भैंस है क्या ? घासीराम गांव में जोर-जोर से चिल्ला-चिल्ला कर केतकी को बेच रहा था․ केतकी झारखंड़ से उठा कर ले जायी गयी एक नाबालिग आदिवासी ...
भैंस है क्या ?
घासीराम गांव में जोर-जोर से चिल्ला-चिल्ला कर केतकी को बेच रहा था․ केतकी झारखंड़ से उठा कर ले जायी गयी एक नाबालिग आदिवासी लड़की थी․
केतकी के माँ-बाप आज भी गांव में उसकी राह देख रहे हैं․ घासीराम उनसे यह कह कर केतकी को ले गया था कि वह उसे काम पर लगा देगा और केतकी वहां से रूपया भेजा करेगी․ केतकी के गये हुए छह महीने बीत जाने के बाद न तो केतकी आयी और न ही उसकी खबर, रूपया-पैसा तो दूर की बात थी․ केतकी के माँ-बाप गरीबी के मारे थे उन्हें खाना नहीं जुटता था तो वे केतकी का कैसे पता लगाते․
गांव का एक बड़ा सेठ घासीराम को बुलाया और पूछा, क्या भाव दिए ?
देख लीजिए सेठ जी, घासीराम ने केतकी को सेठ के तरफ बढ़ाते हुए कहा, कोई टांग खराब नहीं है, ठीक से चलफीर लेती है․ रंग थोड़ा सांवला जरूर है जो पूरा जवान होते-होते साफ हो जाएगा․ जांघ पर हाथ मार कर मांस देख लीजिए․ सबकुछ ठीक-ठाक है सेठ जी, पंद्रह हजार लगेंगे․
सेठजी अंचभित होते हुए कहा, भैंस है क्या, जो इतना भाव बढ़ा कर बोल रहा है ?
घासीराम बोला, सेठजी, भैंस की क्या बात करते है, पंद्रह हजार में भैंस मिलेगी क्या, कम से कम साठ-सत्तर हजार चाहिए भैंस खरीदने के लिए․
सेठजी ने कहा, वो सब तो ठीक है, सात हजार में देता है क्या, मंजूर हो तो छोड़ जा․
घासीराम सोचा, अपने बाप का क्या जाता है, डेढ़ से दो हजार लागत है, पांच हजार तो मुनाफा ही हुआ․ उसने केतकी से कहा, बेटी जाओ सेठजी के यहां अब तुम्हें रहना है और केतकी को ओसारे पर चढ़ा दिया, जैसे कोई बलि के बकरे को मक्तल पर चढ़ा देता है․
मुंह में एक भी दांत नहीं, कमर झुकी हुई, बदन के सारे मांस झूलते हुए सेठजी के आंखों में हैवानियत की सी खुशी की चमक नजर आ रही थी․
कॉपी गंदा क्यों किया ?
हरखुआ़ के पुरखों ने कभी कॉपी-कलम को हाथ न लगाया था․ हरखुआ को बेटा हरिचरणा परिवार का पहला लड़का था जिसे पढ़ने के लिए भेजा गया था․
हरखुआ का बेटा हरिचरणा पांच बरस का हो चुका था और गांव वालों की बकरियां ले जाकर चराना शुरू कर दिया था․ दर्जन भर बकरियों में दो बकरियां उसकी अपनी थी जिसे वह बहुत प्यार करता था․ प्यार करने के अन्य कारणों के अलावा सबसे बड़ा कारण यह था कि एक ही छप्पर के नीचे हरिचरणा अपने दोनों बकरियों के साथ ही सोता था और जाड़े के दिनों में रात को जब बकरियां पेशाब करती तो हरिचरणा की पीठ के नीचे गरम-गरम पेशाब बहती जो उसे जाड़े में सुखद लगती․
हरखुआ कुछ खास कमा नहीं पाता था क्योंकि गांव में वह कभी दस दिन मजदूरी किया तो किया बाकी बीस दिन निठल्ला ही पड़ा रहता था लेकिन न जाने उसे कहां से यह भूत सवार हो गया था कि अपने बेटे हरिचरणा को पढ़ाएगा जरूर․ इसलिए गांव के सरकारी विद्यालय में हरिचरणा का नाम लिखा दिया लेकिन सरकारी विद्यालय होने के बावजूद कॉपी-किताब हरिचरणा को खरीद कर ही लाना पड़ा․ हरखुआ महाजन से उधार पैसे लेकर अपने बेटे को कॉपी और किताबें ला कर दिया और सख्त हिदायत भी किया कि किताब और कॉपी ठीक से संभाल कर रखे, नही ंतो मार पड़ेगी․
हरिचरणा विद्यालय जाने लगा․ कुछ दिनों बाद हरिचरणा ने अपने पिता से नयी कॉपी की मांग की, हरखुआ समझ नहीं सका कि एक बार कॉपी खरीद कर देने के बाद और कॉपी की जरूरत भी पड़ सकती है․ हरखुआ अपने बेटे को पुरानी कॉपी निकालने को कहा और उसे उलट-पलट कर देखा और लगा हरिचरणा को यह कहते हुए पीटने कि कॉपी को वो गंदा क्यों किया ? हरिचरणा मार खाते-खाते अपने पिता को समझाता रहा कि पेंसिल से कॉपी पर लिखी जाती है और रोजाना लिखने से कॉपी भर जाती है․ इसे मानने के लिए हरखुआ तैयार ही नहीं था․
दूसरे दिन हरखुआ अपने बेटे को लेकर विद्यालय गया और वहां अन्य लड़कों का कॉपी निकलवा कर देखा तब कहीं जाकर उसे एहसास हुआ कि शायद पढ़ाई ऐसी ही होती है․
हरखुआ समझ गया और अपने बेटे को कहा, मैंने तुम्हें बेकार ही पीटा, अब ऐसा नहीं होगा रे हरिचरणा, जा सकूल जा, पढ़, हम तुम्हारे लिए और कॉपी ला देंगे․
खाए-खाए पर आफत
चार दिनों से घर पर चूल्हा नहीं जला था․ भीमा सोच रहा था कि उसे न जाने भर पेट खाना कब मिलेगा․ यही सोचते-सोचते भीमा गांव से काफी दूर निकल गया था․ एक जगह उसे साग की कुछ झाडि़या नजर आयी, वह खुश हो गया, सोचा कि लगता है किसी ने इन झाडि़यों को पहचाना नहीं, नहीं तो इतनी अच्छी साग बच नहीं सकती थी․ साग को तोड़कर वह घर ले आया․
चार दिन बाद उसने घर पर चूल्हा जलाया․ साग के बहुत कम हिस्से को उसने काटा और धो कर उसे चूल्हे में उबाला और बाप-बेटा दोनों मिलकर साग खाकर पानी पी लिया․
भीमा का पिता खाट पर लेटे-लेटे सोच रहा था कि ईश्वर ने उसे क्यों इतना आभावग्रस्त बनाया, बारहों मास का अभाव․ भीमा की माँ भी उसे गरीबी के कारण भीमा को जनते ही चल बसी, वो कुछ नहीं कर पाया भीमा की माँ के लिए और अब भी वो भीमा के लिए कुछ नहीं कर पा रहा है․ बेचारा खूद ही चुन-बीछ कर झाड़ी-साग लाता है, खूद भी खाता है और मुझे भी खिलाता है․ अपनी बेबसी पर भीमा के पिता को रोना आ रहा था․
भीमा जब भर पेट साग खा लिया तो वह भी आकर अपने पिता के बगल में लेट गया और सोने से पहले अपने पिता से पूछा, बाबा दो महीने से रोटी खाने को नही मिला है, हमलोग कब रोटी खायेगे, बाबा ?
भीमा का पिता यह सुनकर बहुत ही उदास हो गया क्योंकि उसे खूद भी नहीं मालूम था कि रोटी खाने को उसे कब मिलेगा․ लेकिन वह भीमा को कहा बेटा गांव के सेठ करोड़ीमल कल ही मरा है, दस दिनों बाद सेठजी के यहां कंगाल भोजन कराया जाएगा, उस दिन, रोटी नहीं पूड़ी खाना, भीमा, पूड़ी․
भीमा खूश हो गया, अपने नन्हें-नन्हें हाथों की उंगलियों पर गिन कर बताया कि कल जब हमलोग सो कर उठेंगे तो नौं दिन ही बाकी रहेगा न पूडि़यां खाने में बाबा ?
दसवें दिन का इंतजार करते-करते भीमा को लगा कि जैसे वर्षों बीत गए․ जिस दिन कंगाल भोजन का आयोजन था, भीमा सुबह से पानी तक नहीं पिया था․ कंगाल भोजन में जाने के पहले थाली, कटोरा लेकर भीमा और उसका बाबा निकल पड़ा․ भूख और प्यास से दोनों का बूरा हाल था․ रास्ते में पोखर में जब भीमा एक चुल्लू पानी पिया ही था कि उसके बाबा ने उसे अगाह किया, देखो, बेटा भीमा, ज्यादा पानी पीने से ज्यादा खाना नहीं खा सकेगा․ कम से कम इतना तो आज हम दोनों को खाना ही चाहिए कि दो-तीन दिनों तक भूख न लगे․ भीमा दो चुल्लू पानी पीकर ही उठ गया․
अंतत कंगाल भोजन का समय आ गया․ खाना पत्तल में परोसा गया, एक तरफ कंगालों की टोली थी तो दूसरी तरफ कुत्तों की टोली․ दोनों बाप-बेटे तब तक खाते रहे जब तक उन्हें उलटियां न होने लगी․ मार कर भगाए गए लेकिन काफी पूडि़या और लड्डू छुपाकर घर भी ले आए․
अजीब रिवाज है कंगाल भोजन भी, जीते जी जिसने किसी को एक दाना भी नहीं खिलाया, उसके मर जाने के बाद कंगालों को खाना खिलाया जाता है․ कंगाल भोजन करवाने की शायद यही सार्थकता है कि कम से कम महीने दो महीने से खाना का जिसे दर्शन भी नहीं हुआ हो, उन्हें भर पेट खाने को भोजन तो मिल जाता है․
भीमा और उसके बाबा द्वारा लायी गयी पूडि़यां और लड्डू से कम से कम दो-एक दिनों के लिए खाए-खाए पर आफत टल गया था․
राजीव आनंद
सेल फोन - 9471765417
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