पूर्वजों की शिकारगाथा ‘बाप न मारे मेंढकी ,बेटा तीरंदाज’ अफ्लातुनो सम्हाल जाओ।अब ज्यादा फेंकने का नइ| उन दिनों बाप लोग जो मेढक भी नहीं मार...
पूर्वजों की शिकारगाथा
‘बाप न मारे मेंढकी ,बेटा तीरंदाज’
अफ्लातुनो सम्हाल जाओ।अब ज्यादा फेंकने का नइ|
उन दिनों बाप लोग जो मेढक भी नहीं मारा करते थे ,बेटों को डाक्टर –इंजीनियर बनाने की बजाय ‘तीरंदाजी’ की तरफ धकेलते थे।
उन दिनों, बच्चों को जब तक धकेला न जाए,मानों उनमें कुछ बनने की, अपने –आप में काबिलियत ही नहीं होती थी?
वे बच्चे अपने दिमाग से नहीं चलते थे, उनका ‘रिमोट पावर’ माँ-बाप के हाथों हुआ करता था।
आज के बच्चे कुछ समझदार होते ही, रिमोट हथिया लेते हैं।
अव्यक्त वे कहना चाहते हैं ,जो कुछ बनना है अपनी दम पर अपनी काबिलियत ,अपने हौसले के बूते से बनना है ,आप लगते कहाँ हो ?
निपुण तीरंदाज बच्चा , बुजुर्गों के लिए फख्र का मसला हुआ करता था।
चार-जनों के बीच बैठे नहीं कि, बच्चे का गुणगान शुरू।
’इसका’ निशाना इतना अच्छा है कि, उड़ती चिड़िया के जिस ‘पर’ को कहो...... निशाना लगा देता है।
अर्जुन है अर्जुन......,
दूसरे बुजुर्ग हक्के-बक्के एक दूसरे का मुंह ताकते रह जाते ...कौन अर्जुन ,महाभारत वाला.... ?
हाँ-भई हाँ......|
उस जमाने में ‘अर्जुन-एवार्ड’ वाला डिपार्टमेंट नहीं हुआ करता था|’ओलंपिक ,एशियाड’,स्तर के खेल, मोहल्ले-गांवों के बीच हो जाया करते थे।
सखेद, कई जगह धक्के खाने के बाद , ‘तीरंदाजी के उन माहिरों’ को क्लर्की मुहाल हो जाती थी।
किसी पडोसी ने ज्यादा तारीफ के पुल बाँध दिए, तो कोई लड़की वाला, अच्छे दान-दहेज के साथ अपनी बेटी ब्याह देता था....।मसलन लो तीरंदाजी का गोल्ड।
हम जब कभी, नाना –नानी के घर, बारासिंघे की सींगो को ,शेर की खाल को, दीवारों में टंगे देखकर, कौतूहल दिखाते, तो वे बड़े फख्र से बताते कि उनके दादा को शिकार का खूब शौक था| वे जंगलों में शिकार के वास्ते दोस्तों के साथ हप्ते-महीनों के लिए चल देते थे।
हम पूछते वे खाते क्या थे ?वे बताते जंगल में कन्द-मूल ,फल और शिकार से मारे गए जीव-जंतु ,मछली ,गोश्त उनका लंच –डिनर होता था।
हम महज किस्सा सुन के रोमांचित हो जाते थे|
कैसी रहती रही होगी तब की जिंदगी ?
......न बिजली ,न पंखा, न ए.सी ,न रेडियो, न मोबाइल न टी.व्ही न स्कूटर न गाडी ,न बिसलरी वाटर ,न ढंग का खाना न पहनना ?
पहले जो आदि-मानव के किस्से हमें रोमांचित करते थे ,अब उससे ज्यादा पिछले गुजरे पच्चास साल वाले मानव के रहन-सहन पर तरस आता है।
उन दिनों के कम तनखाह वाले बाप,या कम पढे –लिखे बापों का, एक दौर गुजर गया। वे लोग जोर आजमाइश कर बमुश्किल ,बच्चों को क्लर्क –बाबू ,प्यून-चपरासी की हैसियत दिला पाते थे।
इस कहावत के मायने निकालने का ख्याल आया तो नतीजे एक से एक निकले;
एक जो करीब का मामला है वो ये कि
“बाप पढे न फारसी, बेटा अफलातून”
हमारे पडोस के सहदेव जी, खुद स्कूटर मेकेनिक थे, स्कूल वगैरह गए कि नहीं, पता नहीं ?मोहल्ले वालों ने कभी बस्ता लटकाए नहीं देखा।
सामने के टेलर मास्टर ने अपने बयान में कहा कि ,मेरी जानकारी में उनके घर से फटे पुराने पेंट का झोला बनाने के लिए कभी आर्डर ही नहीं आया, लिहाजा मैं इत्मीनान से कह सकता हूँ कि सहदेव स्कूल गया ही नहीं| खैर छोडो ...बात बेटे की हो रही थी, बेटे को ओवरसियर की नौकरी मिल गई। पी डब्लू डी का ओवरशियर मानी घर में मनी प्लांट ,नोट की मशीन।
बाप को समझ थी, बेटा बहुत बड़ा साहब बन गया है। बेटा अपनी पोस्ट और पैसे पर इतराता था। चार-जनो की पंचायत जहाँ जुड जाए वो यूँ बताता कि , जिस सड़क को उसने बनवाया है ,वो मिसाल है| कोलतार के आविष्कार के बाद, उसका प्रयोग जिस ढंग से, उसने किया है उसका लोहा सरकार मानती है। उसे सरकार छोडती ही नहीं। बड़े-बड़े प्रोजेक्ट पर काम करने को कहती है।
अभी ब्रिज का काम मिला है। वहाँ भी देखिए हम क्या कर दिखाते हैं। सीमेंट-सरिया तो कोलतार से मजबूत की चीज है न?वो लाजवाब पक्की चीज देंगे कि दस बीस-साल .....,बीच में कोई पढा-लिखा जवान कूद पड़े कि ,ब्रिज तो सौ-दो-सौ साल के लिए होनी चाहिए कि नहीं ?
अफलातून, बाटन में पल्टी मार के कहता है| मेरी बात सुने नहीं कि बोल पड़े बीच में ! मैंने कब नहीं कहा कि सौ –दो सौ सालों वाला ब्रिज नहीं बनेगा ?मेरा कहना था कि दस-बीस साल तक रंग रोगन की जरूरत नहीं रहेगी। कम्लीट मेंटिनेंस फ्री, समझे मेरे दोस्त।
अफलातून की वही ब्रिज, पूरी बनने के छ: माह नहीं बीते, कि भरभरा के बैठ गई।
इस ब्रिज हादसे के सबक के तौर पर ,अब हमें लगता है कि, बेटों की शादी के लिए लोग खानदान का अता-पता क्यों लेते रहते हैं। उसके पीछे का मकसद ,शायद ‘अफलातून’ टेस्ट होता रहा होगा।
यही ‘अफलातून- टेस्ट’ वाला नियम अगर सब इंटरव्य में लागू हो जाए तो ‘फारसी’ न पढे हुए बापों के अफलातून बेटों को नौकरी की पात्रता न के बराबर रह पाती। इंटरव्यू में अफ्लातूनों के मुंह से बोल, फूलो की माफिक झरे नहीं कि, ‘गेट –आउट’ नेक्स्ट प्लीज का फरमान जारी।
मेंढकी न मारे हुए बाप के तीरंदाज बेटे, या फारसी न पढे बाप के अफलातून बेटे, अगर सम्हाल सकते हैं, तो केवल देश। यहाँ लफ्फाजों की, निशानेबाजों की अफ्लातूनों की सदैव आपातकालीन जरूरत होती है। वे मजे से बता सकते हैं कि प्याज, डालर ,रुपया, सांप सीडी का खेल है कब कौन चढ़ेगा- उतरेगा, ये आपकी किस्मत और डायस डालने के तरीके पर निर्भर है।
विरोधियों की बात को किस कान से सुनना है किससे निकालना है ,कितना पेट में रखना है कितना पचाना है इसमें ये न केवल माहिर होते हैं बल्कि उल्टे उलटवार कर ये साबित कर देते हैं कि कटघरे में किसको खड़ा होना चाहिए ?
सुशील यादव
न्यू आदर्श नगर दुर्ग (छ.ग.)
22.8.12
mobile 09426764552
जवाब देंहटाएंबहुत ही बढ़िया... बधाई..प्रमोद यादव
अति सुंदर और व्यवस्था पर करारा व्यंग्य करती हुई एक उत्तम रचना
जवाब देंहटाएंGood job
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