हिन्दी देश को जोड़ने वाली भाषा है; इसे उसके अपने ही घर में न तोड़ें प्रोफेसर महावीर सरन जैन स्वाधीनता के लिए जब जब आन्दोलन तेज़ हुआ तब त...
हिन्दी देश को जोड़ने वाली भाषा है; इसे उसके अपने ही घर में न तोड़ें
प्रोफेसर महावीर सरन जैन
स्वाधीनता के लिए जब जब आन्दोलन तेज़ हुआ तब तब हिन्दी की प्रगति का रथ भी तेज़ गति से आगे बढ़ा। हिन्दी राष्ट्रीय चेतना की प्रतीक बन गई। स्वाधीनता आन्दोलन का नेतृत्व जिन नेताओं के हाथों में था, उन्होंने यह पहचान लिया था कि विगत 600 - 700 वर्षों से हिन्दी सम्पूर्ण भारत की एकता का कारक रही है; यह संतों, फकीरों, व्यापारियों, तीर्थ यात्रियों, सैनिकों आदि के द्वारा देश के एक भाग से दूसरे भाग तक प्रयुक्त होती रही है।
मैं यह बात जोर देकर कहना चाहता हूँ कि हिन्दी को राष्ट्रभाषा की मान्यता उन नेताओं के कारण प्राप्त हुई जिनकी मातृभाषा हिन्दी नहीं थी। बंगाल के केशवचन्द्र सेन, राजा राम मोहन राय, रवीन्द्रनाथ ठाकुर, नेताजी सुभाष चन्द्र बोस; पंजाब के बिपिनचन्द्र पाल, लाला लाजपत राय; गुजरात के स्वामी दयानन्द, राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी; महाराष्ट के लोकमान्य तिलक तथा दक्षिण भारत के सुब्रह्मण्यम भारती, मोटूरि सत्यनारायण आदि नेताओं के राष्ट्रभाषा हिन्दी के सम्बंध में व्यक्त विचारों से मेरे मत की संपुष्टि होती है। हिन्दी भारतीय स्वाभिमान और स्वातंत्र्य चेतना की अभिव्यक्ति का माध्यम बन गई। हिन्दी राष्ट्रीय अस्मिता का प्रतीक हो गई। इसके प्रचार प्रसार में सामाजिक, धार्मिक तथा राष्ट्रीय नेताओं ने सार्थक भूमिका का निर्वाह किया।
हिन्दी को राष्ट्र भाषा का दर्जा दिलाने के लिए जिन राष्ट्रीय नेताओं ने अथक प्रयास किए, उनमें महात्मा गाँधी का महत्व सबसे अधिक है। हिन्दी को सम्पूर्ण भारत में व्यवहार की भाषा बनाने, सम्पर्क भाषा के रूप में विकसित करने एवं राष्ट्रभाषा का दर्जा दिलाने में महात्मा गाँधी की भूमिका अप्रतिम है। गाँधी जी ने हिन्दी के महत्व का आकलन दक्षिण अफ्रीका में ही कर लिया था। यह सर्वविदित है कि दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद की नीति एवं अंग्रेजों के अत्याचारों का विरोध करने के लिए गाँधी जी ने सत्याग्रह आंदोलन चलाया। नेटाल के सत्याग्रह आश्रम में हिन्दी, बांग्ला, तमिल, तेलुगु आदि भाषाओं के बोलने वाले बच्चे रहते थे। गाँधी जी ने निरीक्षण किया कि खेलते समय वे भिन्न भाषी बच्चे हिन्दी बोलते हैं। इससे उन्होंने यह पहचान लिया कि भिन्न भाषियों की सम्पर्क भाषा हिन्दी ही हो सकती है। उन्होने उन बच्चों को हिन्दी के माध्यम से पढ़ाना शुरु कर दिया। भारत लौटने के बाद गाँधी जी ने पूरे देश का भ्रमण किया तथा हिन्दी की अखिल भारतीय भूमिका को जाना तथा यह भी महसूस किया कि देश के किस किस भाग में हिन्दी को जनता की कामचलाऊ भाषा बनाने के लिए क्या करणीय है जिससे पूरा देश हिन्दी के द्वारा एकजुट होकर राष्ट्रीय आन्दोलन की ज्योति को पूरी आभा के साथ आलोकित कर सके।
सन् 1910 में गाँधी जी ने कहाः ‘हिन्दुस्तान को अगर सचमुच एक राष्ट्र बनाना है तो चाहे कोई माने या न माने राष्ट्रभाषा हिन्दी ही बन सकती है’।
सन् 1916 में कांग्रेस के लखनऊ अधिवेशन में गाँधी जी ने हिन्दी में भाषण दिया तथा स्पष्ट घोषणा कीः ‘हिन्दी का प्रश्न मेरे लिए स्वराज्य के प्रश्न से कम महत्वपूर्ण नहीं है’। इसी अधिवेशन में 26 दिसम्बर को ‘आर्य समाज मंडप’ में गाँधी जी के सभापतित्व में ‘एक भाषा एक लिपि’ विषयक सम्मेलन आयोजित हुआ जिसमें सर्वसम्मति से संकल्प पारित हुआ कि ‘हिन्दी भाषा और देवनागरी का प्रचार प्रसार देश-हित एवं ऐक्य-स्थापना हेतु करना चाहिए’। तमिल भाषी श्री रामास्वामी अय्यर और श्री रंगस्वामी अय्यर इस प्रस्ताव के समर्थक थे।
सन् 1917 में ‘गुजरात शिक्षा सम्मेलन’ के अध्यक्षीय भाषण में गाँधी जी ने राष्ट्रभाषा के मानकों का निर्धारण करते हुए प्रतिपादित कियाः
किसी देश की राष्ट्रभाषा वही हो सकती है जिसे वहाँ की अधिकांश जनता बोलती हो। वह सांस्कृतिक, राजनीतिक और आर्थिक क्षेत्रों में माध्यम भाषा बनने की शक्ति रखती हो। सरकारी कर्मचारियों एवं सरकारी कामकाज के लिए सुगम और सरल हो। जिसे सुगमता तथा सरलता से सीखा जा सकता हो। जिसे चुनते समय क्षणिक, अस्थायी तथा तात्कालिक हितों की उपेक्षा की जाए और जो सम्पूर्ण राष्ट्र की वाणी बनने की क्षमता रखती हो।
इन मानकों पर कसने के बाद गाँधी जी का निष्कर्ष था कि ‘बहुभाषी भारत में केवल हिन्दी ही एक भाषा है जिसमें ये सभी गुण पाए जाते हैं’।
यहाँ इसको रेखांकित करना अप्रसांगिक न होगा कि हिन्दीतर भाषी राष्ट्रीय नेताओं ने जहाँ देश की अखंडता एवं एकता के लिए राष्ट्रभाषा हिन्दी के प्रचार प्रसार की अनिवार्यता की पैरोकारी की वहीं भारत के सभी राष्ट्रीय नेताओं ने एकमतेन सरल एवं सामान्य जनता द्वारा बोली जाने वाली हिन्दी का प्रयोग करने एवं हिन्दी उर्दू की एकता पर बल दिया। मैंने हिन्दी एवं उर्दू के अद्वैत पर विस्तार से विवेचन किया है।
http://www.scribd.com/doc/22142436/Hindi-Urdu
स्वाधीनता के बाद हमारे राजनेताओं ने हिन्दी की घोर उपेक्षा की। पहले यह तर्क दिया गया कि हिन्दी में वैज्ञानिक एवं तकनीकी शब्दावली का अभाव है। इसके लिए वैज्ञानिक एवं तकनीकी शब्दावली आयोग बना दिया गया। काम सौंप दिया गया कि शब्द बनाओ। शब्द गढ़ो। शब्द बनाए नहीं जाते। गढ़े नहीं जाते। लोक के प्रचलन एवं व्यवहार से विकसित होते हैं। आयोग ने जिन शब्दों का निर्माण किया, उनमें से अधिकतर शब्द जटिल, क्लिष्ट एवं अप्रचलित थे। प्रशासन के क्षेत्र में शब्दावली बनाने के लिए अलिखित आदेश दिए गए कि प्रत्येक शब्द की स्वीकार्यता के लिए मंत्रालय के अधिकारियों की मंजूरी ली जाए। अधिकारियों की कोशिश रही कि जिन शब्दों का निर्माण हो, वे बाजारू न हो। सरकारी भाषा बाजारू भाषा से अलग दिखनी चाहिए। अपनी बात को एक उदाहरण से स्पष्ट करना चाहूँगा। प्रत्येक मंत्रालय में सेक्रेटरी तथा एडिशनल सेक्रेटरी के बाद मंत्रालय के प्रत्येक विभाग में ऊपर से नीचे के क्रम में ज्वॉइंट सेक्रेटरी, डिप्टी सेक्रेटरी एवं अंडर सेक्रेटरी के पद होते हैं। अंडर सेक्रेटरी पदनाम के लिए आयोग के विशेषज्ञों ने निचला सेक्रेटरी शब्द बनाकर मंत्रालय के अधिकारियों के पास अनुमोदन के लिए भेजा। अर्थ संगति की दृष्टि से शब्द संगत था। मंत्रालयों के अधिकारियों को आयोग द्वारा निर्मित शब्द पसंद नहीं आया। आदेश दिए गए कि नया शब्द बनाया जाए। आयोग के चेयरमेन ने विशेषज्ञों से अनेक वैकल्पिक शब्द बनाने का अनुरोध किया। अंडर सेक्रेटरी के लिए नए शब्द गढ़ने में विशेषज्ञों ने व्यायाम किया। जो अनेक शब्द बनाकर मंत्रालय के पास भेजे गए उनमें से मंत्रालय के अधिकारियों को “अवर” पसंद आया और वह स्वीकृत हो गया। अंडर सेक्रेटरी के लिए हिन्दी पर्याय अवर सचिव चलने लगा। मंत्रालयों में सैकड़ों अंडर सेक्रेटरी काम करते हैं और सब अवर सचिव सुनकर गर्व का अनुभव करते हैं। शायद ही किसी अंडर सेक्रेटरी को अवर के मूल अर्थ का पता हो। स्वयंबर में अनेक वर विवाह में अपनी किस्मत आजमाने आते थे। जिस वर को वधू माला पहना देती थी वह चुन लिया जाता था। जो वर वधू के द्वारा अस्वीकृत कर दिए जाते थे उन्हें अवर कहते थे। चूँकि शब्द गढ़ते समय यह ध्यान नहीं रखा गया कि वे सामान्य आदमी को समझ में आ सकें, इस कारण आयोग के द्वारा बनाए गए 80 प्रतिशत शब्द कोशों की शोभा बनकर रह गए हैं। व्यवहार में अंग्रेजी के शब्दों का ही प्रयोग होता है। राजभाषा अधिकारी का काम होता है कि वह अंग्रेजी के मैटर का आयोग द्वारा निर्मित शब्दावली में अनुवाद करदे। अधिकांश अनुवादक शब्द की जगह शब्द रखते जाते हैं। हिन्दी भाषा की प्रकृति को ध्यान में रखकर वाक्य नहीं बनाते। इस कारण जब राजभाषा हिन्दी में अनुवादित सामग्री पढ़ने को मिलती है तो उसे समझने के लिए कसरत करनी पड़ती है। मैं जोर देकर कहना चाहता हूँ कि लोकतंत्र में राजभाषा राजा-महाराजाओं की भाषा नहीं होती। लोकतंत्र में यह शासन और जनता के बीच संवाद की भाषा होती है। इस कारण वह आम आदमी के लिए बोधगम्य होनी चाहिए। एक बात जोड़ना चाहता हूँ। कोई शब्द जब तक चलन में नहीं आएगा, चलेगा नहीं। यदि लोक में प्रचलित शब्द के स्थान पर कोई नया शब्द गढ़ा जाएगा तो वह चलेगा नहीं। रेलवे स्टेशन का एक कुली कहता है कि ट्रेन अमुक प्लेटफॉर्म पर खड़ी है, या ट्रेन आनेवाली है, सिग्नव डाउन हो गया है। जब आप इन लोक प्रचलित शब्दों की जगह संस्कृत तत्सम शब्दों पर आधारित नए शब्द गढ़ेंगे तो वे गढ़े शब्द कैसे चलेंगे। बाजार में उसी सिक्के का मूल्य होता है जो बाजार में चलता है। हमें वही शब्द सरल एवं बोधगम्य लगता है जो हमारी जबान पर चढ़ जाता है। “भाखा बहता नीर”। लोक व्यवहार से भाषा बदलती रहती है। यह भाषा की प्रकृति है। इस दृष्टि से विस्तृत अध्ययन के लिए देखें –
http://www.scribd.com/doc/110501224/Bhakhaa-Bahataa-Neer
जब अटल जी प्रधान मंत्री बने। संयुक्त राष्ट्र संघ में हिन्दी में बोले। आशा जगी। मैंने उस समय जोर डाला था कि भारत सरकार संयुक्त राष्ट्र संघ की 6 आधिकारिक भाषाओं की सूची में हिन्दी को भी शामिल करादे। मैंने भारत सरकार के तत्कालीन नेताओं को बताया कि संयुक्त राष्ट्र संघ की 6 आधिकारिक भाषाओं में चीनी भाषा को छोड़कर हिन्दी के बोलनेवालों की संख्या अन्य 5 आधिकारिक भाषाओं के बोलने वालों से अधिक है। आलेख चर्चित भी हुआ।
http://www.scribd.com/doc/22142721/Hindi-should-be-a-uno-language
Hindi should be a UNO language(Link)Edit(संयुक्त राष्ट्र संघ की आधिकारिक भाषाएँ एवं हिन्दी)
www.rachanakar.org/2009/05/blog-post_5569.html
उस समय तत्कालीन सरकार के लोगों का आकलन था कि हिन्दी को आगे बढ़ाने के लिए काम करेंगे तो दक्षिण भारत के लोगों पर विपरीत प्रतिक्रिया होगी। भाजपा के एक बड़े नेता ने मुझसे कहा कि जयललिता नाराज हो जाएँगी। हमें सरकार चलानी है। मैंने विस्तार से बताया कि दक्षिण भारत में हिन्दी के प्रति हिन्दी के प्रचारकों के मन में अगाध प्रेम है। मगर मेरी बात का कोई असर नहीं हुआ। जो व्यक्ति दक्षिण भारत में हिन्दी के प्रचार एवं प्रसार के सम्बंध में जानकारी प्राप्त करना चाहते हैं, वे मेरे निम्न आलेख का अध्ययन कर सकते हैं –
स्वाधीनता संग्राम के युग में दक्षिण-भारत में हिन्दी का प्रचार-प्रसार
http://www.rachanakar.org/2013/07/blog-post_4027.html
मैं भाजपा के शासन के दौरान सन् 2001 तक केन्द्रीय हिन्दी संस्थान का निदेशक था। मैं अपने अनुभवों के आधार पर बता सकता हूँ कि केन्द्रीय सरकार के मंत्रालयों का अधिकांश काम अंग्रेजी में ही होता था।राजनेता मंत्री पद पर बैठने के बाद अपने मंत्रालय में पदस्थ अधिकारियों की सलाह के अनुरूप काम करते हैं। जो पार्टी राष्ट्र भाषा हिन्दी के नारे लगाती है उसने छत्तीसगढ़ में क्या किया। हिन्दी को उसके अपने ही घर में तोड़ने का पाप किया। सन् 1992 में मध्य प्रदेश के एक माननीय मंत्री ने भारत सरकार के मानव संसाधन विकास मंत्रालय से मध्य प्रदेश की हिन्दी की एक क्षेत्रीय उपभाषा की “भाषा अकादमी” स्थापित करने के लिए अनुदान की माँग की। मंत्रालय ने उनका माँग पत्र मेरे पास टिप्पण देने के लिए भेजा। मैंने टिप्पण लिखा कि भारत सरकार को इस माँग पर विचार करने के पहले यह सुनिश्चित करना चाहिए कि मध्य प्रदेश हिन्दी भाषी राज्य है अथवा बुन्देली, बघेली, मालवी, निमाड़ी, छत्तीसगढ़ी आदि भाषाओं का राज्य है।
‘हिन्दी भाषा क्षेत्र' के अन्तर्गत भारत के निम्नलिखित राज्य एवं केन्द्र शासित प्रदेश समाहित हैं –
1. उत्तर प्रदेश
2. उत्तराखंड
3. बिहार
4. झारखंड
5. मध्यप्रदेश
6. छत्तीसगढ़
7. राजस्थान
8. हिमाचल प्रदेश
9. हरियाणा
10.दिल्ली
11.चण्डीगढ़।
भारत के संविधान की दृष्टि से यही स्थिति है।भाषाविज्ञान का प्रत्येक विद्यार्थी जानता है कि प्रत्येक भाषा क्षेत्र में भाषिक भिन्नताएँ होती हैं। किसी ऐसी भाषा की कल्पना नहीं की जा सकती जो जिस ‘भाषा क्षेत्र' में बोली जाती है उसमें किसी प्रकार की क्षेत्रगत एवं वर्गगत भिन्नताएँ न हों। भिन्नत्व की दृष्टि से तो किसी भाषा क्षेत्र में जितने बोलने वाले व्यक्ति रहते हैं उस भाषा की उतनी ही ‘व्यक्ति बोलियाँ' होती हैं। इसी कारण यह कहा जाता है कि भाषा की संरचक ‘बोलियाँ' होती हैं तथा बोलियों की संरचक ‘व्यक्ति बोलियाँ'। इसी को इस प्रकार भी कह सकते हैं कि ‘व्यक्ति बोलियों' के समूह को ‘बोली' तथा ‘बोलियों' के समूह को भाषा कहते हैं। बोलियों की समष्टि का नाम ही भाषा है। किसी भाषा की बोलियों से इतर व्यवहार में सामान्य व्यक्ति भाषा के जिस रूप को ‘भाषा' के नाम से अभिहित करते हैं वह तत्वतः भाषा नहीं होती। भाषा का यह रूप उस भाषा क्षेत्र के किसी बोली अथवा बोलियों के आधार पर विकसित उस भाषा का ‘मानक भाषा रूप'/'व्यावहारिक भाषा रूप' होता है। भाषा विज्ञान से अनभिज्ञ व्यक्ति इसी को ‘भाषा' कहने लगते हैं तथा ‘भाषा क्षेत्र' की बोलियों को अविकसित, हीन एवं गँवारू कहने, मानने एवं समझने लगते हैं।
भारतीय भाषिक परम्परा इस दृष्टि से अधिक वैज्ञानिक रही है। भारतीय परम्परा ने भाषा के अलग अलग क्षेत्रों में बोले जाने वाले भाषिक रूपों को ‘देस भाखा अथवा देसी भाषा' के नाम से पुकारा तथा घोषणा की कि देसी वचन सबको मीठे लगते हैं - ‘ देसिल बअना सब जन मिट्ठा '। ( विशेष अध्ययन के लिए देखें - प्रोफेसर महावीर सरन जैन ः भाषा एवं भाषा विज्ञान, अध्याय 4 - भाषा के विविधरूप एवं प्रकार, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, 1985 ) हिन्दी भाषा क्षेत्र में हिन्दी की मुख्यतः 20 बोलियाँ अथवा उपभाषाएँ बोली जाती हैं। इन 20 बोलियों अथवा उपभाषाओं को ऐतिहासिक परम्परा से पाँच वर्गों में विभक्त किया जाता है - पश्चिमी हिन्दी, पूर्वी हिन्दी, राजस्थानी हिन्दी, बिहारी हिन्दी और पहाड़ी हिन्दी।
(क) पश्चिमी हिन्दी – 1. खड़ी बोली 2. ब्रजभाषा 3. हरियाणवी 4. बुन्देली 5. कन्नौजी (ख) पूर्वी हिन्दी – 1. अवधी 2. बघेली 3. छत्तीसगढ़ी (ग) राजस्थानी – 1. मारवाड़ी 2. मेवाती 3. जयपुरी 4.मालवी (घ) बिहारी – 1. भोजपुरी 2. मैथिली 3. मगही 4. अंगिका 5. बज्जिका (ङ) पहाड़ी - 1. कूमाऊँनी 2. गढ़वाली 3. हिमाचल प्रदेश में बोली जाने वाली हिन्दी की अनेक बोलियाँ जिन्हें आम बोलचाल में ‘ पहाड़ी ' नाम से पुकारा जाता है। |
टिप्पण –
(क) मैथिली - मैथिली को अलग भाषा का दर्जा दे दिया गया है हॉलाकि हिन्दी साहित्य के पाठ्यक्रम में अभी भी मैथिली कवि विद्यापति पढ़ाए जाते हैं तथा जब नेपाल में मैथिली आदि भाषिक रूपों के बोलने वाले मधेसी लोगों पर दमनात्मक कार्रवाई होती है तो वे अपनी पहचान ‘हिन्दी भाषी' के रूप में उसी प्रकार करते हैं जिस प्रकार मुम्बई में रहने वाले भोजपुरी, मगही, मैथिली एवं अवधी आदि बोलने वाले अपनी पहचान ‘हिन्दी भाषी' के रूप में करते हैं।
(ख) छत्तीसगढ़ी एवं भोजपुरी – जबसे मैथिली एवं छत्तीसगढ़ी को अलग भाषाओं का दर्जा मिला है तब से भोजपुरी को भी अलग भाषा का दर्जा दिए जाने की माँग प्रबल हो गई है। हिन्दी को उसके अपने ही घर में तोड़ने का सिलसिला मैथिली एवं छत्तीसगढ़ी से आरम्भ हो गया है। मैथिली पर टिप्पण लिखा जा चुका है। छत्तीसगढ़ी एवं भोजपुरी के सम्बंध में कुछ विचार द्रष्ट्व्य हैं। जब तक छत्तीसगढ़ मध्य प्रदेश का हिस्सा था तब तक छत्तीसगढ़ी को हिन्दी की बोली माना जाता था। रायपुर विश्वविद्यालय के भाषा विज्ञान के प्रोफेसर डॉ. रमेश चन्द्र महरोत्रा का सन् 1976 में “ Distance among Twenty-Two Dialects of Hindi depending on the parallel forms of the most frequent sixty-two words of Hindi” शीर्षक आलेख रायपुर से भाषिकी प्रकाशन से प्रकाशित हुआ जिसमें हिन्दी की 22 बोलियों के अंतर्गत छत्तीसगढ़ी समाहित है। मैं भोजपुरी के सम्बंध में भी कुछ निवेदन करना चाहता हूँ। लेखक को जबलपुर के विश्वविद्यालय में डॉ. उदय नारायण तिवारी जी के साथ काम करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। भोजपुरी की भाषिक स्थिति को लेकर अकसर हमारे बीच विचार विमर्श होता था। उनके जामाता डॉ. शिव गोपाल मिश्र उनकी स्मृति में प्रतिवर्ष व्याख्यानमाला आयोजित करते हैं। इस वर्ष 26 जून, 2013 को मुझे हिन्दुस्तानी एकाडमी, इलाहाबाद के श्री बृजेशचन्द्र का डॉ. उदय नारायण तिवारी व्याख्यानमाला का आमंत्रण पत्र प्राप्त हुआ। व्याख्यान का विषय भोजपुरी भाषा था। मैंने उसी दिन व्याख्यान के सम्बंध में डॉ. शिव गोपाल मिश्र को जो पत्र लिखा उसका व्याख्यान के विषय से सम्बंधित अंश पाठको के अवलोकनार्थ अविकल प्रस्तुत है –
“डॉ. उदय नारायण तिवारी जी ने भोजपुरी का भाषावैज्ञानिक अध्ययन किया। उनके अध्ययन का वही महत्व है जो सुनीति कुमार चटर्जी के बांग्ला पर सम्पन्न कार्य का है। इस विषय पर हमारे बीच अनेक बार संवाद हुए। कई बार मत भिन्नता भी हुई। जब मैं भाषा-भूगोल एवं बोली-विज्ञान के सिद्धांतों के आलोक में हिन्दी भाषा-क्षेत्र की विवेचना करता था तो डॉ. तिवारी जी इस मत से सहमत हो जाते थे कि हिन्दी भाषा-क्षेत्र के अंतर्गत भारत के जितने राज्य एवं केन्द्र शासित प्रदेश समाहित हैं, उन समस्त क्षेत्र में जो भाषिक रूप बोले जाते हैं, उनकी समष्टि का नाम हिन्दी है। खड़ी बोली ही हिन्दी नहीं है अपितु यह भी हिन्दी भाषा-क्षेत्र का उसी प्रकार एक क्षेत्रीय भेद है जिस प्रकार हिन्दी भाषा-क्षेत्र के अन्य अनेक क्षेत्रीय भेद हैं। मगर कभी-कभी उनका तर्क होता था कि खड़ी बोली बोलने वाले और भोजपुरी बोलने वालों के बीच बोधगम्यता बहुत कम होती है। इस कारण भोजपुरी को यदि अलग भाषा माना जाता है तो इसमें क्या हानि है। जब मैं कहता था कि भाषाविज्ञान का सिद्धांत है कि संसार में प्रत्येक भाषा-क्षेत्र में भाषिक भिन्नताएँ होती हैं। हम ऐसी किसी भाषा की कल्पना नहीं कर सकते जिसके भाषा-क्षेत्र में क्षेत्रगत एवं वर्गगत भिन्नताएँ न हों। इस पर डॉ. तिवारी जी असमंजस में पड़ जाते थे। अनेक वर्षों के संवाद के अनंतर एक दिन डॉ. तिवारी जी ने मुझे अपने मन के रहस्य से अवगत कराया। उनके शब्द थेः
“जब मैं ऐतिहासिक भाषाविज्ञान के अपने अध्ययन के आधार पर विचार करता हूँ तो मुझे भोजपुरी की स्थिति हिन्दी से अलग भिन्न भाषा की लगती है मगर जब मैं संकालिक भाषाविज्ञान के सिद्धांतों की दृष्टि से सोचता हूँ तो पाता हूँ कि भोजपुरी भी हिन्दी भाषा-क्षेत्र का एक क्षेत्रीय रूप है”।
विनय है कि भोजपुरी को अलग भाषा का दर्जा दिलाने के लिए कटिबद्ध चिंतक तटस्थ भाव से इस पर मनन करें।
(ग) राजस्थानी – सन् 1978 में, मैं “श्रीमद् जवाहराचार्य स्मृति व्याख्यानमाला” के अंतर्गत “विश्व शान्ति एवं अहिंसा” विषय पर व्याख्यान देने कलकत्ता (कोलकोता) गया था। वहाँ सरदारमल जी कांकरिया के निवास पर मेरा संवाद राजस्थानी भाषा की मान्यता के लिए आन्दोलन चलाने वाले तथा राजस्थानी में “धरती धौरां री” एवं “पातल और पीथल” जैसी कृतियों की रचना करने वाले कन्हैया लाल सेठिया जी से हुआ। उनका आग्रह था कि राजस्थानी को स्वतंत्र भाषा का दर्जा मिलना चाहिए। मैंने उनसे अपने आग्रह पर पुनर्विचार करने की कामना व्यक्त की और मुख्यतः निम्न मुद्दों पर विचार करने का अनुरोध किया –
(1) ग्रियर्सन ने ऐतिहासिक दृष्टि से विचार किया है। स्वाधीनता आन्दोलन में हमारे राष्ट्रीय नेताओं के कारण हिन्दी का जितना प्रचार प्रसार हुआ उसके कारण हमें ग्रियर्सन की दृष्टि से नहीं अपितु डॉ. धीरेन्द्र वर्मा आदि भाषाविदों की दृष्टि से विचार करना चाहिए।
(2) राजस्थानी भाषा जैसी कोई स्वतंत्र भाषा नहीं है। राजस्थान में 1. मारवाड़ी 2. मेवाती 3. जयपुरी 4.मालवी आदि विविध भाषिक रूप बोले जाते हैं जिन्हें हिन्दी के रूप मानने में क्या आपत्ति हो सकती है।
(3) यदि आप राजस्थानी का मतलब केवल मारवाड़ी से लेंगे तो क्या मेवाड़ी, मेवाती, जयपुरी, मालवी, हाड़ौती, शेखावाटी आदि अन्य भाषिक रूपों के बोलने वाले अपने अपने भाषिक रूपों के लिए आवाज़ नहीं उठायेंगे।
(4) भारत की भाषिक परम्परा रही है कि एक भाषा के हजारों भूरि भेद माने गए हैं मगर अंतर क्षेत्रीय सम्पर्क के लिए एक भाषा की मान्यता रही है।
(5) हिन्दी साहित्य की संश्लिष्ट परम्परा रही है। इसी कारण हिन्दी साहित्य के अंतर्गत रास एवं रासो साहित्य की रचनाओं का भी अध्ययन किया जाता है।
(6) राजस्थान की पृष्ठभूमि पर आधारित हिन्दी कथा साहित्य एवं हिन्दी फिल्मों में जिस राजस्थानी मिश्रित हिन्दी का प्रयोग होता है उसे हिन्दी भाषा क्षेत्र के प्रत्येक भाग का रहने वाला समझ लेता है।
(7) मारवाड़ी लोग व्यापार के कारण भारत के प्रत्येक राज्य में निवास करते हैं तथा अपनी पहचान हिन्दी भाषी के रूप में करते हैं। यदि आप राजस्थानी को हिन्दी से अलग मान्यता दिलाने का प्रयास करेंगे तो राजस्थान के बाहर रहने वाले मारवाड़ी व्यापारियों के हित प्रभावित हो सकते हैं।
(8) भारतीय भाषाओं के अस्तित्व एवं महत्व को अंग्रेजी से खतरा है। संसार में अंग्रेजी भाषियों की जितनी संख्या है उससे अधिक संख्या केवल हिन्दी भाषियों की है। यदि हिन्दी के उपभाषिक रूपों को हिन्दी से अलग मान लिया जाएगा तो भारत की कोई भाषा अंग्रेजी से टक्कर नहीं ले सकेगी और धीरे धीरे भारतीय भाषाओं के अस्तित्व का संकट पैदा हो जाएगा।
(घ) पहाड़ी – डॉ. सर जॉर्ज ग्रियर्सन ने ‘पहाड़ी' समुदाय के अन्तर्गत बोले जाने वाले भाषिक रूपों को तीन शाखाओं में बाँटा –
(अ) पूर्वी पहाड़ी अथवा नेपाली
(आ) मध्य या केन्द्रीय पहाड़ी
(इ)पश्चिमी पहाड़ी।
हिन्दी भाषा के संदर्भ में वर्तमान स्थिति यह है कि हिन्दी भाषा के अन्तर्गत मध्य या केन्द्रीय पहाड़ी की उत्तराखंड में बोली जाने वाली 1. कूमाऊँनी 2. गढ़वाली तथा पश्चिमी पहाड़ी की हिमाचल प्रदेश में बोली जाने वाली हिन्दी की अनेक बोलियाँ हैं जिन्हें आम बोलचाल में ‘ पहाड़ी ' नाम से पुकारा जाता है।
हिन्दी भाषा के संदर्भ में विचारणीय है कि अवधी, बुन्देली, ब्रज, भोजपुरी, मैथिली आदि को हिन्दी भाषा की बोलियाँ माना जाए अथवा उपभाषाएँ माना जाए। सामान्य रूप से इन्हें बोलियों के नाम से अभिहित किया जाता है किन्तु लेखक ने अपने ग्रन्थ ‘ भाषा एवं भाषाविज्ञान' में इन्हें उपभाषा मानने का प्रस्ताव किया है। ‘ - - क्षेत्र, बोलने वालों की संख्या तथा परस्पर भिन्नताओं के कारण इनको बोली की अपेक्षा उपभाषा मानना अधिक संगत है। ( भाषा एवं भाषाविज्ञान, पृष्ठ 60)
इसी ग्रन्थ में लेखक ने पाठकों का ध्यान इस ओर भी आकर्षित किया कि हिन्दी की कुछ उपभाषाओं के भी क्षेत्रगत भेद हैं जिन्हें उन उपभाषाओं की बोलियों अथवा उपबोलियों के नाम से पुकारा जा सकता है।
यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि इन उपभाषाओं के बीच कोई स्पष्ट विभाजक रेखा नहीं खींची जा सकती है। प्रत्येक दो उपभाषाओं के मध्य संक्रमण क्षेत्र विद्यमान है।
विश्व की प्रत्येक भाषा के विविध बोली अथवा उपभाषा क्षेत्रों में से विभिन्न सांस्कृतिक कारणों से जब कोई एक क्षेत्र अपेक्षाकृत अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है तो उस क्षेत्र के भाषा रूप का सम्पूर्ण भाषा क्षेत्र में प्रसारण होने लगता है। इस क्षेत्र के भाषारूप के आधार पर पूरे भाषाक्षेत्र की ‘मानक भाषा' का विकास होना आरम्भ हो जाता है। भाषा के प्रत्येक क्षेत्र के निवासी इस भाषारूप को ‘मानक भाषा' मानने लगते हैं। इसको मानक मानने के कारण यह मानक भाषा रूप ‘भाषा क्षेत्र' के लिए सांस्कृतिक मूल्यों का प्रतीक बन जाता है। मानक भाषा रूप की शब्दावली, व्याकरण एवं उच्चारण का स्वरूप अधिक निश्चित एवं स्थिर होता है एवं इसका प्रचार, प्रसार एवं विस्तार पूरे भाषा क्षेत्र में होने लगता है। कलात्मक एवं सांस्कृतिक अभिव्यक्ति का माध्यम एवं शिक्षा का माध्यम यही मानक भाषा रूप हो जाता है। इस प्रकार भाषा के ‘मानक भाषा रूप' का आधार उस भाषाक्षेत्र की क्षेत्रीय बोली अथवा उपभाषा ही होती है, किन्तु मानक भाषा होने के कारण चूँकि इसका प्रसार अन्य बोली क्षेत्रों अथवा उपभाषा क्षेत्रों में होता है इस कारण इस भाषारूप पर ‘भाषा क्षेत्र' की सभी बोलियों का प्रभाव पड़ता है तथा यह भी सभी बोलियों अथवा उपभाषाओं को प्रभावित करता है। उस भाषा क्षेत्र के शिक्षित व्यक्ति औपचारिक अवसरों पर इसका प्रयोग करते हैं। भाषा के मानक भाषा रूप को सामान्य व्यक्ति अपने भाषा क्षेत्र की ‘मूल भाषा', केन्द्रक भाषा', ‘मानक भाषा' के नाम से पुकारते हैं। यदि किसी भाषा का क्षेत्र हिन्दी भाषा की तरह विस्तृत होता है तथा यदि उसमें ‘हिन्दी भाषा क्षेत्र' की भाँति उपभाषाओं एवं बोलियों की अनेक परतें एवं स्तर होते हैं तो ‘मानक भाषा' के द्वारा समस्त भाषा क्षेत्र में विचारों का आदान प्रदान सम्भव हो पाता है। भाषा क्षेत्र के यदि आंशिक अबोधगम्य उपभाषी अथवा बोली बोलने वाले परस्पर अपनी उपभाषा अथवा बोली के माध्यम से विचारों का समुचित आदान प्रदान नहीं कर पाते तो इसी मानक भाषा के द्वारा संप्रेषण करते हैं। भाषा विज्ञान में इस प्रकार की बोधगम्यता को ‘पारस्परिक बोधगम्यता' न कहकर ‘एकतरफ़ा बोधगम्यता' कहते हैं। ऐसी स्थिति में अपने क्षेत्र के व्यक्ति से क्षेत्रीय बोली में बातें होती हैं किन्तु दूसरे उपभाषा क्षेत्र अथवा बोली क्षेत्र के व्यक्ति से अथवा औपचारिक अवसरों पर मानक भाषा के द्वारा बातचीत होती हैं। इस प्रकार की भाषिक स्थिति को फर्गुसन ने बोलियों की परत पर मानक भाषा का अध्यारोपण कहा है (डायग्लोसियाः वॅर्ड, 15 पृष्ठ 325 – 340) तथा गम्पर्ज़ ने इसे ‘बाइलेक्टल' के नाम से पुकारा है। (स्पीच वेरिएशन एण्ड दः स्टडी ऑफ इंडियन सिविलाइज़ेशन, अमेरिकन एनथ्रोपोलोजिस्ट, खण्ड 63,पृष्ठ 976- 988)।
हिन्दी भाषा क्षेत्र में अनेक क्षेत्रगत भेद एवं उपभेद तो है हीं; प्रत्येक क्षेत्र के प्रायः प्रत्येक गाँव में सामाजिक भाषिक रूपों के विविध स्तरीकृत तथा जटिल स्तर विद्यमान हैं और यह हिन्दी के सामाजिक संप्रेषण की वास्वविकता है। ये हिन्दी पट्टी के अंदर सामाजिक संप्रेषण के विभिन्न नेटवर्कों के बीच संवाद के कारक हैं। इस हिन्दी भाषा क्षेत्र अथवा पट्टी के गावों के रहनेवालों के वाग्व्यवहारों का गहराई से अध्ययन करने पर पता चलता है कि ये भाषिक स्थितियाँ इतनी विविध, विभिन्न एवं मिश्र हैं कि भाषा व्यवहार के स्केल के एक छोर पर हमें ऐसा व्यक्ति मिलता है जो केवल स्थानीय बोली बोलना जानता है तथा जिसकी बातचीत में स्थानीयेतर कोई प्रभाव दिखाई नहीं पड़ता वहीं दूसरे छोर पर हमें ऐसा व्यक्ति मिलता है जो ठेठ मानक हिन्दी का प्रयोग करता है तथा जिसकी बातचीत में कोई स्थानीय भाषिक प्रभाव परिलक्षित नहीं होता। स्केल के इन दो दूरतम छोरों के बीच बोलचाल के इतने विविध रूप मिल जाते हैं कि उन सबका लेखा जोखा प्रस्तुत करना असाध्य हो जाता है। हमें ऐसे भी व्यक्ति मिल जाते हैं जो एकाधिक भाषिक रूपों में दक्ष होते हैं जिसका व्यवहार तथा चयन वे संदर्भ, व्यक्ति, परिस्थियों को ध्यान में रखकर करते हैं। सामान्य रूप से हम पाते हैं कि अपने घर के लोगों से तथा स्थानीय रोजाना मिलने जुलने वाले घनिष्ठ मित्रों से व्यक्ति जिस भाषा रूप में बातचीत करता है उससे भिन्न भाषा रूप का प्रयोग वह उनसे भिन्न व्यक्तियों एवं परिस्थितियों में करता है। सामाजिक संप्रेषण के अपने प्रतिमान हैं। व्यक्ति प्रायः वाग्व्यवहारों के अवसरानुकूल प्रतिमानों को ध्यान में रखकर बातचीत करता है।
हम यह कह चुके हैं कि किसी भाषा क्षेत्र की मानक भाषा का आधार कोई बोली अथवा उपभाषा ही होती है किन्तु कालान्तर में उक्त बोली एवं मानक भाषा के स्वरूप में पर्याप्त अन्तर आ जाता है। सम्पूर्ण भाषा क्षेत्र के शिष्ट एवं शिक्षित व्यक्तियों द्वारा औपचारिक अवसरों पर मानक भाषा का प्रयोग किए जाने के कारण तथा साहित्य का माध्यम बन जाने के कारण स्वरूपगत परिवर्तन स्वाभाविक है। प्रत्येक भाषा क्षेत्र में किसी क्षेत्र विशेष के भाषिक रूप के आधार पर उस भाषा का मानक रूप विकसित होता है, जिसका उस भाषा-क्षेत्र के सभी क्षेत्रों के पढ़े-लिखे व्यक्ति औपचारिक अवसरों पर प्रयोग करते हैं। हम पाते हैं कि इस मानक हिन्दी अथवा व्यावहारिक हिन्दी का प्रयोग सम्पूर्ण हिन्दी भाषा क्षेत्र में बढ़ रहा है तथा प्रत्येक हिन्दी भाषी व्यक्ति शिक्षित, सामाजिक दृष्टि से प्रतिष्ठित तथा स्थानीय क्षेत्र से इतर अन्य क्षेत्रों के व्यक्तियों से वार्तालाप करने के लिए इसी को आदर्श, श्रेष्ठ एवं मानक मानता है। गाँव में रहने वाला एक सामान्य एवं बिना पढ़ा लिखा व्यक्ति भले ही इसका प्रयोग करने में समर्थ तथा सक्षम न हो फिर भी वह इसके प्रकार्यात्मक मूल्य को पहचानता है तथा वह भी अपने भाषिक रूप को इसके अनुरूप ढालने की जुगाड़ करता रहता है। जो मजदूर शहर में काम करने आते हैं वे किस प्रकार अपने भाषा रूप को बदलने का प्रयास करते हैं - इसको देखा परखा जा सकता है। [सन् 1960 में लेखक ने बुलन्द शहर एवं खुर्जा तहसीलों (ब्रज एवं खड़ी बोली का संक्रमण क्षेत्र) के भाषिक रूपों का संकालिक अथवा एककालिक भाषावैज्ञानिक अध्ययन करना आरम्भ किया। सामग्री संकलन के लिए जब लेखक गाँवों में जाता था तथा वहाँ रहने वालों से बातचीत करता था तबके उनके भाषिक रूपों एवं आज लगभग 50 वर्षों के बाद के भाषिक रूपों में बहुत अंतर आ गया है। मानक हिन्दी अथवा व्यावहारिक हिन्दी का प्रभाव आसानी से पहचाना जा सकता है। अंग्रेजी शब्दों का चलन भी बढ़ा है। यह कहना अप्रासंगिक होगा कि उनकी जिन्दगी में और व्यवहार में भी बहुत बदलाव आया है।] पूरे भाषा क्षेत्र में इसका व्यवहार होने तथा इसके प्रकार्यात्मक प्रचार-प्रसार के कारण विकसित भाषा का मानक रूप भाषा क्षेत्र के समस्त भाषिक रूपों के बीच संपर्क सेतु का काम करता है तथा कभी-कभी इसी मानक भाषा रूप के आधार पर उस भाषा की पहचान की जाती है।
हिन्दी भाषा का क्षेत्र बहुत विस्तृत है। इस कारण इसकी क्षेत्रगत भिन्नताएँ भी बहुत अधिक हैं।‘खड़ी बोली' हिन्दी भाषा क्षेत्र का उसी प्रकार एक भेद है ; जिस प्रकार हिन्दी भाषा के अन्य बहुत से क्षेत्रगत भेद हैं। हिन्दी भाषा क्षेत्र में ऐसी बहुत सी उपभाषाएँ हैं जिनमें पारस्परिक बोधगम्यता का प्रतिशत बहुत कम है किन्तु ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से सम्पूर्ण भाषा क्षेत्र एक भाषिक इकाई है तथा इस भाषा-भाषी क्षेत्र के बहुमत भाषा-भाषी अपने-अपने क्षेत्रगत भेदों को हिन्दी भाषा के रूप में मानते एवं स्वीकारते आए हैं। कुछ विद्वानों ने इस भाषा क्षेत्र को हिन्दी पट्टी के नाम से पुकारा है तथा कुछ ने इस हिन्दी भाषी क्षेत्र के निवासियों के लिए 'हिन्दी जाति' का अभिधान दिया है। वस्तु स्थिति यह है कि हिन्दी, चीनी एवं रूसी जैसी भाषाओं के क्षेत्रगत प्रभेदों की विवेचना यूरोप की भाषाओं के आधार पर विकसित पाश्चात्य भाषाविज्ञान के प्रतिमानों के आधार पर नहीं की जा सकती।
जिस प्रकार अपने 28 राज्यों एवं 07 केन्द्र शासित प्रदेशों को मिलाकर भारतदेश है, उसी प्रकार भारत के जिन राज्यों एवं शासित प्रदेशों को मिलाकर हिन्दी भाषा क्षेत्र है, उस हिन्दी भाषा-क्षेत्र के अन्तर्गत जितने भाषिक रूप बोले जाते हैं उनकी समाष्टि का नाम हिन्दी भाषा है। हिन्दी भाषा क्षेत्र के प्रत्येक भाग में व्यक्ति स्थानीय स्तर पर क्षेत्रीय भाषा रूप में बात करता है। औपचारिक अवसरों पर तथा अन्तर-क्षेत्रीय, राष्ट्रीय एवं सार्वदेशिक स्तरों पर भाषा के मानक रूप अथवा व्यावहारिक हिन्दी का प्रयोग होता है। आप विचार करें कि उत्तर प्रदेश हिन्दी भाषी राज्य है अथवा खड़ी बोली, ब्रजभाषा, कन्नौजी, अवधी, बुन्देली आदि भाषाओं का राज्य है। इसी प्रकार मध्य प्रदेश हिन्दी भाषी राज्य है अथवा बुन्देली, बघेली, मालवी, निमाड़ी आदि भाषाओं का राज्य है। जब संयुक्त राज्य अमेरिका की बात करते हैं तब संयुक्त राज्य अमेरिका के अन्तर्गत जितने राज्य हैं उन सबकी समष्टि का नाम ही तो संयुक्त राज्य अमेरिका है। विदेश सेवा में कार्यरत अधिकारी जानते हैं कि कभी देश के नाम से तथा कभी उस देश की राजधानी के नाम से देश की चर्चा होती है। वे ये भी जानते हैं कि देश की राजधानी के नाम से देश की चर्चा भले ही होती है, मगर राजधानी ही देश नहीं होता। इसी प्रकार किसी भाषा के मानक रूप के आधार पर उस भाषा की पहचान की जाती है मगर मानक भाषा, भाषा का एक रूप होता है ः मानक भाषा ही भाषा नहीं होती। इसी प्रकार खड़ी बोली के आधार पर मानक हिन्दी का विकास अवश्य हुआ है किन्तु खड़ी बोली ही हिन्दी नहीं है। तत्वतः हिन्दी भाषा क्षेत्र के अन्तर्गत जितने भाषिक रूप बोले जाते हैं उन सबकी समष्टि का नाम हिन्दी है। हिन्दी को उसके अपने ही घर में तोड़ने के षडयंत्र को विफल करने की आवश्कता है तथा इस तथ्य को बलपूर्वक रेखांकित, प्रचारित एवं प्रसारित करने की आवश्यकता है कि सन् 1991 की भारतीय जनगणना के अंतर्गत भारतीय भाषाओं के विश्लेषण का जो ग्रन्थ प्रकाशित हुआ है उसमें मातृभाषा के रूप में हिन्दी को स्वीकार करने वालों की संख्या का प्रतिशत उत्तर प्रदेश (उत्तराखंड राज्य सहित) में 90.11, बिहार (झारखण्ड राज्य सहित) में 80.86, मध्य प्रदेश (छत्तीसगढ़ राज्य सहित) में 85.55, राजस्थान में 89.56, हिमाचल प्रदेश में 88.88, हरियाणा में 91.00, दिल्ली में 81.64, तथा चण्डीगढ़ में 61.06 है।
http://www.rachanakar.org/2012/09/blog-post_3077.html#ixzz2eqRRA0uA
ऐतिहासिक, सांस्कृतिक एवं सामाजिक कारणों से सम्पूर्ण भारत में मानक हिन्दी के व्यावहारिक रूप का प्रसार बहुत अधिक है। हिन्दीतर भाषी राज्यों में बहुसंख्यक द्विभाषिक समुदाय द्वितीय भाषा के रूप में अन्य किसी भाषा की अपेक्षा हिन्दी का अधिक प्रयोग करता है। हिन्दी पूरे देश में बढ़ रही है। राजनेताओं की या सरकारी अफसरों की अनुकंपा के कारण नहीं अपितु बाज़ार की ताकत के कारण बढ़ रही है। निराश होने की जरूरत नहीं है। मेरा आकलन है कि हिन्दी को आगे बढ़ने से अब कोई ताकत रोक नहीं सकती। हिन्दी निरन्तर आगे बढ़ रही है। सन् 2003 में अमेरिका में विश्व हिन्दी न्यास के वार्षिक अधिवेशन में, मैंने यह मत व्यक्त किया था कि 19वीं शताब्दी फ्रेंच भाषा की थी, 20 वीं शताब्दी अंग्रेजी भाषा की थी तथा 21 वीं शताब्दी हिन्दी की होगी। मैंने अपने इस मत की पुष्टि के लिए निम्नलिखित कारणों की विस्तार से विवेचना की थी –
1.भाषा बोलने वालों की संख्या
2. भाषा व्यवहार क्षेत्र का विस्तार
3. हिन्दी भाषा एवं लिपि व्यवस्था की संरचनात्मक विशेषताएँ
4. भविष्य में कम्प्यूटर के क्षेत्र में “टैक्स्ट टू स्पीच” तथा “स्पीच टू टैक्स्ट” तकनीक का विकास
5. भारतीय मूल के आप्रवासी एवं अनिवासी भारतीयों की संख्या, श्रमशक्ति, मानसिक प्रतिभा में निरन्तर अभिवृद्धि।
हिन्दी का अंतरराष्ट्रीय महत्व बढ़ रहा है जिसकी विवेचना लेखक ने अलग आलेख में की है। हिंदी की अन्तर-क्षेत्रीय, अन्तर्देशीय एवं अंतरराष्ट्रीय भूमिका को स्पष्ट करने के लिए लेखक ने सन् 2002 में विस्तृत लेख लिखा। उक्त लेख सातवाँ विश्व हिन्दी सम्मेलन समारिका में प्रकाशित हुआ (पृष्ठ 13-23) उसको इंटरनेट पर भी देखा जा सकता है। लिंक हैः
1. http://www.rachanakar.org/2010/07/blog-post_8861.html#ixzz2WNsOK2lT
2. http://www.scribd.com/doc/22573933/Hindi-kee-antarraashtreeya-bhoomikaa
मातृभाषियों की संख्या की दृष्टि से विश्व में सर्वाधिक बोलीजाने वाली भाषाओं के जो आंकड़े मिलते थे, उनमें सन् 1998 के पूर्व, हिन्दी को तीसरा स्थान दिया जाता था। सन् 1991 के सेन्सॅस ऑफ इण्डिया का भारतीय भाषाओं के विश्लेषण का ग्रन्थ जुलाई, 1997 में प्रकाशित हुआ। यूनेस्को की टेक्नीकल कमेटी फॉर द वॅःल्ड लैंग्वेजिज रिपोर्ट ने अपने दिनांक 13 जुलाई, 1998 के पत्र के द्वारा ‘यूनेस्को प्रश्नावली’ के आधार पर हिन्दी की रिपोर्ट भेजने के लिए भारत सरकार से निवेदन किया। भारत सरकार ने उक्त दायित्व के निर्वाह के लिए केन्द्रीय हिन्दी संस्थान के तत्कालीन निदेशक प्रोफेसर महावीर सरन जैन को पत्र लिखा। प्रोफेसर महावीर सरन जैन ने दिनांक 25 मई, 1999 को यूनेस्को को अपनी विस्तृत रिपोर्ट भेजी।
प्रोफेसर जैन ने विभिन्न भाषाओं के प्रामाणिक आँकड़ों एवं तथ्यों के आधार पर यह सिद्ध किया कि प्रयोक्ताओं की दृष्टि से विश्व में चीनी भाषा के बाद दूसरा स्थान हिन्दी भाषा का है। रिपोर्ट तैयार करते समय ब्रिटिश काउन्सिल ऑफ इण्डिया से अंग्रेजी मातृभाषियों की पूरे विश्व की जनसंख्या के बारे में तथ्यात्मक रिपोर्ट भेजने के लिए निवेदन किया गया। ब्रिटिश काउन्सिल ऑफ इण्डिया ने इसके उत्तर में गिनीज बुक आफ नॉलेज (सन्1997 का संस्करण) का पृष्ठ-57 फैक्स द्वारा भेजा। ब्रिटिश काउन्सिल ने अपनी सूचना में पूरे विश्व में अंग्रेजी मातृभाषियों की संख्या 33,70,00,000 (33 करोड़, 70 लाख) प्रतिपादित की।
सन् 1991 की जनगणना के अनुसार भारत की पूरी आबादी 83,85,83,988 है। मातृभाषा के रूप में हिन्दी को स्वीकार करने वालों की संख्या 33,72,72,114 है तथा उर्दू को मातृभाषा के रूप में स्वीकार करनेवालों की संख्या 04,34,06,932 है। हिन्दी एवं उर्दू को मातृभाषा के रूप में स्वीकार करनेवालों की संख्या का योग 38,06,79,046 है जो भारत की पूरी आबादी का 44.98 प्रतिशत है। मैंने अपनी रिपोर्ट में यह भी सिद्ध किया कि भाषिक दृष्टि से हिन्दी और उर्दू में कोई अंतर नहीं है। (जो विद्वान हिन्दी-उर्दू की एकता के सम्बंध में मेरे विचारों से अवगत होना चाहते हैं, वे निम्न लिंक पर जाकर अध्ययन कर सकते हैं –
http://www.scribd.com/doc/22142436/Hindi-Urdu)
इस प्रकार ब्रिटेन, अमेरिका, कनाडा, आयरलैंड, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड आदि सभी देशों के अंग्रेजी मातृभाषियों की संख्या के योग से अधिक जनसंख्या केवल भारत में हिन्दी एवं उर्दू भाषियों की है। रिपोर्ट में यह भी प्रतिपादित किया गया कि ऐतिहासिक, सांस्कृतिक एवं सामाजिक कारणों से सम्पूर्ण भारत में मानक हिन्दी के व्यावहारिक रूप का प्रसार बहुत अधिक है। हिन्दीतर भाषी राज्यों में बहुसंख्यक द्विभाषिक समुदाय द्वितीय भाषा के रूप में अन्य किसी भाषा की अपेक्षा हिन्दी का अधिक प्रयोग करता है।
भारत में हिन्दीतर राज्यों में तथा विदेशों में हिन्दी का प्रसार बढ़ रहा है। यह प्रसार बढ़ेगा। इन दिशाओं में चिन्ता करने की जरूरत नहीं है। मेरी चिन्ता का कारण भिन्न है। जब से विश्व के प्रामाणिक संदर्भ ग्रंथों ने यह स्वीकार किया है कि चीनी भाषा के बाद हिन्दी के मातृभाषियों की संख्या सर्वाधिक है, कुछ ताकतें हिन्दी को उसके अपने ही घर में तोड़ने का कुचक्र एवं षड़यंत्र रच रही हैं। यह भ्रम फैलाया जा रहा है कि हिन्दी का मतलब केवल खड़ी बोली है। सामान्य व्यक्ति ही नहीं, हिन्दी के तथाकथित विद्वान भी हिन्दी का अर्थ खड़ी बोली मानने की भूल कर रहे हैं। हिन्दी साहित्य को जिंदगी भर पढ़ाने वाले, हिन्दी की रोजी-रोटी खाने वाले, हिन्दी की कक्षाओं में हिन्दी पढ़ने वाले विद्यार्थियों को विद्यापति, जायसी, तुलसीदास, सूरदास जैसे हिन्दी के महान साहित्यकारों की रचनाओं पढ़ाने वाले अध्यापक तथा इन पर शोध एवं अनुसंधान करने एवं कराने वाले आलोचक भी न जाने किस लालच में या आँखों पर पट्टी बाँधकर यह घोषणा कर रहे हैं कि हिन्दी का अर्थ तो केवल खड़ी बोली है। भाषा-विज्ञान के भाषा-भूगोल एवं बोली-विज्ञान के सिद्धांतों से अनभिज्ञ ये लोग ऐसे वक्तव्य देते हैं जैसे वे भाषा-विज्ञान के भी पंडित हैं।
क्षेत्रीय भावनाओं को उभारकर एवं भड़काकर ये लोग हिन्दी की संश्लिष्ट परम्परा को छिन्न-भिन्न करने का पाप कर रहे हैं। तुर्रा यह कि हम तो हिन्दी के विद्वान हैं।
जब मैं जबलपुर के विश्वविद्यालय में हिन्दी-भाषाविज्ञान का प्रोफेसर था, मेरे पास विभिन्न विश्वविद्यालयों से हिन्दी की उपभाषाओं एवं बोलियों पर संपन्न पी-एच.डी. उपाधि के लिए जमा किए गए शोध-प्रबंध जाँचने के लिए आते थे। मैंने ऐसे अनेक शोध-प्रबंध जाँचे जिनमें एक ही पृष्ठ पर एक पैरा में विवेच्य बोली को उपबोली का दर्जा दिया दिया गया, दूसरे पैरा में उसको हिन्दी की बोली निरुपित किया गया तथा तीसरे पैरा में उसे भारत की प्रमुख भाषा के अभिधान से महिमामंडित कर दिया गया। इससे यह स्पष्ट है कि शोध-क्षात्र या शोध-क्षात्रा को तो जाने ही दीजिए, उनके निर्देशक महोदय भी भाषा-विज्ञान के भाषा-भूगोल एवं बोली-विज्ञान के सिद्धांतों से अनभिज्ञ थे।
सन् 2009 में, हिन्दी के एक नामवर आलोचक का यह वक्तव्य पढ़ाः
– “हिंदी समूचे देश की भाषा नहीं है वरन वह तो अब एक प्रदेश की भाषा भी नहीं है। उत्तरप्रदेश, बिहार जैसे राज्यों की भाषा भी हिंदी नहीं है। वहाँ की क्षेत्रीय भाषाएँ यथा अवधी, भोजपुरी, मैथिल आदि हैं”।
इसको पढ़कर मैंने इस वक्तव्य पर असहमति के तीव्र स्वर दर्ज कराने तथा हिन्दी के विद्वानों को वस्तुस्थिति से अवगत कराने के लिए लेख लिखा। जो पाठक चाहें वे उस लेख को पढ़ सकते हैं, जिसका लिंक हैः
रचनाकार: महावीर सरन जैन का आलेख : क्या उत्तर प्रदेश एवं बिहार हिन्दी भाषी राज्य नहीं हैं?
www.rachanakar.org/2009/09/blog-post_08.html
जो हिन्दी प्रेमी “हिन्दी भाषा क्षेत्र” तथा इसके अंतर्गत आने वाले समस्त भाषिक रूपों के सम्बंधों को भाषा विज्ञान के भाषा भूगोल एवं बोली विज्ञान के सिद्धांतों के परिप्रेक्ष्य में गहराई से जानना चाहते हैं, वे
निम्न लिंकों पर जाकर अध्ययन कर सकते हैं –
http://www.scribd.com/doc/105229692/Hindi-Bhasha
http://www.scribd.com/doc/105906549/Hindi-Divas-Ke-Avasa
www.rachanakar.org/2012/09/blog-post_3077.html
हिन्दी के प्रेमियों से मेरा यह अनुरोध है कि इन लेखों का अध्ययन करने की अनुकंपा करें जिससे जो ताकतें हिन्दी को उसके अपने ही घर में तोड़ने का षड़यंत्र कर रहीं हैं, वे बेनकाब हो सकें। हिन्दी दिवस के अवसर पर यह हिन्दी के प्रति सच्ची भावभक्ति होगी।
प्रोफेसर महावीर सरन जैन
(सेवानिवृत्त निदेशक, केन्द्रीय हिन्दी संस्थान)
123, हरि एन्कलेव
बुलन्द शहर – 203001
बहुत सुंदर आलेख.
जवाब देंहटाएंश्री जैन साहब इस उम्र में भी इतने सक्रिय हैं यह देख कर आश्चर्य होता है।
नमन
जय हिन्द जय हिन्दी
डॉ रावत
हिन्दी अधिकारी
भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान खड़गपुर
9641049944
श्री जैन साहब,
जवाब देंहटाएंआपका विस्तृत लेख पढ़ा. बहुत ही आँकड़ों से भरा लेख है.
आपसे जानना चाहूँगा कि देश के नेताओं ने हिंदी को रा।ट्रभाषा की पदवी देने का कोई दस्तावेज बनाया है या फिर अलग अलग स्थानों पर अलग अलग नेताओं ने अपनी राय दी है. जहाँ तक मुझे याद आता है (साफ नहीं है) कि काँग्रेस के किसी अधिवाशन ( शायद 1939) में हिंदी को रा्ष्ट्रभाषा घोषिच किया गया था. आज भी जनता हिंदी को राजभाषा के बदले राष्ट्रभाषा कहते थकती नहीं है- सहीं क्या है - ज्ञानदान करें. इन दिनों रचनाकार पर ही मेरॉा लेख हिंदी दशा और दिशा प्रकाशित है. आपसे अनुरोध है कि कृपया लेख पढ़ें और राय दें. व्यक्तिगत राय देना चाहें तो मों 08462021340 पर या ई मेल laxmirangam@gmail.com पर दे सकते. हैं. आपके प्रत्युत्तर का तहे दिल से इंतजार रहेगा.
प्रणाम,
एम. आर अयंगर
माड़भूषि रंगराज अयंगर.