आलेख (1) लोकसाहित्य में लोक जीवन की अभिव्यक्ति एक बहु प्रचलित बोध कथा है - एक प्रकाण्ड पण्डित था। शास्त्रार्थ में वह कभी किसी से पराजित नहीं...
आलेख
(1) लोकसाहित्य में लोक जीवन की अभिव्यक्ति
एक बहु प्रचलित बोध कथा है -
एक प्रकाण्ड पण्डित था। शास्त्रार्थ में वह कभी किसी से पराजित नहीं होता
था। अपनी पंडिताई पर उसे बड़ा अभिमान था। यात्रा के दौरान वह सदैव अपनी
किताबों और पोथियों को साथ लेकर चलता था। एक बार वह नाव से नदी पार कर
रहा था। उसने नाविक से पूछा - ’’क्या तुम वेद-शास्त्रों के बारे में
जानते हो?’’ नाविक ने कहा कि नाव और नदिया के अलावा वह और कुछ नहीं
जानता। पंडित ने उस नाविक को लंबा-चैड़ा उपदेश दिया और कहा कि तुम्हारा
आधा जीवन तो व्यर्थ चला गया।
तभी मौसम ने अचानक अपना मिजाज बदला। आसमान पर काले-काले बादल घिर आए। बड़ी
तेज आँधियाँ चलने लगी। नाव का संतुलन बिगड़ने से वह बुरी तरह डगमगा रही थी
और वह किसी भी झण डूब सकती थी। नाव को डूबते देख नाविक ने पंडित जी से
पूछा - ’’महात्मन्! क्या आप तैरना जानते हैं, नाव डूब रही है।’’ पंडित जी
मृत्यु भय से कांप रहा था, बोल भी नहीं निकल रहे थे। मुश्किल से उसने कहा
’’नहीं।’’
नाविक ने कहा - ’’महात्मन! तब तो आपकी पूरी जिंदगी बेकार चली गई।’’
इस छोटी सी बोधकथा में प्रकृति और प्राणियों के बीच के अंतर्संबंधों का
रहस्य उद्घाटित होता है। प्रकृति अपनी असीम शक्तियों के द्वारा प्राणियों
को जन्म देती है, पालन करती है और अंत में उसका संहार भी करती है। जो
प्राणी स्वयं को प्रकृति की विभिन्न शक्तियों के अनुकूल समर्थ बना पाता
है, वही अपने अस्तित्व की रक्षा करने में सक्षम हो पाता है। डार्विन ने
इसे समर्थ का जीवत्व कहा है।
एक और लोककथा है जो सरगुजा अंचल में कही-सुनी जाती है। वह इस प्रकार है -
वृक्ष के कोटर में पक्षी ने एक अंडा दिया। समय आने पर उसमें से चूजा
निकला। मां दाना चुगने गई थी तभी उस चूजे पर एक भयंकर सांप की नजर पड़ गई।
वह चूजे को खाने के लिये लपका। चूजे ने कहा - ’’हे नागराज! अभी तो मैं
बहुत छोटा हूँ। मुझे खाकर आपको तृप्ति नहीं मिलेगी। कुछ दिनों बाद जब मैं
बड़ा हो जाऊँगा, तब आप मुझे खा लेना।’’ सांप को चूजे की बात जंच गई।
सांप रोज आता और उस चूजे को खाने के लिये लपकता। चूजा रोज इसी तरह अपनी
जान बचाता। एक दिन सांप ने फिर कहा - ’’अब तुम बड़े हो चुके हो। आज तो मैं
तुम्हें खाकर ही रहूँगा।’’ चूजे ने कहा - ’’तो खा लो न, मैं कहाँ मना कर
रहा हूँ।’’ इतना कहते ही वह फुर्र से उड़ गया। सांप हाथ मलते रह गया।
यह लोककथा कोई मामूली कथा नहीं है। जिस किसी भी लोक ने इसे सृजित किया
होगा, उसे जीवन और जगत् के बीच के अंतर्संबंधों का सहज-अनुभवजन्य परंतु
विशद् ज्ञान रहा होगा।
जिन दो कहानियों का उल्लेख मैंने आभी किया है, उनके अभिप्रायों पर गौर
कीजिये। ये दोनों कहानियाँ कहीं न कहीं प्रकृति और प्राणियों के बीच चलने
वाले जीवन संघर्षाें को, कार्यव्यवहारों को रेखांकित करती हैं। जीवन
संघर्ष में जीत सदैव सबल व समर्थ की होती है। प्रकृति और प्राणियों के
बीच का संघर्ष शास्वत है। सृष्टि के विकास की यह एक अनिवार्य तात्विक व
रचनात्मक प्रक्रिया है। इसी से सृष्टि विकसित होती है, सुंदर और समरस
बनती है। इसी संघर्ष में विश्व की विषमता की पीड़ाओं से मुक्ति का रहस्य
भी छिपा है। छायावाद के महाकवि जयशंकर प्रसाद ने इसी ओर इशारा करते हुए
कहा है -
विषमता की पीड़ा से व्यस्त हो रहा स्पंदित विश्व महान।
यही दुःख-सुख, विकास का सत्य यही, भूमा का मधुमय दान।
(श्रद्धा सर्ग)
स्पर्धा में जो उत्तम ठहरे, वे रह जावें।
संसृति का कल्याण करें, शुभ मार्ग बतावें।
(संघर्ष सर्ग)
समरस थे, जड़ या चेतन, सुंदर साकार बना था।
चेतनता एक विलसती, आनंद अखंड घना था।।
(आनंद सर्ग )
संघर्ष का सीधा संबंध शक्ति से है। प्रथम प्रस्तुत बोधकथा के अभिप्राय पर
जरा गौर करें। यहाँ पर प्रकृति के साथ संघर्षों के लिये तीन बातें जरूरी
बताई गई हैं -
1. प्रकृति के कार्यव्यवहारों का ज्ञान,
2. जीवन का व्यवहारिक ज्ञान, और
3. शारीरिक रूप से शक्तिशाली होना।
दूसरी लोककथा के अभिप्रायों पर गौर करें तो निम्न तथ्य सामने आते हैं -
1. मुसीबत से डरकर नहीं, निर्भयता से उसका सामना करने पर ही उससे छुटकारा
मिल सकती है।
2. अपने से सबल के साथ शरीर बल से नहीं बल्कि बुद्धिबल से लड़ना चाहिये।
3 परिस्थितियाँ अनुकूल होने की प्रतीक्षा करें।
4 जहाँ शारीरिक बल काम न आये वहाँ चतुराई बरतना अति आवश्यक है।
शास्त्रों में अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष, ये चार प्रकार के पुरुषार्थों
का वर्णन है। अर्थ, धर्म और काम से गुजरे बिना क्या मोक्ष संभव है? यह
शास्त्रों की स्थापनाएँ हैं, इस पर शास्त्रार्थ होते रहे हैं, आगे भी
होते रहेंगे। लोक की भी अपनी स्थापनाएँ हैं। उपर्युक्त कथाओं में इन
स्थापनाओं को देखा जा सकता है। जीवन संघर्ष के लिये तीन तरह की शक्तियों
की आवश्यकता होती है - तन की शक्ति, मन की शक्ति, और बुद्धिबल (मानसिक
शक्ति)।
इन कथाओं के आलोक में हम समस्त छत्तीसगढ़िया अपनी क्षमताओं पर गौर करें,
आंकलन करें। फिर अपनी स्थितियों का आंकलन करें कि वर्तमान में हमारी
स्थिति क्या है, और यदि ऐसा ही रहा तो भविष्य में हमारी क्या स्थिति होने
वाली है?
हमारे छत्तीसगढ़ को प्रकृति ने विपुल प्राकृतिक संसाधनों से नवाजा है, फिर
भी संपूर्ण हिन्दुस्तान में हमसे ज्यादा गरीब और कोई नहीं है। हम अमीर
धरती के गरीब लोग कहे जाते हैं। हमारी संसाधनों का दोहन हम नहीं करते, उस
पर हमारा अधिकार नहीं हैं। परंतु दिगर जगह से आकर यहाँ बसने वाला पाँच
साल में ही कार और बंगलों का मालिक बन जाता है।
राजनीति में हमारे बीच के लोगों की हमेशा उपेक्षा की गई है।
राज्य सेवाओं की, शासकीय नौकरियों की, प्रतिस्पर्धा में हमारे बच्चे टिक
नहीं पाते हैं क्योंकि उच्चशिक्षा प्रदान करने वाले शिक्षाकेन्द्रों से
अब तक हमें वंचित रखा गया है। हमारे बच्चों में भी डाॅक्टर, कलेक्टर,
एस.पी. और मजिस्ट्रेट बनने की योग्यता है, पर वे नहीं बन पाते।
हम अपने बच्चों के लिये क्या कर रहे हैं? रामचरितमानस की प्रतियोगिताओं
में उन्हें पेन और कापी पकड़ा कर, और इन मंचों के लिये बच्चों की मंडलियाँ
बनाकर हम उनमें कौन सी सेस्कार विकसित कर रहे है? क्या इससे वे कलेक्टर
और डाॅक्टर बनेंगे?
हमें, हमारी संस्कृति और हमारी भाषा को इस हद तक हेय समझा गया है कि
हमारे अंदर आज केवल हीन भावनाएँ ही भरी हुई है, और स्वयं को छत्तीसगढ़िया
कहलाने में अथवा छत्तीसगढ़ी बोलने में हम हीनता का अनुभव करते हैं।
मुझे स्वामी विवेकानंद के उपदेश याद आते है। एक अंग्रेज सज्जन गीता के
उपदेशों और गूढ़ रहस्यों को समझने के लिये काफी दिनों से उसके पीछे पड़ा
हुआ था। एक दिन स्वामी जी ने कहा कि वे आज फुटबाॅल के मैदान पर मिलें,
वही पर चर्चा होगी। अंग्रेज सज्जन जब नियत समय पर फुटबाॅल के मैदान पर
पहुँचा तो स्वामी जी पूरे मनोयोग से फुटबाॅल खेलने में व्यस्त थे।
अंग्रेज सज्जन ने कहा, ये क्या कर रहे हैं आप? स्वामी जी ने कहा - गीता
के रहस्यों को समझ रहा हूँ। आओ आप भी समझो।
ध्यान रहे, सफलता का कोई विकल्प नहीं होता। जीत जीत है, और हार हार है।
दुनिया उगते हुए सूरज को प्रणाम करती है। धर्म आचरण का विषय है,
शास्त्रों का नहीं। निर्णय हमें करना है कि हम अपनी ऊर्जा को अपने
राजनीतिक हकों को प्राप्त करनें में लगायें, हमारे प्रदेश में ही हमारे
बच्चों के लिये आई. आई. टी और आई. आई. एम. जैसी उच्चशिक्षा के संस्थान
खुलवाने में लगायें, उसमें अपने बच्चों को दाखिले के योग्य बनने में
लगायें या पूरे साल रामायण प्रतियोगिताएँ और इसी तरह की प्रतियोगिताओं को
संपन्न करने में लगायंे।
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आलेख
(2) साहित्य की वाचिक परंपरा कथा-कंथली: लोक जीवन का अक्षय ज्ञान कोश
समग्र साहित्यिक परंपराओं पर निगाह डालें तोे वैदिक साहित्य भी श्रुति
परंपरा का ही अंग रहा है। कालांतर में लिपि और लेखन सामग्रियों के
आविष्कार के फलस्वरूप इसे लिपिबद्ध कर लिया गया क्योंकि यह शिष्ट समाज की
भाषा में रची गई थी। श्रुति परंपरा के वे साहित्य, जो लोक-भाषा में रचे
गये थे, लिपिबद्ध नहीं हो सके, परंतु लोक-स्वीकार्यता और अपनी सघन जीवन
ऊर्जा के बलबूते यह आज भी वाचिक परंपरा के रूप में लोक मानस में गंगा की
पवित्र धारा की तरह सतत प्रवाहित है। लोक मानस पर राज करने वाले वाचिक
परंपरा की इस साहित्य का अभिप्राय निश्चित ही, और अविवादित रूप से,
लोक-साहित्य ही हो सकता है।
लोक जीवन में लोक-साहित्य की परंपरा केवल मन बहलाव, मनोरंजन अथवा समय
बिताने का साधन नहीं है; इसमें लोक-जीवन के सुख-दुख, मया-पिरीत, रहन-सहन,
संस्कृति, लोक-व्यवहार, तीज-त्यौहार, खेती-किसानी, आदि की मार्मिक और
निःश्छल अभिव्यक्ति होती है। इसमें प्रकृति के रहस्यों के प्रति लोक की
अवधारण और उस पर विजय प्राप्त करने के लिए उसके सहज संघर्षों का विवरण;
नीति-अनीति का अनुभवजन्य तथ्यपरक अन्वेशण और लोक-ज्ञान का अक्षय कोश
निहित होता है। लोक-साहित्य में लोक-स्वप्न, लोक-इच्छा और लोक-आकांक्षा
की स्पष्ट झलक होती है। नीति, शिक्षा और ज्ञान से संपृक्त लोक-साहित्य
लोक-शिक्षण की पाठशाला भी होती है। यह श्रमजीवी समाज के लिए शोषण और
श्रम-जन्य पीड़ाओं के परिहार का साधन है। यह लिंग, वर्ग, वर्ण और जाति की
पृष्ठभूमि पर अनीति पूर्वक रची गई सामाजिक संरचना की अमानुषिक परंपरा के
दंश को अभिव्यक्त करने की, इस परंपरा के मूल में निहित अन्याय के प्रति
विरोध जताने की शिष्ट और सामूहिक लोकविधि भी है। जीवन यदि दुःख, पीड़ा और
संघर्षों से भरा हुआ है तो लोक-साहित्य इन दुःखों, पीड़ाओं और संघर्षों के
बीच सुख का, उल्लास का और खुशियों का क्षणिक संसार रचने का सामूहिक
उपक्रम है। लोक-साहित्य सुकोमल मानवीय भावनाओं की अलिखित मर्मस्पर्षी
अभिव्यक्ति है, जिसमें कल्पना की ऊँची उड़ानें तो होती है, चमत्कृत कर
देने वाली फंतासी भी होती है।
लोक-साहित्य मानव सभ्यता की सहचर है। इसकी उत्पत्ति कब और कैसे हुई होगी,
यह अनुमान और अनुसंधान का विषय है, परंतु एक बात तय है कि इसकी उत्पत्ति
और विकास उतना ही प्राकृतिक, सहज, और अनऔपचारिक है जितना कि मानवीय
सभ्यता की उत्पत्ति और विकास। लोक-कथाएँ, लोक-गाथाएँ, लोक-गीत तथा
लोकोक्तियाँ, लोक-साहित्य के विभिन्न रूप हैं। लोक-साहित्य में लोक
द्वारा स्वीकार्य पौराणिक एवं ऐतिहासिक प्रसंगों का, पौराणिक पात्रों
सहित ऐतिहासिक लोक-नायकों के अदम्य साहस, शौर्य और धीरोदात्त चरित्र का,
अद्भुत लोकीकरण भी किया गया है। शिष्ट साहित्य का लोकसाहित्य में यह
संक्रमण सहज और लोक ईच्छा के अनुरूप ही होता है। लोक साहित्य का नायक
आवश्यक नहीं कि मानव ही हो; इसका नायक कोई मानवेत्तर प्राणी भी हो सकता
है।
लोक-कथाओं की उत्पत्ति, उद्देश्य और अभिप्रायों को समझने के लिए यहाँ पर
कुछ लोक-कथाओं का उल्लेख करना आवश्यक है। आदिवासी अंचल में प्रचलित इस
लोककथा की पृष्ठभूमि पर गौर करें -
चिंया अउ साँप
जंगल म बर रुख के खोड़रा म एक ठन सुवा रहय। ़़एक दिन वो ह गार पारिस। गार
ल रोज सेवय। एक दिन वोमा ले ननाचुक चिंया निकलिस। सुवा ह चारा लाय बर
जंगल कोती गे रहय। एक ठन साँप ह चिंया ल देख डरिस। चिंया तीर आ के कहिथे
- ’’मोला गजब भूख लागे हे, मंय ह तोला खाहूँ।’’
चियां ह सोंचिस, अब तो मोर परान ह नइ बांचे। मोर मदद करइया घला कोनों नइ
हें। ताकत म तो येकर संग नइ सक सकंव, अक्कल लगा के देखे जाय।
चिंया ह कहिथे - ’’अभी तो मंय ह नानचुक हंव नाग देवता; तोर पेट ह नइ
भरही। बड़े हो जाहूँ, तब पेट भर खा लेबे।’’
साँप ल चिंया के बात ह जंच गे। वो ह वोकर बात ल मान तो लिस अउ वो दिन
वोला छोड़ तो दिस फेर लालच के मारे वो ह रोज चिंया तीर आय अउ खाय बर मुँहू
लमाय। चिंया ह रोजे वोला विहिच बात ल कहय - ’’अभी तो मंय ह नानचुक हंव;
तोर पेट नइ भरही। बड़े हो जाहूँ, तब पेट भर खा लेबे।’’
अइसने करत दिन बीतत गिस। धीरे-धीरे चिंया के डेना मन उड़े के लाइक हो गे।
एक दिन साँप ह कहिथे - ’’अब तो तंय बड़े हो गे हस। आज तोला खा के रहूँ।’’
चिंया ह किहिस - ’’खाबे ते खा ले।’’ अउ फुर्र ले उड़ गे।
साँप ह देखते रहिगे।
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शिल्प, विषय, उद्देश्य और लोकसंम्पृक्तता की दृष्टि से छोटी सी यह लोककथा
किसी भी शिष्ट कथा की तुलना में अधिक प्रभावोत्पादक और चमत्कृत कर देने
वाली है। इस लोककथा में लोककथा के अभिप्रायों और संदर्भों का
सूक्ष्मावलोकन करने पर अनेक प्रश्न पैदा होते है और इन्हीं अनसुलझे
प्रश्नों के उत्तर में कई अनसुलझे तथ्यों का खुलासा भी स्वमेव हो जाता
है।
इस लोककथा में निहित निम्न बातें ध्यातव्य हैं -
1. इस लोककथा का नायक एक सद्यजात चूजा है जिसकी अभी आँखें भी नहीं खुली
हैं। यहाँ पर नायक कोई धीरोदात्त मानव चरित्र नहीं है।
2. इस लोककथा का प्रतिनायक भी मानवेत्तर चरित्र है लेकिन वह नायक की
तुलना में असीम शक्तिशाली है।
3. इस लोककथा में वर्णित घटना से पृथ्वी पर जैव विकास से संबंधित डार्विन
के प्रसिद्ध सिद्धांत ’ओरजिन आफ द स्पीसीज बाई द मीन्स आफ नेचुरल
सलेक्सन’ की व्याख्या भी की जा सकती है। ध्यातव्य है कि इस लोककथा का
सृजन डार्विन के विकासवाद के अस्तित्व में आने से हजारों साल पहले ही हो
चुकी होगी।
4. इस लोककथा में वर्णित घटना प्रकृति के जीवन संघर्ष की निर्मम सच्चाई
को उजागर करती है। हर निर्बल प्राणी किसी सबल प्राणी का आहार बन जाता है।
यह न सिर्फ प्रकृति का नियम है अपितु प्रकृति द्वारा तय किया गया खाद्य
श्रृँखला भी है।
5. प्रकृति में जीवन संघर्ष की लड़ाई प्राणी को अकेले और स्वयं लड़ना पड़ता है।
6. जीवन संघर्ष की लड़ाई में शारीर बल की तुलना में बुद्धिबल अधिक उपयोगी है।
7. विपत्ति का मुकाबला डर कर नहीं, हिम्मत और आत्मविश्वास के साथ करना चाहिये।
8. जीत का कोई विकल्प नहीं होता। दुनिया विजेता का यशोगान करती है।
इतिहास विजेता का पक्ष लेता है। विजेता दुनिया के सारे सद्गुणों का धारक
और पालक मान लिया जाता है।
9. दुनिया का सारा ऐश्वर्य, स्वर्ग-नर्क, धर्म और दर्शन जीतने वालों और
जीने वालों के लिए है। जान है तो जहान है। अतः साम, दाम, दण्ड और भेद
किसी भी नीति का अनुशरण करके जीतना और प्राणों की रक्षा करना ही सर्वोपरि
है।
इस लोककथा से कुछ सहज-स्वाभाविक प्रश्न और उन प्रश्नों के उत्तर भी छनकर
आते है, जो इस प्रकार हैं -
1. ऐसे सार्थक और प्रेरणादायी कहानी के सृजन की प्रेरणा लोक को किस
प्राकृतिक घटना से मिली होगी?
कथासर्जक ने अवश्य ही किसी निरीह चूजे को, किसी शक्तिशाली साँप का निवाला
बनाते और अपनी प्राण रक्षा हेतु तड़पते हुए देखा होगा। इस धरती का हर
प्राणी हर क्षण प्रकृति के साथ जीवन संघर्ष की चुनौतियों से गुजर रहा
होता है। इस लोककथा का सर्जक भी इसका अपवाद नहीं हो सकता। उसने साँप की
जगह नित्यप्रति उपस्थित प्राकृतिक आपदाओं को, प्रकृति की असीम शक्तियों
को तथा प्राकृतिक आपदाओं से जूझते हुए स्वयं को, चूजे की जगह कल्पित किया
होगा और परिणाम में इस प्रेरणादायी लोककथा का सृजन हुआ होगा।
2. विभिन्न लोक समाज में प्रचलित लोककथाओं की विषयवस्तु का प्रेरणा-स्रोत
क्या हैं?
जाहिर है, लोककथा की विषयवस्तु अपने पर्यावरण से ही प्रेरित होती है। यही
वजह है कि वनवासियों में प्रचलित अधिकांश लोककथाओं का नायक कोई मानवेत्तर
प्राणी होता है। वहीं राजसत्ता द्वारा शासित लोक की लोककथाओं का नायक कोई
राजा, राजकुमार अथवा राजकुमारी होती है। मनुवादी सामाजिक व्यवस्था का दंश
झेलने वाले लोक की लोककथाओं में इस व्यवस्था से प्रेरित शोषण के विरूद्ध
प्रतिकार के प्रतीकात्मक स्वर सुनाई देते हैं। पुरूष प्रधान समाज में
नारियों की स्थिति सदा ही करुणाजनक रही है। अतः नारी चरित्र प्रधान
लोककथाओं में (अन्य लोक साहित्य में भी) नारी मन की अभिव्यक्ति और उनकी
वेदनाओं का वर्णन प्रमुख होता है। आर्थिक, सामाजिक और धार्मिक शोषण से
शोषित लोक की कथाओं में शोषण तथा शोषक वर्ग के प्रति कलात्मक रूप में
प्रतिकार के स्वर मुखर होते है।
3. लोककथा-सर्जक को क्या अशिक्षित मान लिया जाय?
लोककथा-सर्जक, आधुनिक संदर्भों में, अक्षर-ज्ञान से वंचित होने के कारण,
जाहिर तौर पर अशिक्षित हो सकता है। परंतु पारंपरिक अर्थों में न तो वह
अशिक्षत होता है और न ही अज्ञानी होता है। उसकी शिक्षा प्रकृति की
पाठशाला में संपन्न होती है। लोककथा-सर्जक प्राकृतिक कार्यव्यवहार रूपी
विशाल फलक वाली खुली किताब का जितना विशद् अध्ययन किया होता है,
विश्वविद्यालयीन पाठ्यक्रमों में वह सब संभव नहीं है। धर्म, दर्शन और
नीतिशास्त्र, सबका उसे ज्ञान होता है।
धर्मोपदेशकों और धार्मिक आख्यानककारों द्वारा विभिन्न अवसरों पर, विभिन्न
संदर्भों में अक्सर एक बोध कथा कही जाती है जो इस प्रकार है -
चार वेद, छः शास्त्र, अउ अठारहों पुरान के जानने वाला एक झन महापंडित
रिहिस। वोला अपन पंडिताई के बड़ा घमंड रहय। पढ़े-लिखे आदमी ल अपन विद्या के
घमंड होइच् जाथे, अनपढ ह का के घमंड करही? अब ये दुनों म कोन ल ज्ञानी
कहिबे अउ कोन ल मूरख कहिबे? पढ़े-लिखे घमंडी ल कि सीधा-सादा, विनम्र अनपढ़
ल?
एक दिन वो महापंडित ह अपन खांसर भर पोथी-पुरान संग डोंगा म नदिया ल पार
करत रहय। डोंगहार ल वो ह पूछथे - ’’तंय ह कुछू पढ़े-लिखे हस जी?
वेद-शास्त्र के, धरम-करम के, कुछू बात ल जानथस?’’
डोंगहार ह कहिथे - ’’कुछू नइ पढ़े हंव महराज? धरम कहव कि करम कहव, ये
डोंगा अउ ये नदिया के सिवा मंय ह अउ कुछुच् ल नइ जानव। बस इहिच् ह मोर
पोथी-पुरान आय।’’
महापंडित - ’’अरे मूरख! तब तो तोर आधा जिंदगी ह बेकार हो गे।’’
डोंगहार ह भला का कहितिस?
डोंगा ह ठंउका बीच धार म पहुँचिस हे अउ अगास म गरजना-चमकना शुरू हो गे।
भयंकर बड़ोरा चले लगिस। सूपा-धार कस रझरिझ-रझरिझ पानी गिरे लगिस। डोंगा ह
बूड़े लागिस। डोंगहार ह महापंडित ल पूछथे - ’’तंउरे बर सीखे हव कि नहीं
महराज? डोंगा ह तो बस अबक-तबक डूबनेच् वाला हे।’’
सामने म मौत ल खड़े देख के महापंडित ह लदलिद-लदलिद काँपत रहय; कहिथे -
’’पोथी-पुरान के सिवा मंय ह अउ कुछुच् ल नइ जानव भइया।’’
डोंगहार ह कहिथे - ’’तब तो तोर पूरा जिनगी ह बेकार हो गे महराज।’’
पोथी पढ़-पढ़ जग मुआ, पंडित भया न कोय।
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े से पंडित होय।’
पंण्डित और पोथियों के ज्ञान को अव्यवहारिक और असार सिद्ध करते हुए,
प्रेम की सार्थकता को प्रतिपादित करने वाली कबीर की इस ऊक्ति का समर्थन
करती यह कथा यद्यपि शिष्ट समाज में, शिष्ट साहित्य में समादृत है, पर
इसकी विषयवस्तु, शिल्प और अभिप्रायों पर गौर करें तो वास्तव में यह
लोककथा ही है। पोथी-पुराणजीवी पंडित वर्ग स्वयं अपना उपहास क्यों करेगा?
सत्य को अनावृत्त करने वाली यह कथा निश्चित ही लोक-सृजित लोककथा ही है।
यह तो इस लोककथा में निहित जीवन-दर्शन की सच्चाई की ताकत है, जिसने पंडित
वर्ग में अपनी सार्थकता सिद्ध करते हुए स्वयं स्वीकार्य हुआ। यदि विभिन्न
पौराणिक संदर्भों और पात्रों ने लोक साहित्य में दखल दिया है, तो पौराणिक
और शिष्ट साहित्य में भी लोक साहित्य ने अपनी पैठ बनाई है। उपर्युक्त
लोककथा इस बात को प्रमाणित करता है।
अपने पूर्वजों द्वारा संचित धन-संपति और जमीन-जायदाद को, जो कि धूप-छाँव
की तरह आनी-जानी होती हैं, हम सहज ही स्वस्फूर्त और यत्नपूर्वक सहेजकर
रखते हैं। लोककथाओं सहित संपूर्ण लोकसाहित्य भी हमारे पूवर्जों द्वारा
संचित; ज्ञान, शिक्षा, नीति और दर्शन का अनमोल और अक्षय-कोश है। कंप्यूटर
और इंटरनेट की जादुई दुनिया से सम्मोहित वर्तमान पीढ़ी स्वयं को इस अनमोल
ज्ञान से वंचित न रखें।
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(3) आलेख
लोक-साहित्य में मिथक
लोक साहित्य में मिथक’’।
यहाँ पर तीन शब्द हैं - लोक, साहित्य और मिथक, जिनके बारे में उपस्थित
विद्वान विस्तार से हमें बताएँगे। वैसे भी, सुरगी वालों के लिए ये शब्द
अपरिचित नहीं हैं। मिथक से तो सुरगी का सदियों पुराना रिस्ता है। नौ लाख
ओड़िया और नौ लाख ओड़निनों के द्वारा एक ही रात में, इस गाँव में छः आगर छः
कोरी तालाब खोदे जाने की कहानी यहाँ भला कौन नहीं जानता? विषय से संबंधित
कुछ बातंे, जैसा मैं सोचता हूँ, संक्षेप में आपके समक्ष रखना चाहूँगा।
लोक का क्या अर्थ है?
यदि समष्टि में हम अपने समाज को देखें तो लगभग दो तिहाई लोग गाँवों में
बसते हैं, केवल एक तिहाई आबादी शहरों और कस्बों में निवास करती है।
गाँवों में निवास करने वाले, और कुछ अंशों में शहरों में भी निवास करने
वाले वे लोग जो अपढ़ या निक्षर होते हैं, परंपरागत व्यवसाय करने वाले
मेहनतकश होते हैं और आधुनिक सभ्यता तथा आधुनिक सभ्यताजन्य मनोविकारों से
अछूते होते हैं, लोक कहे जाते हैं। इसके विपरीत शहरों में निवास करने
वाले पढ़े-लिखे, बुद्धिजीवी लोग जो आधुनिक सभ्यता के संपर्क में जीते हैं,
शिष्ट वर्ग कहे जाते है।
यहाँ पर मैं स्पष्ट कर देना चाहूँगा कि यद्यपि लोक पढ़ा-लिखा नहीं होता
है, पर वह अज्ञानी या मूर्ख कदापि नहीं होता। लोक और शिष्ट का अपना-अपना
ज्ञान-क्षेत्र होता है। लोक का ज्ञान उसके अनुभवों और परंपराओं से आता है
जबकि शिष्ट का ज्ञान किताबी ज्ञान ही अधिक होता है। एक महापंडित और नाविक
की कहानी आप सभी जानते है। नदी पार करते समय अचानक तूफान और फिर मूसलाधार
बारिश होने से नाव पलट जाती है। नाविक तैर कर अपनी जान बचा लेता है,
परन्तु महापंडित बाढ में बहकर मर जाता है क्योंकि उसे तैरना नहीं आता था।
वह उस नाविक का अनुभवजन्य ज्ञान ही था जिसने उसकी जान बचाई।
एक दूसरी कहानी है - एक किसान गाँव के पुरोहित को नदी में नहाते वक्त गले
तक पानी में खड़े होकर ध्यान लगाते रोज देखा करता था। उत्सुकतावश एक दिन
वह पुरोहित से पूछ बैठा कि ऐसा करने से क्या होता है? पुरोहित ने बड़े ही
उपेक्षापूर्वक ढंग कहा कि इससे भगवान मिलता है।
उस किसान के मन में भी भगवान को पाने की इच्छा हुई। दूसरे दिन वह भी नदी
के बीच धार में ध्यान लगाकर खड़ा हो गया। तभी अचानक बरसात शुरू हो गई। बाढ़
आ जाती है। बाढ़ का पानी उस किसान के सिर के ऊपर से बहने की स्थिति में
पहुँच जाता है, पर उसका ध्यान नहीं टूटता क्योंकि अभी तक भगवान का आगमन
जो नहीं हुआ था। भगवान ने सोचा, मेरी वजह से बेचारा किसान अकाल मारा
जायेगा, दर्शन तो देना ही पड़ेगा। भगवान प्रगट हुए। पुरोहित ने भगवान से
पूछा कि भगवन! मैं तो रोज ही आपका ध्यान लगाता हूँ मुझे तो आपने कभी
दर्शन नहीं दिया, और इस गँवार किसान के सामने प्रगट हो गये? भगवान ने कहा
- पंडित जी! यह किसान गाँवार है, अपढ़ है, वेद-शास्त्र को नहीं जानता; पर
इसके मन में किसी प्रकार का अहंकार, किसी प्रकार के विकार और किसी प्रकार
के विचार भी नहीं हैं, इसका मन और इसका हृदय दोनों ही निर्मल है। आप में
और इसमें यही अंतर है।
ज्ञानी और भक्तों, दोनों का ही अंतिम लक्ष्य होता है - निःअहंकार होना,
निर्विकार होना और निर्विचार होना; लोक में यह विशेषता देखी जा सकती है।
साहित्य क्या है?
बहुत सरल शब्दों में कहें तो, गीत, कविता, नाटक, कहानी, उपन्यास - यही तो
साहित्य हैं। वे गीत और वे कहानियाँ जो लोक की वाचिक परंपरा में होते हैं
लोक-साहित्य कहलाते हैं। विचार करें तो हमारे वेद, जिन्हंे हम ’श्रुति’
कहते हैं, आरंभ में वाचिक परंपरा के ही साहित्य रहे हैं। लिखा हुआ
साहित्य शिष्ट साहित्य है। हर समाज का, हर देश का और हर बोली और भाषा का
अपना-अपना लोक-साहित्य होता है।
मिथक क्या हैं?
किसी गाँव में रात में एक हाथी आया और गलियों से होता हुआ आगे जंगल की ओर
चला गया। धूल में उसके पैरों के निशान पड़ गए। उस गाँव के किसी भी व्यक्ति
ने अपने जीवन में कभी हाथी नहीं देखा था। सुबह हाथी के पैरों के निशान
देख कर सबकी मति चकरा गई कि आखिर रात में यहाँ कौन सा जीव आया होगा। सबने
खूब सोचा पर किसी को कुछ न सूझा। सबने कहा - लाल बुझक्कड़ को बुलाओ, हमारे
गाँव में एक वही बुद्धिमान आदमी है। वही इस पहेली को सुलझा सकता है। लाल
बुझक्कड़ को बुलाया गया। उसने खूब सोचा। उसे अपनी इज्जत जाती दिखी। इज्जत
तो बचाना ही था, अंत में उसने कहा -
लाल बुझक्कड़ बूझ के, और न बूझो कोय।
पैर में चक्की बांध के, हिरना कूदो होय।’’
शुरू मे मैंने सवा लाख, कहीं-कहीं कुछ लोगों के अनुसार नौ लाख ओड़िया और
नौ लाख ओड़निनों द्वारा सुरगी में एक ही रात में छः आगर छः कोरी तालाब
निर्माण की कहानी की ओर इशारा किया था। बचपन में बुजुर्गों से हम सुनते
आए हैं कि चन्द्रमा में दिखने वाला दाग मूसल से धान कूटती एक बुढ़िया का
है या वह खरागोश का है। चन्द्र-ग्रहण और सूर्य ग्रहण धड़-हीन राहु-केतु
द्वारा उन्हें निगल लिए लाने की वजह से होते हैं। पृथ्वी शेषनाग के सिर
पर रखी हुई है, आदि-आदि ....। छत्तीसगढ़ी में एक लोक-कथा है - महादेव के
भाई सहादेव। आप सभी जानते हैं। इसमें यह बताया गया है कि रात में सियार
हुँआते क्यों हंै? एक चतुर सियार ने महादेव को खूब छकाया। अंत में पकड़ा
गया। उसे सजा मिली। सजा से छुटकारा पाने के लिए उसने महादेव से वादा किया
था कि रात में वह पहरा दिया करेगा। रात में चार बार हँुआ कर वह लोगों को
सचेत किया करेगा। उस सियार के बाद भी उसके वंशज आज तक अपना वही वचन निभा
रहे हैं।
झारखण्ड के आदिवासियों में भी इसी तरह की एक रोचक कथा प्रचलित है। सृष्टि
के आरंभ में आसमान में सात सूरज हुआ करते थे। ये कभी अस्त न होते थे और
खूब तपते थे। सारे जीव बहुत परेशान रहते थे। उसी समय जंगल में, किसी गाँव
में सात आदिवासी भाई भी रहते थे। ये सातों बड़े तीरंदाज, बलिष्ठ और बड़े
लडाके थे। इन लोगों ने सातों सूरज को मजा चखाने की ठानी। सातों ने
अपनी-अपनी कमान पर तीर चढ़या। हरेक ने एक-एक सूरज पर निशाना साधा और एक
साथ छोड़ दिये तीर। कुछ ही देर बाद पृथ्वी पर घुप अंधेरा छा गया। दूसरा
दिन हुआ नहीं; एक भी सूरज नही निकला। सूरज का निकलना बंद हो गया। अब तो
अंधेरे की वजह से लोगों पर आफत के पहाड़ टूटने लगे। मनुष्य सहित जंगल के
सारे जीव-जंतुओं ने इस पर विचार किया कि अब क्या किया जाय? किसी ने कहा -
सात सूरज में से केवल छः ही मरे हैं, मैंने देखा है कि एक भाई का निशाना
चूक गया था और एक सूरज जिंदा बच गया था। लेकिन वह डरा हुआ है और पहाड़ के
पीछे छिपा बैठा है। बुलाने पर वह आ सकता है। पर बुलाये कौन? मनुष्य से तो
वह डरा हुआ था। राक्षसों और निशाचरों की तो बन आई थी। चिड़ियों ने कोशिश
किया, खूब चहचहाये, पर वह सूरज नहीं निकला। तितलियों ने, भौरों ने, कौओं
ने और अन्य प्राणियों ने भी कोशिश किया। छः दिनों तक लगातार कोशिशें जारी
रही। सातवें दिन सब ने मुर्गे से कहा कि तुमने अब तक कोशिश नहींे किया
है। तुम भी कोशिश करके देखो, शायद तुम्हारे बुलाने से सूरज निकल आए।
मुर्गे ने कहा - कुकड़ू कूँ। और पूरब की ओर थोड़ा सा उजाला छा गया। सब के
सब खुशी से झूम उठे। सब ने मुर्गे से फिर कहा - फिर से बुलाओ, वह आ रहा
है। मुर्गे ने फिर कहा - कुकड़ू कूँ। सूरज ने पहाड़ के पीछे से सिर उठा कर
झांका और उसकी किरणे धरती पर बिखरने लगी। सब ने मुर्गे से फिर कहा,
देखो-देखो! पहाड़ के पीछे से वह लाल सूरज झांक रहा है, एक बार फिर बुलाओ।
मुर्गे ने फिर कहा - कुकड़ू कूँ। तब तो छिपा हुआ वह सूरज पूरी तरह से निकल
आया और आसमान में चढ़ने लगा। एक ही सूरज की तपन बड़ी प्यारी लग रही थी। लोग
खुशी से झूम उठे। तभी से चलन हो गया है; मुर्गे की बांगने से ही सूरज
निकलता है।
हमारे कई गाँवों में, भांठा में एक साथ, एक ही जगह पत्थर की ढेर सारी
मूर्तियाँ पई जाती है। इनमें बहुत सारी मूर्तियाँ सैनिकों के होते हैं,
कुछ घुड़सवार तो कुछ पैदल। कुछ तलवार लिए तो कुछ तीर-कमान लिए। लोग कहते
हैं - एक राजा था। उसकी रानी बहुत सुंदर थी। उसी राज्य में एक जादूगर भी
रहता था जो अपनी जादुई ताकत से कुछ भी कर सकता था। वह भी रानी की सुंदरता
पर मुग्ध था। उसने एक दिन रानी का अपहरण कर लिया। गुप्तचरों से पता चलने
पर राजा ने जादूगर से लड़ने की ठानी। उसने आक्रमण किया। जादूगर ने अपनी
जादू से पूरी फौज को पत्थर का बना दिया।
ये ही मिथक हैं।
मिथकों की स्वीकार्यता।
मिथकों का निर्माण कैसे हुआ होगा? जाहिर है, ऊपर के उदाहरणों में जैसा कि
हमने देखा, मिथकों का निर्माण समाज के बौद्धिक वर्ग ने ही किया होगा।
परंतु बौद्धिक वर्ग द्वारा रची गई कोई भी कहानी लोक-स्वीकार्यता और
लोक-मान्यता प्राप्त करने के पश्चात् ही मिथक बन पाया होगा। हर समाज, हर
भाषा, हर जाति, हर देश का अपना-अपना मिथक होता है। मिथकों की रचना समाज
की मान्यताओं और परिस्थितियों के अनुसार ही हुआ होगा।
एक ही विषय से संबंधित भिन्न-भिन्न मिथक हो सकते है। हिन्दुस्तान में
धरती शेष नाग के सिर पर रखी हुई है। शेष नाग साल में एक बार फन (गंड़री)
बदलता है। भूकंप इसी का नतीजा है। युरोप में यही धरती हरक्यूलिस नामक एक
शक्तिशाली देवता के कंधे पर रखी हुई है, हरक्यूलिस कभी भी कंधा नहीं
बदलता। दुनिया नष्ट हो जाएगी।
लोक-साहित्य के मिथक और शिष्ट साहित्य के मिथक में क्या अंतर होता है?
ऊपर लोक-साहित्य और शिष्ट साहित्य के बहुत सारे मिथकों की हमने चर्चा की
है। सूर्य और चन्द्र ग्रहण की कथा हो, शेषनाग की कथा हो या हरक्यूलिस की
कथा, ये शिष्ट साहित्य के मिथक हैं और सभी धार्मिक आस्था से जुड़े हुए
हैं। हमारे सारे अवतार प्रगट होते हैं, माँ की कोख से जन्म नहीं लेते।
हमारे सभी धर्मग्रन्थ भी ईश्वरीय होते हैं और ये भी प्रगट होते हैं,
साहित्यकार द्वारा लिखे नहीं होते। इस संबंध में कुछ भी बोलना फतवे को
आमंत्रित करना ही होगा। चुप रहने में ही बुद्धिमानी है। इसके विपरीत लोक
के मिथक बड़े लचीले होते हैं। अलग-अलग अंचल में नये-नये रूपों में प्रगट
होते हैं, क्योंकि ये लोक की संपत्ति होते हैं, धर्म की नहीं। लोक के
मिथक या तो विशुद्ध मनोरंजन करते हुए प्रतीत होते हैं अथवा लोक-शिक्षण
करते हुए। ये प्रकृति के रहस्यों की लोक-व्याख्या के रूप में भी प्रगट
होते हैं। इस पर कोई भी फतवा जारी नहीं कर सकता।
कुबेर
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लेखक का परिचय
कथाकार - कुबेर
जन्मतिथि - 16 जून 1956
छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री डा.ॅ रमन सिंह द्वारा
मुक्तिबोध साहित्य सम्मान 2012 से सम्मानित
प्रकाशित कृतियाँ
1 - भूखमापी यंत्र (कविता संग्रह) 2003
2 - उजाले की नीयत (कहानी संग्रह) 2009
3 - भोलापुर के कहानी (छत्तीसगढ़ी कहानी संग्रह) 2010
4 - कहा नहीं ((छत्तीसगढ़ी कहानी संग्रह) 2011
5 - (छत्तीसगढ़ी कथा-कंथली ((छत्तीसगढ़ी) लोककथा संग्रह 2012)
प्रकाशन की प्रक्रिया में
1 - माइक्रो कविता और दसवाँ रस (व्यंग्य संग्रह)
2 - और कितने सबूत चाहिये (कविता संग्रह)
3 - अनदेखी की गई कहानियां (कहानी संग्रह)
4 $ ढाई आखर प्रेम के - (अनुवादित कृति)
संपादित कृतियाँ
1 - साकेत साहित्य परिषद् की स्मारिका 2006, 2007, 2008, 2009, 2010
2 - शासकीय उच्चतर माध्य. शाला कन्हारपुरी की पत्रिका ’नव-बिहान’ 2010, 2011
पता
ग्राम - भोड़िया, पो. - सिंघोला, जिला - राजनांदगाँव (छ.ग.), पिन 491441
मो. - 9407685557
म्.उंपस रू ानइमतेपदहीेंीन/हउंपसण्बवउ
संप्रति
व्याख्याता,
शास. उच्च. माध्य. शाला कन्हारपुरी, राजनांदगँव (छ.ग.)
मो. - 9407685557
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जवाब देंहटाएं'गाँवों में निवास करने वाले, और कुछ अंशों में शहरों में भी निवास करने वाले वे लोग जो अपढ़ या निक्षर होते हैं, परंपरागत व्यवसाय करने वाले मेहनतकश होते हैं और आधुनिक सभ्यता तथा आधुनिक सभ्यताजन्य मनोविकारों से अछूते होते हैं, लोक कहे जाते हैं।'
---अनुचित व त्रुटिपूर्ण व्याख्या है ....
--- लोक का अर्थ ग्रामीण, अनपढ़ व निरक्षर से सम्बंधित नहीं है अपितु किसी भी समाज, देश, राष्ट्र, जनसमूह, वर्ग में 'अधिकाँश जन में प्रचलित' अर्थात बहुजन मत से है| ....
---यदि किसी तथ्य का सर्वे इंटरनेट-यूज़र्स के मध्य किया जाता है एवं यदि अधिकाँश यूज़र्स उस तथ्य से सहमत हैं तो वह इंटरनेट यूज़र्स वर्ग का लोकमत माना जायगा|