्देश जारी करें, क्योंकि यूनीकोड के अवतरण व कंप्यूटर प्रणालियों के माध्यम से उसके व्यापक प्रचार-प्रसार एवं अनुप्रयोग के कारण अब यह संभव हो गया है।

अस्तु।

डॉ. रामवृक्ष सिंह

COMMENTS

BLOGGER: 2
  1. आपने लिखा....हमने पढ़ा....
    और लोग भी पढ़ें; ...इसलिए शनिवार 14/09/2013 को
    http://nayi-purani-halchal.blogspot.in
    पर लिंक की जाएगी.... आप भी देख लीजिएगा एक नज़र ....
    लिंक में आपका स्वागत है ..........धन्यवाद!

    जवाब देंहटाएं
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रचनाकार: रामवृक्ष सिंह का आलेख - यूनीकोड के माध्यम से देवनागरी लिपि के गौरव की वापसी
रामवृक्ष सिंह का आलेख - यूनीकोड के माध्यम से देवनागरी लिपि के गौरव की वापसी
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