गरीबी, खाद्य सुरक्षा और चिंतन की दरिद्रता अमित कुमार सिंह भारत का सामूहिक चिंतन लकीर का फकीर है. हम असहज प्रश्न पूछ्ने में संकोच करते हैं. य...
गरीबी, खाद्य सुरक्षा और चिंतन की दरिद्रता
अमित कुमार सिंह
भारत का सामूहिक चिंतन लकीर का फकीर है. हम असहज प्रश्न पूछ्ने में संकोच करते हैं. यह हमारा राष्ट्रीय चरित्र और संस्कार है. संप्रग सरकार की खाद्य सुरक्षा योजना इसका ताजातरीन उदाहरण है. गरीबी की लोकलुभावन राजनीति भारतीय राजनीति का कोई नवीन अध्याय नहीं है. यह बस पुरानी शराब और नई पैकिंग जैसी बात है. इंदिरा गांधी ने वर्ष 1971 में गरीबी हटाओ का क्रांतिकारी नारा दिया था. इस सुविचारित और बहुप्रचारित निर्णय के करीब 42 वर्षों के बाद, मौजूदा सरकार ने अत्यंत चतुराई,साफगोई और शानदार टाइमिंग से राजनीति की पिच में खाद्य सुरक्षा की गुगली फेंकी है. इससे न केवल उनके विरोधी बल्कि सहयोगी भी क्लीन बोल्ड हो गए हैं.
राजनीतिज्ञों,अर्थशास्त्रियों और पत्रकारों का खाद्य सुरक्षा विधेयक के संबध के पक्ष और विपक्ष में अपने हितों और वैचारिक पोजीशन के अनुकूल रटे–रटाए तर्क हैं. इस संदर्भ में,आम जनता की हैसियत से तीन–चार प्रश्न दिलों-दिमाग में हरकत करने लगते हैं. पहला,क्या कारण है कि एक लम्बे अर्से के बाद भी गरीबी की राजनीति आज भी लोकप्रिय है परंतु फिर भी गरीबी का खात्मा नहीं हो सका है?दूसरा,क्या खाद्य सुरक्षा से गरीब का पेट भर जाएगा और क्या केवल पेट भरने से वह स्वस्थ,सुखी और संपन्नता का जीवन जीने लायक बन जाएगा?तीसरा,क्या गरीब को अमीरी के लिये प्रेरित और प्रोत्साहित करने से स्वतः उसकी गरीबी समाप्त नहीं हो जाएगी? चौथा,क्या गरीबी उन्मूलन का एकमात्र दायित्व सरकारों का है और इसमे व्यक्ति की कोई जिम्मेवारी नहीं है?इन प्रश्नों का असहज उत्तर खाद्य सुरक्षा विधेयक के संदर्भ में कई नये आयामों को समझने में हमारी मदद कर सकता है.
गरीबी आत्मा को निस्तेज कर देती है. साहित्यकार प्रेमचंद की इस अनुभूति में एक सामाजिक सत्य और तथ्य है. विडंबना है कि भारत में राजनीतिज्ञ और राजनीतिक दल गरीबों की फौरी राहत के लिए मरहम लगाते हैं,परंतु गरीबी को जड़ से समाप्त करने में उनकी कोई भी दिलचस्पी नहीं दिखाई देती है अन्यथा गरीबी अब तक समाप्त हो जाना चाहिये था. यद्यपि गरीबी उन्मूलन का सरकारी प्रयास मानवीय सदाशयता और नैतिक प्रेरणा का आदर्श उदाहरण है परंतु इसका पूर्ण उन्मूलन ही सच्ची सहानुभूति और संवेदना की असली अभिव्यक्ति मानी जानी चाहिये. हम सभी जानते हैं कि गरीबी उन्मूलन विकास की प्रेरणा,प्रतिभा-कौशल के नियोजन, आधारभूत सुविधाओं की उपलब्धता,तकनीकी प्रशिक्षण,जनसंख्या पर रोक और कार्यसंस्कृति के विकास से ही संभव हो सकता है. सरकारें इन बुनियादी कारणों की अनदेखी करती है. वे गरीबी के रोग का इलाज उस लालची डॉक्टर की तरह करती हैं जिसकी दिलचस्पी रोगी में कम और उसकी जेब में ज्यादा होती है. आज गरीबों का एक बडा वर्ग किसी भी राजनीतिक दल का सबसे सक्रिय,संगठित और उत्साही वोट बैंक होता है. यही कारण है कि सभी सरकारें उन्हें रिझाती,ललचाती और फुसलाती हैं. उदाहरणस्वरुप,केंद्र सरकार खाद्य सुरक्षा के नाम पर करीब 35-40 हजार करोड़ रुपये की धनराशि खर्च करने पर आमदा है लेकिन वह भंडारण की समस्या के समाधान के लिए तनिक भी सचेत नहीं है. विदित है कि भारत में करीब 40 हजार करोड का अनाज,फल और सब्जी प्रतिवर्ष यूं ही बरबाद हो जाता है.
खाद्य सुरक्षा के पक्ष में यह भी दलील दी जा रही है कि सरकार द्वारा कारपोरेट घरानों को करीब चालीस लाख करोड़ के टैक्स माफी पर कोई हाय–तौबा नहीं मचाता है लेकिन खाद्य सुरक्षा के नाम पर की गई शुरूआत लोगों को अभी से अखरने लगा है. इसलिये आज अर्थव्यवस्था की दयनीय अवस्था और रूपये के गिरते मूल्य का हवाला दिया जा रहा है. यह सच है कि सरकार द्वारा कारपोरेट घरानों पर किया गया उपकार सरकार का एक अक्षम्य नैतिक अपराध है,फिर भी सरकार द्वारा खाद्य सुरक्षा के नाम पर किये गये राजनीतिक निवेश को वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव के परिप्रेक्ष्य में आसानी से समझा सकता है. यद्यपि इसका एक दूसरा पहलू भी है.
खाद्य सुरक्षा कानून के लागू होने के पश्चात देश की दो तिहाई आबादी को सस्ते दाम में गेहूं,चावल और जौ उपलब्ध हो सकेगा, लेकिन गरीब तेल,मसाला,सब्जी,और दूध के लिये क्या बंदोबस्त करेगा? सरकार इस बिंदू पर तनिक भी विचार नहीं कर रही है. स्वास्थ्य,शिक्षा जैसे बुनियादी आवश्यकताओं के लिये अतिरिक्त धन गरीब कहॉ से लाएगा?आर्थिक क्षमता काम,कौशल और अवसर से बढ़ती है. सरकार का कोई प्रयास इस दिशा में नहीं दिखाई देता है.
खाद्य सुरक्षा का स्वाभाविक संबंध खाद्य उत्पादन से भी है. भारत में कृषि की दशा अत्यंत दयनीय है. सरकारी ऑकडों के अनुसार,आज करीब चालीस प्रतिशत किसान खेती छोड़ना चाहते हैं. रोज करीब 2500 किसान खेती छोड़ रहे हैं. यही नहीं,वर्ष 1999 से 2012 तक करीब दो लाख किसान आत्महत्या को विवश हुये हैं. सवाल यह है कि अगर कृषि की दशा नहीं सुधरती है तो खाद्य सुरक्षा के लिये अनाज कहॉ से आएगा. यह सोचने का जहमत कोई नहीं उठाना चाहता है. जनवितरण प्रणाली की खामियॉ,भ्रष्ट नौकरशाही और सरकारी मिलीभगत को छोड़ भी दिया जाये तो मनरेगा समेत अन्य लोकलुभावन सब्सिड़ी में करीब 90,000 करोड़ रूपये के बाद भी गरीबी दूर क्यों नहीं हो सकी है. इस पर विचार करने की आवश्यकता है.
भोजन मानव जीवन की न्यूनतम आवश्यकता होती है. फिर भी भोजन की उपलब्धता खुशहाल जीवन की एकमात्र शर्त नहीं हो सकती है. गरीबी का एक व्यक्तिगत आयाम भी होता है. उदाहरणस्वरूप,केशव पंड़ित रोज चार सौ रूपया कमाकर भी गरीब हो सकता है. कारण,उसके पॉच बच्चें और रोज शराब पीने की आत्मघाती आदत. दूसरी और,बुधिया महतो रोज तीन सौ रूपये कमाकर भी खुशहाल जीवन जी सकता है. क्योंकि उसके केवल दो बच्चे हैं और वह कोई नशा भी नहीं करता है. उसकी बीबी भी समझदार है. वह अपने पति का सहयोग करती है. अपनी समझदारी से वह बचत कर बच्चों की पढाई में निवेश करती है. यह एक व्यक्तिगत उदाहरण है परंतु एक व्यापक सामाजिक परिप्रेक्ष्य में इस सच्चाई की धड़कन सुनी जा सकती है. प्रगति के लिये एक जज्बा,जोश,जुनून और संघर्ष जरूरी होता है. फलतः सरकारों को मुफ्तखोरी की संस्कृति को प्रेरित और प्रोत्साहित करने के बजाये अमीरी को बढाने का सकारात्मक माहौल भी बनाना चाहिये.
AMIT KUMAR SINGH
ASSISTANT PROFESSOR
R.S.M. (P.G.) COLLEGE
DHAMPUR (BIJNOR)-246761
U.P.
अच्छी बात कही है, लेकिन जनसंख्या पर नियंत्रण भी तो परम आवश्यक है।
जवाब देंहटाएंसटीक लेख
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