दशलक्षण धर्म: प्राणी मात्र का कल्याण एवं सामाजिक सौमनस्य तथा सामरस्य प्रोफेसर महावीर सरन जैन अनुक्रम भूमिका 3 - 11 1. क्षमा ...
दशलक्षण धर्म: प्राणी मात्र का कल्याण एवं सामाजिक सौमनस्य तथा सामरस्य प्रोफेसर महावीर सरन जैन अनुक्रम | |
भूमिका 3 - 11
1.क्षमा 12 - 20 2. मार्दव 21 - 31 3. आर्जव 32 - 39 4. सत्य 40 - 58 5. शौच 59 - 67 6. संयम 68 - 77 7. तप 78 - 88 8. त्याग 89 - 100 9. आकिंचन्य 101 - 114 10. ब्रह्मचर्य 115 - 131 दशलक्षण धर्म: प्राणी मात्र का कल्याण एवं सामाजिक सौमनस्य तथा सामरस्य |
भूमिका
गृहस्थ के लिए आचरण का प्रतिमान है - अहिंसा धर्म का पालन करना। वैचारिक अहिंसा अनेकान्तवाद है; कथन शैली की अहिंसा स्याद्वाद है; आर्थिक क्षेत्र की अहिंसा परिग्रह परिमाण व्रत का पालन है।
जब व्यक्ति भौतिकवादी होता है तो भौतिक पदार्थों का अधिक से अधिक परिग्रह करता है। लालसा बढ़ती जाती है। भगवान महावीर ने जाना था कि विश्व के सभी प्राणियों के लिए परिग्रह के समान दूसरा कोई जाल नहीं है। इसके कारण की विवेचना करते हुए भगवान ने कहा - ‘‘इच्छा हु आगास-समा अणंतिया (इच्छा आकाश के समान अनन्त है)। (उत्तराध्ययन 9/ 48)
गृहस्थ अपरिग्रही नहीं हो सकता। गृहस्थ जीवन के लिए भौतिक पदार्थों की उपलब्धता जरूरी है। जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति अनिवार्य है। साँस लेने के लिए वायु, पीने के लिए पानी, खाने के लिए आहार, पहनने के लिए कपड़े, रहने के लिए मकान का होना अनिवार्य है। सुख के सीमित भौतिक साधनों का उपयोग एवं संचय गृहस्थ के लिए वर्जित नहीं हो सकता।
धर्म एवं दर्शन की सामाजिक प्रासंगिकता इस तथ्य में निहित है कि धर्म से सदाचरण की प्रेरणा प्राप्त होती है। धर्म के बोध से यह ज्ञान प्राप्त होता है कि इन्द्रियों को तृप्त करने वाला सुख एवं मानसिक शान्ति प्रदान करने वाला आचरण एकार्थक नहीं हैं। स्वार्थ एवं परार्थ एकार्थक नहीं हैं। बहिर्जगत एवं अन्तर्जगत एकार्थक नहीं हैं। भौतिक सुख एवं मानसिक शान्ति एकार्थक नहीं हैं। सामाजिक व्यक्ति को इनमें संतुलन स्थापित करना चाहिए। व्यक्ति को सफल, सम्पन्न, समृद्ध होने के साथ-साथ संतुष्ट एवं सुखी भी होना चाहिए। धर्म प्रत्येक प्राणी का मंगल करता है। इसी कारण भगवान महावीर ने धर्म को परिभाषित किया कि - ‘धम्मो मंगलमुक्किटठं’ (धर्म उत्कृष्ट मंगल है)। (दशवैकालिक, 1/ 1)
सावय धम्मकार ने सामाजिक दृष्टि से विचार करते हुए प्रतिपादित किया कि मनुष्यता का सार सुख है। सुख धर्म के अधीन है ‘सुहु सारउ मणुयत्तणहं तं सुहु धम्मायत्तु’। (सावय धम्म दोहा, 4)
हिंसा से अशान्ति एवं पाशविकता का जन्म होता है ; अहिंसा से शान्ति, सद्भावना, मानवीयता एवं सामाजिकता का। जीव वैज्ञानिक दृष्टि से तो आदमी भी एक पशु है। अहिंसा की चेतना एवं भावना के कारण उसमें मानवीय एवं सामाजिक भावना का विकास हुआ है।
आदिम युग में जब मनुष्य जंगल में रहता था तो वह पशु के समान आचरण करता था, अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करता था, अपनी शक्ति के बल पर सब कुछ प्राप्त कर लेना चाहता था। उस समय उसे केवल अपनी चिन्ता रहती थी। जब कोई ताकतवर आदमी दूसरे से कोई वस्तु छीन-झपट लेता था तो वह ताकतवर आदमी थोड़ी देर के लिए तो मदमस्त हो जाता था मगर अपने से अधिक ताकतवर व्यक्ति की उपस्थिति की आशंका उसे चैन से बैठने नहीं देती थी। प्रत्येक व्यक्ति दूसरे से आशंकित रहता था। प्रत्येक के जीवन में अनिश्चयात्मकता बनी रहती थी। किसी को किसी का विश्वास न था। प्रत्येक के मन में चिंता, घबराहट, शंका, दुबिधा एवं भय का भाव बना रहता था। इस मानसिकता में वह भागता रहता होगा, दौड़ता रहता होगा ; एक स्थान से दूसरे स्थान की खोज करता रहता होगा। ऐसी स्थिति में व्यक्ति मकान नहीं बना पाता, खेती नहीं कर पाता, घर नहीं बसा पाता। इस भाग-दौड़ एवं मानसिक परेशानी से जब ‘जंगली आदमी’ थक गया होगा तो उसने किसी दूसरे के साथ मिलकर साथ-साथ रहने की सोची होगी। जिस दिन दो व्यक्तियों के मध्य ‘सह-अस्तित्व’ की भावना उदित हुई उसी दिन उनके मन में प्रेम, विश्वास एवं मैत्री-भाव के बीज छिटके, सामाजिक भावना की दूब अंकुरित हुई; समाज-निर्माण की आधारशिला रखी गई। धीरे-धीरे ‘सह-अस्तित्व’ का दायरा बढ़ा। अधिक व्यक्तियों ने परस्पर मिलजुलकर एक स्थान पर साथ-साथ रहने का संकल्प लिया। स्वयं जीने के साथ ही दूसरों को भी जीने देने का भाव उत्पन्न हुआ। ऐसी स्थिति में उन्होंने एक स्थान चुना होगा। उसको खण्डों में बाँटा होगा। अलग-अलग खण्डों को अलग-अलग व्यक्तियों के लिए नियत किया होगा। प्रत्येक व्यक्ति ने अपने-अपने भूखण्ड पर झोंपड़ीनुमा आवास बनाया होगा। भू-खण्ड की सरहदों पर कँटीले झाड़ लगाकर सुरक्षा का प्रबन्ध किया होगा। फिर कृषि-उत्पादन के लिए जमीन को खेतों में बाँटा होगा तथा अपने खेतों के चारों ओर मेंड़ें बनाई होंगी। एक-दूसरे की झोंपड़ी तथा खेत पर कब्जा न करने के बारे में समझौता हुआ होगा। ऐसी ही परिस्थितियों में समाज-रचना का सूत्रपात होता है।
ज्यों-ज्यों व्यक्ति के मन में अहिंसा विकसित होती है त्यों-त्यों उसके जीवन में मानवीय एवं सामाजिक भावना का उद्रेक होता है। जब किसी व्यक्ति के हृदय में यह बात आती है कि जिस प्रकार उसे अपने प्राण प्रिय हैं उसी प्रकार दूसरों को भी अपने प्राण प्रिय होंगे, जिस प्रकार वह जीवित रहना चाहता है उसी प्रकार दूसरा भी जीवित रहना चाहता होगा, जिस प्रकार वह मरना नहीं चाहता उसी प्रकार दूसरा भी मरना नहीं चाहता होगा, उसी समय वह अहिंसा का कदम उठाता है। जब वह यह संकल्प करता है कि वह दूसरों के प्राणों का वध नहीं करेगा, तब वह अहिंसा का चरण बढ़ाता है। इस सीमा तक ‘अहिंसा’ का नकारात्मक मूल्य होता है। जब वह दूसरे की धन-दौलत, स्त्री तथा भौतिक-अभौतिक सम्पदा को छीनने, हड़पने, चुराने तथा झपटने की भावना का परित्याग करता है तब उसमें सकारात्मक अहिंसा का भाव उत्पन्न होता है। जब वह दूसरे के कष्ट, अभाव तथा पीड़ा से द्रवित होकर उन्हें दूर करने के लिए कारगर कदम उठाता है, तब उसके अन्दर के देवता का, उसकी अन्तश्चेतना का, अन्तर्निहित सद् वृत्तियों का जागरण होता है। इस प्रकार का आचरण जब किसी समाज के सदस्यों का सहज स्वभाव बन जाता है तब उन सदस्यों के व्यक्तिगत एवं सामाजिक जीवन में न केवल स्थायी शान्ति ही आती है ; सौमनस्य एवं मैत्री-भाव ‘स्थायी’ भाव बन जाते हैं।
धर्म-भावना से चेतना का शुद्धिकरण होता है, वृत्तियों का उन्नयन होता है। धर्म व्यक्ति की पाशविकता को नष्ट करके उसमें मानवीयता एवं सामाजिकता के गुणों का उद्रेक करता है। धर्म व्यक्ति को जीने की कला सिखाता है। धर्म व्यक्ति के आचरण को पवित्र एवं शुद्ध बनाता है। धर्म से सृष्टि के प्रति करुणा एवं अपनत्व की भावना उत्पन्न होती है।
मनुष्य को अपने जीवन में जो धारण करना चाहिए वही धर्म है। धर्म दिखावा नहीं, रूढि़ नहीं, प्रदर्शन नहीं, किसी के प्रति घृणा नहीं, मनुष्य और मनुष्य के बीच भेदभाव नहीं अपितु मनुष्य में मानवीयता के गुणों की विकास शक्ति है, सार्वभौम चेतना का सत्-संकल्प है। अपनी सम्पूर्णता में, समग्रता में, यथार्थता में ‘धर्म’ को टुकड़ों में नहीं बाँटा जा सकता, उसे खण्डों में नहीं तोड़ा जा सकता। धर्म एक समग्र सत्य-साधना है। संसार के किसी भी मनुष्य को अच्छा मनुष्य बनने के लिए, श्रेष्ठ सामाजिक व्यक्ति बनने के लिए जिन आदर्शों तथा जीवन-मूल्यों को अपने जीवन में धारण करना है, अपने आचरण में उतारना है - वही धर्म है।
धारण करने योग्य क्या है ? क्या हिंसा, क्रूरता, कठोरता, अपवित्रता, अहंकार, क्रोध, असत्य, असंयम, व्यभिचार, परिग्रह आदि विकार धारण करने योग्य हैं ? यदि संसार का प्रत्येक व्यक्ति हिंसक हो जाए तो यह संसार चार दिन भी नहीं चल सकता और न इसका अस्तित्व ही कायम रह सकता है। यदि समाज के सभी सदस्य झूठ बोलने लगें तो इसका परिणाम क्या होगा ? समाज के सदस्यों में परस्पर विश्वास-भाव समाप्त हो जायेगा। यदि समाज के सभी व्यक्ति यौन-मर्यादा के सामाजिक अथवा नैतिक बन्धनों को तोड़ दें तो उस स्थिति में क्या परिवार की कल्पना की जा सकेगी, सामाजिक सम्बन्धों की स्थापना हो सकेगी ? यदि सभी व्यक्ति असंयमी, परिग्रही एवं व्याभिचारी हो जायेंगे तो इसकी परिणति क्या होगी ? इन्द्रिय भोगों की तृप्ति असंख्य भोग-सामग्रियों के निर्बाध सेवन एवं संयम-शून्य कामाचार से सम्भव नहीं है।
अहिंसा का आधार अपरिग्रह है तथा अपरिग्रह का आधार संयम है। जब व्यक्ति अपने को नियंत्रित एवं अनुशासित करता है, सामाजिक नियमों का पालन करता है, दायित्व-बोध की दृष्टि से जीवन व्यतीत करता है तभी उसके अधिकार तथा उसकी स्वतन्त्रता कायम रह पाते हैं। जब व्यक्ति भौतिक वस्तुओं के संग्रह एवं परिग्रह का संयमन करता है तभी आर्थिक विषमताओं का अन्तर कम होता है तथा उत्पादित वस्तुएँ समाज की प्रत्येक इकाई तक पहुँच पाती हैं, प्रत्येक व्यक्ति की मूलभूत तथा आधारभूत आवश्यकताओं की पूर्ति हो पाती है।
हमारी कामनाओं को नियंत्रित करने की शक्ति या तो धर्म में होती है या फिर शासन-व्यवस्था में। व्यक्ति अपनी चेतना के द्वारा अपने को अनुशासित करता है। जब समाज के सदस्यों में यह अनुशासन नहीं रह जाता तो व्यवस्था बनाये रखने के लिए राज्य-शक्ति निर्ममता के साथ कठोर दण्ड-व्यवस्था लागू करती है। धर्म-भावना से प्रेरित होकर व्यक्ति आत्मानुशासन करता है। शासन के द्वारा विधि-विधानों तथा दंड-प्रक्रिया द्वारा व्यक्तियों पर लगाम लगायी जाती है। जिस समाज के व्यक्ति धर्म-चेतना से प्रेरित होकर आचरण करते हैं वहाँ शासन व्यवस्था की जकड़न कमजोर हो जाती है। उस स्थिति में व्यक्ति अधिक स्वतन्त्र, निर्भय एवं परस्पर सद्भावपूर्ण वातावरण में जीवन जीता है। जो धारण करने योग्य नहीं है, उन्हीं को जब समाज के व्यक्ति अपने आचरण का अंग बना लेते हैं तब राज्य की शक्ति व्यवस्था अधिक उग्र, कठोर एवं निर्मम हो जाती है। ऐसे समाज में केन्द्रीकृत अथवा व्यक्ति-विशेष की निरंकुश सत्ता एवं तानाशाही स्थापित हो जाती है। हमारे सामाजिक जीवन की स्वतन्त्रता, समता तथा पारस्परिक प्रेम, सद्भाव एवं विश्वासपूर्ण व्यवहार के लिए धर्म का पालन एक अनिवार्य शर्त है।
जैन धर्म में पर्यूषण पर्व के अंतर्गत दस दिन धर्म के 10 लक्षणों के चिंतन, मनन एवं पालन करने का विधान है। इसके अनन्तर संसार के प्राणी मात्र से विगत वर्ष में जाने अनजाने मन, वचन अथवा कर्म से अपने ऐसे कृत्यों के लिए क्षमा याचना करने के निर्देश हैं जिनके कारण उन प्राणियों के मन को आघात पहुँचा हो। यह अपने अहंकार को निर्मूल करने एवं मैत्री भाव के पल्लवन करने की प्रक्रिया है, विधि है, अनुष्ठान है।आत्मा का सहज स्वभाव ही उसका धर्म है। राग-द्वेष रहित आत्मा का सहज स्वभाव क्षमा, मार्दव, आर्जव,सत्य,शौच,संयम, तप, त्याग, आकिंचन्य और ब्रह्मचर्य है। धर्म के इन 10 लक्षणों की सामाजिक प्रासंगिकता भी है। ये सभी अहिंसा परम-धर्म के पोषक धर्म हैं। क्या अहिंसक व्यक्ति किसी पर क्रोध कर सकता है ? क्षमा उसका सहज स्वभाव हो जाता है। जिसके मन में सृष्टि के कण-कण के प्रति प्रेम एवं करुणा है क्या वह किसी पर क्रोध कर सकता है ? जो सभी जीवो पर मैत्रीभाव रखता है वह क्या किसी की हिंसा कर सकता है ? विश्लेषण पद्धति की दृष्टि से धर्म के सामान्य लक्षणों, अंगों,विधियों को इस प्रकार स्पष्ट किया जा सकता है:
धर्मभाव = सद्गुणों का वरण । | अधर्ममाव = दुर्गुणों में आसक्ति |
1. क्षमा | 1. क्रोध / वैर / द्वेष |
2. मार्दव/विनम्रता/करूणा एवं विनयशीलता | 2. अहंकार / गर्व / मान / मद |
3. आर्जव / निष्कपटता / हृदय की शुद्धता शुद्धता /आत्म संशोधन / मन, वाणी एवं कर्म की एकरूपता | 3. माया / कपटता / कुटिलता / मिथ्यात्व |
4. सत्य/सत्य-आचरण | 4.झूठ बोलना / दुर्वचन / मिथ्या व्यवहार |
5. शौच/ आत्मशुद्धि / पवित्रता | 5. लोभ / बंधन / मल / भोगों में रत रहना। |
6. संयम / अप्रमाद / आत्म- संयम | 6. इन्द्रिय लोलुपता / प्रमाद |
7. तप / मनोनिग्रह / अन्तःकरण की पवित्रता | 7. वासनायें / कषाय / कलमषताएँ |
8. त्याग / दान करना / परिग्रहों का त्याग / अनासक्ति | 8. संग्रह / तृष्णा / आसक्ति |
9. आकिंचन्य / अपरिग्रह वृत्ति / पदार्थों के प्रति अनासक्ति | 9. पदार्थों के प्रति आसक्ति / ममत्व एवं मन का अहंकार / परिग्रह वृत्ति |
10. ब्रह्मचर्य / कामवासना पर विजय / / कामभाव का संयमीकरण | 10. कामाचार/विषय वासनाओं में लीन होना/ इंद्रियों की चंचलता |
प्रस्तुत पुस्तक में इन दश लक्षण धर्मों का विवेचन प्राणी मात्र के कल्याण तथा सामाजिक सद्भाव एवं सामरस्य के विशेष संदर्भ में करने का विनम्र प्रयास है।
(प्रोफेसर महावीर सरन जैन)
क्षमावाणी पर्व, दिनांक 20 सितम्बर, 2013
1. क्षमा
सामाजिक जीवन में राग के कारण लोभ एवं काम की तथा द्वेष के कारण क्रोध एवं बैर की वृत्तियों का संचार होता है। क्रोध के कारण संघर्ष एवं कलह का वातावरण बनता है। क्रोध में अंहकार एक उर्वरक का काम करता है। इस दृष्टि से क्रोध एवं अंहकार एक दूसरे के पूरक हैं। अहंकार से क्रोध उपजता है तथा क्रोध का अहंकार के कारण विकास होता है। क्रोधी मनुष्य तप्त लौह पिंड के समान अंदर ही अंदर दहकता एवं जलता रहता है। उसकी मानसिक शान्ति नष्ट हो जाती है। विवेकपूर्ण कार्य करने की स्थिति समाप्त हो जाती है। क्रोध के कारण कोई व्यक्ति दूसरे का उतना अहित नहीं कर पाता जितना अहित वह स्वयं अपना कर लेता है।
अहंकार से प्रेरित होकर व्यक्ति अपने को सब कुछ समझने लगता है। वह यह समझता है कि उसके पास इतनी शक्ति है कि वह दूसरों को नष्ट कर सकता है। उसमें अपने आपको बड़ा मानने तथा दूसरों को अपने से छोटा समझने की चेतना विकसित होती है। वह सोचता है कि दूसरे व्यक्तियों का अस्तित्व और विकास उसकी इच्छा पर निर्भर है। वह स्वामी है, दूसरे सेवक हैं। वह टुकड़े बाँटता है, दूसरे उसके टुकड़ों पर पलते हैं। इसी अहंकार के कारण वह समाज के सदस्यों से यह अपेक्षा करने लगता है कि सब उसके ही इशारों पर चलें, सब उसके स्वार्थ की सिद्धि में सहायक हों। जब कोई व्यक्ति स्वतन्त्र निर्णय लेकर अपनी मर्जी से चलना चाहता है अथवा उसके स्वार्थ की पूर्ति नहीं करता तो वह आहत हो उठता है और उसका क्रोध जाग जाता है।
क्रोध में विनय तथा समता की भावना नष्ट हो जाती है। समता की भावना का विकास होने पर अहंकार उत्पन्न नहीं होता तथा क्रोध का पौधा मुरझाने लगता है। इसका कारण यह है कि आत्मतुल्यता की चेतना से सम्पन्न व्यक्ति दूसरों के व्यवहार तथा आचरण से व्यक्तिगत-धरातल पर अशांति का अनुभव नहीं करता।
यह प्रश्न उठाया जा सकता है कि क्या क्रोध सर्वथा त्याज्य है? क्या समाज की व्यवस्था तोड़ने वाले व्यक्ति पर क्रोध नहीं करना चाहिए? व्यवस्था बनाये रखना वाले अधिकारी को क्या क्रोध नहीं करना चाहिए ? यदि अधिकारी अपराधी पर क्रोध नहीं करेगा तो सामाजिक व्यवस्था कैसे कायम रह सकती है। अपराधी को यदि समुचित दण्ड नहीं मिलेगा तो समाज में अपराध बढ़ते जायेंगे और सामाजिक व्यवस्था नष्ट हो जाएगी। सामाजिक मूल्यों को बनाए रखने के लिए उचित दण्ड प्रणाली अनिवार्य है। अन्यायी एवं अनाचारी को सबक सिखाने के लिए कभी कभी उसे मृत्यु दण्ड भी मिलना चाहिए। ऐसे लोगों के प्रति यदि कोई समाज अपना आक्रोश व्यक्त करता है तो इसका स्वागत करना चाहिए। एक ओर आक्रोश और दूसरी ओर क्षमा के महत्व का प्रतिपादन। क्या ये परस्पर विरोधी नहीं हैं। उत्तर है – नहीं।
अन्याय एवं अनाचार के प्रति आक्रोश करना एक बात है तथा अहंकार के कारण क्रोधित होना दूसरी बात है। समाज की व्यवस्था एवं नियम के विपरीत आचरण करने वाले व्यक्ति पर सामाजिक न्याय की भावना के कारण क्रोधित होने वाली मानसिकता में तथा अहंकार की भावना से उत्पन्न क्रोध की मानसिकता में अन्तर होता है, वे भिन्न होती हैं। अपने सामाजिक जीवन के दायित्व-बोध के आधार पर आचरण करने तथा क्रोध एवं अहंकार के वशीभूत आचरण करने में अन्तर है। अहंकार से क्रोधित व्यक्ति जब किसी का विनाश करना चाहता है तब वह अपना विवेक खो देता है। जब कोई व्यक्ति सामाजिक भावना से प्रेरित होकर सामाजिक विकास में बाधक बनने वाले असामाजिक एवं दुष्ट व्यक्तियों का दमन करता है तो वह अपने विवेक को कायम रखता है। वह दुष्ट व्यक्तियों का दमन इसलिए करता है जिससे सामाजिक व्यवस्था कायम रह सके। उसके मन में दुष्ट व्यक्ति को सुधारने का संकल्प होता है, उसके अस्तित्व को मिटा देने का नहीं। वह प्रतिकार इसलिए नहीं करता क्योंकि किसी के द्वारा उसका अपमान हुआ है, अपितु उसके ही सुधार एवं कल्याण के लिए वह सामाजिक दृष्टि से अन्याय करने वाले व्यक्ति का प्रतिरोध करता है।
क्रोध के अभ्यास से व्यक्ति का विवेक नष्ट हो जाता है। क्रोध से अन्धा व्यक्ति सत्य, शील एवं विनय का विनाश कर डालता है। किसी ने उसका अहित किया है या कोई उसका अहित करना चाहता है इसके अनुमान मात्र के आधार पर वह तत्क्षण क्रोधित हो जाता है। इस प्रकार सोच समझकर कार्य करने की प्रवृत्ति नष्ट हो जाती है। इसके कारण द्वेष भाव का विकास एवं विस्तार होता है। सम्पूर्ण जगत को वह अपना शत्रु समझने लगता है। उसके जीवन दर्शन विध्वंसात्मक हो जाता है। संघर्ष, तोड़-फोड़, विनाश, हत्या आदि उसका जीवन की प्रवृत्तियाँ हो जाती हैं। इस प्रकार जब क्रोध का विकास होता है, विस्तार होता है तो व्यक्ति की सम्पूर्ण मानवीयता एवं सामाजिकता नष्ट हो जाती है। इस स्थिति पर यदि नियन्त्रण नहीं हो पाता तो उसके अपराधी बन जाने की सम्भावनाएँ बढ़ जाती हैं।
गीता में कृष्ण ने अर्जुन को उपदेश दिया है कि क्रोध से अविवेक एवं मोह होता है, मोह से स्मृति का भ्रम होता है तथा बुद्धि के नाश हो जाने से आदमी कही का नहीं रह जाता:
क्रोधाद्भवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः।
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशात्प्रणश्यति।। ( गीता, 2/ 63)
गीता में श्रीकृष्ण अर्जुन को युद्ध करने के लिए प्रेरित करते हैं, अन्याय का प्रतिकार करने के लिए बार-बार कहते हैं किन्तु दूसरी तरफ युद्ध में कूद जाने की प्रेरणा देनेवाले श्रीकृष्ण क्रोध से बचने के लिए सर्वत्र सावधान करते हैं। गहराई से विचार करने पर इस प्रतीयमान अंतर्विरोध का रहस्य इस तथ्य में निहित है कि लोकमंगल की साधना के लिए अन्याय का प्रतिकार करने तथा क्रोधित होकर दूसरे का नाश करने के लिए तत्पर होने में बहुत अन्तर है।
क्रोध का विरोधी भाव क्षमा है। क्षमा, ‘क्षम्’ धातु से बना है। इसके दो मुख्य अर्थ हैं। एक अर्थ में क्षमा का अर्थ है धैर्य,सहनशीलता एवं विनम्रता। दूसरे अर्थ में क्षमा सामर्थ्य वाचक है- सहने योग्य होना अर्थात् पर्याप्त सक्षम होना।
क्षमाशील व्यक्ति धैर्यवान होता है, विनम्र होता है एवं अत्यन्त सहनशील होता है। क्षमा कायरता नहीं है। क्षमाशील व्यक्ति समर्थ एवं सक्षम होता है। दुःख पहुँचाने वाले व्यक्ति को वह प्रताड़ित कर सकता है किन्तु अपनी क्षमावृत्ति के कारण वह उस दुःख को सहन करता है, विनम्र रहता है। वह क्रोध को शान्ति के साथ जीतता है। ‘ऐसा व्यक्ति कम्प रहित होकर क्रोधादि कषाय को नष्ट कर देता है - ‘विगिंच कोहं अविकंपमाणे’ (आचारांग, 4/ 3/ 135)
सामाजिक जीवन में हम कभी-कभी अज्ञानवश यह समझ बैठते हैं कि अमुक व्यक्ति के कारण हमारा अहित हुआ है। यदि हम तत्क्षण क्रोधित नहीं हो जाते अपितु धैर्य, संयम तथा शान्ति के साथ विवेकपूर्वक स्थितियों का विश्लेषण करते हैं तो बहुधा हमारे मन की भ्रांतियाँ दूर हो जाती हैं, स्थितियाँ स्पष्ट हो जाती हैं। हमारी असफलता का कारण अनेक बार हमारी अपनी ही कमजोरी होती है। यदि किसी व्यक्ति ने किसी कारणवश या अकारण ही हमारा अहित कर भी दिया है तो हमें पहले पूरी परिस्थितियों से परिचित होना चाहिए तथा हमको उस व्यक्ति के साथ धैर्यपूर्वक बातें करनी चाहिए। अपना पक्ष उसके सामने प्रस्तुत कर उसके पक्ष एवं दृष्टि से अवगत होना चाहिए। ऐसा करने पर वह व्यक्ति या तो आत्मग्लानि का अनुभव करता है अथवा उन परिस्थितियों को स्पष्ट कर देता है जिसके कारण उसने हमारा अहित किया।
क्षमा का पालने करने वाला व्यक्ति यदि कभी अन्याय का विरोध करता भी है तो भी उसका मार्ग क्रोध का मार्ग नहीं होता। अपने मन में इसी कारण वह किसी के प्रति कभी बैर नहीं बाँधता। इस प्रकार यदि उसे दुष्टता एवं अन्याय का प्रतिरोध करना पड़ता है तो भी उसके मन में किसी के प्रति शत्रुता का भाव उत्पन्न नहीं होता। यदि कभी कहीं शत्रुभाव उत्पन्न हो भी जाता है तो भी वह अपनी क्षमा वृत्ति के कारण उस भाव का शमन कर लेता है। इसी कारण गौतम बुद्ध ने कहा, ‘उसने मुझे गाली दी, उसने मुझे मारा, उसने मुझे हराया, उसने मुझे लूटा, इस प्रकार की बातों को जो व्यक्ति गाँठ बाँधकर नहीं रखते उनका बैर शान्त हो जाता है-
अक्कोच्छि मं अवधि मं अजिनि मं अहासि मे।
ये तं न उपनय्हन्ति वेरं तेसूपसम्मति।।(धम्मपद,1/ 4)
इस प्रकार क्रोध मन की गाँठों को बाँधता है, प्रतिकार की भावना, कठोरता, दयाहीनता एवं हिंसा आदि प्रवृत्तियों को विकसित करता है। क्षमा मन की गाँठों को खोलती है तथा दया, सहानुभूति, सन्तोष, उदारता, प्रेम, मानशून्यता एवं वैराग्य की प्रवृत्तियों को विकसित करती है। सहनशक्ति क्षमा की धुरी है। आधुनिक युग में भारत में अरविन्द ने इसका आख्यान किया तथा गांधीजी ने सामाजिक जीवन में इसका प्रयोग किया। अरविन्द ने सविनय-अवज्ञा-आन्दोलन के सन्दर्भ में कहा-‘दमन की वेदनाओं को सहन करो।’ अहिंसा की शक्ति का प्रतिपादन करते हुए महात्मा गांधी ने कहा कि सच्ची अहिंसा भय से नहीं, प्रेम से जन्म लेती है ; निःसहायता से नहीं, सामर्थ्य से उत्पन्न होती है। जिस सहिष्णुता में क्रोध नहीं, द्वेष नहीं, निःसहायता का भाव नहीं, उसके समक्ष बड़ी से बड़ी शक्तियों को भी झुकना पड़ेगा।
क्षमा की कई कोटियाँ, अनेक रूप एवं प्रकार हैं। ‘उत्तम क्षमा’ मन की सहज प्रवृत्ति है। जब हम व्यक्तिगत रागद्वेष की सीमाओं से ऊपर उठ जाते हैं तथा संसार के सभी प्राणियों के प्रति मैत्री-भाव एवं आत्म-तुल्यता की प्रतीति करने लगते हैं तो क्षमा का भाव हमारे जीवन का सहज अंग बन जाता है। मध्य कोटि की क्षमा वह होती है जहाँ हम आत्मतुल्यता की भावना से प्रेरित होकर नहीं अपितु उपेक्षा-भाव से प्रेरित होकर दूसरों को क्षमा करते हैं। जब हम मन की सहज भावना से नहीं अपितु किसी स्वार्थ से प्रेरित होकर अथवा भय की भावना के कारण क्षमा का प्रदर्शन करते हैं अथवा क्रोधित नहीं होते तो इस प्रकार की क्षमा अधम कोटि की क्षमा है। वस्तुतः यह क्षमा नहीं, कायरता है।
हमें यह प्रयास करना होगा जिससे क्षमा की वृत्ति हमारी मानसिकता का एक अभिन्न अंग बन सके। क्षमा वृत्ति के विकास में जैन दर्शन की प्रांसगिकता उल्लेखनीय है। जैन दर्शन यह स्वीकार करता है कि प्रत्येक द्रव्य स्वतन्त्र है, उसके गुण और पर्याय भी स्वतन्त्र हैं। विवक्षित किसी एक द्रव्य तथा उसके गुणों एवं पर्यायों का अन्य द्रव्य या उसके गुणों और पर्यायों के साथ कोई अभिन्न सम्बन्ध नहीं है। प्राणीमात्र आत्मतुल्य है। स्वरूप की दृष्टि से सभी आत्माएँ समान हैं। अस्तित्व की दृष्टि से प्रत्येक आत्मा स्वतन्त्र है। प्रत्येक जीव अपने ही कारण से संसारी बना है और अपने ही कारण से मुक्त होगा। आत्मा अपने स्वयं के उपार्जित कर्मो से बँधती है। आत्मा का दुःख स्वकृत है। व्यक्ति अपने ही प्रयास से उच्चतम विकास भी कर सकता है। आत्मा सर्व कर्मो का नाश कर सिद्ध पद प्राप्त करने की क्षमता रखती है। इस प्रकार प्रत्येक व्यक्ति अपने ही बल पर उच्चतम विकास कर सकता है। प्रत्येक आत्मा अपने बल पर परमात्मा बन सकती है। अपने विकास में तत्त्वतः कोई दूसरा बाधक नहीं हो सकता। हमारे कर्म ही इसके लिए उत्तरदायी हैं। इस प्रकार के बोध एवं ज्ञान के कारण हमारे मन में प्रत्येक प्राणी के प्रति क्षमा का भाव सहज ही विकसित हो जाता है।
सामाजिक जीवन के लिए क्षमावृत्ति अनिवार्य है। क्रोध से क्रोध उपजता है। यह चक्र सामाजिक सापेक्षता की भावना को समाप्त कर देता है। सामाजिक सद्भाव एवं पारस्परिक बन्धुत्व की भावना के लिए क्षमावृत्ति अनिवार्य है। इससे व्यक्ति धार्मिक बनता है, शान्त-चित एवं विवेकशील होकर विचार करने एवं कार्य करने में समर्थ होता है। क्षमा याचना के आधार पर वह समाज के अन्य सदस्यों के प्रति अपनी प्रेम-भावना का विकास करता है, उसके जीवन में आस्था और विश्वास का संचार होता है, आत्मतुल्यता की दृष्टि का विस्तार होता है।
खामेमि सव्वेजीवा, सव्वे जीवा खमन्तु मे। मेत्ती मे सव्वभूएसु, वेरं मज्झं न केणइ।। ( मैं समस्त जीवों से क्षमा याचना करता हूँ। समस्त जीव मुझे क्षमा प्रदान करने की अनुकम्पा करें। मेरी समस्त जीवों के प्रति मैत्री है। मेरा किसी के प्रति वैर-भाव नहीं है। |
सव्वस्स जीवरासिस्स, भावओ धम्मनिहिअचित्तो। सव्वे खमावइत्ता, खमामि सव्वस्स अहयं पि।। धर्म में स्थिर चित्त होकर मैं भावपूर्ण समस्त जीवों से अपने अपराधों के लिए क्षमा याचना करता हूँ और उनके समस्त अपराधों को मैं भी क्षमा करता हूँ। |
- क्रमशः अगले अध्याय में जारी...
प्रेरणाप्रद रचना.
जवाब देंहटाएंमै सब को क्षमा करता हू सब से क्षम प्रार्थी हू
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