सिन्धी कहानी दस्तावेज़ मूल:नारायण भारती अनुवाद: देवी नागरानी मंघनमल बैरक के बाहर वरांडे में पड़ी खाट पर बैठा सिन्ध से लेकर आए दस्तावेज़ों, ...
सिन्धी कहानी
दस्तावेज़
मूल:नारायण भारती
अनुवाद: देवी नागरानी
मंघनमल बैरक के बाहर वरांडे में पड़ी खाट पर बैठा सिन्ध से लेकर आए दस्तावेज़ों, रसीदों और बही-खातों की पोटली खोलकर उसमें से एक-एक पुलिंदा निकालकर देखता रहा। हर एक काग़ज़ पर सरसरी नज़र डालता, रुक-रुक कर होठों में कुछ बड़बड़ाता जाता, कभी ठंडी सांस लेता, कभी अपनी पेशानी पर हाथ ठोकते - ‘अबो क़िस्मत ! नहीं तो...।’ कहकर कुछ दस्तावेज़ एक तरफ़ रखता गया, तो कभी उनकी एक अलग गड्डी बनाकर रखता।
दो तीन दिन पहले उसे क्लेम्स ऑफ़िस से नोटिस मिला था - ‘‘दस तारीख़ की सुबह ग्यारह बजे तुम्हारी हाज़िरी दूसरे नम्बर कैंप की ऑफ़िस में तय हुई है। समय पर अपने दस्तावेज़, उनकी जेरॉक्स व सभी लिखे काग़ज़ सबूत के तौर, गवाहों के साथ हाज़िर रहना ग़ैर मौजूदगी की हालत में एक तरफ़ा फैसला किया जाएगा।’’
मंघनमल ने ज़मीनों का क्लेम भरा था और घरों का भी लेकिन यह हाज़िरी घरों के क्लेम की थी। उन घरों के लिखे हुए सबूतों को ले जाने के लिये वह घरों के दस्तावेज़ ढूँढ़ रहा था। एक-एक दस्तावेज़ देखकर, घर वाले काग़ज़ जुदा कर रहा था।
एक दस्तावेज़ पर सरसरी नज़र डाली और पढ़ते ही उसके सामने तस्वीर की तरह उस जगह का नक़्शा फिरने लगा। उसकी गोशाला वाली जगह हिन्दुओं की बस्ती में थी। उसके पास ही सुमन हिन्दू रहता था। वह मंघनमल की खेत में हल चलाया करता था। खेत के पास ही सूखा घास और भूसा रखने की जगह थी। इस तरह एक जगह, दूसरी जगह, तीसरी जगह... कुछ दस्तावेज़ दस साल पुराने थे, तो कुछ बीस साल पुराने। कुछ तो तीस, चालीस साल से भी ऊपर के थे। कुछ घर उसकी स्मृति से भी पहले के लिये हुए थे, कुछ का तो निर्माण उसके सामने ही हुआ। सिद्दिक़ सूतार उसके घर में बैठकर, दर-दरवाज़े, तख्तियाँ और ज़रूरत के सामान बनाता, वह उसे भालू कहकर चिढ़ाता था, जो उसे अच्छी तरह से याद था। दस्तावेज़ देखते ऐसी अनेक कहानियाँ उसके मन में उभर आईं। उसने एक-एक करके कितने दस्तावेज़ देखे और देखते-देखते उसकी नज़रे इन अक्षरों पर जम गईं - ‘‘रसूल बख़्श बेटा निबी बख़्श, रहवासी मीरल गांव’’, उसकी निगाहें फिर आगे बढ़ीं और वह पढ़ने लगा - ‘‘इक़रार करता हूँ और अपनी रज़ा-खुशी के साथ लिखकर देता हूँ, मैं रसूल बख़्श, बेटा निबी बख़्श, जात - मंगर्यो, काम - खेती करना, उम्र - ३० साल, स्थायी निवास - मीरल गांव, तालुका-कंबर, ज़िला-लारकाणो। एक जगह सिकनी, गांव - मीरल, तालुका - कंबर, जिला - लारकाणा, जिसमें तीन कोठियाँ, एक कमरा और नीम का पेड़ है। उत्तर की तरफ़ पाठशाला है जिसमें मुसलमानों के लड़के पढ़ते हैं--३३ फुट, हद दक्षिण में घर अली हुस्न गुरमानी का, ३३ फुट, हद उतर आम जलधारा २१ फुट, दक्षिण में खैरल की जगह २१ फुट, बाहर का दरवाज़ा उत्तर की तरफ़ और कोठियों के टेरेस से पानी के निकाले जाने का रस्ता आम जलधारा में। ऊपर ज़िक्र की गई जगह के सभी हक़ और वास्ते दो सौ रुपये में, सेठ मंघनमल, वालिद सेठ कौड़ोमल, जात हिन्दू लोहाणो, उम्र ३५ साल, काम - दुकानदारी, रहनेवाला मीरल का, उसे बेच दिया है।’’
मंघनमल आगे ज़्यादा पढ़ नहीं पाया। उसका हृदय भर आया। उसके आँखों के आगे रसूल बख़्श की जगह, उसकी पत्नी और छोटे पुत्र का चित्र खिंचता चला गया, जिसको रसूल बख़्श कभी-कभी खेत पर ले जाया करता था। उसकी दुकान के सामने पहुँचते से गुज़रते ही वह अपनी तोतली ज़ुबान में कहता - ‘‘भवतार, मुझे अपना चरवाहा न बनाओगे ? मैं तुम्हारी गाय-भैंस चरवाऊँगा’’ और ज़बान से हुंकार करते हुए ख़याली बैल को आगे बढ़ाता, फिर ख़ुद भी दौड़ता हुआ चला जाता। खेत से अनाज के ढेर उठवाते वक़्त मंघनमल भी धान का कुछ हिस्सा निकालकर रसूल बख़्श को देकर कहते - ‘‘ये अपने रमज़ान का है।’’
इन बातों की याद ताज़ा होते ही उसके होठों पर मुस्कान आ गई। पाकिस्तान होने से तेरह-चौदह महीने पहले, एक दिन सुबह के पहले पहर रसूल बख़्श उसके पास आया और कहने लगा - ‘‘भवतार, बीज चाहिये, नहीं तो खेत सूख जाएगी और मुझ मिस्कीन की नैया डूब जाएगी। मेहरबानी करके बीज के दाने दे दो।’’
मंघनमल ने शोखी से कहा - ‘‘मियाँ दौ सौ रुपये के क़रीब पहले से ही तुझपर बाक़ी हैं। अभी तक वही नहीं लौटाए हैं। अब और के लिये आए हो। मेरे पास कोई खैरात तो नहीं बंट रही है। मुझसे कुछ न पाओगे, जाकर किसी और से मिलो।’’
ऐसा कहकर मंघनमल चप्पल में पांव रखकर चलने लगा तो रसूल बख़्श दरवाज़े की चौखट से उठा, सर का पटका उतारकर उसके पैरों में रखते कहा - ‘‘भवतार, इस बार यह करम करो, फिर जैसा कहोगे वैसा करूँगा। मेरे पास सामान नहीं है जो जाकर गिरवी रखूँ। औरत के गले में भी जो शादी वाली सांकली थी, वह उस दिन जसू व्यापारी के पास रख आया हूँ। कपड़ा चाहिये था, नंगे तो नहीं रह सकते ? रोटी-कपड़े के सिवा कहाँ बसर होता है !’’
‘‘अच्छा मियाँ, अच्छा अब आए हो तो लौटाऊँगा नहीं। पर पिता के समय से खेती बाड़ी कर रहे हो, हमारे पास न आओगे, तो कहाँ जाओगे ? तुम्हारा-हमारा तो स्नेह का रिश्ता, पर वक़्त यक-सा नहीं होता। आने वाली पीढ़ी का क्या भरोसा, फिर क्यों बैठकर कोर्ट के दरवाज़े देखें। इसलिये पच्चास रुपये अभी लो और डेढ़ सौ पहले वाले, वो हुए दो सौ। दो सौ में अपने घर की जगह लिखकर दे दो !’’
ऐसा कहकर मंघनमल ने चुपी साध ली। रसूल बख़्श भी सोच में पड़ गया।
‘भवतार, ले दे के यही जगह बची है, वो भी...।’ मंघनमल ने उसे बीच में ही टोकते हुए कहा - ‘‘मियाँ, वह तुमसे कौन छीन रहा है। तुम जैसे उसमें बैठे हो, वैसे ही बैठे रहो। जब ख़ुदा तुम्हें दाने दे तो फिर से लिखा पढ़ी करके जगह के मालिक बन जाना। अभी तो जगह तुम्हारे ही हवाले है, बैठे रहो। मेरा तुमसे ज़ुबानी जगह लौटाने का वादा है। वैसे तो मैं यह भी न लूँ, पर अपनों के बीच रहना है ? फिर यही व्यापारी कहेंगे कि देखा साई मंघन रसूली के... तुम ख़ुद समझदार हो और ज़माने में उठते-बैठते हो !’’
बस यूँ ही जगह का दस्तावेज़ लिखा गया। मंघनमल दस्तावेज़ देखकर इन सब बातों को याद कर रहा था। सोचने लगा- अब रसूल कहाँ होगा ? भला वह भी मुझे याद करत होगा या नहीं ?
एक बात का उसे बहुत अफ़सोस था वह यह कि अगर वह क्लेम ऑफ़िस में यह दस्तावेज़ दिखाता है, और वापसी में उसे उस जगह के पैसे मिलते हैं तो फिर ज़रूर पाकिस्तानी सरकार रसूल से जगह छीनकर, नीलाम करके पैसे वसूल करेगी। और अगर ऐसा हुआ तब रसूल कहाँ रहेगा ? मंघनमल अपने मन में सोच रहा था, कि रसूल ने कितनी मेहनत की और आख़िर तक उसका साथ निभाया। अंत तक भी जब दूसरे मुसलमानों की नीयत में बदलाव आया, वह तब भी अपनी ईमानदारी पर क़ायम रहा। गांव का मुखिया चिढ़ गया, इस क़दर कि सबसे कह दिया कि व्यापारियों को कोई भी चीज़ लेकर जाने न देना, उनपर मोमनों का हक़ है। इसके बावजूद रसूल ने रातोंरात सामान उठवाकर उसे लारकाणा पहुँचा आया। इतना ही नहीं, हैदराबाद तक भी वह साथ आया, गाड़ी पर बिठाकर फिर लौटा था... बिचारे ने किराया तक नहीं लिया। कितना न मैंने ज़ोर भरा पर वह कहता रहा - ‘‘ना साईं, ना, सारी उम्र तो आपका दिया खाया, ये तो हमारा फ़र्ज है, कुरान भी तो यही शिक्षा देता है कि पास-पड़ोस वालों से भाईचारा निभाओ।’’
और मैं उससे उसकी जगह छीन लूँ ? इस विचार मात्र से दिल को सदमा पहुँचा। रसूल बख़्श की याद आते ही साथ में सिन्ध की याद आँखों में नमी भर गई। आँसू क़तरा-क़तरा बहते हुए सामने रखे दस्तावेज़ पर गिरकर सियाही से लिखे उन अक्षरों को धुंधला बनाते रहे।
COMMENTS