स्वामी विवेकानन्दः मानव-सेवा एवं सर्वधर्म समभाव प्रोफेसर महावीर सरन जैन स्वामी विवेकानन्द को ठीक तरह से समझने के लिए रामकृष्ण परमहंस को सम्य...
स्वामी विवेकानन्दः मानव-सेवा एवं सर्वधर्म समभाव
प्रोफेसर महावीर सरन जैन
स्वामी विवेकानन्द को ठीक तरह से समझने के लिए रामकृष्ण परमहंस को सम्यक् रूप से आत्मसात करना जरूरी है। इसी के साथ जब हम रामकृष्ण परमहंस को जानना चाहते हैं तब यह बोध होता है कि उन्हें भारतीय अध्यात्म परम्परा की पृष्ठभूमि में ही पहचाना जा सकता है। इसी को कुछ विद्वानों ने यह कहकर व्यक्त किया है कि “रामकृष्ण परमहंस को समझना है तो चैतन्य महाप्रभु को समझना होगा और विवेकानन्द को समझना है तो रामकृष्ण परमहंस को समझना होगा”।
रामकृष्ण परमहंस भारतीय साधना के प्रतीक योगी हैं। वे भारतीय अध्यात्म परम्परा के आधुनिक-काल के प्रतिनिधि हैं। दिनकर उन्हें “धर्म के जीते जागते स्वरूप” मानते हैं। उनकी जीवनलीला के विविध विचित्र प्रसंगों को पढ़कर अद्भुत आनंद की प्राप्ति होती है। जैसे गीता में भगवान श्री कृष्ण के विराट रूप को देखकर अर्जुन को विचित्र व्यापक अनुभूति हुई होगी, वैसी ही अनुभूति हमें श्री रामकृष्ण परमहंस के लीला प्रसंगों को पढ़कर होती है।
भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू ने स्वामी विवेकानन्द के व्यक्तित्व पर विचार करते हुए उसकी पीठिका के रूप में रामकृष्ण परमहंस का उल्लेख किया है। पं. नेहरू के शब्द अत्यंत सारगर्भित हैं –
“वे चैतन्य की परम्परा के संत थे। उन्होंने मुस्लिम, ईसाई और हिन्दू साधना पद्धतियों का अवलम्बन कर, सत्य की खोज की। वे सीधा सादा जीवन व्यतीत करते थे। उनके व्यक्तित्व से प्रभावित होकर नरेंद्र विवेकानन्द बने”।
चैतन्य ने भक्ति की भावप्रवण धारा प्रवाहित की। वेदांती उन्हें अपनी परम्परा के अंतर्गत अचिंत्य-भेदाभेदवाद के आचार्य के रूप में प्रतिष्ठित करते हैं। मगर स्वयं चैतन्य शास्त्रज्ञान को अपने हाथों में लेकर आगे नहीं बढ़े। उन्होंने स्वयं आचार्य का गौरव पाने के लिए प्रस्थानत्री (उपनिषद, ब्रह्मसूत्र, गीता) पर भाष्य नहीं लिखे। उनको अपनी बात को प्रमाणित करने के लिए “नाना पुराण निगमागम सम्मत” कहने की आवश्यकता नहीं पड़ी। उनकी भक्ति की भावप्रवण धारा में अवगाहन करने के लिए शास्त्रों में पारंगत होना जरूरी नहीं, शास्त्रों को पढ़ने की भी प्रासंगिकता नहीं। उसके लिए तो हृदय का द्रवित होना अनिवार्य शर्त है। हृदय का पिघलना जरूरी है। हृदय की भावप्रवणता जरूरी है। भावप्रवणता की ऐसी तेज धारा में बहना जरूरी है, जिसके वेग में सब कुछ बह जाता है – मन की सारी कल्मषताएँ और समाज की सारी विषमताएँ। ऊँच-नीच की, जाँति-पाँति की, अमीर-गरीब की सारी दिवारें ध्वस्त हो जाती हैं। चैतन्य महाप्रभु कीर्तन करते करते ऐसी भाव-समाधि में लीन हो जाते थे कि उस स्थिति में न कोई अपना रह जाता था और न कोई पराया। उन्हें किसी अन्य का कोई भान नहीं रह जाता था। उन्हें अपने शरीर का भी कोई भान नहीं रह जाता था। उस स्थिति में क्या शेष रह जाता था। इसका उत्तर है – एकात्मता की अनुभूति। यह पढ़ने की या बाँचने की नहीं; अनुभूत करने की साधना है।
चैतन्य महाप्रभु के सदृश्य रामकृष्ण परमहंस की भी जीवनलीला भावप्रवणता के अतिरेक की है। यदि चैतन्य को कीर्तन में अद्भुत एकात्मता की अनुभूति होती थी तो रामकृष्ण को अपनी आराध्या आद्या-शक्ति से निरंतर ऐसे आत्मीय अंतरंग सम्बंध की अनुभूति होती थी, जहाँ उपास्य और उपासक में कोई भेद नहीं रह जाता। शास्त्र-ज्ञान की उपयोगिता साधक को साधना के मार्ग का बोध कराने में है जिस पर चलकर वह मंजिल तक पहुँच सके। यदि कोई साधक सीधे मंजिल तक पहुँच जाए तो फिर शास्त्र-ज्ञान की क्या प्रासंगिकता। मध्य युग में नाथ एवं संत साधकों ने इस रहस्य को जाना था; पहचाना था। रामकृष्ण भी ऐसे ही साधक थे। सभी धर्मों के मूल तत्त्वों को उन्होंने अपने जीवन में साकार किया। वे क्रमशः वैष्णव, शैव, शाक्त, अद्वैतवादी, तांत्रिक, मुसलमान तथा ईसाई बने। उन्होंने इन विभिन्न धर्मों एवं साधनाओं के मूल तत्त्वों को किसी किताब से पढ़ने पर जोर नहीं दिया। उन्होंने उन्हें अपने जीवन में साधा। उन्हें अनुभूत किया। वैष्णव परिवार में जन्म, माँ काली मंदिर के अनन्य एवं अप्रतिम पुजारी तथा भैरवी माँ से तंत्र साधना, महात्मा तोतापुरी से अद्वैत साधना, गोविंद राय से इस्लामी साधना तथा शम्भूचरण मल्लिक से ईसाइयत साधना में दीक्षित होकर रामकृष्ण ने निम्न निष्कर्ष निकालेः
1. धर्म मुँह से कहने की चीज़ नही है। यह आचरण में उतारने की साधना है।
2. सभी धर्म एवं साधना-पद्धतियाँ एक ही ईश्वर या शक्ति या सत्य की उपलब्धि के रास्ते हैं। विभिन्न धर्मों का अवलम्बन करने के कारण, वे सर्वधर्म समभाव की सहज प्रतीति कर सके।
शास्त्रों का विधिवत अध्ययन किए बिना ही उनका परमतत्त्व से सीधा नाता जुड़ गया। उनका धर्म गहरा आनन्द था। उनकी पूजा समाधि। शास्त्रीय ज्ञान के अभ्यासी रामकृष्ण परमहंस के जीवन लीला के विभिन्न प्रसंगों की तर्क-संगत व्याख्या नहीं कर पाते, उनको समझ नहीं पाते; उनका आकलन नहीं कर पाते। उन्होंने अपने मन को सहज साधना से साध लिया था। अपने चित्त को निष्कलुष बना लिया था। यदि कभी मन विचलित होता तो समाधिस्थ हो जाते। कंचन-कामिनी से वे कभी भावित नहीं हुए। उनके लिए सभी स्त्रियाँ जगदम्बा के ही अंश थे। दक्षिणेश्वर की काली की मूर्ति तो उनकी माँ थी हीं, अपनी पत्नी शारदा में भी वे माँ के ही दर्शन करते थे। शारदा देवी जो सुहागिन होकर भी दाम्पत्य विहीन थीं, गृहस्थिन होकर भी संयासिनी थीं तथा मातृत्व विहीन होकर भी जगन्माता थीं। एक प्रसंग आता है। शारदा मंदिर में रहने के लिए आ जाती हैं। एक दिन जब वे रामकृष्ण के पैर दबा रही थीं तो रामकृष्ण के मन से जो शब्द निकले वे इसके सहज प्रमाण हैं कि वे प्रत्येक स्त्री में माँ के ही दर्शन करते थेः ” जो माता उस काली मंदिर में है, वही इस शरीर को जन्म देकर नौबतखाने में निवास करती है और वही यहाँ पर इस समय मेरे पैर दबा रही है”। ऐसे प्रसंगों को शास्त्र-ज्ञान या तर्क-बुद्धि से नहीं समझा जा सकता। इसके लिए एकात्म की अनुभूतिगम्यता की स्थिति में पहुँचना होता है।
रामकृष्ण एवं नरेन्द्र का मिलनः
रामकृष्ण विश्वास, आस्था एवं निष्ठा के अथाह शीतल-सागर थे। नरेंद्रनाथ संशय, दुबिधा, तर्क, विज्ञ एवं मेधा की प्रचंड धधकती ज्वालाएँ। नरेंद्रनाथ दत्त और रामकृष्ण का मिलन ऐतिहासिक घटना है। नरेंद्रनाथ दत्त जैसा बौद्धिक प्रतिभा का धनी एवं प्रचंड तर्कों के लिए विख्यात नास्तिक युवक रामकृष्ण के पास जाकर उनको ललकारता हुआ प्रश्न करता हैः “क्या तुम मुझे ईश्वर के दर्शन करा सकते हो”।
आत्मविश्वास से आपूरित रामकृष्ण का स्वीकारात्मक उत्तर मिलता है। रामकृष्ण के सीधे-सादे एवं नपे-तुले शब्दों को सुनकर तथा उनके सरल-निष्कपट व्यवहार को देखकर नरेंद्र का चित्त पिघलने लगता है। नरेंद्रनाथ दत्त का रामकृष्ण से अनेक दिन संवाद चलता है। रामकृष्ण नरेंद्रनाथ दत्त को माँ के दर्शन कराते हैं। अचानक जो घटित होता है, उसको किसी तर्क से नहीं समझा जा सकता। उसकी किसी शास्त्र-ज्ञान से मीमांसा नहीं की जा सकती। शक्तिपात के बारे में शास्त्रों में उल्लेख तो मिलते हैं। मगर आधुनिक काल का तार्किक मानस उस पर विश्वास करने को तैयार न होता था। जब नरेंद्र के जीवन में यह घटित होता है तब सारे संशयों, सारे द्वंदों, सारी आशंकाओं, सारी दुबिधाओं तथा सारी उलझनों के आगे पूर्ण विराम लग जाता है। नरेंद्रनाथ दत्त तिरोहित हो जाते हैं और उनके स्थान पर विवेकानंद का अभ्युदय होता है और विवेकानन्द के रूप में भारत की सुषुप्त चेतना जागृत होती है। नए भारत का जन्म होता है। इस मिलन की परिणति का गहरा अर्थ है। उस प्रतीकार्थ को समझना जरूरी है। अर्थ है - तर्क और बुद्धि का आस्था और विश्वास के आगे सिर झुकाना। प्रतीकार्थ है – तर्क के स्थान पर विवेक को तथा बुद्धिगत भटकावों के स्थान पर आनन्द को अंगीकार करना।
रामकृष्ण परमहंस एवं स्वामी विवेकानन्दः
रामकृष्ण परमहंस एवं स्वामी विवेकानन्द को विचारक एक ही सत्य के दो पक्ष मानते हैं। इस मान्यता में सत्यांश तो है, मगर यह पूर्ण सत्य नहीं है। दोनों की तुलना ही करनी है तो मुझे स्वामी निर्वेदानन्द का मत अधिक संगत प्रतीत होता हैः “ रामकृष्ण की जटाओं रूपी वैयक्तिक समाधि के कमंडलु में धर्म की गंगा बंद थी। विवेकानन्द ने भगीरथ की तरह धर्म-गंगा को रामकृष्ण के कमंडलु से निकालकर सारे संसार में फैला दिया”। इसी को इस तरह आगे बढ़ाया जा सकता है कि दोनों अलग-अलग रास्तों पर चले। ये रास्ते उसी प्रकार अलग थे जिस प्रकार बौद्ध धर्म के अर्हत्-यान अथवा श्रावक-यान एवं बुद्ध-यान अलग थे जो बाद में हीनयान एवं महायान के भेद के रूप में जाने गए। एक का लक्ष्य था – अपनी मुक्ति। दूसरे का लक्ष्य था – असंख्य जीवों का कल्याण।
चैतन्य एवं रामकृष्ण भक्त की भक्ति के प्रतिमान हैं। विवेकानन्द का महत्व अथवा उनका प्रदेय निम्न कारणों से अधिक हैः
(1) व्यावहारिक जीवन की समस्याओं का समाधान करना तथा समसामयिक दृष्टि से पराधीन भारत के सुषुप्त मानस में आत्म गौरव एवं आत्म विश्वास का मंत्र फूँककर उनको कर्म-पथ पर आगे बढ़ने की प्रेरणा देना।
(2) मंदिर में विराजमान मूर्तियों की पूजा एवं उनको भोग चढ़ाने की अपेक्षा जीते-जागते इंसान की सेवा को महत्व प्रदान करना।
(3) सर्व धर्म समभाव का प्रतिपादन करना।
समकालीन भारत की समस्याओं का समाधान एवं कर्म-पथ पर आगे बढ़ने का आवाहनः
विवेकानन्द का प्रदेय समकालीन भारतीय परिस्थितियों के समाधान की दृष्टि से भी कम नहीं है। विवेकानन्द की धर्म-चेतना केवल व्यक्ति के निजी कल्याण तक सीमित नहीं है। उनकी धर्म-चेतना सामाजिक सरोकारों के प्रति सजग भी है और सचेष्ट भी।
सन् 1893 में शिकागो के विश्व धर्म सम्मेलन में उनके व्याख्यान ने विश्व- मानस को कितना प्रभावित किया – इसका वैज्ञानिक पद्धति पर अवलम्बित अध्ययन प्रस्तुत करना तो दुष्कर है मगर इस पर सब एकमत हैं कि उनके व्याख्यान को सुनकर जहाँ पश्चिम जगत भारत की अध्यात्म चेतना की श्रेष्ठता का कायल हो गया वहीं उसने भारतीयों में नई प्राण चेतना का संचार किया। इस दृष्टि से महर्षि अरविंद का यह कथन द्रष्टव्य है –
“पश्चिमी जगत में विवेकानन्द को जो सफलता मिली वह इस बात का प्रमाण है कि भारत केवल मृत्यु से बचने को ही नहीं जगा है वरन् वह विश्व-विजय करके दम लेगा”।
विवेकानन्द ने व्यावहारिक दृष्टि से भारत की जनता को सचेत कियाः “सभी मरेंगे- साधु या असाधु, धनी या दरिद्र- सभी मरेंगे। चिर काल तक किसी का शरीर नहीं रहेगा। अतएव उठो, जागो और संपूर्ण रूप से निष्कपट हो जाओ। भारत में घोर कपट समा गया है। चाहिए चरित्र। चाहिए चरित्र का ऐसा बल और मन की ऐसी दृढ़ता जिससे मनुष्य आजीवन दृढ़व्रति बन सके”।
“उठो, जागो, और जब तक ध्येय की प्राप्ति नहीं हो जाती – तब तक रुको मत”।
वाद-विवाद की, शास्त्रार्थ की जरूरत नहीं है। जरूरत है – कर्म-पथ पर आगे बढ़ने की, बढ़ते जाने कीः
“तुम लोग कमर कसकर कार्य में जुट जाओ, हुंकार मात्र से हम दुनिया को पलट देंगे। अभी तो केवल मात्र प्रारम्भ ही है। किसी के साथ विवाद न करो। मिल-जुलकर आगे बढ़ो”।
“जो केवल अपने ही उद्धार में लगे हुए हैं, वे न तो अपना उद्धार कर सकेंगे और न दूसरों का। - - - - कुछ लोग ऐसे हैं जो केवल दूसरों की त्रुटियों को देखने के लिए तैयार बैठे रहते हैं। जब कार्य करने का समय आता है तो उनका पता नही चलता। तुम काम में जुट जाओ। अपनी शक्ति के अनुसार आगे बढ़ो”।
“मुक्ति उसी के लिए है, जो दूसरों के लिए सब कुछ त्याग देता है। और दूसरे, जो दिन-रात मेरी मुक्ति, मेरी मुक्ति कहकर माथा-पच्ची करते रहते हैं, वे वर्तमान और भविष्य में होने वाले अपने सच्चे कल्याण की सम्भावना को नष्ट कर यत्र-तत्र भटकते फिरते हैं। मैंने स्वयं अपनी आँखों ऐसा अनेक बार देखा है”।
साधक को साधना पथ पर आगे बढ़ने के लिए क्या करणीय है। विवेकानन्द का उत्तर हैः
“मन का विकास करो और उसका संयम करो, उसके बाद जहाँ इच्छा हो, वहाँ इसका प्रयोग करो–उससे अति शीघ्र फल प्राप्ति होगी। यह है यथार्थ आत्मोन्नति का उपाय। एकाग्रता सीखो, और जिस ओर इच्छा हो, उसका प्रयोग करो। ऐसा करने पर तुम्हें कुछ खोना नहीं पड़ेगा”।
साधना पथ में कभी-कभी बाधाएँ आती हैं। मन डाँवाडोल हो जाता है। विवेकानन्द ऐसे साधकों को प्रबुद्ध करते हैं :
“किसी बात से तुम उदास एवं निराश मत होओ। जीवन के अंतिम क्षण तक डरो मत। सिंह की शूरता और पुष्प की कोमलता के सदृश्य काम करते रहो”।
“लोग चाहे तुम्हारी स्तुति करें या निन्दा, लक्ष्मी तुम्हारे ऊपर कृपालु हो या न हो, तुम्हारा देहान्त आज हो या एक युग के बाद – इन सबसे निर्लिप्त तुम न्यायपथ से कभी विचलित न हो”।
“अच्छे कर्मों में कितने ही विघ्न आते हैं। विघ्नों के बीच ही कल्याण का रास्ता भी निकलता है। कोई संशय मत पालो। कोई चिन्ता न करो। शत्रुओं से मत घबराओं। अपना काम करते जाओ”।
“वीरता से आगे बढो। एक दिन या एक साल में सिद्धि की आशा न रखो। उच्चतम आदर्श पर दृढ़ रहो। स्थिर रहो। स्वार्थपरता और ईर्ष्या से बचो। आज्ञा-पालन करो। सत्य, मनुष्य-जाति और अपने देश के पक्ष पर सदा के लिए अटल रहो। व्यक्ति और उसका जीवन ही शक्ति का स्रोत है। इसके सिवाय अन्य कुछ भी नहीं”।
“परोपकार का काम करना बच्चों का खेल नहीं है। श्रेष्ठ आदमी वे हैं जो अपने हृदय-रुधिर से दूसरों के लिए रास्ता तैयार करते हैं। एक आदमी सेतु निर्माण के लिए अपना जीवन भी दाव पर लगा देता है। हज़ारों आदमी उसके ऊपर से नदी पार करते हैं”।
“लोगों या समाज की बातों पर ध्यान न देकर, एकाग्र मन से अपना कार्य करते रहो। क्या तुमने नहीं सुना। कबीरदास का दोहा है- "हाथी चले बाजार में, कुत्ता भोंके हजार। साधुन को दुर्भाव नहिं, जो निन्दे संसार"। हम सबको भी ऐसे ही चलना है। दुनिया के लोगों की बातों पर ध्यान नहीं देना होगा। उनकी भली बुरी बातों को सुनने से जीवन में किसी प्रकार का महान कार्य करना सम्भव न होगा”।
विवेकानन्द की वाणी निराश, मायूस, हताश, भग्नाश आदमी के मन में आशा, विश्वास एवं उत्साह के भाव वपन करती है, उसमें अदम्य साहस पैदा करती है तथा साधनविहीन होते हुए भी अपने लक्ष्य को पाने के लिए आगे बढ़ने की अजेय प्रेरणा प्रदान करती है। यह कहा जा सकता है कि विवेकानन्द के कारण गुलामी की जंजीरों से जकड़े भारत को आत्म-आस्था के प्रदीप के आलोक में अपनी स्वतंत्रता-प्राप्ति के लक्ष्य तक पहुँचने के लिए रास्ता मिला तथा उस रास्ते पर कदम बढ़ाने के लिए अपार प्रेरणा प्राप्त हुई।
मानव सेवाः
प्राचीन काल में भगवान महावीर ने अहिंसा के सूत्र से तथा गौतम बुद्ध ने करुणा के सूत्र से प्राणी-मात्र के कल्याण का रास्ता खोजा था। आधुनिक काल की उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध से बीसवीं शताब्दी के उदय की कालसीमा में विवेकानन्द ने “मानव-देह ही सर्वश्रेष्ठ देह है एवं मनुष्य ही सर्वोच्च प्राणी है” का मर्म जाना तथा वेदांत दर्शन की परात्पर परब्रह्म की अवधारणा के सूत्र से यह खोज कीः
“प्रत्येक मनुष्य ब्रह्म-स्वरूप है। प्रत्येक मनुष्य की सेवा करना ब्रह्म की ही आराधना है। प्रत्येक मनुष्य ब्रह्म का जीता जागता स्वरूप है। अपनी मुक्ति तक सीमित हो जाना स्वार्थ है। जब कोई मनुष्य भूखा-प्यासा हो या बीमार, रूग्ण, असहाय, लाचार एवं निरुपाय हो तब उसकी सेवा करना छोड़कर पत्थर की मूर्ति को भोग लगाना पाप है”।
संयासी का क्या धर्म है। उत्तर हैः
“संन्यासी का धर्म है समस्त संसार के हित के लिए निरंतर कर्म करना”।
यह विवेकानन्द के दर्शन का, उनकी साधना का, उनकी जीवन दृष्टि का सार है। उनका रामकृष्ण मिशन मनुष्य मात्र की सेवा का मिशन है। प्राचीन काल की साधना का प्रतिमान मोक्ष-प्राप्ति था। मध्य युग की साधना का प्रतिमान भक्ति था। विवेकानन्द ने मानव-सेवा का प्रतिमान स्थापित किया। सर्वधर्म समभाव की आधार भूमि पर खड़े होकर उन्होंने मनुष्य के पुरुषार्थ को जगाया तथा मानव-सेवा को धर्म का पर्याय बना दिया।
“परब्रह्म सभी जीवों के योग अधिक नहीं है। मानव-बंधुओं की सेवा करना सच्ची ईश्वरोपासना है”।
“प्रत्येक जीवात्मा ईश्वरीय चैतन्य का अंश है- देवी है। उस दिव्यता की अभिव्यक्ति आत्म-दर्शन है। यही मनुष्य जीवन का लक्ष्य है। यही धर्म का रहस्य है। यही धर्म है”।
अपनी आत्मशक्ति के अनुभव के बाद वे अन्य सभी मनुष्यों में उसी शक्ति को पहचानने के लिए प्रेरित करते हैं:
“ईश्वर ही ईश्वर की उपलब्थि कर सकता है। सभी जीवंत ईश्वर हैं – इस भाव से सब को देखो। मनुष्य का अध्ययन करो, मनुष्य ही जीवन्त काव्य है। जगत में जितने ईसा या बुद्ध हुए हैं, सभी उसी ज्योति से आलोकित हैं”।
कन्याकुमारी में उन्हें यह अहसास हुआ कि भूखे व्यक्ति को रोटी चाहिए। उसके लिए धर्म की कोई प्रासंगिकता नहीं है। उसको धर्म का उपदेश देना व्यर्थ है। उनके वचन हैं:
“जो जाति भूख से तड़प रही है, उसके आगे धर्म परोसना उसका अपमान है”।
“जब पड़ौसी भूखा मरता हो तब मंदिर में भोग चढ़ाना पुण्य नहीं; पाप है”।
“वास्तविक शिव की पूजा निर्धन और दरिद्र की पूजा है; रोगी और कमजोर की पूजा है”।
सर्वधर्म समभावः
विवेकानन्द को वेदांत दर्शन की सीमाओं में ही कैद नहीं किया जा सकता। विवेकानन्द को ज्ञान-मार्ग, भक्ति-मार्ग, योग-मार्ग एवं कर्म-मार्ग में से किसी एक मार्ग के अनुयायी के रूप में व्याख्यायित नहीं किया जा सकता। रामकृष्ण के सम्पर्क में आने के पहले एक ओर उन्होंने वेद, उपनिषद, गीता, रामायण, महाभारत, विभिन्न पुराणों आदि हिन्दू धर्म- ग्रंथों का गहन अध्ययन किया तो दूसरी ओर तथ्यवाद एवं समाजशास्त्र के विचारक आगस्त कॉन्त, उत्पत्ति की सर्वसमावेशक अवधारणा के व्याख्याता हरबर्ट स्पेंसर, व्यक्तिगत स्वातंत्र्य की शक्ति एवं उसकी सीमा के मीमांसक जॉन स्टूवर्ट मिल, विकासवाद के सिद्धांत के प्रख्यात जनक चार्ल्स डॉरविन, नैतिक शुद्धता के सिद्धांत के विवेचक जर्मन दार्शनिक इमानुएल कॉट, नव्य-कांटवाद एवं आदर्शवाद के जर्मन-दार्शनिक गॉतिब फिश्ते, अनुभव आधारित वास्तविक ज्ञान-प्राप्ति के समर्थक स्काटलैण्ड के दार्शनिक डेविड ह्यूम, नास्तिक निराशावाद के दर्शन के प्रतिपादक जर्मन दार्शनिक आर्थर शोपेनहॉवर, हेगेलीय दर्शन अथवा निरपेक्ष आदर्शवाद के प्रणेता जॉर्ज विल्हेम फ्रेडरिच हेगल तथा सर्वधर्म निरपेक्षवाद के प्रवर्तक यहूदी मूल के डच दार्शनिक बारूथ स्पिनोज़ा आदि विभिन्न पाश्चात्य दार्शनिकों एवं मनीषियों के ग्रंथों का भी पारायण किया। स्पेंसर के विचारों से वे प्रभावित हुए थे। इसका प्रमाण उनका स्पेंसर से किया गया पत्राचार है। पाश्चात्य दर्शन एवं उसकी वैज्ञानिक दृष्टि के वे प्रबल समर्थक थे तथा भारत की युवा-शक्ति को उन्होंने विषय की विवेचना-पद्धति में इसे अपनाने का आग्रह किया। सत्य के उपासक की दृष्टि उन्मुक्त होती है। अगर कहीं भी अच्छी बात है तो उसको समझने एवं ग्रहण करने का यत्न करना चाहिए। अपनी फरवरी से मार्च 1981 की यात्रा के दौरान अलवर में उन्हें भारतीय इतिहास की विवेचना पद्धति में वैज्ञानिक दृष्टि की कमी का अहसास हुआ तथा उन्होंने भारत के युवाओं को पाश्चात्य वैज्ञानिक पद्धति को अपनाने का आग्रह किया। उनका मत था कि इसके ज्ञान से भारत में युवा हिन्दू इतिहासकारों का ऐसा संगठन तैयार हो सकेगा जो भारत के गौरवपूर्ण अतीत की वैज्ञानिक पद्धति से खोज करने में समर्थ सिद्ध होगा और इससे वास्तविक राष्ट्रीय भावना जागृत हो सकेगी। (देखेः रोमां रोलां : द लॉइफ ऑफ् विवेकानन्द एण्ड दॉ यूनिवर्सल गॉसपॅल, पृष्ठ 23-24, अद्वैत आश्रम (पब्लिशिंग डिपार्टमैण्ट) कलकत्ता- 700 014, पंद्रहवाँ संस्करण (1997))।
रामकृष्ण से जब उनका प्रथम मिलन हुआ, उन्होंने रामकृष्ण को आलोचक की नज़र से देखा। उन्हें ठोक बज़ाकर देखा, परखा, समझा। उनका खूब छिद्रान्वेषण किया। रामकृष्ण की सरलता, अनुभूतिगम्यता तथा निर्भ्रांत मगर सहज भाव से कहा गया यह संदेश कि प्रत्येक नजरिए से, हर दृष्टि से सत्य को पहचानने की कोशिश करो- उनके दिल को छू गई। हर पहलू से सत्य को जानना एवं पहचानना उनका मूल मंत्र बन गया। वे हमेशा गीता एवं द इमिटेशन ऑफ क्राइस्ट की प्रतियाँ अपने साथ रखते थे। वे जहाँ जहाँ गए, वहाँ वहाँ उन्हें जिस धर्म के शास्त्रों को पढ़ने एवं उस धर्म के विद्वानों से उस धर्म के तत्त्व को समझने एवं जानने का अवसर प्राप्त हुआ, उन्होंने उसे सत्य-साधक के रूप में आत्मसात् किया। विवेकानन्द के विचारों की जो विवेचनाएँ हुईं हैं उनमें वेदांत दर्शन एवं बौद्ध दर्शन के उनके गहन अध्ययन की मीमांसाएँ ही अधिक हुईं हैं। यह कम लोगों को पता है कि उन्होंने सन् 1891 में अहमदाबाद में इस्लाम एवं जैन दर्शन का तथा सन् 1892 में गोवा में इसाई धर्म एवं क्रिश्चियन दर्शन का गहन अध्ययन किया था तथा इन सभी धर्मों के तत्त्वों को जाना परखा था। अपनी यात्राओं में उन्होंने विभिन्न जातियों, धर्मों, संस्कृतियों की मान्यताओं, विश्वासों, धारणाओं एवं आचरण-पद्धतियों का समीक्षात्मक अन्वेषण किया। वे उनमें निहित सत्यांशों को अंगीकार करते गए तथा प्रतिगामी मान्यताओं एवं गतिरोधी रूढ़ियों एवं अंध-विश्वासों को विलगाते गए। विवेकानन्द ने अपने सह-यात्री एवं सहगामी साथियों से कहा थाः “ हम लोग केवल इसी भाव का प्रचार नहीं करते कि "दूसरों के धर्म के प्रति कभी द्वेष न करो"; इसके आगे बढ़कर हम सब धर्मों को सत्य समझते हैं और उनको पूर्ण रूप से अंगीकार करते हैं”।
प्रत्येक धर्म के ऋषि, मुनि, पैगम्बर, सन्त, महात्मा आदि धर्म को अपनी जिन्दगी का हिस्सा बनाते हैं, उसके अनुरूप आचरण करते हैं । वे धर्म को ओढ़ते-बिछाते नहीं हैं अपितु जीते हैं। साधना, तप, त्याग आदि दुष्कर हैं । ये भोग से नहीं, संयम से सधते हैं। इस कारण धर्म को आचरण में उतारना सरल कार्य नहीं है । महापुरुष ही सच्ची धर्म-साधना कर पाते हैं । इन महापुरुषों के अनुयायी जब अपने आराध्य साधकों जैसा जीवन नहीं जी पाते तो उनके नाम पर सम्प्रदायों एवं पंथों आदि संगठनों का निर्माण कर, भक्तों के बीच आराध्य की जय-जयकार करके अपने कर्तव्य की इतिश्री मान लेते हैं । अनुयायी साधक नहीं रह जाते, उपदेशक हो जाते हैं । ये धार्मिक व्यक्ति नहीं होते, धर्म के व्याख्याता होते हैं । इनका उद्देश्य धर्म के अनुसार अपना चरित्र निर्मित करना नहीं होता, धर्म का आख्यान मात्र करना होता है । जब इनमें स्वार्थ-लिप्सा का उद्रेक होता है तो ये धर्म-तत्वों की व्याख्या अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए करने लगते हैं।
धर्म की आड़ में अपने स्वार्थों की सिद्धि करने वाले धर्म के दलाल अथवा ठेकेदार अध्यात्म सत्य को भौतिकवादी आवरण से ढकने का बार-बार प्रयास करते हैं । इन्हीं के कारण चित्त की आन्तरिक शुचिता का स्थान बाह्याचार ले लेते हैं । पाखंड बढ़ने लगता है । कदाचार का पोषण होने लगता है । जब धर्म का यथार्थ अमृत तत्व सोने के पात्र में कैद हो जाता है तब शताब्दी में एकाध साधक होते हैं जो धर्म-क्रान्ति करते हैं। धर्म के क्षेत्र में व्याप्त अधार्मिकता एवं साम्प्रदायिकता का प्रहार कर, उसके यथार्थ स्वरूप का उद्घाटन करते हैं । इस परम्परा में ही रामकृष्ण परमहंस एवं विवेकानन्द आते हैं। इस परम्परा के अध्यात्म साधकों के जीवन चरित का अध्ययन करने पर यह सहज बोध होता है कि आत्मस्वरूप का साक्षात्कार अहंकार एवं ममत्व के विस्तार से सम्भव नहीं है। अपने को पहचानने के लिए अन्दर झाँकना होता है, अन्तश्चेतना की गहराइयों में उतरना होता है। धार्मिक व्यक्ति कभी स्वार्थी नहीं हो सकता। आत्म-गवेषक अपनी आत्मा से जब साक्षात्कार करता है तो वह एक को जानकर सब को जान लेता है, पहचान लेता है, सबसे अपनत्व-भाव स्थापित कर लेता है।
विवेकानन्द धार्मिक सामंजस्य एवं सद्भाव के प्रति सदैव सजग दिखाई देते हैं।विवेकानन्द ने बार-बार सभी धर्मों का आदर करने तथा मन की शुद्धि एवं निर्भय होकर प्राणी मात्र से प्रेम करने के रास्ते आगे बढ़ने का संदेश दिया। उनके इन विचारों को आत्मसात करने के लिए उनकी निम्न सूक्तियाँ उद्धरणीय हैं :
“प्राणिमात्र से प्रेम करने का प्रयास करो। बच्चो, तुम्हारे लिए नीतिपरायणता तथा साहस को छोडकर और कोई दूसरा धर्म नहीं। इसके सिवाय और कोई धार्मिक मत-मतान्तर तुम्हारे लिए नहीं है। कायरता, पाप, दुराचरण तथा दुर्बलता तुममें एकदम नहीं रहनी चाहिए, बाक़ी आवश्यकीय वस्तुएँ अपने आप आकर उपस्थित होंगी। उठो तथा सामर्थ्यशाली बनो। कर्म, निरन्तर कर्म; संघर्ष, निरन्तर संघर्ष! पवित्र और निःस्वार्थी बनने की कोशिश करो -- सारा धर्म इसी में है”।
“बच्चों, धर्म का रहस्य आचरण से जाना जा सकता है, व्यर्थ के मतवादों से नहीं। सच्चा बनना तथा सच्चा बर्ताव करना, इसमें ही समग्र धर्म निहित है। जो केवल प्रभु-प्रभु की रट लगाता है, वह नहीं, किन्तु जो उस परम पिता के इच्छानुसार कार्य करता है वही धार्मिक है”।
“सबके सेवक बनो और दूसरों पर शासन करने का तनिक भी प्रयत्न न करो, क्योंकि इससे ईर्ष्या उत्पन्न होगी और इससे हर चीज़ बर्बाद हो जायेगी”।
“सबके साथ मेल से रहो। अहंकार के सब भाव छोड दो और साम्प्रदायिक विचारों को मन में न लाओ। व्यर्थ विवाद महापाप है”।
विवेकानन्द के वास्तविक स्वरूप को जानने के लिए उनके निम्न वचनों को हमेशा याद रखना चाहिएः
“मेरे आदर्श का सार है - मनुष्य जाति को उसके दिव्य स्वरूप का उपदेश देना तथा जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में उसे अभिव्यक्त करने का उपाय बताना”।
“बसन्त की तरह लोगों का हित करना' - यही मेरा धर्म है”।
"मुझे मुक्ति और भक्ति की चाह नहीं। लाखों नरकों में जाना मुझे स्वीकार है, बसन्तवल्लोकहितं चरन्तः- यही मेरा धर्म है”।
“उन पाखण्डी पुरोहितों को, जो सदैव उन्नति के मार्ग में बाधक होते हैं, ठोकरें मारकर निकाल दो, क्योंकि उनका सुधार कभी न होगा, उनके हृदय कभी विशाल न होंगे। उनकी उत्पत्ति तो सैकडों वर्षों के अन्धविश्वासों और अत्याचारों के फलस्वरूप हुई है। पहले पुरोहिती पाखंड को ज़ड-मूल से निकाल फेंको। आओ, मनुष्य बनो”।
अपने विचार एवं दर्शन के समर्थन के लिए उन्होंने योग प्रवर्तक पंतजलि का सूक्ति-वचन उद्धृत कियाः
"जब मनुष्य समस्त अलौकिक दैवी शक्तियों के लोभ का त्याग करता है, तभी उसे धर्म-मेघ नामक समाधि प्राप्त होती है। वह परमात्मा का दर्शन करता है, वह परमात्मा बन जाता है और दूसरों को तदरूप बनने में सहायता करता है। मुझे इसी का प्रचार करना है। जगत में अनेक मतवादों का प्रचार हो चुका है। लाखों पुस्तकें हैं, परन्तु हाय! कोई भी किंचित् अंश में प्रत्यक्ष आचरण नहीं करता”।
“एक महान रहस्य का मैंने पता लगा लिया है -- वह यह कि केवल धर्म की बातें करने वालों से मुझे कुछ भय नहीं है। और जो सत्यद्रष्टा महात्मा हैं, वे कभी किसी से बैर नहीं करते”।
पूरे विश्व में एक ही सत्ता है। एक ही शक्ति है। उस एक सत्ता, एक शक्ति को जब अलग-अलग नामों से पुकारा जाता है तो व्यक्ति को विभिन्न धर्मों, पंथों, सम्प्रदायों, आचरण-पद्धतियों की प्रतीतियाँ होती हैं। अपने-अपने मत को व्यक्त करने के लिए अभिव्यक्ति की विशिष्ट शैलियाँ विकसित हो जाती हैं। अलग-अलग मत अपनी विशिष्ट पारिभाषिक शब्दावली का प्रयोग करने लगते हैं। अपने विशिष्ट ध्वज, विशिष्ट चिन्ह, विशिष्ट प्रतीक बना लेते हैं। इन्हीं कारणों से वे भिन्न-भिन्न नजर आने लगते हैं। विवेकानन्द ने तथाकथित भिन्न धर्मों के बीच अन्तर्निहित एकत्व को पहचाना तथा उसका प्रतिपादन किया। मनुष्य और मनुष्य की एकता ही नहीं अपितु जीव मात्र की एकता का प्रतिपादन किया।
तत्त्वतः आत्मानुसंधान की यात्रा में व्यक्ति एकाकी नहीं रह जाता। उसके लिए सृष्टि का प्रत्येक प्राणी आत्मतुल्य हो जाता है। एक की पहचान सबकी पहचान हो जाती है तथा सबकी पहचान से वह अपने को पहचान लेता है। भाषा के धरातल पर इसमें विरोधाभास हो सकता है। अध्यात्म के धरातल पर इसमें परिपूरकता है। जब व्यक्ति आत्मसाक्षात्कार के लिए प्रत्येक पर-पदार्थ के प्रति अपने ममत्व एवं अपनी आसक्ति का त्याग करता है तब वह राग-द्वेषरहित हो जाता है। वह आत्मचेतना से जुड़ जाता है। शेष सबके प्रति उसमें न राग रहता है न द्वेष। इसी प्रकार जब साधक सृष्टि के प्रत्येक प्राणी को आत्मतुल्य समझता है तब भी उसका न किसी से राग रह जाता है और न किसी से द्वेष। धर्म का अभिप्राय व्यक्ति के चित्त का शुद्धिकरण है जहाँ पिण्ड में ही ब्रह्माण्ड है। समस्त प्राणियों के प्रति मैत्रीभाव, प्रेमभाव तथा समभाव होना ही धर्म है और इस दृष्टि से सर्वधर्म समभाव में से यदि विशेषणों को हटा दें तो शेष रह जाता है: धर्म-भाव। सम्प्रदाय में भेद दृष्टि है, धर्म में अभेद-दृष्टि।
प्रोफेसर महावीर सरन जैन
(सेवा निवृत्त निदेशक, केन्द्रीय हिन्दी संस्थान)
123, हरि एन्कलेव
बुलन्द शहर – 203001
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