इक्कीसवीं शती की हिंदी ग़ज़ल : स्थिति एवं संभावनाएँ डॉ. गोरख काकडे हिंदी विभाग, सरस्वती भुवन महाविद्यालय, औरंगाबाद अब तक इक्...
इक्कीसवीं शती की हिंदी ग़ज़ल : स्थिति एवं संभावनाएँ
| | डॉ. गोरख काकडे हिंदी विभाग, सरस्वती भुवन महाविद्यालय, औरंगाबाद |
अब तक इक्कीसवीं शती का समय उथल-पुथल का रहा है। यह उथल-पुथल न केवल वैज्ञानिक और तकनीकी क्षेत्र तक है, अपितु समाज जीवन में भी काफी परिवर्तन हुए हैं। जिसे हिंदी साहित्य सशक्त रुप में अभिव्यक्त करता है।
इक्कीसवीं शती के हिंदी साहित्य ने अनेक विधाओं को समृध्द बनाया है उसमें काव्य विधा का एक अंग ग़ज़ल भी है। इक्कीसवीं शती के हिंदी ग़ज़लों की स्थिति एवं भविष्य की ओर जब ध्यान जाता है तो यह ज्ञात होता है कि वर्तमान युग में हिंदी ग़ज़लों की स्थिति काफी मजबूत है। उदाहरण के तौर पर हम देख सकते हैं कि जहाँ कही भी सांस्कृतिक, राजनीतिक, साहित्यिक आदि कार्यक्रम होते हैं वहाँ ग़ज़लों के ‘शेर' सभा को जीतने के लिए प्रयोग में लाये जाते हैं। जिससे ग़ज़लों की वर्तमान स्थिति सामने आती है। आज हजारों ग़ज़लें कहीं और लिखी जा रही हैं।
हजारों की तादात में कही और लिखी जा रही इन ग़ज़लों ने अपने विषय परिधि को व्यापक बनाया हैं। जिसकी शुरुआत दुष्यंत कुमार ने की थी उसे चरामोत्कर्ष पर आज के ग़ज़लकार ले जाने की कोशिश कर रहे हैं। अब हिंदी ग़ज़ल प्रेमी-पे्रमिका का संवाद, संलाप, प्रियतमा से इष्क और हुस्न की गुफ्तगु, इश्कों-मोहब्बत का जिक्र, शबाब और शराब का वर्णन, प्रियतमा के गिजाल (हिरन) नेत्रों के कटाक्ष, नायक-नायिका के अंग-प्रत्यंग का चित्रण एवं हाव-भाव-अनुभाव की परीधि को तोड़कर समाज जीवन के नफीस खुरदरे सच को भी व्यक्त कर रही है। वह समाज के ‘दर्द का इतिहास' बन गयी है। इस संदर्भ में शेरजंग गर्ग लिखते हैं, ‘‘आज साहित्य, कविता और ग़ज़ल प्रत्येक संदर्भ, प्रत्येक दिशा, प्रत्येक समस्या, प्रत्येक सरोकार, प्रत्येक विसंगति पर बात करते हैं। आज की ग़ज़ल प्रेमिका से ही नहीं, प्रतिद्वंन्दियों, राजनेताओं, भ्रष्ट अधिकारियों, संवेदनशाील हृदयों से भी उतनी ही शिद्दत से बात करती है, जितनी कि अपने आप से। आज की ग़ज़ल की उड़ान विश्वव्यापी है।''1 इस उड़ान को उँचाइयाँ देनेवाले ग़ज़लकारों में कुँअर बेचैन, ज़हीर कुरेशी, नीदा फाजली, बशीर बद्र, शहरयार, शेरजंग गर्ग, अनिरुध्द सिन्हा, शम्मी-षम्स-वारसी, उर्मिलेश, राम मेश्राम, कुमार विनोद, रामदरश मिश्र, मनोज सोनकर, रामावतार त्यागी, शिवबहादूर सिंह ‘भदौरियाँ', रोहिताश्व अस्ताना, तेजपाल सिंह तेज, उबैद सिद्दीकी, हमीद कानपुरी, कैफी आज़मी, जिगर श्योपुरी, अशोक अंजुम आदि का समावेश है।
इक्कीसवीं शती के यह ग़ज़लकार बाजारवाद और उसकी बिकाऊ वृत्ति, राजनीतिक तिकड़मबाजी, समाज के ठेकदारों की ‘नूरा कुश्ती', नौकरवर्ग की लालफिताशाही, मानवीय संवेदनाओं का यांत्रिकीकरण, सांप्रदायिकता, अलगाववाद, धर्म के नाम पर दंगे-फसाद, भ्रूण हत्या, स्त्री, दलित शोषण, प्रदूषण, मँहगाई, भ्रष्टाचार, बेकारी, झूठ-फरेब, फैशन, प्रेम के नाम पर हो रहे शरीर प्रदर्षन आदि त्रासदियों, विसंगतियों को अभिव्यक्त कर रहे हैं।
इक्कीसवीं शती के संस्कृति एवं समाज को बाजारवाद ने अपने गिरफ्त में लिया है और हरदम सत्य को पैरोंतले रौंदा जा रहा है। हर आदमी अपनी सही सूरत छुपाये हुआ है। वह अपने आप को तो बेच ही रहा है साथ ही वह दूसरों को भी अपने जैसा बनना चाहता है। आज बाजार में सच्चाई नहीं बिक रही चारों ओर झूठ का बोलबाला और सच्चाई का मुँह काला हुआ है जिसे कोई देखना नहीं चाहता। महेश जोशी ने अपनी ग़ज़ल में व्यक्त किया है। वे लिखते हैं -
‘‘इक अजब-सा दृष्य था बाज़ार में
बिक रहा था जाने क्या बाजार में
सच की मंडी में बहुत मंदी रही
बिक न पाया आईना बाज़ार में।''2
राजनीति के क्षेत्र में भी यही हाल है। राजनीतिकों ने मनी-मसल की पॉवर के द्वारा ‘फन्डामेंटल राईट्स' को ‘फन्डामेंटल राँग' बनाया है। समता, स्वातंत्र्य, न्याय, बंधुत्व की लोकतंत्रीय व्यवस्था का गला घोट दिया है। यह सफेदपोश हाथी और प्रशासन संभालनेवाले बाबू मील के पत्थर बन बैठे हैं। छलावा, धोखा, झूठ, फरेब, बेईमानी इनके शस्त्र हैं। भाई-भतीजावाद इनका अजेंडा है। योजनाओं की गंगोत्री उनके घर में पानी भरती है। केवल उन्हीं के घर में हरियाली है बाकी देश तो मरुस्थल हुआ है। जब भी चुनाव आता है तो इनकी योजनाएँ फलने-फूलने लगती हैं कि हम इस मरुस्थल को समंदर देंगे, बेघर को घर देंगे, फुटपाथ को बिस्तर देंगे आदि आदि। किंतु आज की स्थिति विपरीत से विपरीत बनती जा रही है। जैसे ही चुनाव खत्म होते हैं वैसे ही वह अपनी असली औकात पर उतर आते हैं और लोगों से गुण्डों जैसा व्यवहार करने लगते हैं। आज यहाँ नेता ही डाकू और डाकू ही नेता है जो मानवता के सीने पर ‘मजहब का भूचाल' मचा रहे हैं। निर्बल किसान, मजदूर, औरत आदि को अपनी ईच्छाओं की पूर्ति का साधन मान रहे है। तेजपाल सिंह लिखते हैं -
‘‘लील गई चढती नदी पका-पकाया धान,
भूख प्यास की मार से टेढा भया किसान।
धनिया को नहीं भात है अब पीपल की छाँव,
पावों में पाजेब है सिर पे तीर-कमान।
चोरों की पंचायत है, गीदड है सरपंच,
थाम हाथ उलटी कलम, लिखते चोर विधान।'' 3
‘‘लोकतंत्र की छाती पर चढ
हरसू खूब धमाल हुआ है।
इंसा के हाथों से बेशक
इंसा आज हलाल हुआ है।
प्रशासन अब राजनीति का
सबसे बडा दलाल हुआ है।'' 4
तो हमीद कानपुरी लिखते हैं -
‘‘सत्ता में हो अंग्रेज या आ जायें मनमोहन,
सुनता नहीं है कोई भी आज मजदूर की।'' 5
इन चोरों की पंचायत के गीदड सरपंचों के खिलाफ किसी ने आवाज उठाने का प्रयास किया कि वे उसे अपनी तिकडम चाल में फसा देते हैं। उदाहरण के तौर पर हमारे सामने जनलोकपाल की स्थिति है। ऐसे स्थितियों को इक्कीसवीं शती की ग़ज़ल पेश करती है कि,
‘‘हर सच को उगलवाने की जिद पे अडे रहे
आईने क्यूँ हमारे ही पीछे पडे रहे।'' 6
इक्कीसवीं शती की ग़ज़ल इन्सानियत के हनन के लिए हो रहे धर्म के प्रयोग को बढे अनोखे ढंग से पेश करती है। हिंदू को मुसलमानों के खिलाफ और मुसलमानों को हिंदूू के खिलाफ भड़काया जाता है। उनके जहन में ज़हर भर दिया जाता है और इंसानियत की हत्या की जाती है। रंजना अग्रवाल लिखती हैं -
‘‘हिंदू है, कोई सिख है, मुसलमान है कोई
इंसाँ को ढूँढ लाएँ भला किस जहान में।'' 7
आज इंसानियत के नूर को इन्सान ही खत्म कर रहा है। आज रात के अँधेरों से दिन का उजाला खुँखार हो गया है। जिसके प्रति इक्कीसवीं शतीं के हिंदी ग़ज़लकार खेद व्यक्त करते हैं और मजहब के बियाबानों में आदमी खो जाने की टीस को सामने रखते हैं।
इक्कीसवीं शती के ग़ज़लकार अलगाववाद और आतंकवाद की स्थितियों से भी हमें रु-ब-रु कराते हैं। आज का इन्सान भीड़ में भी अकेला और तनहा है। यह अलगाव केवल समाज से ही नहीं तो अपने परिवारजनों से भी है और अपने-आप से भी। ज़हीर कुरेशी कहते हैं -
‘‘भीड में सबसे अलग, सबसे जुदा चलता रहा,
अन्त में हर चलनेवाला एकला चलता रहा।''
(ज़हीर कुरेशी)
तो अंसार कम्बरी कहते हैं -
‘‘यहाँ कोई भी सच्ची बात अब मानी नहीं जाती
मेरी आवाज इस बस्ती में पहचानी नहीं जाती
महल है, भीड है, मन्दिर है, मस्जित है, मशीनें हैं
मगर फिर भी शहर से दूर वीरानी नहीं जाती।'' 8
यही एलिएशन एक राज्य को दूसरे राज्य से और एक देश को दूसरे देश से तोड़ने के लिए और आतंकवाद एवं अधिनायकवाद की स्थापना के लिए भी कारणीभूत हो रहा है। इस आतंकवाद के अभिषाप ने तो बच्चों को भी नहीं छोडा है। जिनके हाथों में खिलौने होने चाहिए उनकी जगह हत्यारों ने ली है। ग़ज़लकार लिखते हैं -
‘‘कल खिलौने थे इनके हाथों में
आज किसने गन थमा दी है।''
(शम्मी-शम्स-वारसी)
आतंकवाद के साथ-साथ सांप्रदायिकता भी देश की बुनियादी बंधुत्व की भावना को तहस-नहस कर रही है। सांप्रदायिकता की आग रोज हादसों को जन्म देती है और देखते-देखते गांव के गांव शहर के शहर उजड जाते हैं। एक विशिष्ट जगह को लेकर लोगों की भावनाएँ भडकाई जाती हैं कि मंदिर बनेगा या मस्जिद? इक्कीसवीं शती का ग़ज़लकार शियासती हुजूर से सवाल करता है कि -
‘‘इस जगह मंदिर बने या फिर कोई मस्जिद बने
किसकी है इसमें सियासत इतना बतलाएँ हुजूर।'' 9
आज दहशत का इतना खौफ है कि हर आदमी अपनी ही लाश को खुद ढोने लगा है। याने आज कब क्या होगा कहा नहीं जा सकता। यह जीवन की अनिष्चितता, परेशानी इक्कीसवीं शती के हिंदी ग़ज़लकारों ने हमारे सामने रखी है और अपनी प्रतिबध्दता, समबध्दता, समसामायिकता को सिध्द किया है और इक्कीसवीं शती की हिंदी ग़ज़ल की स्थिति को सशक्त बनाया है, वे लिखते हैं -
‘‘एक सन्नाटा है, पूरे शहर पर छाया हुआ,
एक दहशत, दिल में लेकर लोग अब सोने लगे।
सांसों के जंगल में, तय करना है लम्बा रास्ता
अपनी-अपनी लाशें, अब तो लोग खुद ढोने लगे।'' 10
उपरोक्त विषयों के अलावा इक्कीसवीं शती की हिंदी ग़ज़ल अनेक संवेदनाओं को व्यक्त करती हुई दिखाई देती है। बेकारी, महंगाई पर भी इस शती के ग़ज़लकार कलम चलाते हैं। वे कहते हैं -
‘‘खाना-खराब करके गरीबों का आपने
आकाश चूमती हुई कीमत से दाल दी।'' 11
‘‘बेरोजगारी, टीस, घुटन, दर्द औ' कसक
इन सबकों मेरे घरे का पता कौन दे गया।'' 12
साथ ही बच्चे, औरत, घर के बुजुर्गो के प्रति अपनाये जा रहे रवयौ को भी इक्कीसवीं शती का हिंदी ग़ज़लकार अभिव्यक्ति देता है कि कैसे बच्चों का शिक्षा के नाम पर बचपन छीना जा रहा है, कैसे उन्हें भीख माँगने पर मजबूर किया जा रहा है। ज़हीर कुरेशी लिखते हैं -
‘‘वो भीख माँगता ही नहीं था इसलिए
उस फूल जैसे बच्चे को अंधा किया गया।'' 13
संसार की आधी आबादी औरत के प्रति आज इक्कीसवीं शती में भी समानता, स्वतंत्रता का न्याय नहीं किया जा रहा है। उसे दहेज, अनमेल विवाह, भ्रूणहत्या, बालविवाह, बलात्कार आदि का सामना करना पड रहा है। अवधकिशोर लिखते हैं -
‘‘कल सती होकर जली थी, आज पति के हाथ,
बन गई जीवित जलाने की प्रथा औरत।''
(अवधकिशोर सक्सेना)
तो शम्मी-शम्स-वारसी लिखते हैं - ‘‘अपनी बेटी का ले लिया बदला,
आपने भी बहू जला दी है।''
(शम्मी-शम्स-वारसी)
आज भी बेटे को घर का चिराग समझा जाता है और बेटी को पराया धन। परिणामस्वरुप उसे जन्म लेने से पहले ही मार दिया जाता है। ऐसे अनेकानेक समस्याओं एवं स्थितियों को इक्कीसवीं शती की हिंदी ग़ज़ल व्यक्त कर रही है।
उपरोक्त विषयों को देखकर ऐसा लगेगा कि क्या वर्तमान ग़ज़ल ने अपने मूल विषय शबाब और शराब को बेदखल कर दिया है? तो उसका उत्तर आता है नहीं। आज भी कई ग़ज़लकार हैं जो ईश्क, शबाब और शराब की बातें करते हैं। किंतु वर्तमान हिंदी ग़ज़ल वफा से जादा जफा की बातें करती हैं। रंजना अग्रवाल लिखती हैं -
‘‘कभी खुद से बाहर निकलकर तो देख
किसी गैर के गम में जलकर तो देख।'' 14
तो डॉ. चरणजीतसिंह लिखते हैं -
‘‘जबसे मैं उनके इश्क में मशहूर हो गया
मर-मर के जीने के लिए मजबूर हो गया।'' 15
इक्कीसवीं शती की हिंदी ग़ज़ल केवल वर्तमान विभीषिकाओं, अंधकार, मोहभंग, बेकारी, भूखमरी, आदि को सामने रखकर आक्रोश और निराशा का स्वर ही स्थापित नहीं करती तो एक प्रकाशमान युग की स्थापना, आशावाद एवं प्रतिरोध का दम-खम रखती है। ‘साधक' कहते हैं -
‘‘राह दुश्वार जहाँ होती है
उस जगह अपने कदम रखता हूँ।
चाहे गर्दन ही उडा दे दुनिया
सच कहने का मैं दम रखता हूँ।''
(जगदीश जोशी ‘साधक')
तो शकील बिजनौरी लिखते हैं -
‘‘पग-पग फूल खिलेंगे फिर से, प्यार का मौसम लौटेगा
बारुदी रुत छँट जाएगी, मन को है यह आस अभी
वक्त़ की धारा रुख़ बदलेगी, सागर रस्ता छोडेंगे
देखा यारो ! थक मत जाना, करना और प्रयास अभी।'' 16
यह होशों-हवास में बगावत की कहीं हुई बात आम आदमी के मन की आग है जो इस भ्रष्ट व्यवस्था को जलाकर एक नये रामराज्य की स्थापना के लिए प्रयास करना चाहती है। ऐसे अनेक विषयों एवं आशयों को इक्कीसवीं शती की हिंदी ग़ज़ल सशक्तता प्रदान कर रही है।
इक्कीसवीं शती के हिंदी ग़ज़लों की रचना और भाषिक स्थिति पूर्वापार ग़ज़लों से मिलती-जुलती ही है। आज की अधिकाश ग़ज़लें मतला, मिसरा, रदीफ, काफिया के नियमों का पालन कर रही हैं। किंतु मक्ता अब अधिकांश ग़ज़लों से रुखसत ले चुका है। कुछ ग़ज़लकार ग़ज़ल के अंगों को टालकर मुक्त ग़ज़ल भी लिख रहे हैं। इक्कीसवीं शतीं के ग़ज़लों की भाषा खडीबोली हिंदी तो है किंतु उसमें उर्दू, अरबी, फारसी के शब्द भी दिखाई देते हैं जो ग़ज़ल की ताकत बढाने में कारीगर सिध्द हुए हैं।
हिंदी ग़ज़ल के भविष्य के बारे में जब विचार करते हैं तो निश्चित ही हिंदी ग़ज़लों का भविष्य उज्वल होने के संकेत हमें दिखाई देते हैं। भविष्य में अनेक चुनौतियों का सामना हिंदी ग़ज़लों को करना है। समाज विसंगति की नब्ज पकडनी है। मानवीय संवेदनाओं को जागृत रखना है। अलगाव को दूर करना है। ‘वसुधैव कुटुम्बकम' की भावना को साकार करना है। स्त्री, दलित, आदिवासी, पिछडों, आम आदमी की आवाज को बुलंद करना है। अन्याय-अत्याचार, भ्रष्टाचार के विरोध में तनकर खडा होना है। सांप्रदायिकता, आतंकवाद, भाषावाद, प्रांतवाद के विघातक परिणामों को सामने रखना है। मानव मन के सबसे हृदयस्थ श्रृंगार भाव के वफा की बात करनी है। ऐसे अनेकानेक दुष्वार कार्य भविष्य में हिंदी ग़ज़लों को करने हैं।
संक्षेप में हम कह सकते हैं कि इक्कीसवीं शती की हिंदी ग़ज़ल अपने युग की विसंगतियों को सामने रखने में सफल हुई है। वह अब दरबार की रौनक बढानेवाली नहीं तो मानवीय संवेदनाओं, सौंदर्य की तमाम जरुरतों को पूरा करनेवाली बनी हैं। ग़ज़लकार के शब्दों में कहे तो -
‘‘हाँ ! ग़ज़ल एक हसीन ख्वाब भी है
आपके जुल्म का जवाब भी है।'' 17
संदर्भ सूची ः
1- संपा. शेरजंग गर्ग - हिंदी ग़ज़ल शतक, पृ. 10 सं. 2006
2- महेश जोशी - दूसरा ग़ज़ल शतक, पृ. 65 संपा. शेरजंग गर्ग सं. 2006
3- तेजपालसिंह ‘तेज' - गुजरा जिधर से हूँ, पृ. 88 सं. 2006
4- वहीं, पृ. 48
5- हमीद कानपुरी - नीतिपरक दोहे एवं ग़ज़लें, पृ. 33, सं. 2009
6- डॉ. उर्मिलेश - नया दौर नयी ग़ज़लें, पृ. 67, संपा. जिगर श्योपुरी सं. 2005
7- रंजना अग्रवाल - दूसरा ग़ज़ल शतक, संपा. शेरजंग गर्ग, पृ. 73, सं.2006
8- अंसार कम्बरी - रंगे ग़ज़ल, संपा. ओमप्रकाष शर्मा, पृ. 47, सं. 2005
9- पुरुषोत्तम वज्र - दूसरा ग़ज़ल शतक, संपा. शेरजंग गर्ग, पृ. 60, सं.2006
10- इकराम राजस्थानी - मधुमती, जून-2011, पृ. 79
11- राम मेश्राम - समकालीन भारतीय साहित्य, पृ. 74 2011
12- मेहन्द्र हुमा - हिंदी ग़ज़ल यानी... संपा. दीक्षित दनकौरी, पृ. 38, सं. 2011
13- जहीर कुरेशाी - वहीं पृ. 32
14- रंजना अग्रवाल - दूसरा ग़ज़ल शतक, संपा. शेरजंग गर्ग, पृ. 76
15- डॉ. चरणजीत सिंह - देश बिराना, पृ. 13, सं. 2011
16- शकील बिजनौरी - वहीं पृ. 61
17- ज्योति शेखर - दूसरा ग़ज़ल शतक, संपा. शेरजंग गर्ग, पृ. 51, सं.2006
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