5. शौच शौच का अर्थ है- शुचिता, शुद्धता, स्वच्छता, पवित्रता एवं निर्मलता। शौच का अर्थ शरीर के धरातल पर ‘स्वच्छता’, मन के धरातल पर ‘पवित्रता’...
5. शौच
शौच का अर्थ है- शुचिता, शुद्धता, स्वच्छता, पवित्रता एवं निर्मलता। शौच का अर्थ शरीर के धरातल पर ‘स्वच्छता’, मन के धरातल पर ‘पवित्रता’ तथा आध्यात्मिक धरातल पर ‘आत्मशुद्धि’ है। कर्मबन्धनों से रहित परम चैतन्य आत्मा का साक्षात्कार ही आन्तरिक शौच है। आत्मा का मूल स्वभाव शौच है। आत्मा का सहज स्वभाव शुद्ध चैतन्य मात्र है। चैतन्य स्वभाव का अनुसरण करने वाले आत्मा के परिणाम को उपयोग कहते है। ‘अज्ञानी जीव राग आदि के बन्धन के कारण ज्ञान की उपासना नहीं करता। आत्मा और शरीर में एकता की कल्पना के कारण रागद्वेषों की तथा अन्याय विकल्पों की पूजा करता है।’
वेदान्त भी यह प्रतिपादन करता है कि शौच आत्मा का स्वाभाविक गुण है। अशौच के कारण ही आत्मा भव-बन्धन में पड़ती है। मल ही बन्धन का कारण है। शैव तान्त्रिकों के अनुसार समस्त मलों से मुक्त हो जाने पर ‘पशु’ ‘पशुपति’ बन जाता है। गीता में ज्ञान के साधनों का विवरण देते समय नौ गुणों में शौच को भी स्थान दिया गया है। (देखें- गीता, 13/ 7)
व्यक्ति जब बहिर्मुखी होकर खोज करता है तो ‘अपने’ को नहीं खोज पाता। वह बाहरी साधनों में सुख की खोज करता है। उसे तात्कालिक सुख का अहसास भले ही हो जाए, स्थायी आनन्द प्राप्त नहीं हो पाता। इसी कारण दार्शनिक कहते है ‘अपने को पहिचानो।’ दर्शन की इस मान्यता का समर्थन मनोविज्ञान करता है। मनोविज्ञान की पहुँच आत्मा तक नहीं है, किन्तु चेतन मन (बाह्य) की अपेक्षा वह अचेतन मन (आन्तरिक) को महत्वपूर्ण मानते हुए कहता है - अपनी गुप्त दमित प्रवृत्तियों को चेतना की सतह पर लाने का उपाय करो।
मलिनता किसी भी धरातल पर ठीक नहीं है। हम अपने शरीर को साफ करते हैं। अपने वातावरण को स्वच्छ बनाते हैं। यदि हम अपने शरीर की सफाई न करें तो शारीरिक रोग उत्पन्न हो सकते हैं। यदि हम परिवेश को साफ न करें तो उसको देखकर हमारे मन में जुगुप्सा का भाव आ सकता है। अपने परिवेश की स्वच्छता के प्रति लापरवाही के कारण पर्यावरण के प्रदूषण की समस्या कितनी चिन्ताजनक है- इससे हम सभी विदित हैं।
शरीर की सफाई की अपेक्षा मन की सफाई अधिक महत्वपूर्ण एवं आवश्यक है। स्नान करके व्यक्ति अपने शरीर को तो साफ कर सकता है, किन्तु इससे उसका मन पवित्र नहीं होता। मन की मलिनता से व्यक्ति को शारीरिक एवं मानसिक दोनों प्रकार के रोग होते हैं। शारीरिक दृष्टि से घातक बीमारियाँ हो जाती हैं। मानसिक दृष्टि से वह आत्मग्लानि, चिन्ता, भय, क्रोध, ईर्ष्या तथा निराशा का अनुभव करता है। वह जटिल व्याधियों का शिकार हो जाता है। मनोविज्ञान अचेतन मन में जमा दुर्गुणों को चेतना के धरातल पर लाकर उन्हें शान्त करके का उपाय बताता है। आत्मनिरीक्षण, आत्मस्वीकृति तथा आत्मनियन्त्रण द्वारा उन्हें मित्र बनाकर उनके रेचन की विधि बताता है।
आत्मा के साक्षात्कार के लिए शौच गुण का पालन अनिवार्य है। किसी वस्तु का दर्शन हम तभी कर सकते हैं जब वह अपने स्वरूप में प्रकट हो। आत्मा शुद्ध स्वरूप है, इस कारण शौच गुण का पालन आत्मदर्शन के लिए अनिवार्य है। हमारी आत्मा मलों एवं कषायों के आवरण द्वारा ढकी हुई है। हम इस आवरण को हटाकर आत्मशुद्धि कर सकते हैं। रूई से बने हुए कपड़े का प्रकृतरंग सफेद है। गन्दगी एवं धूल के कण उसे गन्दा एवं मैला कर देते हैं। जिस कपड़े का मूल रंग धवल है, वह ‘पर’ संयोग के कारण मैला लगता है। हम कहते हैं कि कपड़ा गन्दा है, मैला है। गन्दगी और मैलापन कपड़े का स्वाभाविक गुण नहीं है। जब हम कपड़े को साफ कर देते है, तो कपड़ा गन्दा नहीं रह जाता। जब उसका मैल हटा देते हैं तो वह अपने स्वाभाविक रंग में दिखाई देने लगता है। जब व्यक्ति कषायों एवं कर्म-मलों की गन्दगी को हटा देता है तो आत्मा का शुद्ध स्वभाव शौच प्रगट हो जाता है। कपड़े के साथ जब तक गंन्दगी एवं मैलेपन का संयोग रहता है, तब तक उसकी धवलता नजर नहीं आती। आत्मा के साथ जब तक राग-द्वेष जन्य कर्म बन्धन की अशुद्धता रहती है, तब तक आत्मा के शुचि-स्वभाव का दर्शन नहीं हो पाता। जीवात्मा का अन्तिम लक्ष्य मोक्ष है। इस कारण आध्यात्मिक दृष्टि बाह्य शौच की अपेक्षा आन्तरिक शुचिता को महत्व देती है। पाप या कषाय शरीर को नहीं आत्मा को लगते हैं। महाभारत में जब युधिष्ठिर को यह तत्व-बोध हो जाता है तो वे स्वीकार करते हैं कि बाहरी स्नान से शुद्धि की कल्पना भ्रामक है। भगवान कृष्ण उपदेश देते हैं कि अंतःकरण की शुद्धि आवश्यक है। आत्मा रूपी नदी में संयम का जल भरा है, तप की तरंगें उठती हैं, सत्य उसका प्रवाह है और ब्रह्मचर्य उसका तट है। व्यक्ति को इसी में स्नान करना चाहिए।
भगवान महावीर ने भी घोषणा की है कि प्रातः स्नान आदि कर लेने से मोक्ष नहीं होता।
धर्म के ही पवित्र अनुष्ठान से आत्मा का शुद्धिकरण होता है। ‘धम्मो सुद्धस्स चिट्ठई’ (शुद्धात्मा में ही धर्म स्थित रह सकता है)। (उत्तराध्ययन, 3/ 12)
शुद्ध आत्मा में ही धर्म स्थित रहता है, अशुद्ध आत्मा में नहीं। बिना शुचिता के सम्यग् ज्ञान, सम्यग् दर्शन एवं सम्यग् चारित्र सम्भव नहीं है। आत्मा चेतना का साक्षात्कार करना है तो आत्मशुद्धि आवश्यक है। कषायों को हटाना अनिवार्य है। कर्म-रूप ग्रन्थियों को ढीला कर देने से ही काम नहीं चलता, उन्हें दूर करना होता है, निर्ग्रन्थ बनना होता है।
आत्म-विशुद्वि का रास्ता किसी व्यक्ति या देवता के प्रति नमन नहीं है। यह व्यक्ति के आत्म स्वभाव को जानने की प्रक्रिया है। व्यक्ति के जिन होने की अर्थात् इन्द्रियों को जीतने की स्थिति है। विकारों की राख के नीचे दबी हुई शुद्ध एवं परम चैतन्य रूपी आग की खोज है। ऐसी आग जब राखों की परतों को अलग करके अपने शुद्ध चैतन्य स्वभाव से प्रदीप्त हो जाती है तो संसार के प्राणी मात्र को प्रकाश देती है।
शौच का महत्व प्रायः सभी धर्म एवं दर्शन-सम्प्रदाय स्वीकार करते हैं। शुद्धि किसकी? इसके सम्बन्ध में अलग-अलग दर्शन सम्प्रदायों की शब्दावली में अन्तर है। योगी शरीर, प्राण, मन, शुक्र, वाणी एवं स्वरों की शुद्धि करते हैं। भक्त अपने भाव को शुद्ध करता है। ज्ञानी मन की शुद्धता तथा हठयोगी काया की शुद्धि का उपदेश देते हैं। यदि तत्व की दृष्टि से देखें तो इन सबका लक्ष्य ‘आत्मशुद्धि’ ही है। शौच का भावार्थ भी अलग-अलग दर्शन सम्प्रदायों में अलग-अलग वाचकों द्वारा अभिव्यक्त है। ये वाचक हैं – (1)बन्धन का अभाव (2) मलों की अप्सारणा (3) भोगों से विरति एवं संन्यास (4)कषायों का नाश, चित का शुद्धिकरण, आत्मविशुद्धि आदि।
शौच के पालन के लिए आर्जव अनिवार्य है। जब तक कषायों के बन्धन ढीले नहीं होते, तब तक उन्हें हटाया नहीं जा सकता। आर्जव के द्वारा व्यक्ति बन्धनों को शिथिल करता है। क्षमा एवं मार्दव के द्वारा अपने द्वेष भाव को दूर करता है। इसके बाद वह शौच के द्वारा लोभ पर विजय प्राप्त करता है। क्षमा, मार्दव, आर्जव एवं शौच के गुणों के पालन से राग-द्वेष के भाव समाप्त हो जाते हैं, कर्म बन्धन के कारण दूर हो जाते हैं। शुद्धि के मार्ग में लोभ अवरोधक तत्व है। लोभ मन की चंचलता है। लोभ के कारण हमारा असन्तोष बढ़ता है, इच्छाओं में वृद्वि होती है। लोभ से राग उत्पन्न होता है। राग से पर वस्तुओं में, पर पदार्थो में आसक्ति उत्पन्न हेाती है। ऐसी स्थिति में हम अपने ही स्वार्थों की पूर्ति करना चाहते हैं। लोभी जीव की तृष्णा कभी शान्त नहीं होती। जब तक लोभ है, तब तक त्रिलोक की राज्य प्राप्ति के पश्चात् भी सन्तोष नहीं हो सकता। इसी कारण यह कहा जाता है कि लोभ सभी सद् गुणों का नाश कर देता है- ‘लोभो सव्व विणासणो’। (दशवैकालिक, 8/ 38)
हिन्दू पुराणों में बहुत सी कथाओं में यही विषय है कि पृथ्वी लोक के किसी साधक की सत्व विशुद्धि देखकर जब देवगण स्वयं स्वर्गों से अपदस्थ होने के भय से व्याकुल हो जाते है तो वे उसकी साधना में अवरोध उत्पन्न करने के लिए उसे अनेक प्रकार के प्रलोभन देते हैं। लोभ से ही भोग का रास्ता प्रशस्त होता है। भोग की प्रवृत्ति को रोकने के लिए लोभवृत्ति को हटाना आवश्यक है। जब तक लोभ एवं भोग भाव रहता है तब तक मल एवं कषाय विद्यमान रहते हैं। इस कारण शौच के लिए लोभ वृत्ति एवं भोग-भावना को जीतना आवश्यक है।
जब व्यक्ति में समताभाव उत्पन्न होता है तो वह संसार के सभी प्राणियों को अपने समान समझने लगता है। फिर वह न तो किसी के प्रति क्रोध करता है और न अपने प्रति अहंकार रखता है। प्राणी मात्र के प्रति आत्मतुल्यता का भाव उत्पन्न होने पर मान एवं क्रोध के भाव समाप्त हो जाते हैं। सन्तोषवृत्ति के कारण लोभ की भावना समाप्त हो जाती है। सन्तोष से मन स्थिर रहता है। मन का असन्तोष दूर होता है। इस प्रकार समताभाव एवं सन्तोष के परिपालन एवं विकास से व्यक्ति के मन के क्रोध, बैर, घृणा, प्रतिशोध, द्वेष, मान, अहंकार, मद, राग, काम , लोभ, मोह एवं तृष्णा आदि विकार समाप्त हो जाते हैं। ये सभी मनोविकार अंतश्चेतना को मलिन करते हैं। चेतना की शुद्धता के लिए इनका निवारण आवश्यक है। इस प्रकार समता एवं सन्तोष के विकास से शौच गुण की प्राप्ति होती है। क्षमा, सन्तोष, मृदुता, सरलता, सत्य, दया, समता इत्यादि मनःशुद्धि के सहायक तत्व हैं।
शौच में शुद्धि के साथ-साथ पवित्रता का भाव समाहित है। व्यक्ति के सामाजिक जीवन में भी शौच का अत्यधिक महत्व है। व्यक्ति लोभ के कारण झूठ बोलता है। भौतिक साधनों का अधिकाधिक संग्रह करता है। तृष्णा के कारण परिग्रह की वृत्ति का विकास होता है। वह भौतिक वस्तुओं का संग्रह करके ही सन्तुष्ट नहीं रहता, पूँजी उत्पादन के साधनों पर भी अपना एकाधिकार करना चाहता है। इसके कारण समाज में आर्थिक विषमताएँ बढ़ती हैं तथा सामाजिक समस्याएँ उत्पन्न होती हैं।
लोभी व्यक्ति सामाजिक आक्रोश का पात्र बन जाता है। लोभ वृत्ति के कारण उसकी उदारता समाप्त हो जाती है। वह अनुदार एवं असहिष्णु हो जाता है। उसके मन में पाशविकता एवं क्रूर वृत्तियों का विकास होता है। समाज के जो सदस्य उसके अधीन कार्य करते हैं, उनका वह शोषण करता है। परपीड़न में उसे तृप्ति मिलती है। इस कारण समाज के सदस्यों एवं उसके अधीनस्थ लोगों के मन में उसके प्रति विरक्ति, उपेक्षा, अमैत्री, घृणा एवं आक्रोश के भाव उत्पन्न होते हैं।
इसके विपरीत सन्तोष एवं धैर्य हमारे सामाजिक जीवन के विकास के लिए सहायक है। यहाँ यह कहना आवश्यक है कि सन्तोष का अर्थ अकर्मण्यता नहीं है। संतोषी व्यक्ति कर्मवादी होता है, भाग्यवादी नहीं। कर्म से प्रसूत फल के प्रति उसके मन में सन्तोष रहता है। इसी सन्तोष के कारण व्यक्ति कभी निराश नहीं होता, कभी टूटता नहीं, और किसी से पराजित नहीं होता। श्रम करने पर भी यदि उसे अनुरूप फल प्राप्त नहीं होता, तो वह हताश नहीं हो जाता, अपना विवेक नहीं खो देता। इसके विपरीत विवेक के साथ शान्त मन से पहले से अधिक संकल्प के साथ परिश्रम करता है। ऐसा व्यक्ति कुंठाओं का शिकार नहीं बनता। इसी विचारधारा का दार्शनिक प्रतिपादन गीता में निष्काम कर्मयोग के रूप में हुआ है। इस प्रतिपादन की सार्थकता एवं प्रयोजनशीलता हमारे जीवन में व्यावहारिक दृष्टि से भी है।
मनोवैज्ञानिक दृष्टि से शौच अचेतन मन में पड़ी हुई दमित कुंठाओं एवं वासनाओं के मल को दूर कर, चेतन एवं अचेतन मन के एकात्मीकरण, दुष्प्रवृत्तियों के मार्गान्तीकरण एवं दुर्गुणों का रेचन कर हमारे सम्पूर्ण मनोवैज्ञानिक व्यक्तित्व का शुद्धिकरण करता है। आध्यात्मिक दृष्टि से शौच राग-द्वेषों से विरत आत्मा के प्रकाश की शुभ्रता से परिचित कराता है। सामाजिक दृष्टि से शौच व्यक्ति को भौतिकवादी व्यवस्था की चकाचौंध से हटाकर आन्तरिक नैतिक मूल्यों के आचरण के लिए प्रेरित करता है।
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सम-संतोस-जलेणं, जो धोवदि तिव्व-लोह-मल पुंजं। भोयण-गिद्धि-विहीणो, तस्स सउच्चं हवे विमलं।। (जो मुनि समताभाव और सन्तोषरूपी जल से तृष्णा और लोभ रूपी मल के पुंज को धोता है तथा भोजन में लालची नहीं होता, उसके निर्मल शौच-धर्म होता है)। |
सुवण्ण-रूप्पस्स उ पव्वया भवे, सिया हु केलाससमा असंख्या। नरस्स लुद्धस्स न तेहि किंचि, इच्छा हु आगाससमा अणन्तिया।। स्वर्ण और चाँदी के कैलाश के समान असंख्य पर्वत के होने पर भी लोभी मनुष्य के लिए वे किंचित ही हैं। इच्छा आकाश के समान अनन्त है। |
लोभो सव्वविणासणो। लोभ सभी सद् गुणों का नाश कर देता है। |
करेइ लोहं, वेरं वड्ढइ अप्पणो। जो लोभ करता है, वह अपने चारों ओर वैर की अभिवृद्धि करता है। |
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