आर्थिक सुधारों पर एक संजीदा बहस डॉ अमित कुमार सिंह वर्ष 1991 विश्व इतिहास का एक महत्वपूर्ण मोड़ है.इस दौरान दो घटनाएं घटित हुईं.पहली,सोवियत स...
आर्थिक सुधारों पर एक संजीदा बहस
डॉ अमित कुमार सिंह
वर्ष 1991 विश्व इतिहास का एक महत्वपूर्ण मोड़ है.इस दौरान दो घटनाएं घटित हुईं.पहली,सोवियत संघ का विघटन और दूसरी,उदारीकरण,निजीकरण और भूमंडलीकरण की नीतियों का वैश्विक जयघोष.इस परिवर्तन का प्रभाव भारत पर भी पड़ना स्वाभाविक था.तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री नरसिंहा राव के नेतृत्व में,भारत में भी वर्ष 1991 में आर्थिक सुधारों की आधारशिला रखी गई.आज बाईस वर्षों के पश्चात,आर्थिक सुधारों पर एक नई विमर्श अंगड़ाई ले रहा है.भारत में आर्थिक सुधारों की दशा और दिशा इस बहस के केन्द्र में है.यद्यपि विवाद से संबंधित दोनों अर्थशास्त्री भारतीय मूल के हैं. विदेश में कार्यरत.नोबल पुरस्कार और भारत रत्न से सम्मानित अमर्त्य सेन और कोलंबिया विश्वविद्यालय के प्रोफेसर जगदीश भगवती के मध्य हो रहा बौद्धिक घमासान रोचक है और उपयोगी भी.
अमर्त्य सेन की हाल में ही प्रकाशित पुस्तक “एन अंसर्टन ग्लोरी:इंडिया एंड इट्स कांट्रिड़िक्शन” सुर्खियों में है.इसमे वे भारत के आर्थिक सुधारों की विसंगतियों की ओर इशारा करते हैं.उनका मानना है कि भारत में वितरण की समस्या गंभीर एवं चिंताजनक है.फलत: भारत में आर्थिक सुधारों का उपयोग गरीबी,कुपोषण और दलित-आदिवासियों के उत्थान के लिए नहीं हो सका है. अमर्त्य सेन के अचूक आंकड़ॉं और धारदार तर्कों से असहमत होना आसान नहीं है.इस संबंध में, हम सभी का जमीनी अनुभव भी यही संकेत करता है. यह तथ्य दिल को कचोटता है कि अभी भी विश्व के गरीबों का सबसे बड़ा हिस्सा भारत में रहता है और भारत की करीब चालीस प्रतिशत जनसंख्या कुपोषित है. यह किसी से नहीं छुपा है कि भारत में आर्थिक सुधारों का लाभ एक खास तबके को ही हुआ है.पूंजीपतियों,व्यापारियों और कारोबारियों के अतिरिक्त, कुछ हद तक इसका लाभ छीजकर मध्यम वर्ग तक पहुंचा है लेकिन वंचना और अभाव में जी रहे लोगों के जीवन को यह आज भी स्पर्श नहीं कर सका है.
जगदीश भगवती अमर्त्य सेन की प्रखर आलोचना करते हैं. भगवती का मानना है कि आर्थिक सुधारों पर कोई भी हमला अंतत: गरीबों का ही अहित करेगा.वे बड़े साफगोई और बेवाकी से अपना तर्क प्रस्तुत करते हैं कि आर्थिक सुधार से आर्थिक विकास होता है और यह आर्थिक विकास गरीबों की दशा में उल्लेखनीय सुधार लाता है.”इन ड़िफेंस ऑफ ग्लोबलाइजेशन” भगवती की विश्व प्रसिद्ध कृति है.इस पुस्तक में उन्होंने भूमण्डलीकरण के विरूद्ध किये गए सभी आलोचनाओं का बड़ी बेवाकी और कुशलता से खंड़न किया है. तीन सौ आठ पृष्ठ की इस पुस्तक को पढ़कर बार-बार ऐसा लगता है कि वे पूंजीवाद के घोर समर्थक हैं और भूमण्डलीकरण की प्रक्रिया में उन्हे कोई भी खोट नजर नहीं आता है.अपनी स्थापना में वे बार-बार ट्रिकल डाउन थ्योरी का महिमामंडन करते हैं.इस सिद्धांत की बुनियादी मान्यता है कि आर्थिक विकास एक लंबे कालखंड़ में अंतत:गरीबों को ही लाभांवित करता है.
जगदीश भगवती की हाल में ही एक पुस्तक प्रकाशित हुई है. इस पुस्तक का नाम है-“इंडिया ट्राइस्ट विद डॆस्टिनी”.इस पुस्तक में भगवती भारत के आर्थिक सुधारों के बारे में,प्रचलित करीब बीस मान्याताओं का खंड़न करते हैं.ये मान्यताएं मूलत: आम जनता के बुनियादी सरोकार हैं.मसलन-आर्थिक सुधारों ने भारत में असमानता में वृद्धि की है. आर्थिक सुधारों ने भारत में शोषितों का उपकार नहीं किया है? आर्थिक सुधारों ने भारत में भ्रष्टाचार में इजाफा किया है?किसानों के आत्महत्या का दोषी आर्थिक सुधार की नीतियां हैं,इत्यादि.इस संबंध में, भगवती का अंतिम निष्कर्ष यह है कि आर्थिक सुधारों की ऐसी समस्त आलोचनाएं बेबुनियाद हैं.इन समस्याओं के लिये अन्य कारण दोषी हैं,लेकिन इनका ठीकरा आर्थिक सुधारों पर फोड़ा जाता है.
इस प्रकार,जगदीश भगवती और अमर्त्य सेन के तर्क परस्पर विरोधाभासी हैं,अर्थात, भगवती आर्थिक सुधारों को उपयोगी और लाभकारी मानते हैं.वहीं अमर्त्य सेन आर्थिक सुधारों की वकालत करते हुए भी, इसके वितरण की गंभीर समस्याओं की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट करते हैं.दोनों विद्वानों के बीच मूलभूत अंतर आर्थिक सुधारों के उपयोगिता को लेकर नहीं है,बल्कि भारत के परिपेक्ष्य में, इसके फलितार्थ को लेकर उनमें भिन्नता है.
दोनों विद्वानों का मतांतर उनके शोध के तरीके के कारण भी है.उनकी वैचारिक पोजीशन में भी खासा अंतर दिखाई देता है.बहरहाल इस बौद्धिक विमर्श से परे,वर्ष 2013 में, भारत का हकीकत विरोधाभासों से भरा हुआ है.यह सच है कि आर्थिक सुधारों के पश्चात, भारत का एक कायापलट हुआ है.इस दौरान,देश में आर्थिक वृद्धि दर,प्रति व्यक्ति आय,विदेशी पूंजीनिवेश में उल्लेखनीय सुधार देखा गया.भारतीय कंपनियों ने भी विश्व की बड़ी- बड़ी विदेशी कंपनियों का अधिग्रहण किया.संक्षेप में, इस दौरान आत्मविश्वास से भरे एक नये भारत ने आकार लिया.इसकी कोख से ही एक नये मध्यमवर्ग का उदय हुआ.
इस सुनहरी पटकथा का एक स्याह पक्ष भी है. भारत में आर्थिक सुधारों के पश्चात,विषमता में वृद्धि हुई है.यह असमानता कृषि और सेवा क्षेत्र में एवं आर्थिक विकास और मानव विकास में देखा जा सकता है.क्षेत्रीय असमानता भी इसका एक दुखद पहलू है. आर्थिक सुधारों ने शहर और गॉव के बीच और अमीर और गरीब के बीच फासला भी बढाया है.हालांकि इसके लिये सरकारों की अदूरदर्शिता और लापरवाही भी जिम्मेवार है.भारत में जनता द्वारा चुनी हुई सरकारों का यह दायित्व है कि आर्थिक सुधारों को जनता के बुनियादी सरोकारों से जोड़ सकें, क्योंकि वक्त का पहिया कभी भी उल्टा नहीं घूम सकता है. भूमंडलीकरण वर्तमान विश्व का यथार्थ है.हम इस सत्य से मुंह नहीं मोड़ सकते हैं
AMIT KUMAR SINGH
ASSISTANT PROFESSOR
R.S.M. (P.G.) COLLEGE
DHAMPUR (BIJNOR)-246761
U.P.
COMMENTS