ई-बुक: दशलक्षण धर्म - लेखक : महावीर सरन जैन - अध्याय 2 - मार्दव

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2. मार्दव ‘क्षमा’ के परिपाक एवं विकास के लिए ‘मार्दव’ का महत्व है। किसी पर क्रोध न करना ही पर्याप्त नहीं है। सामाजिक व्यक्ति के लिए यह भी ...

2. मार्दव

‘क्षमा’ के परिपाक एवं विकास के लिए ‘मार्दव’ का महत्व है। किसी पर क्रोध न करना ही पर्याप्त नहीं है। सामाजिक व्यक्ति के लिए यह भी आवश्यक है कि वह ‘अहंकार’ का परित्याग कर, दूसरों के प्रति विनम्रता के साथ मृदुता का आचरण करे।

अहंकारहीन एवं मृदु व्यवहार करने वाले व्यक्ति के चित में क्रोध भाव उत्पन्न होने की सम्भावनाएँ क्षीण होती जाती हैं।

समाज के एक कार्यकारी सदस्य के रूप में व्यक्ति से अपेक्षा की जाती है कि वह भद्र एवं सभ्य व्यक्ति के रूप में व्यवहार करे ; अहंकार का त्याग कर मृदुता का व्यवहार करे जिससे दूसरों के मन को पीड़ा न पहुँचे।

व्यक्ति को समाज निरपेक्ष स्थिति में व्यक्तिगत साधना के धरातल पर भी अपने अहंकार का विसर्जन करना होता है। हृदय की कठोरता एवं क्रूरता को छोड़े बिना व्यक्ति का चित्त धार्मिक नहीं हो सकता। कारण यह है कि अध्यात्म-यात्रा की सबसे बड़ी रुकावट ‘मैं’ की है। भगवान महावीर ने कहा है कि जिसे तू मारना चाहता है वह तू ही है, जिसे तू शासित करना चाहता है, वह तू ही है, जिसे तू परिताप देना चाहता है, वह तू ही है। (आचारांग, 5/ 5)

‘मार्दव’ की कई अर्थ छायाएँ एवं स्तर हैं। एक दृष्टि से मार्दव का अर्थ है- मृदु, शिष्ट एवं विनम्र व्यवहार। इसके आगे जाकर मार्दव का अर्थ होता है- कठोरता का पूर्ण विर्सजन। इसके भी आगे जाकर ‘मार्दव’ से व्यक्ति के अन्तःकरण के उस गुण का बोध होता है जिसमें वह किसी भी प्राणी के दुःख को देखकर सहजरूप से करुणा से अभिभूत हो जाता है, प्रत्येक प्राणी को वह आत्मतुल्य एवं समभाव की दृष्टि से देखने का अभ्यस्त हो जाता है तथा उसका मन करुणा से आपूरित रहता है।

व्यक्ति के मनोभाव की दृष्टि से मृदुता के दो प्रकार हैं:

(1) प्रतीयमान मृदुता

(2) यथार्थ मृदुता

‘प्रतीयमान मृदुता’ का पालने करने वाला व्यक्ति बाह्य दृष्टि से विनम्र एवं शिष्ट होता है किन्तु उसका ‘अन्तर्मन’ मार्दव से अप्रभावित रहता है। बाह्य दृष्टि से आवश्यकता से अधिक विनम्र होने पर व्यक्ति अन्तर्मन की दमित वासनाओं का शिकार हो सकता है। उसके अचेतन मन का अंहकार ही विनय के रूप में प्रदर्शित हो सकता है। जब समाज में इस प्रकार के व्यक्तियों की संख्या बढ़ जाती है तो अनुराग एवं विश्वास द्योतक शब्दों के अर्थ बदलने लगते हैं। ऐसा सम्भव है कि बाह्य स्तर पर कोई हमसे मित्रता व्यक्त करे किन्तु अन्दर से अहंकार के वशीभूत अथवा स्वार्थसिद्धि हेतु हमारे विनाश की योजना बनाए। इस प्रकार के व्यक्ति के आचरण की वास्तविकता के अनावृत होने पर हमारा उसके प्रति संचित विश्वास समाप्त हो जाता है और वह हमारी नफरत और घृणा का पात्र हो जाता है। इस प्रकार की प्रतीयमान मृदुता अवांछनीय और त्याज्य है।

‘यथार्थ मृदुता’ का जो व्यक्ति अभ्यास करता है उसका अन्तर्मन मार्दव से भावित होता है। उसके जीवन में विनयशीलता, निरभिमानता एवं उदारता का क्रमशः विकास होता है। अन्ततः उसके चित्त में मैत्री का अजस्र स्रोत प्रवाहित होने लगता है।

मार्दव के विरोधी-भाव अहंकार, गर्व, मद, कठोरता हैं। मार्दव की विपरीत स्थिति मन, वचन, क्रिया की कठोरता है। ‘अहंकार’ अधर्म का मार्ग है। इससे हम आत्म-चेतना से दूर होते जाते हैं। बाह्य पदार्थो में हमारी आसक्ति एवं अनुरक्ति बढ़ती जाती है। ‘गर्व’ के कारण मन में अपने अहंकार के प्रति ‘मान’ होता है। ‘मान’ विनय का विनाश कर डालता है। ‘मद’ में हम विवेक खो देते हैं। सोचने-समझने की शक्ति समाप्त हो जाती है। मन की सारी कोमलता नष्ट हो जाती है। हमारा वचन ही नहीं, मन एवं कर्म भी कुटिल हो जाते हैं।

लोक में आठ प्रकार के मद प्रसिद्ध हैं-

(1) शरीर का मद

(2) धन का मद

(3) बल का मद

(4) कुल का मद

(5) जाति का मद

(6) ज्ञान का मद

(7) चारित्र्य का मद

(8) तप का मद।

जो व्यक्ति इन आठों प्रकार का किंचित् भी ‘मद’ नहीं करता वही उत्तम मार्दव का पालन करता है। हम पाते हैं कि समाज में कुल, जाति, वर्ण एवं सम्प्रदाय के कारण अनेक बार संघर्ष की स्थितियाँ पैदा हो जाती हैं। इसके मूल में अपनी जाति, अपने कुल, अपने सम्प्रदाय को श्रेष्ठ तथा दूसरे के कुल, जाति एवं सम्प्रदाय को हीन मानने की कुत्सित भावना काम करती है। भगवान महावीर के समय समाज में कुल की श्रेष्ठता एवं हीनता की भावना बहुत प्रबल थी। भगवान महावीर ने इसकी अतार्किकता को पहचाना तथा समाज को सचेत किया। उनके शब्द हैं:

से असइं उच्चागोए असइं नीआगोए, नो हीणे नो अइरित्ते।

नोsपीहए इति संखाए, के गोयावाई के माणावाई ? ।।

यह (पुरुष) अनेक बार उच्च गोत्र और अनेक बार नीच गोत्र का अनुभव कर चुका है। (जन्म जन्मांतर के कारण)। न कोई हीन और न कोई अतिरिक्त (अर्थात् उच्च) है। स्पृहा न करे। (अर्थात् उच्च गोत्र की इच्छा न करे)। कौन गोत्रवादी होगा, कौन मानवादी। (अर्थात् यह जान लेने पर कि वह अनेक बार विभिन्न जन्मों में उच्च गोत्र में भी जन्म ले चुका है और अनेक बार नीच गोत्र में भी जन्म ले चुका है, ऐसा कौन मूर्ख होगा जो गोत्र की उच्चता एवं नीचता में विश्वास करेगा तथा उच्च गोत्र में जन्म लेने पर अपने गोत्र का मान या अभिमान करेगा)।

यहाँ यह द्रष्टव्य है कि अपने चरित्र एवं तप का मद भी बहुत भयावह होता है। मद के उपर्युक्त प्रकारों का विवरण ज्ञानी, मनीषि, साधु, मुनि, तपस्वी कोटि के लोगों के लिए एक प्रकार की चेतावनी है। भगवान महावीर ने स्पष्ट शब्दों में भिक्षुकों के लिए निम्न व्यवस्था दी है:

पन्नामयं चेव तवोमयं च, निन्नामए गोयमयं च भिक्खू।

आजीवगं चेव चउत्थमाहु, से पण्डिए उत्तमपोग्गले से।। (सूत्रकृतांग, 1/13/ 15)। (प्रज्ञा मद, तप मद, गोत्र मद और आजीविका मद – इन चारों प्रकारों के मदों को नहीं करने वाला निस्पृह (इच्छा न करने वाला, किसी प्रकार की कामना न करने वाला) भिक्षु सच्चा पण्डित और पवित्र आत्मा होता है)।

सारांश यह है कि किसी प्रकार का भी मद (अर्थात् अहंकार) समस्त साधना को निर्मूल कर देता है। आधुनिक मानेविज्ञान इस बात को स्वीकार करता है। अहंकार होने पर ‘सुपरइगो’ प्रकृत-प्रवृतियों का दमन करके आत्मभर्त्सना का रूप ग्रहण कर लेता है और अवांछित प्रवृत्तियों का निराकरण नहीं हो पाता। फलस्वरूप चेतन मन का संघर्ष अचेतन मन में होने लगता है। मानसिक शक्ति का उदात्तीकरण नहीं हो पाता। चेतन मन अचेतन मन के आवेगों का अनुभव नहीं कर पाता। मद एवं अंहकार के दूर होने पर ही दमित मानसिक-शक्ति चेतना की सतह पर लाई जा सकती है तथा चेतन मन के धरातल पर आत्म-नियन्त्रण किया जा सकता है।

अहंकार, मद एवं मान से कषायों का जन्म होता है। राग-द्वेष का संचार होता है। हमारे अहंकार को चोट लगने पर मन में क्रोध, ईर्ष्या , क्रूरता आदि भाव उत्पन्न होते हैं। विनम्रता एवं मृदुता से कषायों का नाश होता है। जीवन में ऋजुता आती है। जब ‘अहंकार’ विगलित होने लगता है तो मन की पाषाण जैसी कठोरता चूर-चूर होकर कोमल सिकता कणों में परिणत होने लगती है। विनम्रता एवं करुणा के शीतल जल-प्रवाह द्वारा मन का ताप मिट जाता हैं, मानवीय प्रवृत्तियों का विकास होता है। यदि कोई उसे दुःख पहुँचाता है तो भी चित्त की विनम्रता एवं करुणा उसे क्षमा कर देती है। जब अहंकार की परतें हटने लगती हैं तो कषायों के बन्धन खुलने लगते हैं। इस प्रकार ‘मार्दव’ जहाँ ‘क्षमा’ के विकास एवं परिपाक में सहायक है वहीं ‘आर्जव’ के विकास एवं परिपाक में भी सहायक है।

जब तक अहंकार रहता है, व्यक्ति अपने व्यक्तित्व का अपेक्षित विकास नहीं कर सकता। अहंकार के कारण उसके विकास की गति धीमी पड़ जाती है। वह गर्व में डूब जाता है। मद के कारण वह यह भूल जाता है कि उसकी मंजिल अभी दूर है।

तत्त्वतः बन्ध और मोक्ष अपने ही भीतर हैं। आत्मस्वरूप को पहचानने के लिए ‘मैं’ को गलाना पड़ता है। जिस प्रकार वृक्ष के मूल से स्कन्ध पैदा होता है, स्कन्ध से शाखाएँ और शाखाओं से प्रशाखाएँ निकलती हैं, प्रशाखाओं से पत्ते पैदा होते हैं और इसके पश्चात् क्रमशः फल-फूल और रस उत्पन्न होते हैं, उसी प्रकार धर्मरूपी वृक्ष का मूल ‘विनय’ है और मोक्ष उसका फल है। अहंकार के आवरण को हटाये बिना अमृत-तत्व प्राप्त नहीं हो सकता। एक बार गौतम ने भगवान महावीर से पूछाः

भंते, मृदुता से क्या होता है ?

भगवान ने कहा- ‘मृदुता’ से अपने आपको दूसरों से अतिरिक्त, दूसरों से विशिष्ट मानने की भावना नष्ट हो जाती है।

‘मृदुता’ से इसी कारण समस्त जीवों पर मैत्री भाव रखने एवं समस्त संसार के जीवों को समभाव से देखने की दृष्टि विकसित होती है।

तप एवं त्याग के बावजूद यदि व्यक्ति के चित में अहंकार एवं मान शेष रह जाता है तो उसकी सारी साधना निष्फल हो जाती है।

मृदुता से उदारता, सहिष्णुता एवं दृष्टि की उन्मुक्तता का विकास होता है। सत्यानुसंधान के लिए यह बहुत आवश्यक है। अहंकार से आग्रह जन्म लेता है, उदारता से अनाग्रह। अनाग्रह की चेतना ही अनेकांतवादी जीवन-दृष्टि प्रदान करती है।

‘अहंकार’ के कारण पारिवारिक जीवन में अशान्ति उत्पन्न होती है, सामाजिक जीवन में संघर्ष उत्पन्न होता है एवं राजनैतिक जीवन में पराजय प्राप्त होती है। पारिवारिक एवं सामाजिक जीवन के विकास के लिए सभी सदस्यों में परस्पर प्रेम भाव, दूसरों के अस्तित्व की स्वीकृति तथा एक सदस्य का अन्यों के प्रति करुणा एवं मैत्रीभाव का होना आवश्यक है। ‘मार्दव’ से उपर्युक्त गुणों का विकास होता है। व्यक्ति के हृदय में दूसरों को आत्मतुल्य मानने का भाव उत्पन्न होता है। दूसरों के विचारों एवं कार्यों के प्रति उसके मन में आदर, सहिष्णुता एवं उदारता उत्पन्न होती है तथा अन्ततः सहन शक्ति का विकास होता है। यदि व्यक्ति अहंकार नहीं छोड़ता तो परिवार के अन्य सदस्यों की उपेक्षा का पात्र बन जाता है। समाज उसके प्रति अरुचि, उपेक्षा एवं अन्ततः घृणा करने लगता है। मार्दव गुण सामाजिक प्राणी का सर्वप्रथम सकारात्मक गुण है। हमें यह प्रयास तो करना ही चाहिए कि हमारे व्यवहार से किसी को पीड़ा न हो। हमारे पास जो है-उसे किसी को दे सकने की स्थिति में न हों तो कम से कम इतना सामाजिक दायित्व बोध तो हममें होना ही चाहिए कि हम अपने व्यवहार से दूसरों के मन को आघात न पहुँचाएँ। हमारा मृदु एवं विनम्र आचरण दूसरों को हमारी तरफ आकर्षित करता है। हमारा सामाजिक दायरा विस्तृत होता है। व्यक्ति समाज के अन्य सदस्यों से संघर्ष एवं कलह की स्थितियों को सर्वथा समाप्त नहीं कर सकता तो उन्हें कम अवश्य कर सकता है। संघर्ष के भयावह एवं वीभत्स वातावरण को नष्ट कर सकता है। अन्य सदस्यों से मैत्री-सम्बन्ध स्थापित होने पर परस्पर सौहार्द एवं प्रेम का वातावरण निर्मित होता है जो सामाजिक शान्ति की स्थापना में सहयोग की भूमिका निभाता है।

राजनैतिक जीवन में भी मार्दव गुण का बहुत महत्व है। लोकतन्त्रात्मक शासन व्यवस्था में नेतृत्व के लिए यह आवश्यक है कि वह मार्दव गुण का पालन करे, सत्ताप्राप्ति के पश्चात् भी सत्ता के मद से दूर रहे। यदि जनप्रतिनिधि ऐसा नहीं कर पाता तो उसके एवं जनता के बीच दूरी बढ़ जाती है। इस दृष्टि से महाकाव्य ‘कामायनी’ में वर्णित संघर्ष सर्ग की कथा अत्यन्त प्रेरक है। ‘मनु’ सारस्वत प्रदेश के राजा बनकर अपने बनाये हुए नियमों से शासन संचालित करते हैं, किन्तु स्वयं उन नियमों का पालन नहीं करना चाहते। वे स्वयं स्वच्छन्द जीवन व्यतीत करने का प्रयास करते है। इड़ा उन्हें समझाती है कि नियामक को भी नियमों के अनुरूप आचरण करना चाहिए। संसार की ताल में, विश्व की लय में, समाज के बन्धन में सम होना चाहिए। इससे संगीत की लय नहीं बिगड़ती, जीवन की समरसता में विषमता उत्पन्न नहीं होती। अहंकारी मनु पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता। प्रजापति इड़ा को प्राप्त करने के लिए वे समस्त बन्धनों एवं नियन्त्रणों को तोड़ने का प्रयास करते हैं। इसका परिणाम यह होता है कि प्रजाजन विद्रोह करते हैं। संघर्ष होता है। मनु क्रूरता के साथ अपने खड्ग से प्रजाजनों को कुचलकर आगे बढ़ना चाहते हैं। भीषण जन-संहार होता है। रक्तोन्मत मनु का हाथ रुक नहीं पाता। उधर प्रजा का साहस भी नहीं थमता। इसका समापन मनु की पराजय में होता है और वे मूर्छित होकर गिर पड़ते हैं:

और गिरीं मनु पर, मुमूर्ष वे गिरे वहीं पर,

रक्त-नदी की बाढ़, फैलती थी उस भू पर। (कामायनी, पृष्ठ 202)

इस कथा से हमें ज्ञात होता है कि किस प्रकार अहंकार में व्यक्ति असंयमी एवं क्रोधी हो जाता है, जिससे वह सामाजिक एवं राजनैतिक दृष्टि से पराजित हो जाता है।

आधुनिक जीवन में मार्दव गुण के अभाव के कारण सामाजिक जीवन में परस्पर संघर्ष एवं तनाव का वातावरण पनप रहा है। अहंकार की भावना के कारण अपने को सर्वोच्च, शक्तिमान एवं श्रेष्ठ तथा दूसरों को अपने से निम्न, दुर्बल एवं हीन मानने के कारण साम्प्रदायिक दंगे होते हैं, जातीय संघर्ष होते हैं, वर्णगत विभेद बढ़ता है। ‘धर्म’ व्यक्ति को समभाव सिखाता है। अपने धर्म की श्रेष्ठता का प्रतिपादन कर; धर्म के ठेकेदार साम्प्रदायिक दंगे करवाने में सफल हो जाते हैं और धर्म के नाम पर हैवानियत का नंगा नाच करने तथा दूसरों को इंसान से हैवान बनाने का कुत्सित प्रयास करते हैं। ‘मार्दव’ की वृत्ति के विकास से समाज के सभी सदस्यों में परस्पर अनुराग एवं मैत्री सम्भव है। आत्मतुल्यता की दृष्टि विकसित होने पर सभी आत्माओं की स्वरूप की दृष्टि से समानता एवं प्रत्येक आत्मा की अस्तित्व की दृष्टि से स्वतन्त्रता की मान्यता का विकास होने पर समाज में ऊँच-नीच, बड़ा-छोटा, गोरा-काला आदि के आधार पर बनी हुई विभेदकारी रेखाएँ स्वतः मिट जायेंगी।

‘मृदुता’ का अर्थ आत्म-पराजय अथवा हीनता-बोध नहीं है। इसका भावार्थ आत्मिक दृढ़ता है, अपनी आत्मा की स्वीकृति का भाव है तथा अपनी ही जैसी सभी जीवों की आत्माओं के प्रति आत्मतुल्यता की भाव-प्रतीति है। यह स्वीकृति एवं प्रतीति व्यक्ति की चिन्तन-दृष्टि को उन्मुक्त बनाती है, आग्रहों से लिपटे दायरों को समाप्त कर सतत जागरूकता प्रदान करती है। ‘मैं’ का आवरण हटा आत्मानुसंधान के रहस्य द्वार को खोलती है तथा सृष्टि के प्राणियों के प्रति मैत्री एवं अपनत्व की भावना उत्पन्न करती है।

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एवं धम्मस्स विणओ, मूलं परमो से मोक्खो।

जेण कित्तिं, सुयं, सिग्धं, निस्सेसं चाभिगच्छई।।

((इसी प्रकार) धर्म रूपी वृक्ष का मूल विनय है और उसका अंतिम फल मोक्ष है। इससे कीर्ति, सुयश और श्रुतज्ञान सभी इष्ट तत्त्वों की उपलब्धि होती है।

कुलरूपजादिबुद्धिसु, तवसुदसीलेसु गारवं किंचि।

जो णवि कुव्वदि समणो, मद्दवधम्मं हवे तस्स।।

जो श्रमण कुल, रूप, जाति, ज्ञान, तप, श्रुत और शील का किंचित भी गर्व नहीं करता, उसको मार्दव धर्म होता है।

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रचनाकार: ई-बुक: दशलक्षण धर्म - लेखक : महावीर सरन जैन - अध्याय 2 - मार्दव
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