जुड़े और उखड़े कथाकारों की चिन्तन यात्रा डॉ. चंचल बाला , असिस्टैंट प्रोफेसर , हिन्दी विभाग , खालसा कालेज फॉर वीमेन , अमृतसर. पुस्तक ः...
जुड़े और उखड़े कथाकारों की चिन्तन यात्रा
डॉ. चंचल बाला, असिस्टैंट प्रोफेसर, हिन्दी विभाग, खालसा कालेज फॉर वीमेन, अमृतसर.
पुस्तक ः हिन्दी का भारतीय एवं प्रवासी महिला कथा लेखन
लेखिका ः डॉ. मधु संधु
प्रकाशक ः नमन प्रकाशन, नई दिल्ली
वर्ष ः 2013
पृष्ठ ः 215
मूल्य ः 495 रू.
हिन्दी कथा साहित्य का परिक्षेत्र बहुत व्यापक है और इसमें महिला लेखन की भागीदारी इसकी बहुत बड़ी उपलब्धि और शक्ति है। महिला लेखन और प्रवासी लेखन विगत कुछ दशकों से हिन्दी साहित्य में होने वाली चर्चाओं में मुख्य स्थान लिए हैं। इन दोनों विषयों पर अनेक संगोष्ठियां हो चुकी हैं। ‘हिन्दी का भारतीय एवं प्रवासी महिला कथा लेखन'-इन्हीं दोनों मुद्दों को एक साथ समेटने-सहेजने वाला शोध ग्रंथ है। लेखिका का लक्ष्य दोनों साहित्यों की चयनित लेखिकाओं के संदर्भ में तुलनात्मक अध्ययन रहा है। पुस्तक के सात अध्यायों में भिन्न शीर्षकों -उपशीर्षकों के अंतर्गत भारतीय और प्रवासी महिला कथा लेखन का तुलनात्मक अध्ययन किया गया है।
समकालीन कथा आलोचना में डॉ. मधु संधु का महत्वपूर्ण स्थान है। डॉ. मधु ने शोध और आलोचना क्षेत्र में 1981 में ‘कहानीकार निर्मल वर्मा' पुस्तक के साथ प्रवेश किया। 'साठोत्तर महिला कहानीकार', 'कहानी कोश (1951-1960)', 'महिला उपन्यासकार', 'हिन्दी लेखक कोश', 'कहानी का समाजशास्त्र', 'हिन्दी कहानी कोश (1991-2000)' आदि उनके आलोचनात्मक एवं शोधपरक ग्रंथ हैं। 'नियति और अन्य कहानियां' कहानी संग्रह, 'गद्य त्रयी' और 'कहानी श्रृंखला' सम्पादित रचनाएं हैं। हिंदी की लगभग सभी प्रकाशित और नेट पत्रिकाओं में उनकी 200 के आसपास कहानियां, कविताएं, लघुकथाएं, आलेख, शोधपत्र, समीक्षाएं प्रकाशित हो चुकी हैं। मधु संधु ग्रामीण, दलित, कामकाजी एवं पढ़ी-लिखी भारतीय स्त्री के परिवर्तित वजूद को पारिवारिक सामाजिक, आर्थिक परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत करने वाली सशक्त साहित्यकार हैं।
हिन्दी कहानी और उपन्यास के उद्भव और विकास की बात सभी इतिहास ग्रंथों, शोध ग्रंथों और कथा साहित्य में मिल जाती है। किन्तु प्रथम अध्याय 'हिन्दी कथा साहित्य एवं महिला कथा लेखन' में डॉ. मधु संधु ने भारतीय महिला कथा लेखन और प्रवासी महिला कथा लेखन की बात करते हुए मुख्यतः प्रवासी महिला कथा लेखन का प्रथम इतिहास लिखा है। इस क्षेत्र में उनकी शोध दृष्टि गहन और मौलिक है। प्रवासी कहानी की बात करते हुए लिखती हैं-'विदेश जाने के बाद उषा प्रियंवदा का कहानी संग्रह ‘एक कोई दूसरा' 1966 में प्रकाशित हुआ। जबकि उनकी कहानी ‘एक कोई दूसरा' 1961 में नई कहानियां में प्रकाशित हो चुकी थी।' (पृ. 16) प्रथम प्रवासी उपन्यास के संदर्भ में उन्होंने उषा प्रियंवदा के 'रूकोगी नहीं राधिका' की बात की है।
पुस्तक के दूसरे अध्याय 'भारतीय एवं प्रवासी महिला कथाकारों का जीवन एवं कृतित्व' में उन्होंने भारतीय कथाकारों में सुपर स्टार कृष्णा सोबती, दिल्ली से सिम्मी हर्षिता, कलकत्ता से मधु कांकरिया, लखनऊ से दीपक शर्मा और दूर्वा सहाय को लिया है। जबकि प्रवासी कथाकारों में अमेरिका से उषा प्रियंवदा, सुषम बेदी, ब्रिटेन से उषा राजे सक्सेना, दिव्या माथुर और डेनमार्क से अर्चना पेन्यूली को लिया है।
तीसरे अध्याय 'संबंधों के संदर्भ में भारतीय और प्रवासी महिला कथा लेखन का तुलनात्मक अध्ययन' में सामान्य से लेकर दाम्पत्य और प्रेम संबंधों का तुलनात्मक अध्ययन किया है। निष्कर्षात्मक स्वर में कहती है-'यह साहित्य उद्घोष स्वर में कहता है कि भारतीय जीवन मूल्य ही ग्राह्य हैं, श्रेष्ठ हैं, आभिजात्य हैं, चिरस्थायी हैं, अनुकरणीय हैं। जीवन की रसधार भारतीय संबंधों में अनुस्यूत है। उपभोक्तावाद और आत्मकेंद्रण व्यक्ति को तोड़ता है, सन्तुलन परिवार को जोड़ता है।' (पृ. 86) संबंधों में अंतर तो आया है, यहां भी और वहां भी। पुरानी पीढ़ियां पीछे मुड़-मुड़ कर भारतीय मूल्यों की बात कर रही हैं, जब कि भारतीय अमेरिकन या भारतीय ब्रिटिश युवक-युवतियां संबंधों के संदर्भ में उन देशों की संस्कृति के अधिक निकट हैं। कृष्ण्णा सोबती की 'ऐ लड़की' या सिम्मी हर्षिता के 'जलतरंग' की अविवाहित नायिकाएं परिवार-समाज में पूर्णतः सुरक्षित हैं, जबकि अर्थतंत्र से जूझ रही प्रवासी स्त्री की स्थिति भिन्न है।
चतुर्थ अध्याय 'युग यथार्थ के संदर्भ में भारतीय और प्रवासी महिला कथा लेखन का तुलनात्मक अध्ययन' स्पष्ट करता है कि भारत हो या विदेश-गुंडागदी, रंगभेद, नसलवाद, बाजारवाद, भ्रष्टाचार सब जगह है। कहीं कम कहीं ज्यादा। भारत में वृद्ध अकेलेपन से पीड़ित हैं और प्रवास में विस्थापन के साथ-साथ वृद्धाश्रम में रहने की विवशता भी है। पंचम अध्याय 'सांस्कृतिक संदर्भ में भारतीय और प्रवासी महिला कथा लेखन का तुलनात्मक अध्ययन' लिए है। विश्वास-अंधविश्वास, खान-पान, उत्सव-त्योहार, जन्म-मृत्यु के संस्कार आदि में अंतर आ रहे हैं। शादियां कोर्ट में, शोक समागम मंदिर या चर्च में होने लगे हैं। हर देश में खुले चटपटे भारतीय खाने के रेस्टोरेंट विदेशियों को भी इस ओर आकर्षित कर रहे हैं।
षष्ठ अध्याय 'नारी उत्पीड़न और नारी सशक्तिकरण' में औरत मे से औरत की असलियत निकाल कर उसका विश्लेषण किया गया है। स्त्री चाहे प्रवास में हो या भारत में-पतिव्रता का कवच उसे पुरुष के खिलाफ खड़ा होने से रोकता है। भारतीय और प्रवासी महिला कथा लेखन के निष्कर्ष स्वरूप लेखिका कहती है-'पुरुष अगर पति है तो इन्सान हो ही नहीं सकता। शहराती-ग्रामीण, स्वस्थ-अपाहिज, शिक्षित-अशिक्षित, स्वदेशी-विदेशी-सब एक ही थैले के चट्टे बट्टे हैं। मंदबुद्धि, नपुंसक, अपाहिज, नेत्रहीन पुरुष पति का चोला पहनते ही अपने आपे में नहीं रहता।' (पृ. 182) इसीलिए उन्होंने सशक्त स्त्री की कामना की है।
सप्तम अध्याय मे प्रवासी भारतीय के जैविक एवं मानसिक धरातल पर संघर्ष एवं द्वंद्व, पहचान का संकट, भाई-बंधुओं द्वारा लूटने की प्रवृत्ति आदि चित्रित हैं। लेकिन प्रवासी अपने देश के लिए चाहे कितने भी भावुक क्यों न हो जाएं उन्होंने वापिस भारत आकर बसने का कभी सोचा भी नहीं है।
इस पुस्तक में परामनोविज्ञान, नशाखोरी, वेश्या जीवन, वक्ष कैंसर (भया कबीर उदास, सलाम आखिरी, पत्ताखोर) आदि विषय भी प्रतिपादित हैं। ग्रंथ की समय सीमा 80 के बाद की है। ऐसे में कृष्णा सोबती और उषा प्रियंवदा का अस्सी से पहले का प्रकाशित साहित्य छूट जाता है।
पुस्तक के विश्ोष रोचक स्थल वे हैं, जहां लेखिका ने स्त्री विमर्श, पुरुष वर्चस्व और मर्दवादी समाज की सटीक व्याख्या की है। वह एक सशक्त औरत की कामना करती हैं। सामाजिक मान्यता प्राप्त रूढ़ रिश्तों -संबंधों की मर्यादाओं का समय आने पर उचित विरोध करने का सुझाव देती हैं। पुस्तक को पढ़ते हुए बार बार यह अहसास होता है कि डॉ0 मधु संधु निरन्तर अपने परिवेश को जिस रूप में खंगाल रही हैं, उससे उनके लेखन में निखार-ठहराव आया हैं। कुल मिला कर पुस्तक पठनीय है और स्त्री का चरित्र वह चाहे पश्चिम में हो या भारत में बहुत देर तक स्मृति में बना रहता है, उतरता नहीं।
डॉ. चंचल बाला, असिस्टैंट प्रोफेसर, हिन्दी विभाग, खालसा कालेज फॉर वीमेन, अमृतसर.
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