4. सत्य आर्जव से सत्याचरण के लिए प्रेरणा मिलती है। आर्जव की नींव पर सत्य का भवन बनाया जा सकता है। निष्कपटता एवं ऋजुता से मिथ्यात्व का अन्त...
4. सत्य
आर्जव से सत्याचरण के लिए प्रेरणा मिलती है। आर्जव की नींव पर सत्य का भवन बनाया जा सकता है। निष्कपटता एवं ऋजुता से मिथ्यात्व का अन्त होता है तथा सत्याचरण की प्रवृत्ति विकसित होती है। जब व्यक्ति सत्याचरण करने लगता है तब कपट कुटिलता के द्वार बन्द हो जाते हैं।
सत्य एवं ‘शौच’ का परस्पर अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है। बिना चित्त की शुद्धि के व्यक्ति लोभ-वृत्ति को दूर नहीं कर पाता। जब तक लोभ की भावना रहती है तब तक झूठ बोलने की भी सम्भावनाएँ बनी रहती हैं। हम जिन कारणों से झूठ बोलते हैं उनमें लोभ बहुत बड़ा कारण है। ‘शौच’ से हम लोभ पर विजय प्राप्त करते हैं। इस कारण शौच गुण का सत्य से गहरा सम्बन्ध है।
सत्य आत्मा का स्वाभाविक गुण है। सत्याचरण के बिना आत्मिक शुद्धि असम्भव है। इस कारण सत्य से शौच का मार्ग प्रशस्त होता है।
सत्य को अंगीकार किये बिना आत्मा का उद्धार असम्भव है। इसी कारण कहा गया है कि आत्मार्थी साधक को परिमित, असंदिग्ध, परिपूर्ण, स्पष्ट, अनुभूत, वाचालतारहित तथा किसी को भी उद्विग्न न करनेवाली वाणी बोलनी चाहिए। चुभे हुए लौह कंटक का दुःख घड़ी दो घड़ी का होता है। वह काँटा निकालने पर सरलता से दूर हो जाता है। दुर्वचनों का काँटा एक बार चुभ जाने पर सरलता से नहीं निकलता। इस कारण सत्य प्रिय एवं हितकारी होना चाहिए। केवल तथ्य-परकता ही सत्यता नहीं है। इसके साथ व्यक्ति की मानसिकता का जुड़ाव है। इसी कारण क्रोध, मान, माया, लोभ, द्वेष, दम्भ, कल्पित व्याख्या तथा हिंसा का आश्रय लेकर जो भाषा बोली जाती है, वह असत्य भाषा कहलाती है। सत्य अहिंसा का रक्षक है। इसलिए सत्य में दूसरे प्राणी की हित-आंकाक्षा का तत्व जुड़ा रहता है। सत्य आत्मा का धर्म है। आत्मा का स्वभाव सत्य है। इस कारण ‘अहिंसा निरपेक्ष यथातथ्य प्रकाशन’ सत्य नहीं माना जा सकता।
सत्य का विरोधी भाव झूठ बोलना तथा मिथ्या व्यवहार करना है। झूठ बोलना तथा किसी सद् वस्तु के स्वरूप, स्थान, काल आदि के सम्बन्ध में मिथ्या बोलकर, उसे असत् बतलाना - ये दोनों ही प्रकार असत्य वचन के द्योतक हैं। किसी वस्तु के यथार्थ स्वरूप को छिपाकर झूठ बोलना ही सामान्यतः सत्य का विरोधी माना जाता है। मानसिक एवं आध्यात्मिक दृष्टि से अप्रिय, अहितकारी एवं पर-पीड़क वचन बोलना भी असत्य है।
सत्य का महत्व सभी धर्मों ने स्वीकार किया है। वैदिक ऋषियों ने सत्य के स्वरूप की सूक्ष्म व्याख्या की है। ‘सब कुछ आत्माश्रित है। आत्मा सत्य है, अतः सब कुछ सत्यात्मक है। यही सत्य मैं (जीव) हूँ। (देखें - छान्दोग्य उपनिषद् , 6/ 87)
सत्य को ब्रह्म कहा गया है और आत्मा का रूप बतलाया गया है। श्रीमद् भागवत में परमात्मा को सत्यव्रत, परमसत्य, त्रिसत्य, सत्यनिहित, सत्य का सत्य एवं सत्यात्मक कहकर उसकी वंदना की गयी है। अद्वैतवादी शंकराचार्य सत्य की तीन श्रेणियाँ मानते हैं : (1)व्यावहारिक सत्य (2) प्रातिभासिक सत्य (3) पारमार्थिक सत्य। उन्होंने पारमार्थिक सत्य को ही वास्तविक सत्य माना है। बौद्धाचार्यों ने सत्य के दो रूप माने हैं - (1) सांवृत्तिक सत्य(2)पारमार्थिक सत्य।
प्रश्न उठता है कि सत्य क्या है? सत्य की प्रकृति क्या है? एक दृष्टि से यह कहा जा सकता है कि जिस किसी भी वस्तु की सत्ता है, वह सत्य है। हमें पानी दिखाई पड़ता है, इसलिए पानी सत्य है। इसी के साथ प्रश्न उपस्थित होता है कि जो दिखाई न पड़े या जिसका अनुभव न हो, क्या वह सत्य नही है? किसी अंधेरे कमरे में पड़ी हुई सुई को यदि हम देख नहीं पाते, उसकी सत्ता का अनुभव नहीं कर पाते, तो क्या उसकी सत्ता नहीं है?
हम किसी भौतिक वस्तु की सत्ता का ज्ञान सर्वथा आसानी से नहीं कर पाते। कभी उसके लिए हमें उस वस्तु को स्वयं जाकर देखना होता है। कभी देखने के लिए प्रकाश की व्यवस्था करनी होती है। कभी प्रकाश में भी अनेक बार खोजना पड़ता है, ध्यान लगाना पड़ता है, मन एकाग्र करना पड़ता है। प्रश्न उपस्थित होता है कि अतीन्द्रिय एवं निरपेक्ष सत्य की सूक्ष्म एवं अमूर्त सत्ता का ज्ञान हम किस प्रकार कर सकते हैं ?
जिस सत्य की हम खोज कर रहे हैं उसके आधारों तथा खोज के कारणों के सम्बन्ध में भिन्न-भिन्न दृष्टियाँ हैं। नैयायिक निम्न ‘प्रमाण’ मानते हैंः (1) प्रत्यक्ष प्रमाण (2) अनुमान प्रमाण (3) उपमान प्रमाण (4)शब्द प्रमाण।
इनके अतिरिक्त वेदान्ती और मीमांसक- अनुपलब्धि और अर्थापत्ति- ये दो अतिरिक्त प्रमाण मानते हैं। सांख्य केवल प्रत्यक्ष, अनुमान एवं शब्द को ही मानते हैं। यथार्थ ज्ञान के सम्बन्ध में बहुत मतभेद हैं। कुछ विचारक यह मानते हैं कि जिन वस्तुओं का प्रत्यक्षण हो रहा है वे सभी सत्य हैं। दूसरे विचारक मानते हैं कि कुछ समय के लिए हमें भ्रान्ति भी हो सकती है, जैसे हम रस्सी को साँप समझ सकते हैं। इस कारण प्रातिभासिक सत्य यथार्थ सत्य नहीं है। कभी-कभी सारे साधनों के बावजूद भी हम सत्य की तह तक पहुँचने में एकदम समर्थ नहीं हो पाते। प्रत्यक्ष में इन्द्रिय दोष भी हो सकता है। हमारा मस्तिष्क किसी अन्य स्थान पर केन्द्रित हो सकता है। इसके कारण हमारी आँखे खुली रहने पर भी हम कुछ देख नहीं पाते। अपनी सीमित दृष्टि से देखने पर हमें वस्तु के एकांगी गुण तथा धर्म का ज्ञान होता है। विभिन्न स्थानों से देखने पर एक ही वस्तु हमें भिन्न प्रकार की लग सकती है तथा एक ही स्थान पर एक ही वस्तु विभिन्न द्रष्टाओं को विभिन्न प्रकार की प्रतीत हो सकती है। इन्हीं कारणों से जैन तत्व-चिन्तन वस्तु के अनेकान्त स्वरूप की मीमांसा करता है। स्याद्वाद कथन शैली है। सप्तकारक-वचन-विन्यास से वस्तु के अनन्त धर्मों की अभिव्यक्ति की दिशा में तत्व चिन्तक को सही दिशा एवं सही माध्यम प्राप्त होता है।
जैन दर्शन का अनेकान्तवाद वस्तु के अनेकांत स्वरूप की सत्यता को आत्मसात करने के लिए वैज्ञानिक पद्धति को अपनाता है। किसी वस्तु के अनेकांत धर्मों को पहले विभक्त करता है; उनका विश्लेषण करता है। इस पद्धति से वह पदार्थ के अनेक गुणों को एक-एक करके आत्मसात करता है। इसके बाद पदार्थ को संश्लिष्ट रूप से पहचानता है। यह समग्र सत्य को पहचानने की वैज्ञानिक पद्धति है। एक अपेक्षा से पदार्थ अविनाशी है। दूसरी अपेक्षा से वही विनाशी है। एक दृष्टि से पदार्थ में बदलाव हो रहा है; उत्पाद-व्यय हो रहा है, दूसरी दृष्टि से जिस पदार्थ में उत्पाद-व्यय हो रहा है वह पदार्थ वहीं है; ध्रुव है। एक दृष्टि से पदार्थ नित्य है। दूसरी दृष्टि से पदार्थ अनित्य है। देशकाल आदि के द्वारा जो परिणामी एवं परिवर्तित हो रहा है वे उसके रूप आदि का परिवर्तन है। वे उसकी पर्याय हैं।
भगवान महावीर ने अपने प्रथम प्रवचन में कहा कि ‘सत’ उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य युक्त है: ‘‘सद् द्रव्य लक्षणम। उत्पाद व्यय ध्रौव्य युक्तं सत्’’।
( तत्त्वार्थ सूत्र, 5/29-30)।
द्रव्य (पदार्थ) का लक्षण सत है। जो सत है उसकी सत्ता है, उसका अस्तित्व है। अस्तित्व गुण के कारण पदार्थ अविनाशी है। उसका कभी विनाश नहीं होता। पदार्थ को द्रव्य भी कहा गया है। इस कारण वह हमेशा बहता रहता है, सदा एक रूप नहीं रहता, एक रूप से दूसरे रूप में बदलता रहता है, अवस्थाओं में परिवर्तन होता रहता है। अवस्थाओं का परिवर्तन पदार्थ की पर्याय हैं। ‘सत’ लक्षण की जैन दर्शन में व्याख्या की गई है कि स्व की अपेक्षा से पदार्थ ‘सत’ है। इसका अर्थ है कि पदार्थ स्वरूप से है। इसका अर्थ यह भी है कि पदार्थ स्व रूप से है; पर रूप से नहीं है। एक पदार्थ अपना सब कुछ कर सकता है; दूसरे पदार्थ का कुछ नहीं कर सकता। स्व की अपेक्षा से अस्तित्व है। पर की अपेक्षा से अस्तित्व नहीं है।
जिसका सत्ता है, जिसका अस्तित्व है वह ध्रुव है। उसका कभी विनाश सम्भव नहीं है। मगर जिसकी सत्ता है, उसकी अवस्था में परिवर्तन होता रहता है। कोई जन्म लेता है। जन्म लेता है तो मरता भी है। जन्म से मृत्यु के बीच की अवस्थाओं में परिवर्तन प्रत्यक्ष है। जिसकी अवस्थाओं में परिवर्तन होता रहता है, वह तो वही रहता है। इसी प्रकार वर्तमान जन्म, विगत जन्म, आगत जन्म तो अवस्थाओं की स्थितियाँ हैं। उनमें जो जन्म लेता है वह तो स्वरूप से सदा स्थित है, ध्रुव है, नित्य है, निरंतर है।
अवस्थाओं में परिवर्तन उत्पाद-व्यय रूप है, अनित्य है, परिणामी है। नवीन अवस्था का प्रकट होना उत्पाद है। उत्पाद के समय ही पूर्व अवस्था का विनाश होना व्यय है। अनादि एवं अनन्तकाल तक जो सदा स्थिर एवं मूल स्वभाव है वह पदार्थ है। जिसका उत्पाद एवं व्यय नहीं होता, वह ध्रौव्य है। त्रिकाल की अपेक्षा से ‘सत’ ध्रुव है। पर्याय की अपेक्षा से उत्पाद-व्यय होता रहता है। नवीन पर्याय उत्पन्न होती है। पुरानी पर्याय नष्ट होती है। इस दृष्टि से पदार्थ नित्य भी है तथा अनित्य भी है। सामान्य स्वरूप की अपेक्षा से पदार्थ नित्य है। पदार्थ जो पहले समय में था वही दूसरे समय में भी होता है। इस अपेक्षा से पदार्थ अव्ययी, अविनाशी एवं नित्य है। उत्पन्न एवं विनाश के होते रहने पर भी पदार्थ में जो पदार्थत्व बना रहता है वह उसका गुण है। पदार्थ में जो उत्पाद-व्यय होता रहता है वह परिणमन उसकी पर्याय हैं। इस अपेक्षा से पदार्थ अनित्य है। इस प्रकार जैन दर्शन पदार्थ / द्रव्य का लक्षण निम्न प्रकार से प्रतिपादित करता है:
(1) पदार्थ (द्रव्य) का लक्षण ‘सत’ अर्थात् सत्ता है।
(2) पदार्थ (द्रव्य) का लक्षण उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य युक्त है।
(3) पदार्थ (द्रव्य) का लक्षण गुण-पर्याय आश्रित है।
आचार्य कुन्दकुन्द का प्रसिद्ध कथन है:
दव्वं सल्लवक्खणियं उत्पाद व्यय ध्रुवत्तर्सजुतं।
गुणपज्ज या सयं वा जं तं भण्णंति सव्वण्हू।। (आचार्य कुन्दकुन्दः पंचास्तिकाय, गा0 10)।
द्रव्य का उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य युक्त होना अथवा द्रव्य का गुण लक्षण पर्याय आश्रित होना ही अनेकान्तवादी विचार दृष्टि का बीज-मंत्र है। द्रव्य-लक्षण बीज है, अनेकान्तवाद बीज से विकसित वृक्ष है।
अनेकान्त: तत्वबोध की दृष्टि -
अनेकान्त शब्द अनेक एवं अंत इन दो शब्दों के संयोग से बना है। अंत का अर्थ यहाँ धर्म है। पदार्थ में विविध गुण होते हैं। पदार्थ अनन्त धर्मात्मक होता है। जड़ और चेतन में, अनात्मा एवं आत्मा में अनेक धर्म एवं गुण होते हैं। अनेकांतवाद जीव आदि पदार्थों का सामान्य गुणों एवं विशिष्ट गुणों आदि से संवलित बतलाना मात्र नहीं है। इसका कारण यह है कि प्रत्येक पदार्थ में विविध गुणों की सत्ता की स्वीकृति अन्य दर्शनों में भी है। पदार्थ को अनन्त धर्मात्मक मानने वाले सभी दर्शन अनेकान्तवादी नहीं है। अनेकान्तवाद एकान्तवादी आग्रह का निषेध करता है। जब आग्रह समाप्त होता है, जब मतवाद समाप्त होता है, जब संकीर्णताएं टूटती हैं तब अनेकान्त दृष्टि का उदय होता है। जब दृष्टि में अनाग्रह, उदारता, व्यापकता, सहिष्णुता, समन्वय-भावना तथा सर्वधर्म समभाव आता है तब अनेकांत दृष्टि का उन्मेष होता है। प्रत्येक पदार्थ स्व सत्ता, स्वक्षेत्र, स्वकाल एवं स्वभाव रूप से अस्तिरूप है। प्रत्येक पदार्थ पर सत्ता, परक्षेत्र, परकाल एवं परस्वभाव की अपेक्षा से नास्तिरूप या असत है। जो सत है वही असत है, जो तत है वही अतत है, जो अभेद दृष्टि से एक है वही भेद दृष्टि से अनेक है, जो द्रव्यार्थिक नय से नित्य है वही पर्यायार्थिक नय से अनित्य है। पदार्थ के पदार्थत्व में विद्यमान परस्पर विरूद्ध शक्तियों का प्रकाशित होना अनेकान्त है। अनेकांत-दृष्टि से विचार करना ही अनेकांतवाद है।
अनेकान्तवाद व्यापक विचार-दर्शन है। इससे हम विभिन्न दर्शनों एवं धर्मों को व्यापक पूर्णता में संयोजित कर सकते हैं, सर्व धर्म समभाव की स्थापना कर सकते हैं, ज्ञान-विज्ञान के विभिन्न मतवादों में निहित सत्य का अनुसंधान कर सकते हैं, मानवीय व्यवहार की मनोवैज्ञानिक एवं समाजशास्त्रीय विभिन्न विचारधाराओं में निहित तथ्यों एवं सत्यों का विश्लेषण एवं विवेचन कर सकते हैं।
जब हम एकांगी दृष्टि से विचार करते हैं तब मिथ्या मान्यता का आग्रह हमारी उन्मुक्त दृष्टि को कुंठित कर देता है। उन्मुक्त एवं वैज्ञानिक दृष्टि से विचार करने पर परस्पर विरूद्व प्रतीयमान विचारों की सत्यता स्पष्ट हो जाती है। एक ही पदार्थ में परस्पर प्रतीयमान विरोधी धर्मों का अस्तित्व सम्भव है। समाज में एक ही व्यक्ति की भिन्न प्रस्थितियाँ एवं भूमिकाएँ होती हैं। एक व्यक्ति यदि प्राध्यापक है तो ‘प्राध्यापक-प्रस्थिति’ में जिस प्रकार व्यवहार करता है उस प्रकार का व्यवहार अपने घर जाकर नहीं करता। घर में ‘पति-प्रस्थिति’ में अपनी पत्नी से एक प्रकार का व्यवहार करता है। घर में ही ‘पिता-प्रस्थिति’ में अपने बच्चों से दूसरे प्रकार का व्यवहार करता है। भाषा-व्यवहार के भी कितने भेद होते हैं। एक ही प्रस्थिति में एक ही व्यक्ति भिन्न-भाषा-शैलियों का प्रयोग करता है। भाषा की अपेक्षा से एक ही भाषा होती है; शैलियों की अपेक्षा से अनंत होती हैं। एक ही काल एवं क्षेत्र में विभिन्न द्रष्टाओं की प्रतीतियाँ भिन्न प्रकार की हो सकती हैं। किसी फिल्म को देखकर जब दर्शक सिनेमा हॉल से बाहर निकलते हैं तो एक दर्शक कहता है - फिल्म सुपरहिट है। दूसरा दर्शक कहता है – फिल्म फ्लॉप है। काल के एक ही क्षण विश्व के एक भाग में सवेरा होता है, दूसरे भाग में शाम। काल के उसी क्षण विश्व के एक भूभाग का व्यक्ति ‘सूर्योदय’ देखता है, विश्व के दूसरे भाग का व्यक्ति सूर्यास्त के दर्शन करता है।
आइंस्टीन ने दिक्-काल की सापेक्षता का सिद्धान्त प्रतिपादित किया है। आइंस्टीन का सिद्धान्त केवल भौतिक-विज्ञान तक सीमित है। अनेकान्तवाद जीवन के प्रत्येक पक्ष के विश्लेषण विवेचन की वैज्ञानिक प्रविधि है। यह सत्य के अनुसंधान की तर्कसंगत एवं सुनियोजित प्रक्रिया है।
पदार्थ के अनेकांत को पहले विभक्त करना है; विश्लेषित करना है। इसके बाद एक-एक गुण-धर्म को देखना है, विचार करता है, पहचानना है। तदनन्तर एक ही पदार्थ में अविरोधपूर्वक विधि और निषेध के भावों में समन्वय स्थापित करना है। इस प्रकार सीमित ज्ञान शक्ति के होते हुए भी पदार्थ के एक-एक गुण-धर्म का ज्ञान करने के अनन्तर पदार्थ के समग्र धर्मों एवं गुणों को पहचानना है। सामान्य व्यक्ति के द्वारा भी सत्य के सम्पूर्ण साक्षात्कार की शोध-प्रविधि का नाम है - अनेकान्तवाद।
इसी अनेकान्तवाद दृष्टि के कारण भगवान महावीर ने विरुद्ध प्रतीत होने वाले मतों को एक सूत्र में पिरो दिया। उन्होंने जीवन आचरण के लिए अहिंसा को परम धर्म माना। वैचारिक क्षेत्र की अहिंसा दृष्टि का नाम है - अनेकान्तवाद। उन्होंने मनुष्य के विवेक को जागृत किया; दृष्टि को व्यापक बनाया। भगवान ने उन्मुक्त दृष्टि से विचार करने का मार्ग प्रशस्त कर प्रतीयमान परस्पर विरोधी मतों में समन्वय स्थापित किया। तत्वबोध की व्यापक एवं सर्वव्यापी उदार दृष्टि के कारण वे पदार्थ का अनेकान्तिक स्वरूप पहचान सके। उनके विचारों में कहीं भी संशय नहीं है। उन्होंने स्पष्ट एवं निर्भ्रांत रूप में विचार दर्शन प्रस्तुत किया है:
(1) पदार्थ नित्य भी है और अनित्य भी। अपनी गुणात्मक सत्ता (ध्रौव्य स्वभाव) की दृष्टि से पदार्थ नित्य है किन्तु पर्याय (उत्पाद-व्यय) दृष्टि से अनित्य है। आचार्य हरिभद्र सूरि ने इसे इस प्रकार समझाया है कि जिस प्रकार स्वर्ण-रूप में अवस्थित रहते हुए भी उसमें कड़ा कुंडल आदि अनेकविध रूप उत्पन्न एवं नष्ट होते रहते हैं उसी प्रकार द्रव्यों एवं पर्यायों को प्राप्त जीव द्रव्य (पदार्थ) का नित्यत्व एवं अनित्यत्व भी न्याय सिद्ध है:
जह कंचणस्स कंचण-भावेण अवट्ठियस्स कडगाई।
उप्पज्जंति विणस्संति, चेव भावा अणेगविहा।।
एवं च जीव दव्वस्स, दव्वपज्जव विसेस भइयस्स।
निच्चत्तमणिच्चत्तं, च होइ णाओवल भंतं।। (आचार्य हरिभद्र सूरिः सावय पण्णत्ति, 184-185)।
(2) प्रवाह की अपेक्षा पदार्थ अनादि (शाश्वत) है। स्थिति (एक अवस्था) की अपेक्षा पदार्थ सादि (आदि-अंत होने वाला) है।
(3) स्वभाव की अपेक्षा से जीव और पुद्गल सदा अपनी-अपनी गुणात्मक सत्ता तथा पर्याय सत्ता में रहते हैं। विभाव की अपेक्षा से जीव और पुद्गल परस्पर प्रभाव डालते हैं।
संसार में जितने दर्शनभेद हो सकते हैं, जितने भी वचनभेद हो सकते हैं उतने ही नयवाद हैं। उन सबके समागम से अनेकान्तवाद फलित होता है। आचार्य सिद्धसेन दिवाकर ने भिन्न दर्शनों को भिन्न नयों की दृष्टि से विवेचित कर सुसंगत रूप से अनेकान्तवाद के सर्वधर्म समभाव रूप को संयोजित करने का स्तुत्य कार्य किया। आपने संग्रह नय की अपेक्षा से अद्वैतदर्शन, ऋजुसूत्रनय की अपेक्षा से बौद्ध-दर्शन, द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा से सांख्य-दर्शन तथा द्रव्यार्थिक नय एवं पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा से कणाद दर्शन का समाहार कर धार्मिक सहिष्णुता के बीज का वपन किया। इस प्रकार अनन्त को अनेक अपेक्षाओं, अनेक दृष्टियों, अनेक रूपों से देखना एवं जानना अनेकान्तवाद है। अनेकान्त साधन है - ज्ञान की अनावृत्त दशा की प्राप्ति का। जब केवलज्ञान प्राप्त हो जाता है, जब साध्य की सिद्धि हो जाती है तो साधन ‘अनेकांतवाद’ की प्रासंगिकता समाप्त हो जाती है।
जैन दर्शन में सत्य के प्रतिपादन में भाषा की सीमा की भी विशद विवेचना हुई है। इस दृष्टि से अन्य दर्शनों में भी संकेत मिलते हैं। ऋग्वेद का नासदीय सूक्त इस दृष्टि से विशेष उल्लेखनीय है। सृष्टि की उत्पत्ति के मूल कारण की विवेचना उभयविध रूप में हुई है। न तो यह कहा जा सकता है कि ‘‘है’’ और न यह कहा जा सकता है कि ‘नहीं’ है’। सृष्टि का मूल न ‘सत’ था न ‘असत’ था। एक अपेक्षा से उसे सत कहा जा सकता है, दूसरी दृष्टि से उसे असत कहा जा सकता है। (नासदासीन्नो सदासीत् तदानीं नासीद्रजो नो व्योमा परोयत्। - ऋग्वेद, 10/129)। जैन दर्शन में स्याद्वाद के अंतर्गत सप्त भंगों का विवेचन है। उनमें यहाँ अवक्तव्यम् के बारे में कुछ संकेत किए जा रहे हैं जिससे भाषा की सीमा स्पष्ट हो सके। वक्तव्य का अर्थ है - कहे जाने योग्य। जिसको कहा जा सके, बोला जा सके, जिसका वर्णन किया सके, वह है - वक्तव्यम्। जिसका शब्दो द्वारा विधान करना सम्भव न हो वह है - अवक्तव्य। व्यक्त न होना ही अवक्तवय है। यह हमें शब्द व्यापार की सीमा का बोध कराता है:
(अ) इन्द्रियों द्वारा ज्ञान के सभी विषय व्यक्त नहीं हो पाते। कुम्हार ने मिट्ठी से घड़ा बनाया। घड़े का रंग मटियाला है। कुम्हार ने घड़े को आग में पकाया। पकने के बाद घड़े का रंग रक्तवर्ण हो गया। जब घड़ा पकता है - रंग मटियाले से रक्तिम होता है - तब इन्द्रियों द्वारा रंग-परिवर्तन का ज्ञान होता है। मगर भाषा में इस अवस्था के रंग को व्यक्त करने वाला शब्द या वाचक नहीं होता - इस कारण उसका विधान किसी एक शब्द द्वारा नहीं किया जा सकता। इस कारण अवक्तव्य है। भाषा में इस प्रकार व्यक्त कर भी सकते हैं कि इस समय मटियाले एवं रक्तिम दोनों का मिश्रित रूप है - इस कारण ‘किंचित अवक्तव्य’ है।
(आ) मन के द्वारा मनन, विचार, भाव, अनुभूति, संवेदना आदि की भाषा में पूर्ण अभिव्यक्ति सम्भव नहीं है।लेखक ने भगवान महावीर की देशना से सम्बन्धित प्रकरण के अन्तर्गत कालगत व्यवधान की विवेचना के समय इसका संकेत किया है। भाषा-वेत्ता जानते हैं कि समस्त भावों एवं विचारों की भाषा में तदनुरूप अभिव्यक्ति दुष्कर है। भाषा एवं विचार के बीच गहरा सम्बन्ध है मगर दोनों एकार्थक नहीं हैं, अभिन्न नहीं हैं। वक्ता की दृष्टि से विचार और उसकी अभिव्यक्ति में अन्तर होता है। हमारे मस्तिष्क में विचार, भाव, बिम्ब उद्भूत हो जाते हैं किन्तु कभी-कभी हम उसके वाचक शब्द का उच्चारण नहीं कर पाते। श्रोता एवं पाठक की दृष्टि से भी शब्द-बोध एवं अर्थ-बोध में अन्तर रहता है। उद्भूत विचारों एवं उनकी अभिव्यक्ति में अभिन्नता नहीं होती। (देखें - डॉ0 महावीर सरन जैनः भाषा एवं भाषाविज्ञान, पृ0 73-79)।
श्री उद्धव को मथुरा से ब्रज भेजते समय कृष्ण जैसे महायोगी के मन के भाव को रत्नाकर ने इस प्रकार व्यक्त किया है: ‘नैंकु कही बैननि, अनेक कही नैननि सौं, रही-सही सोऊ कहि दीनी हिचकीनि सौं। (जगन्नाथदास रत्नाकरः उद्धव शतक, पृ0 4)। वाणी से तो किचिंत ही कहा, अनेक नयनों से कहा, रहा-सहा हिचकियों द्वारा व्यक्त हुआ। यह भाषा की अभिव्यक्ति की सीमा की ओर संकेत है।
(इ) इन्द्रियों एवं मन के द्वारा गृहीत ज्ञान की अभिव्यक्ति में भाषा की सीमाओं का बोध होता है। इन्द्रिय एवं मन की सहायता के बिना आत्म चेतना को जब अवधिज्ञान, मनः पर्याय ज्ञान एवं केवल ज्ञान होता है तब उस ज्ञान की अभिव्यक्ति के समय भाषा की सीमा की केवल कल्पना की जा सकती है। जो ज्ञान इन्द्रिय एवं मन की सहायता के बिना प्रत्यक्ष आत्मचेतना को होता है वह आत्मिक ज्ञान है, प्रत्यक्ष ज्ञान है। तत्वतः यह ज्ञान बुद्धि एवं वाणी का विषय नहीं बन सकता। संसार में रहने वाला कर्म-बद्ध जीव सापेक्ष ज्ञान की ही अभिव्यक्ति कर सकता है। निरपेक्ष ज्ञान अथवा पारमार्थिक ज्ञान की अभिव्यक्ति एक चुनौती है। तत्वतः हमारी भाषा इतनी अपूर्ण है कि वह पारमार्थिक ज्ञान की सम्पूर्ण अभिव्यक्ति में समर्थ नहीं है। तत्वेत्ताओं को इसी कारण कहना पड़ा है - ‘अविगत गति कछु कहत न आवे। भगवान महावीर सर्वज्ञ हो गए, केवली हो गए। इसके बाद भी देशना न दे सके। सर्वज्ञ को भी उसी भाषा का सहारा लेना पड़ता है जो सीमित है, जो अपूर्ण है। वस्तु अनेकान्त स्वरूप है। सभी धर्मों का प्रतिपादन एक साथ करना सम्भव नहीं है। जैन आचार्यों ने भी इसी कारण कहा कि आत्मा का किसी भी शब्द द्वारा कथन करना सम्भव नहीं है। उसके जितने भी पर्यायवाची नाम हैं, वे उसके विशिष्ट धर्मां का ही कथन करते हैं। इसी कारण निर्विकल्प आत्मा का ज्ञान कराने के लिए आचार्य कुन्दकुन्द को ‘णादा जो सो दु सो चेव’ (जो ज्ञात हुआ वह तो वहीं है) कहना पड़ा। (आचार्य कुन्दकुन्दः समयसार, 6)।
कैवल्य भाव में या मुक्त जीव की स्थिति में तो सभी नयों का अन्त हो जाता है। यह कहा जा चुका है कि अनेकान्तवादी के सिद्धान्त रूप की प्रासंगिकता भी समाप्त हो जाती है। जब तक निरपेक्ष ज्ञान की स्थिति नहीं आती, सापेक्षता की स्थिति रहती है। तब तक अभेद को भेद करके बताना होता है। जिस प्रकार अनाड़ी पुरूष को उसकी भाषा में बोले बिना नहीं समझाया जा सकता, उसी प्रकार परमार्थ का उपदेश भी व्यवहार के बिना नहीं हो सकता:
जह णवि सक्कमणज्जो अण्णज्ज भासं विणा दु गाहे दुं।
तह ववहारेण विणा परमत्थुवदेसण मसक्कं।। (वही, 8)।
बौद्ध दर्शन वस्तु को अवाच्य मानता है। आत्मा के सम्बन्ध में जब गौतमबुद्ध से प्रश्न किया गया तो उन्होंने उसे ‘अव्याकृत’ कहा। बुद्ध की दृष्टि में यह व्याख्यात नहीं है। उन्होंने केवल परिवर्तित दृष्टि से विचार किया था। इस कारण जो अपरिवर्तित है उसकी उन्होंने व्याख्या नहीं की। उसका प्रतिपादन नहीं किया। उसकी अभिव्यक्ति नहीं की। उन्होंने उसे अवाच्य माना। इस कारण उसके सम्बन्ध में जब प्रश्न किए गए तो उन्होंने उत्तर नहीं दिया। वे मौन रहे। उपनिषद् के ऋषियों ने ‘नेति नेति’ शैली को अपनाकर अनिवर्चनीय तत्व का निर्वचन किया। इस दृष्टि से तैत्तिरीय उपनिषद् में भृगु की कथा उल्लेखनीय है। भृगु ने अपने पिता वरुण से बह्मज्ञान प्राप्ति की इच्छा व्यक्त की। पिता ने तप करने के लिए कहा। भृगु ने तप किया। इसके बाद पिता के पास आकर कहा - अन्न ही ब्रह्म है। पिता ने कहा - नहीं। फिर तप करो। भृगु ने दुबारा तप किया। इसके बाद पिता के पास आकर कहा - प्राण ही ब्रह्म है। पिता ने कहा - नहीं। फिर तप और इसके बाद - मन ही ब्रह्म है। पिता ने कहा - नहीं। फिर तप और इसके बाद - मन ही ब्रह्म है। पिता ने कहा - यह भी नहीं। फिर तप, फिर कहा - विज्ञान ही ब्रह्म है। पिता वरुण ने कहा कि यह भी नहीं है। वरुण ने कहा - मंजिल के पास हो। थोड़ा तप और करो। अन्त में भृगु ने कहा - आनन्द ही ब्रह्म है। आनन्द अर्थात सुख-दुख से अतीत, राग-द्वेष से अतीत, कषायों से विरहित। शुद्ध चैतन्य प्राप्ति की यात्रा पूर्ण हुई। तप और खोज में पहले भौतिक तत्व, जिसे अन्न कोष कहा गया। इसके बाद बुद्धि तत्व की खोज जिसके क्रमिक विकास प्राण-कोश, मन कोश एवं विज्ञान कोश हैं। इसके बाद ही उपनिषद् के ऋषियों ने आत्म तत्व का संधान किया। जैन दर्शन ने नयवाद द्वारा पदार्थों (द्रव्यों) के सभी गुणों एवं धर्मों को पहचानने एवं जानने के मार्ग का संधान किया। पदार्थ के अनेक धर्मों एवं गुणों का प्रतिपादन इस प्रकार हो कि एक-एक धर्म/गुण की अभिव्यक्ति हो मगर अभिव्यक्ति के समय अन्य धर्मों एवं गुणों के अस्तित्व का बोध भी बना रहे। अनेकान्तवाद एवं स्याद्वाद का सार है कि अनन्त को विभक्त करो, अंशी के अंशों को पृथक-पृथक करो, संश्लिष्ट का विश्लेषण करो। अंश-अंश को जानो। एक एक धर्म को जानो। विश्लेषण के बाद जितने विश्लेषित गुण धर्म हैं, उन्हे पृथक-पृथक एक-एक करके जानो। जिस प्रकार जानो, उसी के अनुरूप उसका प्रतिपादन करो। एक-एक धर्म, एक-एक गुण की अपेक्षा से प्रतिपादन करने के तरीके का नाम है - स्याद्वाद। इस दृष्टि से ‘स्याद अवक्तव्य’ का तात्पर्य है कि वह अपेक्षा से अवक्तव्य है। भाषा में उसका प्रतिपादक कोई एक शब्द नहीं है। इस अपेक्षा से अवक्तव्य है। उसके एक-एक अंश का प्रतिपादन करते हुए उसे व्यक्त किया जा सकता है। इस अपेक्षा से वक्तव्य है। पदार्थ के सम्यक् विचार के लिए जिस प्रकार दृष्टिकोणों की विवक्षा अपेक्षित हैं; अनेकान्त दृष्टि अपेक्षित है उसी प्रकार पदार्थ के सम्यक् स्वरूप की अभिव्यक्ति के लिए नय या विवक्षा या अपेक्षा से कहना अपेक्षित है। अपनी सीमाओं के कारण हम अनन्त या केवलज्ञान के एकांश का ही ग्रहण कर पाते हैं, एकांश की ही अभिव्यक्ति कर पाते हैं। पदार्थ के अनेक गुणों, धर्मों तथा अनन्त पर्यायों को जिन-जिन दृष्टिकोणों से देखा जाता है अथवा कहा जाता है वे सभी नय कहलाते हैं। पदार्थ में अनेक धर्म हैं। किसी एक धर्म को मुख्य करके कहने वाला वक्ता या अभिप्राय विशेष नय कहलाता है। इस प्रकार निरपेक्ष ज्ञान की अभिव्यक्ति तो अवक्तव्य है, अवाच्य है, भाषा द्वारा उसकी अभिव्यक्ति सम्भव नहीं है। जैन दर्शन अनन्त को उसके एक-एक धर्म/गुण की अपेक्षा से व्यक्त करता है तथा यह ध्यान रखता है कि हम जो कह रहे हैं वह नय या अपेक्षा सहित है। यही किचिंत अवक्तव्यम् है। द्रव्यार्थिक नय एवं पर्यायार्थिक नय की दृष्टि से भी व्याख्या सम्भव है। द्रव्यार्थिक नय से वस्तु के सामान्य धर्म को ग्रहण किया जाता है। पर्यायार्थिक नय से वस्तु में निरन्तर होने वाले आभासों को ग्रहण किया जाता है। जब वस्तु एक साथ दोनों रूप प्रतीत होती है तब भाषा में उसको व्यक्त करने वाले एक वाचक न होने के कारण इसे अवक्तव्य कहा जाता है। अपेक्षा से एक-एक नय का प्रतिपादन कर सकते हैं। अतः किंचित अवक्तव्य है।
व्यावहारिक दृष्टि से विचार करें तो सत्य का आचरण जीवन की तपश्चर्या है। इसके मार्ग में हमें अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। इसी कारण योगी अरविंद ने कहा कि सत्य को जीतना बड़ा कठिन एवं दुष्कर है। इस जीत के लिए मनुष्य को सच्चा योद्धा बनना पड़ता है- ऐसा योद्धा जो किसी भी वस्तु या परिस्थिति से भय नहीं खाता।
सत्य का पालन किये बिना अपने स्वरूप का ज्ञान नहीं हो पाता, साधना सफल नहीं हो पाती। आत्मा नदी है, संयम पुण्य तीर्थ है, सत्य उसका पुण्य जल है एवं शील उसकी तरंगे हैं। महाभारतकार ऐसी ही नदी में पांडु पुत्र को स्नान करने का परामर्श देते हैं तथा बताते हैं कि पानी की नदी में स्नान करने से आत्मा का शुद्धिकरण सम्भव नहीं है।
सत्य आध्यात्मिक साधना की नींव है। जब व्यक्ति भौतिक सुखों को ही चरम-सत्य मानकर बैठ जाता है तो वह वास्तविक आत्मिक शक्ति की प्राप्ति करने में असमर्थ रहता है। ऐसी स्थिति में मनुष्य सत्य से असत्य की ओर, ज्येाति से अन्धकार की ओर एवं अमृत से मृत्यु की ओर गमन करता है। राग और द्वेष के कारण वास्तविक सत्य पीछे छूट जाता है तथा मिथ्यात्व ही सत्य प्रतीत होने लगता है। ऐसे व्यक्ति सत्य का तब तक साक्षात्कार नहीं कर पाते जब तक उनका अहंकार विगलित नहीं हो जाता तथा उनकी वृत्तियों में निष्कपटता नहीं आ जाती। अज्ञानी की अपेक्षा मिथ्याज्ञानी को सत्य का ज्ञान कराना अत्यन्त दुष्कर कार्य है। जब अमृत-तत्व स्वर्ण के पात्र में बन्द हो जाता है, तब उसकी खोज का रास्ता बड़ा कठिन हो जाता है। स्वर्ण की चकाचैंध में वह अपना लक्ष्य भूल जाता है। असत्य से सत्य की ओर, तम से ज्योति की ओर एवं मृत्यु से अमृत की ओर चलने का आह्वान करने वाले उपनिषद्कारों ने संशय रहित, द्विविधाहीन मनःस्थिति में सोने के पात्र के स्वर्णिम आवरण को हटाने की बात कही। सन्त कबीर ने भी कहा कि अन्धविश्वास मत करो, विवेक के आधार पर वस्तु की परख करो। जो व्यक्ति खरे खोटे का विचार किये बिना ही विश्वास कर लेता है, वह उस मूर्ख महाजन की भाँति है जो मूल गँवाकर लाभ की आशा करता है: खरा खोटा जिन नहीं परखाया। चहत लाभ तिन्ह मूल गँवाया।।
यही कारण है कि सत्य प्राप्ति के लिए चित की उन्मुक्तता एवं अनाग्रह तथा विवेक परम आवश्यक है। इस वृति से जो विचार किया जाता है, वह सम्यग् ज्ञान होता है।
जो सत्य है, वह आत्मा है। आत्मा का स्वभाव सत्य है। कषायों के बन्धन के कारण व्यक्ति ‘पर’ को ‘अपना’ मानता है। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से व्यक्ति अपने अचेतन मन की भावना का विचार नहीं कर पाता। जो मनुष्य तप एवं साधना के द्वारा सत्य का साक्षात्कार कर लेता है, वही दार्शनिक दृष्टि से आत्म-साक्षात्कार करने में तथा मनोवैज्ञानिक दृष्टि से चेतन और अचेतन मन के द्वन्द्व को दूर करने में समर्थ होता है। उसे आनन्द की प्राप्ति होती है। इसी कारण सत्य, आनन्द एवं ब्रह्म का प्रयोग समान अर्थो में होता है।
सत्य विश्व तथा विश्व के समस्त अस्तित्वों का आधार है। सत्य का सम्यग् ज्ञान न होने तक ही अनस्तित्व एवं सत्याभास जीवित रहते हैं। जब सत्य का प्रकाश धूमिल हो जाता है तभी जैन दर्शन की दृष्टि से आत्मा की शुद्ध चेतना राग-द्वेष एवं मोह के कारण ‘पर’ को अपना समझने लगती है तथा वेदांत दर्शन की दृष्टि से माया अज्ञान की चादर उढ़ाकर आत्मा से भिन्न भेदपूर्ण सृष्टि उत्पन्न करती है तथा स्वतन्त्र पुरूष पर तीनों प्रकार के मलों का आवरण डालकर उसे लिप्त एवं परतन्त्र बना देती है तथा गीताकार की दृष्टि से कामरूप बैरी मन, बुद्धि और इन्द्रियों के द्वारा ज्ञान को आच्छादित कर, जीवात्मा को मोहित कर देता है।
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भासियव्वं हियं सच्चं। सदा हितकारी सत्य वचन बोलें। | |
सच्चं च हियं च मियं च गाहणं च। ऐसा सत्य वचन बोलना चाहिए जो हित, मित और ग्राह्य हो। | |
विस्ससणिज्जो माया व, होइ पुज्जो गुरु व्व लोअस्स। सयणु व्व सच्चवाई, पुरिसो सव्वस्स होइ पिओ।। (सत्यवादी माता की भाँति विश्वसनीय, लोक के लिए गुरु की भाँति पूज्य और स्वजन की भाँति सबको प्रिय होता है)। | |
सच्चम्मि वसदि तवो, सच्चम्मि संजमो तह वसे सेसा वि गुणा। सच्चं णिबंधणं हि य, गुणाणमुदधीव मच्छाणं ।। सत्य में तप, संयम और शेष समस्त गुणों का वास होता है। जैसे समुद्र मछलियों का कारण है, उसी प्रकार सत्य समस्त गुणों का कारण है। | |
तं सच्चं खु भगवं।(वह सत्य ही भगवान है।) |
इस उपयोगी जानकारी के लिए आपका बहुत-बहुत साधुवाद |
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