मोतीलाल सड़कों पर दौड़ते वाहन कारखानों की सीटियाँ या रेलगाड़ियों की चीख क्या मचाती होगी शोर ? कभी मछली बाजार जाएं या किसी गाँव-हाट आदमी की आवा...
मोतीलाल
सड़कों पर दौड़ते वाहन
कारखानों की सीटियाँ
या रेलगाड़ियों की चीख
क्या मचाती होगी शोर ?
कभी मछली बाजार जाएं
या किसी गाँव-हाट
आदमी की आवाज
तोड़ डालती है सारे बंधन ।
कई रातों से
सुनाई नही पड़ा उनका शोर
सारे संचित शब्द
गिर पड़े हों घाटी में
और मकड़ी की जालें
इधर से उधर दौड़ती हो
सारे पकवान मानों बासी हो गये
और भाषा की चादर
फट चुकी हों कई जगहों से
ऐसे में आदमी की आवाज
और उनके शब्द
चीरघर में पड़ा हो जब बेकार
तब भी अप्रिय नहीं लगना चाहिए ।
हाँ आदि हो चुका हो
जब आदमी शोर का
तब खलने लगती है
यह गहरी चुप्पी
और यही लगता है
यह गहरी चुप्पी ही
सबसे बड़ा शोर है ।
* मोतीलाल/राउरकेला
* 9931346271
--.
जसबीर चावला
०गांधी : चलाचली की बेला०
----------------------------
लद गये दिन गांधी के
विचार बिका
प्राण प्रतिष्ठा के पहले ही
चौराहों के गांधी
बुत बन गये
नाम भी खूब चला/भुन चुका
अब डर है
वोट न काट दे गांधी
वैश्विकरण की आँधी में
अब नहीं बजता गाना
'पाई चवन्नी चाँदी की
जय बोलो महात्मा गांधी की'
०
गांधी साहित्य नहीं
बिकता है लुगदी साहित्य
एम जी रोड़
था कभी महात्मा गांधी मार्ग
महात्मा गांधी मेडिकल कॉलेज
अब एम जी एम है
दादागिरी
पैरोडी
है
गांधीगिरी
०
कुछ सर्वोदयी बेबस बूढ़े
आश्रमों/घरों में
करते अरण्य रोदन
निरंतर
गिनते दिन
पहन/बेच रहे खादी
फेरते सुमरनी
ढो रहे पालकी
गंाधी बाबा के नाम की
०
नया निज़ाम
नये बुत
नई मुद्रा/नोट
अपने चारण/अपने भाट
लकीरों को छेड़ो/मिटाओ
या
बगल में खींचो
कथित बढ़ी लकीर
गांाधी को हटाओ/मिटाओ
जय जयकार
और बड़े पुरस्कार
इतिहास चुगली कर रहा
चमड़े के सिक्के चले
भिश्ती के भी
कई बार
०००
०प्रतिप्रश्न०
संवेदनशील/ बेबस
क्षेत्रों में ही
क्यूं
होती है
सदा
व्यवस्था/ निगरानी
क्यों नहीं होती
गश्त/ चोकसी
वेदनाहीन/निष्ठूर आस्थाओं
के मठों में
जाति/धरम के
आश्रमों में
अँधेरे/विवेकशून्य कोनों में
सहस्त्रबाहू के
महलों में/ गलियों में
--
// मैं कविताएं और कैफीयत //
---
अकेला जाता हूं सुबह
कुछ साथ हो लेती
कुछ थोड़ी देर संग करती
ग़ायब हो जाती
कई दूर तक साथ निभाती
कुछ वाचाल/जल्दी पीछा छोड़ देती
लौट लौट अाती कई
स्मृति पटल पर
कोई और साथ हों तो
गुरेज करती/चुप लगाती
बीच बीच में
दस्तक भी देती
जो घर तक आती
वे घर कर जाती
मजबूर करती हैं
अब उन्हे न छेड़ा जाये/न छोड़ा जाये
एक साथ हमला करती
अभिसारिकाएं
ये कविताएं
--
//संतोषी//
---
वे दौड़े
तेज
खूब तेज
दूसरों को ढकेलते
पीछे छोड़ते
गिरे औंधे मुंह
धड़ाम
उच्चतम न्यायालय
काम तमाम
०
वे भी दौड़े/दौड़ रहे
फर्राटे से
फूली साँस
हांफ रहे
०
वे चल रहे हैं
मध्यम/धीरे
लौटते भी
कभी कभार
उल्टे पांव
देख छांव
मुदित मन
अब भी चल रहे हैं
०००
//आस्था//
आस्था
अनंत काल से
क्रूर होती है
अंधी होती है
अपने ही मद में
चूर होती है
इसीलिये
समाप्त होने को
मजबूर होती है
०००
//उम्र और सपने//
---
यह उम्र
झुकने की नहीं
तनने की है
सांस छोड़ने की नहीं
सपने
बुनने की है
०००
//सोना जागना//
---
वे जागे
अभिनय किया
जागने का
सो गये
सोये ही हैं
०
वे सोये थे
चेतन्य हुए
जाग गये
जागे ही हैं
०००
//पूर्ण विराम//
---
उद्यान का
प्रात:भ्रमण
होता है
बरास्ता मुक्तिधाम
०
सनद रहे
भूल / भटक न जांये
रास्ता
अंतिम मजिंल
पूर्ण विराम
०००
श्वान प्रवृत्ति
'''''''''''''''''''
देखते ही खाली दीवार
कहीं भी
तन मन में अदम्य इच्छा / उत्तेजना
जागती है उनके
टांग उठाऊ
आदिम कुत्ता प्रवृत्ति
बटन खोल
त्याग करेंगे
या
चिपकवा देंगे
अपना नाम / नारा
पार्टी पोस्टर
००००
वैज्ञानिक कायाकल्प
'''''''''''''''''''''''''
संस्कृति/संस्कार/परंपरा धनी
वैज्ञानिक पति ने
तिथी ग्यारह पोष माह
शुक्ल पक्ष से शुक्ल पक्ष
तिथी बारह
माह माघ मध्य
पत्नि संग
किया कुंभ मेले में
संगम तट
'कल्पवास'
**
पर्ण कुटी में रहे
धरती पर सोये
धैर्य/अहिंसा/सदाचारी/जितेन्द्रिय रहे
स्वयंम भोजन बनाया
एक बार खाया
प्रातःकाल उठे
भजन गाये
त्रिकाल संध्या/सत्संग किया
िदन में तीन बार
गंगा/त्रिवेणी
स्नान किया
पत्नि संग
तप/होम/
स्वर्ण दान/घृतदीप जलाये
ईशान कोण में ग्रहों की स्थापना
ब्राह्मण जिमाये
विधी अनुसार किया
मोक्ष की कामना की
मुक्ति मांगी
जन्म जन्मातंरो से
**
समय का अंतराल
उनका
कायाकल्प हुआ
मां के कहने पर
पत्नि को घर से निकाल दिया
दूसरी भी संतान
बेटी होने पर
यह जानते हुए की
स्थाई हैं
महिला में दो क्रोमोसोम
एक्स/एक्स
पुरूष के दो क्रोमोसोम
एक्स/वाय
करते हैं निर्धारण
बेटी या बेटा का
**
मोक्ष तो बेटे से मिलता है
वंश बेटा चलाता है
अर्थी को कंधा/मुखाग्नि देता है
श्राद्ध/तर्पण
यह सब विज्ञान नहीं
समाज करता/कहता है
समाज विज्ञान/तर्क से परे
रूढीयों/अंध विश्वास/बंधनों
से चलता है
इसीलिये
यहां
सब चलता है
*****
आत्म मुग्धा नायिकाएं
-----------------------
आत्म मुग्धाएं
कब बनी मध्याएं
कब प्रगल्भाएं
स्वयंम रति
स्वयंम नख/दंत निशान
आत्म श्लाघा/प्रचारित कहानियाँ
पीट डंका/मना जश्न
हवाई कामयाबी
गली/गांव/चौपाल
यात्राएं/रेलियां
मेरा प्रदेश
स्वर्णिम प्रदेश
००
कौन कहे/समझाये
ये तो निर्वसनाएं हैं
और हाथी पर राजा नंगा
---
०पंचायती राज०
आज नजर नहीं आया
वो प्रेमी जोड़ा
जो
मिलता था रोज
प्रात: भ्रमण में
ले हाथों मे हाथ
हंसता/कूकता/किलकारी भरता
चुपके से प्यार करता
सपने बुनता / संजोता
सुखद भविष्य के
०
दूसरे दिन
अखबारी खबर थी
लटकाया गया है
पेड़ से
एक प्रेमी युगल
पंचायत के फैसले से
दोनों की जात अलग थी
०
एक और जोड़ा
लटकाया गया
खाप के आदेश से
एक ही गोत्र था उनका
०
सच कहा है
प्राण जाये पर
जात न जाये
०००
मनोज 'आजिज़'
ग़ज़ल
--
घर बेघर सा क्यूँकर है
वफ़ा ओ प्यार बेअसर है
बुजुर्गों की हैसियत खास थी
बच्चा भी उनपर फूटकर है
हर कमरा घर को बनाता था
कमरा आज खेमे में बंटकर है
कोई अदबगार के नाम मशहूर है
कोई मस्ती की गुलाम लचर है
वो घर था कभी जन्नत सा
अब वही एक अजायबघर है
जमशेदपुर
झारखण्ड
09973680146
---,
विजय वर्मा
हाइकु
सरल हिन्दी
सरल हिंदी
को अपनायें ,होगी
हिंदी की सेवा ।
क्लिष्ट भाषा
से लोग दूर भागे,
है जानलेवा ।
ट्रेन कहाती
लौह-पथ गामिनी ,
देवा -रे-देवा ।
बात एक है ,
अल्पाहार कहो या
कहो कलेवा ।
कुछ उर्दू के
शब्द आ गये तो क्यों
मचा बवेला ।
हरेक साल
समारोह करके
है खाते मेवा ।
अरुण-शिखा ?
मुर्गा कहे तो मुर्गी
हो गयी बेवा ?
--
v k verma,sr.chemist,D.V.C.,BTPS
BOKARO THERMAL,BOKARO
vijayvermavijay560@gmail.com
----.
राजीव आनंद
गुलामी कल भी थी, गुलामी आज भी है
बदला फकत समय है
उपनिवेश भारत आज भी है
ईस्ट इंडिया कंपनी चली गयी पर
बाजार में वालमार्ट आज भी है
अंग्रेजी सरकार का था जो व्यापार
वही कर रही हमारी सरकार आज भी है
गुलामी में पिस रहे थे जैसे हम गुलाम
पिसती हुई जनता भारत में आज भी है
धन ले गया लार्ड क्लाइव जैसे भारत से
भेज रहे धन अमीर स्विस बैंक में आज भी है
दृश्य बदल गया अवश्य है
गुलामी कल भी थी गुलामी आज भी है
जमींदारी चली गयी कागजों पर
बीडीओ, सीओ नये जमींदार आज भी है
जमीन है पर हक नहीं उसपर जनता का
अकूत संपत्ति के मालिक अधिकारी आज भी है
खाए-पीए-अघाए शासक थे अंग्रेज
खा-खा कर बीमार शासक आज भी है
भूख से मरते गुलाम लगान देते थे
वही गरीब-गुरबा टैक्स देती जनता आज भी है
किसान उपजाते थे अंग्रेज खाते थे
किसान उपजाते शासक खाते आज भी है
भूखा, थका, हारा मजदूर कल भी था
आत्महत्या करते किसान-मजदूर आज भी है
पौंड़ कल भारत का भगवान हुआ करता था
डॉलर बन गया भगवान आज भी है
पौंड़ से पीछे चलता था कल रूपया
डॉलर से पीछे चलता रूपया आज भी है
खून चूसकर अंग्रेजों ने किया था जो ठाठ
ठाठ वही नेता-मंत्री का आज भी है
विधि-विधान बनाया था अंग्रेजों ने
वही विधि-विधान चल रहा भारत में आज भी है
अंग्रेजों ने सजा नहीं दी अंग्रेजों को
न्याय का यही विधान भारत में आज भी है
छियासठ सालों में फकत नाम बदल सका
काम सब अंग्रेजों वाले भारत में आज भी है
यूनियन जैक अर्थहीन था गुलामों के लिए
तिरंगा भूख-मरों के लिए अर्थहीन आज भी है
रात के अंधेरे में मिली थी जो आजादी
दिन के उजाले में संज्ञाविहीन वो आज भी है
राजीव आनंद
सेल फोन - 9471765417
----.
बच्चन पाठक 'सलिल'
मैं भी एक नदी हूँ
--------------------
--- डॉ बच्चन पाठक 'सलिल'
मैं भी नदिया के समान
अहर्निशि बहता जाता हूँ
मैं सारी संज्ञाएँ भूल
अपने नदी पाता हूँ ।
मेरा जीवन भी नदी सरीखा, होता सतत प्रवाहित
मीड़, मूर्च्छनाएँ होतीं, रहती वहां समाहित ।
नहीं रुकूँगा, नहीं झुकूँगा आगे बढ़ता जाऊंगा
और अंत में सागर से मिल तदाकार हो जाऊंगा ।
नहीं बनूँगा संग्रहकर्ता,, मेरे तेवर में धार रहे
नहरें निर्मित हों मुझे चीरकर हरा भरा संसार रहे ।
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मुझे हरी दूब बनाना
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-- डॉ बच्चन पाठक 'सलिल'
हे प्रभो, अगले जनम में मुझे
भले ही वनस्पति बनाना
पर कृपा कर गुलाब मत बनाना ।
मुझे अस्वीकार्य है रूप का प्रदर्शन कर
किसी का फूलदान सजाना
अधरों सी खिली पंखुड़ियों को
छूने पर जो देता है दंशन
वह खुशबूदार होने पर भी अमानवीय है
यह संवेदन हीनता है गुलाब का दर्शन ।
मुझे गोखरू भी नहीं बनाना
जिससे पटे हैं मैदान
जो यात्री के तलवों को, करते हैं लहूलुहान ।
मुझे हरी दूब बनाना
जिसे सभी रौंदते हैं
और जो चुपचाप रहती है
अधुनातन मानव मन बनकर ।
पर दूब सबको सुख पहुंचाती है
प्रातः भ्रमणकारियों के लिए
संजीवनी बन जाती है ।
पता-- बाबा आश्रम, पञ्च मुखी हनुमान मंदिर के पास
आदित्यपुर-२, जमशेदपुर-१३
झारखण्ड
फोन-०६५७/२३७०८९२
--
सीताराम पटेल
कबूतरी री
1ः-
हँसी ठिठोली, हृदय में लगी गोली,
बन गई गोरी भोली, कैसे कहूँ प्रेम बोली।
सजनी भोली, लाउँ मैं अँगना डोली,
द्वार बनाना रंगोली, रस भीगें हमजोली॥
चंदन रोली, प्रेम के रंग में घोली,
कसमसा रही चोली, देख मेरा मन डोली।
त्यौहार होली, मतंगों की आई टोली,
करते सब ठिठोली, रंगों से वे मुख धोली॥
प्रीत की खोली, चलों चलें हमजोली,
प्रेम रस सब झोली, राधा कान्हा खेलें खोली।
2ः-
भीगे बदन, देख जले मेरा मन,
उसमें मधु वचन, पिघल रहा है तन।
हीरे की कण, उसमें कलश स्वर्ण,
तराशा उज्ज्वल तन, दिल तेरा रहा बन॥
पायल छन, बाजे छनन छनन,
हृदय घुंघरू बन, चाहे जन गण मन।
दे दो शरण, निभा सकूँ यह प्रण,
तेरी छाया कण कण, पूजा करे गण गण॥
3ः-
कमल कली , देख मेरा दिल जली,
महलों में तू है पली, आई है क्यों मेरी गली।
मिश्री की डली, शीरा में गई है तली,
ललचाती भृंगदली, मच गई खलबली॥
छलिया छली, है बनवारी से बली,
आना गोविन्द की गली, है तू गोरी मनचली।
काली कोयली, तू मुझे लगती भली ,
सजना के घर चली, रहे सब हाथ मली॥
4ः-
कबूतरी री, चल गुटर गूँ करी,
सावन सा हरी भरी, मानव की दुःख हरी।
प्रेम की परी, तुम पूरा सोन खरी,
तुम पर मन मरी, तुम हो सोन की लरी॥
कोयलिया री, गा गाकर मन भरी,
बसंत का है प्राण री, प्रेमी को लगे बाण री।
स्नेह सगरी, भर लें हम गगरी,
बनाएँ नेह नगरी, स्वर्ग बने भू सगरी॥
5ः-
रूप की राशि, बनी मेरे गले फाँसी,
मोहनी छवि तराशी, जैसे सुमन हो काशी।
प्रीत की प्यासी, अलकापुरी निवासी,
हम है बसुधा वासी, मिलकर करें लासी॥
नेहा निवासी, बना दे मुझको घासी,
झूठ को लगाउँ फाँसी, एक रहें सब भाषी।
साम्राज्ञी झाँसी, दुश्मनों की है विनाशी,
सबको खिलाए बासी, फिर भी है सब प्यासी॥
6ः-
प्रेम की पाती, दीया संग जले बाती,
मोहब्बत आत्मघाती, वचन निभाते साथी।
प्रेम सुहाती, दिन मिले चाहे राती,
जो यहाँ सिर नवाती, वो सबको यहाँ पाती॥
प्रेम मिटाती, प्रेम यहाँ बनाती,
अन्न धन यहाँ जाती, प्रेम यहाँ रह जाती।
प्रेम है भाती, प्रेम का गीत गाती,
प्रेम बहार लाती, प्रेम अमर कहाती॥
7ः-
दूती तू शांति, लाती हमेशा संक्राँति,
मिटाती सबकी भ्राँति, दुनिया में लाती क्राँति।
कवि की कांति, सदा सत्य को मनाती,
खुशियों का गीत गाती, गृह को सुखी बनाती॥
स्नेह की ज्योति, अहं सबका मिटाती,
उल्फत सबमें लाती, सबका उल्फत पाती।
पक्षी की जाति , सबमें एकता लाती,
खुली गगन में जाती, उड़ती और उड़ाती॥
----.
संजय कुमार गिरि
*"सोने के परिंदे*"
ख्वाहिशों के बंधन से ,
मुक्त कौन हो सका है ?
जिस "परिंदे की आजादी" को ?
वो* भी कुछ न कर सके |
उस "सोने के परिंदे " की आज़ादी
एक मीठा भ्रम हे ये ,
स्वतंत्र हो कर भी क्या मिला ?
जब मन में लाखो तंत्र है .
एक मुठ्ठी आनाज की खातिर
कोई फंसी पे चढ़ रहा ,
भूख से व्याकुल परिवार
देखो कैसे मर रहा ...
और वे कहते हें कि..
देश तरक्की कर रहा ....
ऐसी तरक्की हमारे किस काम की
जहाँ राजनीति खेली जाए
नाम ले के श्री राम की ,
--- संजय कुमार गिरि
--
उमेश मौर्य
शान्ति
शान्ति चाहिए
सचमुच मे बताना कि शान्ति चाहिए, ?
वादा करते हो कि शान्ति चहिए ?
कही भी शान्ति चाहिए ?
चलो दिखाता हूँ मैं, शान्ति का द्वार,
शान्ति का भण्डार,
ये देखो मेरे विकासशील देश का गाँव,
वैसे ही हैं नुकीली पत्थरो से सजी हैं सड़कें,
खेलते बच्चों के पाँव छील देती हैं,
बुर्जुगों के अंगूठे तोड़ देतीं हैं,
हर चुनाव में इसे बनाने के वादे होते है,
घर में बिजली है, कभी-कभी आती है,
लालटेन की लाईट से खाना बन जाता है,
अन्धेरे में जाना होता है बाहर,
दीये से खोजते है विकाश का शहर,
इन अन्धेरे में प्रकाश लाईये,
और जी खोल कर शान्ति ले जाईये,
यदि शान्ति चाहिए ?
ये अध्यापक ज्ञान के प्रकाशक,
इन्हें भी शान्ति चाहिए,
मैं कहता हूं अपने इन नन्हे-मुन्ने बच्चों को, छात्रों को,
ट्युशन से बचाइये, अपने ही प्राईमरी से ही
रामानुजम, चन्द्रगुप्त, सुभाष, और सी.बी. रमन बनाईये,
अपने अन्दर के आदर्श गुरु को जगाईये,
और महाशान्ति ले जाइये,
यदि शान्ति चाहिए ?
चलो हास्पिटल से भी शान्ति का टेबलेट ले आते हैं,
यहाँ बहुत से लोग हर दिन यूं ही मर जाते हैं,
कुछ फीस नहीं दे पाते, कुछ घर बेचकर आते हैं,
जीने के लिए हर मूल्य चुकाते हैं,
फिर भी वो नहीं बच पाते है,
उनके दुख दर्द में जितना हो सके हाथ बटाईये,
और अपने मन की शान्ति बढ़ाइये,
यदि शान्ति चाहिए ?
कभी कभी कुत्तों में, बिल्ली में, भेंड़ो और बकरियों में,
गायों और बछड़ों में, इन पशुओं के घरों में,
बैठिये, और इनकी आत्मा में खो जाईये,
इनके भावों में खो जाइये, इन्हें अपना भोजन मत बनाइये,
पशु हत्या से इन बेजुबानों को बचाईये,
अपने स्वाद पर अंकुश लगाइये,
और अनन्त की शक्ति में खो जाइये ॥
यदि सचमुच में सच्ची शान्ति चाहिए तो ?
तो, हँसिये, खेलिए, खाइये,
ज्ञान बढ़ाइये, अज्ञान मिटाइये,
और अपने मन की शान्ति बढ़ाइये,
- उमेश मौर्य , भारत
Sabhi kavitayen ac hchi hain rajiv anandji ne vishesh prabhavit kiya
जवाब देंहटाएंआप सभी कवियों का.... आभार
जवाब देंहटाएंराजीव आनंद जी ,
जवाब देंहटाएंआपने देश का वास्तविक चित्र प्रस्तुत किया है | सचमुच में कुछ भी तो नहीं बदला है | बहुत ही शानदार ढंग से |
और सभी कवियों का बहुत आभार |
उमेश मौर्य
राजीव आनंद जी ,
जवाब देंहटाएंआपने देश का वास्तविक चित्र प्रस्तुत किया है | सचमुच में कुछ भी तो नहीं बदला है | बहुत ही शानदार ढंग से |
और सभी कवियों का बहुत आभार |
उमेश मौर्य