सिन्धी कहानी बिजली कौंध उठी मूल: माया राही अनुवाद: देवी नगरानी संजय खफ़ा होकर ब्रीफ़केस से लैच की चाबी ढूँढ़ने की कोशिश करने लगा। सुबह लॉक ब...
सिन्धी कहानी बिजली कौंध उठी
मूल: माया राही
अनुवाद: देवी नगरानी
संजय खफ़ा होकर ब्रीफ़केस से लैच की चाबी ढूँढ़ने की कोशिश करने लगा। सुबह लॉक बन्द करने के बाद वह हर रोज चाबी संभाल कर ब्रीफ़केस में रखता था। मगर सारे दिन में न जाने कितनी बार वह बैग खोलता, काग़ज़ रखता, निकालता और इसी गड़बड़ी की वजह से हर शाम उसे चाबी ढूँढ़नी पड़ती थी और वह मन ही मन बुदबुदाता - ‘कितना उनमें खो गई हो माता, अब तो मिल भी जाओ...।’
उसके हाथ काग़ज़ टटोलते करते रहे और वह मन ही मन में सोचने लगा - ‘वह वक़्त कितना अच्छा था, जब औरत घर में बैठकर मर्द के लौटने का इन्तज़ार करती, आँखें दर पर बिछाए आने की राह देखती। कभी घड़ियाल पर अपनी नज़र धरे रहती, दस मिनट घर में देर से पहुँचने पर प्यार से कह उठती - ‘कितनी देर कर दी, ऑफ़िस में काम ज़्यादा था क्या ?’
‘मिल गई’ उसकी उँगलियों ने कागज़ों के ढेर के बीच से चाबी ढूँढ निकाली। लैच खोलकर घर में पाँव धरा तो कुकर की सीटियों ने उसका स्वागत किया। नीलू काम से लौट आई है और घर के काम में जुट गई है।
आज का कलचर यही है कि हर सदस्य के पास अपनी चाबी हो। अगर घर पर कोई है तो भी उसे समय नहीं कि वह दरवाज़ा खोले और आने वाले का हँसकर स्वागत करे। हालत यह बनी है कि कौन घर के बाहर है, कौन भीतर, कौन किस वक़्त आता है, किस वक़्त जाता है, कहाँ जाता है, कहाँ से आता है किसी को कुछ पता नहीं रहता।
ब्रीफ़केस कैबिनिट पर रखकर वह रसोईघर में पानी पीने गया। ‘आ गए’- नीलू ने टेबल पर प्लेट, कटोरियाँ, चम्मच रखते हुए कहा। फ़्रिज से ठंडे पानी की बोतल निकालकर संजय कुर्सी पर बैठा। नीलू की ओर देखते हुए लगा कि वह सुबह वाली साड़ी में ही थी, शायद उसे बदलने का वक़्त ही नहीं मिला होगा। नीलू के साथ ही खाने में मदद करने वाली संगीता घर में प्रवेश करती, जो भाजी काटकर फिर रोटियाँ बनाकर रख देती और नीलू आते ही रात की मनचाही भाजी कुकर में बनाने रखती। हाँ, दूसरे दिन दोपहर के खाने के लिये भी भाजी रात को ही बनाती। क्योंकि सुबह सात बजे दोनो पति-पत्नी घर से रवाना हो जाते
हैं। पहले नीलू सुबह पाँच बजे उठकर भाजी-रोटी बनाती, तीन टिफ़िन पैक करती, दो बेगाने पंछियों के लिये और तीसरा बाबा का !
‘अरे नीलू बाबा कहाँ है ? नज़र नहीं आ रहे ?’
‘जाने कहाँ है !’
‘तुम कितने बजे घर आई ?’
‘घंटा भर हो गया है मुझे घर आए।’
‘तो फिर बाबा गए कहाँ ?’
‘यह बात आज की तो नहीं है। रोज़ तुम्हारे आने के दस मिनट पहले आ जाते हैं।’
‘तूने पूछा नहीं, कहाँ जा रहे हैं ?’
‘नही।’
उसी वक़्त बाबा घर में दाख़िल हुए।
‘बाबा बहुत देर कर दी, कहाँ गए थे आप ?’
‘दोस्त के पास’ और बाबा सीधे अपने कमरे में चले। नीलू ने खाना टेबल पर रखा तो बाबा भी हाथ धोकर आए और कुर्सी पर बैठ गए। खाना खाकर नीलू रसोईघर को समेटने में लग गई। घर के काम के लिये कितनी भी कामवालियाँ रखो, पर अपना हाथ अपना होता है।
संजय बाबा के साथ बाहर हॉल में आकर बैठा। रोज़ की तरह उसने रिमोट हाथ में लिया, फिर न जाने क्यों वापस रख दिया। बाबा ने सवाली निगाहों से संजय की ओर देखा !
‘बाबा। ’
‘कहो।‘
‘आप एक काम करेंगे.... ?’
बाबा चुपचाप बेटे की तरफ़ देखते रहे।
‘मैं आपको एक डायरी दे रहा हूँ, आप रोज़ जहाँ कहीं भी जाएँ, मेहरबानी करके उस डायरी में लिख जाएँ, और... !’
‘तुम्हारा दिमाग़ तो ख़राब नहीं हुआ है ?’ बाबा जोश में आ गए।
‘अब मैं कहीं भी जाऊँ तो डायरी में लिखकर जाऊँ, क्यों ?’
‘न सिर्फ़ डायरी में लिखें, पर हो सके तो वहाँ का फ़ोन नम्बर भी लिखें।’
‘यह लो कर लो बात। इस उम्र में बैठकर डायरी लिखूँ कि कहाँ जा रहा हूँ ? ‘और यह भी लिखकर जाइये कि आप कब तक लौटेंगे।‘
‘ये अच्छी बंदिश हो गई मेरे लिये। इसका मतलब यह है कि अब मैं कहीं भी अपनी मरज़ी से आ-जा नहीं सकता ? क्या मैं कोई चोर हूँ ?’
‘बाबा आज आप इतनी देर से आए। कुछ दिनों से रोज़ देर से आ रहे हैं, हमें भी तो पता होना चाहिये कि आप कहाँ जाते हैं, किसके पास जाते हैं, और कब लौटेंगे ?’
‘दोस्त के पास जाऊँगा, बातों में कितना वक़्त लगेगा, कैसे पता पड़े ? और मैं लौटने का वक़्त लिखकर जाऊँ, यानि दोस्त के पास बैठूँ तो यही ध्यान रहे कि कब लौटना है ? मुझसे यह सब नहीं होगा।’
‘पर डाइरी में नोट करने में वक़्त ही कितना लगेगा?’
‘तुम पागल तो नहीं हो गए हो। अब मुझपर इतनी पाबंदियाँ लगाओगे ?’
‘कहाँ जाता हूँ ? किसके पास जाता हूँ, वहाँ का फ़ोन नम्बर, बैठकर सारा इतिहास लिखूँ। वैसे भी खाने के वक़्त तक तो लौट आता हूँ। मैं तुम्हें और कौन-सी तक़लीफ़ देता हूँ ?’
‘ठीक है, ये सब आपसे नहीं होता तो एक काम करें, मेरा कार्ड अपने साथ ले जाएँ, क्या यह भी आपसे नहीं होगा ?’ कहते हुए संजय ने उठकर ब्रीफ़केस से एक कार्ड निकालकर बाबा को दिया। ‘क्या मैं पागल हो गया हूँ कि अपने साथ बेटे का कार्ड लिये फिरूं, और अब यह भी तो सुनूँ कि यह सब तुम मुझे करने के लिये क्यों कह रहे हो ?’
बाबा को किसी भी बात पर राज़ी न होते देखकर संजय तैश में आ गया। वैसे भी बाप-बेटे की रोज की यह ‘तू-तू, मैं-मैं’ का तमाशा चलता रहता था। पर आज तो हद हो गई। संजय ख़ुद पर संयम न रख पाया और ज़ोर से चिल्लाकर कहने लगा - ‘आपको अगर कहीं कुछ हो जाए तो कम से कम लाश तो मिलेगी अग्निसंस्कार करने केलिये !’
‘क्या कहा, मेरी लाश? अग्निसंस्कार!’
बाबा को लगा जैसे ज़ोरदार बिजली कड़ककर चमक उठी। उसकी आँखें फटी की फटी रह गयीं और कार्ड हाथ से गिर पड़ा।
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