पत्र है न कार है फिर भी पत्रकार हैं कां टेदार वृक्षों में जो स्थान बबूल का है , जानवरों में जो अदब सांड की है ; रिश्वतखोरों में जो इज्जत ...
पत्र है न कार है फिर भी पत्रकार हैं
कांटेदार वृक्षों में जो स्थान बबूल का है , जानवरों में जो अदब सांड की है ; रिश्वतखोरों में जो इज्जत थानेदार की है; कलमजीवियों में वही महत्ता पत्रकार की है। पत्रकार अर्थात एक ऐसा जीव जो निहायत कठजीव किस्म का होता है। नमस्कार को ही पुरस्कार मान कर जीता है। शुभ से अधिक , अशुभ में हाजिर रहता है। कहीं गोली चले ; हत्या हो ; छापा पड़े ; भ्रष्टाचार हो ,रवि और कवि दोना से पहले ही श्रीमान पत्रकार हाजिर हो जाते हैं। मेहनताने की जगह कभी कभी तो केवल ताने से ही काम चलाना पड़ता है। नेताओं और अधिकारियों का ‘प्रेम‘ तो बना ही रहता है।
दिव्य दृष्टि से देखने से ज्ञात होता है कि पत्रकार प्रजातियों की चार नस्लें पायी जाती हैं। प्रथम प्रजाति उन महापुरुषों की है जिनके पास पत्र तो नहीं है लेकिन कार है। इन की तादाद अधिक है। यह प्रजाति आसानी से महानगरों में सुलभ है। कई- कई कारे नौकर चाकर बंगला और कहने भर के लिये पत्र भी जिनकी सूचना जनता को तो नहीं रहती लेकिन नौकरशाहों को रहती है। कितनी प्रतियां बिकती है इसकी लिखित सूचना पी आर ओ के पास तो जरूर रहती है। कई महापुरुष तो ऐसे हैं जिनके पास ऐसे दर्जनों समाचार पत्र हैं जिनको कभी किसी ने किसी स्टाल पर नहीं देखा। किसी भी समाचार से मतलब न रहते हुये भी ये पत्र हैं और बड़े सम्मानित पत्र माने जाते हैं। सरकारी विज्ञापनों के लिये बड़े मुफीद माने जाते हैं। हमारे ये महारथी इन विज्ञापनों की कमाई पर ही केवल निर्भर हैं , ऐसी बात नहीं हैं। इनके पास ऐसे पत्रकार भी हैं जिनके पास न तो अपनी कमाई का कोई साधन है और न ही बेचारे मेहनत मजदूरी कर के अपना पेट पाल सकते हैं। वे लोग जो गुनाह के तौर पर पढ़ लिख गये , उनको पत्रकार बनने का चस्का लग जाता है। वैसे उत्साही लोगों के लिये इनके दरवाजे हमेशा खुले रहते हैं। ये लोग हमेशा .खबर खोदने के चक्कर में लगे रहते हैं। इनके द्वारा खोदी गयी खबरों में से कभी -कभी ऐसा मसाला भी मिल जाता है जिसके बल पर ये महारथी कुछ अतिरिक्त माल बना सकते है। प्रभावी पार्टी इनके साथ मिलकर ही सुखी रह सकती है। इन सब लीलाओं से इनकी ख्याति बड़े बड़े महिफिलों में रहती है। कलक्टर हों या मिनिस्टर इनसे दुआ सलाम जरूर करते हैं। यही कारण है कि इनके पास कार तो रहती है लेकिन पत्र नहीं। पत्रकारिता जगत के ये बुर्जुआ माने जाते हैं मगर ऐसी बात बिल्कुल नहीं कि इनकी कोई उपयोगिता नहीं है। इनकी बहुत बड़ी सामाजिक उपयोगिता है। किसी भी विषय पर भाषण देने के लिये आप इनसे सम्पर्क कर सकते हैं। बड़े ही भाषण- वीर मनुष्य होते हैं। यदि आदर्श बातों का संसार में टोटा हो गया हो तो इनकी सेवाएं ली जा सकती हैं। बातों में आदर्श घोलना इन्हें खूब आता है। इनके रहते संसार से आदर्शवाद का अंत नहीं हो सकता। यदि कभी इनका पत्रकार अपने पारिश्रमिक की मांग करे तो उसे भाषण देकर ही शांत किया जाता है। मसलन पत्रकारिता मिशन है कमीशन के चक्कर में नहीं पड़ना चाहिये। पत्रकारिता तो समाज की ऐसी सेवा है जिसकी तुलना केवल मुनियों की तपस्या से ही की जा सकती है। यह समाज का एक कीर्ति स्तंभ है इसके लिये यदि अपनी जेब से भी कुछ लगाना या गलाना पड़े तो चिन्ता नहीं करनी चाहिये। बस भाषण सुनते ही इनके वीर लग जाते हैं मिशन पड़ और ये कमीशन पर।
दूसरी प्रजाति उन पत्रकारों की है जिनके पास पत्र तो है पर कार नहीं है। दैनिक ,पाक्षिक ,साप्ताहिक आदि नामों से भांति भांति के पत्र निकलते रहते हैं। उसमें लगने वाले सभी लोग पत्रकारिता जगत के सर्वहारा होते हैं। संपादक ; प्रूफरीडर ; सलाहकार संपादक ;कार्यालय संवाददाता ; विशेष संवाददाता आदि नामो से सुशोभित नाना प्रकार के प्राणि इन अखबारों के 'आफिस' में देखे जा सकते हैं। ये आफिस जो होते हैं , इन्हें अगर मुर्गी पालन हेतु प्रयोग किया जाये तो भाषा विज्ञानी में उसे दड़बा नाम दे सकता है। चार बाई चार का कमरा जिसमें एक पुराने कम्प्यूटर के सहारे समाज में क्रांति की लहर दौड़ाने का प्रयास किया जाता है। घर में कर्ज वाले आपके घुसते ही क्रांति मचा सकते हैं मगर आप सारे शहर में अलख जगाते चल रहें हैं। बच्चों की स्कूल फी बाकी है। राशन वाले का इस महीने का उधारी बाकी है। किसी की शादी में 'न्योता' भेजना है। पत्नी को सिनेमा ले जाने का वायदा है। बच्चों को पिकनिक ले जाना है। मतलब ये कि इतने सारे वायदे हैं और इतने सारे दायित्व मगर आपके पास न तो समय हैं न ही पैसा। संवाददाता कभी कभी प्रकाशक के पास अपनी अर्जी लेकर जाते हैं। उन्होंने वायदा किया था कि इस जनवरी में 'कुछ न कुछ' बढा देंगे। सबसे बड़ी बात कि आपकी 'कलम' के वे बड़े प्रशंसक भी हैं। उनका मानना है कि आपकी कलम आग उगलती हैं। आप समाज के बहुत बड़े धरोहर हैं। ये सारी बातें तो ठीक है मगर जैसे ही आपने नकद नारायण की बात की उनका रोना चालू हो गया। संसार का सबसे दुखी प्राणि आपके इतने पास था और आपको जानकारी भी नहीं थी। अखबार बिक नहीं रहे। विज्ञापनों का पेमेंट अभी तक नहीं मिला। कितने पेमेंट तो डूब गये। वो तो समाज के लिये कुछ करने का जज्बा हैं कि पेपर निकल रहा है नहीं तो कब का बंद हो गया होता। संवाददाता संपादक की ओर देखता है क्योंकि जनवरी का वायदा तो उनका भी था। संपादक गर्दन नीची कर लेता है क्योंकि अभी थोड़ी देर पहले यही वार्तालाप वह भी प्रकाशक से कर चुका है। कुल किस्सा कोताह ये कि वैष्णव जन ते तेने कहिये जो पीर परायी जाने रे।
तीसरी श्रेणी उन पत्रकारों की है जिनके बारे में ही शायद किसी महान शायर ने ये पंक्तियां फरमायी हैं -
हज़रत बम के घोड़े पर सवार हैं,
पत्र है न कार है फिर भी पत्रकार हैं।
बम का घोड़ा क्या है और शायर ने इसका प्रयोग क्यों किया है इसे जानना हमारे जैसे कम अक्ल मनुष्यों का काम नहीं है। हां लेकिन ये महान लोग सवार जरूर रहते हैं। अपनी सायकिल ; स्कूटर ; कभी- कभी मोटर सायकिल इत्यादि वाहनों पर सवार होकर शहर भर में मंडराते रहते हैं। छपास रोग के सताये हुये ये लोग किसी भी संस्थान से पत्रकारिता की डिग्री लेकर टूट पड़ते हैं पत्रकारिता की ओर। बस एक ही मिशन है। शहर भर के लोग जाने कि हम पत्रकार हैं। बमुश्किल किसी नवजात पत्र के लिये जुगाड़ भिड़ाकर जा भिड़ेंगे। संपादकों को तो ऐसे ही होनहारों की तलाश होती है। ये खबर तो लायेंगे उल्टी सीधी मगर दावा ये कि शहर की सबसे बड़ी खबर है और इसके होने से ही पत्र है। उस न्यूज का छपना अनिवार्य है अन्यथा श्रीमान नाराज हो जायेंगे। छपने से बेशक दस रुपये ही मिलते हैं मगर है तो 'न्यूज'। समाचार छपा नहीं कि लेकर उसे मित्रों और शत्रुओं को दिखाने निकल पड़े। नाते रिश्तेदारों में उसकी चर्चा करेंगे ताकि सब लोग जान जायें कि हजरत पत्रकार हैं। अपने खर्चे पर नाचना शायद इसी को कहते हैं। उनको लगता है कि जमाना उन्हीं से है। पूरे संसार को सुधारना है। कुछ तो ऐसे भी होनहार और प्रतिभावान मनुष्य हैं जो उसी पत्र के सहारे अपनी प्रेमिका को प्रभावित करते हैं। प्रेमिका को क्या पता कि उस पत्र को पढने वाले कितने लोग हैं । अपने हीरो को पत्रकार के रुप में देखकर खुश हो जाती है। मगर मामला तब दर्द-ए- नाक हो जाता है जब प्रेमिका किसी होटल में डिनर करना चाहती है। हीरो की जेब में तो नामा होता नहीं है बस तथाकथित नाम होता है। टालमटोल का ही सहारा है। कोई बड़ा आयोजन है। कहीं कोई वीआईपी आने वाला है। कोई गोष्ठी होने वाली है। हमारे ये बम के घोड़े पत्रकार जरूर और सबसे पहले पहुंच जायेंगे। कई बार तो ऐसा भी होता है कि उसी आयोजन में पुलिस पकड़कर हजरत को जेल की कोठरी में डाल दे। दिन भर रह कर आ गये तो गनीमत नहीं तो यदि पुलिस लंबी छुट्टी पर भेज दे तो घर के लोगों की परेशानी। ऐसा नहीं कि उसके बाद उनकी पत्रकारिता की लत छूट जायेगी। उसके बाद तो इनका बयान और प्रभावी हो जाता है। भई हम तो पत्रकारिता में जेल की हवा भी खा चुके हैं लेकिन हम उन लोगो में से नहीं जो मैदान छोड़ दे , हमारे लिये तो यह एक मिशन है। हम समाज की सेवा के लिये ही पैदा हुये हैं। उसके बाद आप इनके मुंह से आजादी से पहले का कुल किस्सा सुन सकते हैं कि कैसे पहले पत्रकार लोग ही आजादी की लड़ाई लड़ते थे। उन दिनों लोगों के लिये पत्रकारिता एक जनसेवा थी अब तो महज धनसेवा है उसके बाद गणेश शंकर विद्यार्थी का नाम तो लेंगे ही लेंगे।
चौथी किस्म के जीव वे हैं जो अत्यंत दुर्लभ हैं। आप उनकी गणना डायनासेार जैसे जीवों के साथ भी कर सकते हैं। ये श्रेणी है उन महान पत्रकारों की जिनके पास पत्र भी है और कार भी। यानी पत्रकारिता जगत के कर्त्ता , धरता ,संहारकर्त्ता। इस श्रेणी के ज्यादातर प्राणी अब प्रिंट मीडिया को तिलांजलि देकर इलैक्ट्रानिक मीडिया में जा घुसे और उनकी वहां भी ठाठ हैं। इन जीवों के पास हुनर और दौलत दोनों हैं। बाप दादों की दौलत तो पहले से थी उपर से सोने पर सोहागा की तरह पत्रकारिता का शौक हो गया। तो साहब कार इनके पिताजी या दादाजी की है मगर पत्र अपना है। इनमें से अधिकांश लोग कुछ दिनों तक पत्रकार रह चुकने के बाद संपादक बन जाते हैं फिर प्रकाशक भी। इनका प्रकाशत्व स्थायी होता है। संपादकत्व क्षणिक। संवाददाता की इनको जब जरूरत पड़ती है तो दो चार कहीं से पकड़ लाते हैं। इन महापुरुषों की अलग किस्म की धाक है। यदि ये कभी भूल कर या पत्रकार पकड़ने के लिये दूसरी प्रजातियों मे जा घुसे तो हड़कंप मच जाता है मानो गन्ने के खेत में हाथी घुस गया हो। कोई हाथ मिला रहा है तो कोई अपनी बारी के इंतजार में हैं। कोई इनसे अपनी रिश्तेदारी साबित करने में लगा है। बता रहा है कि उसकी दादीजी और इन साहबान की दादी जी एक ही गांव की थी यही नहीं इनकी सरकार में भी चलती है। सब लोगों की अपनी अपनी राजनीतिक खिड़की है दरवाजा नहीं क्योंकि वहां खड़े होकर तो ये राजनीति का विरोध करते हैं। जितना बड़़ा पत्रकार उतना बड़ा सरोकार । किसी की कांग्रेस से यारी है , तो किसी की भाजपा से दोस्ती , कोई सी पी आई का शुभचिन्तक है तो कोई इन सब के अलावा किसी तीसरी पार्टी की ओट में है और इन तक पहुंचने का रास्ता तलाश रहा है। जब तक ये लोग कलम के लिये बूढ़े और राजनीति के लिये जवान होते हैं तब तक कहीं न कहीं खिचड़ी पक के तैयार रहती है। तुरंत इन्हें राजसभा में प्रवेश मिल जाता है। वहां से मंत्री बनकर अपनी यात्रा पूरी करते हैं। जीवन भर आदर्श की बातें तो ये लोग भी करते हैं मगर इनकी बातें लोग गौर से सुनते हैं आखिर ये महानुभाव मंत्री जो बन जाते हैं।
इस प्रकार पत्रकारिता जगत में नाना प्रकार के जीव एक ही जीवमंडल में परस्पर शांति और सहिष्णुता बना कर अमन से जीते हैं। इनमें भी बड़ी मछली और छोटी मछली का सिद्धांत लागू होता है। ये खाते तो हैं मगर प्यार से। छोटी मछली खुद ही बड़ी के पास जाती है और पूरे अदब के साथ कहती है - 'लो दादा मैं आ गया मुझे खा ला। जितनी मर्जी समाचार बेगार में मंगा लो। बस कृपा दृष्टि बनाये रखना।' बड़ी मछली खुश हो जाती है। भला कृपादृष्टि के कौन से पैसे लगते हैं। खूब बनाये रखते हैं और मजा लेकर भक्षण भी करते हैं। बेगार में पत्रकारिता कराने के बाद जब सामने वाला अपनी कीमत मांगने की हिम्मत करे उसे बाहर का रास्ता दिखा देते हैं। इसी पर टिका है पूरी पत्रकारिता का 'इकोसिस्टम'।
शशिकांत सिंह 'शशि'
जवाहर नवोदय विद्यालय
शंकरनगर, नांदेड़ 7387311701
वाह क्या विहंगम विवेचन किया है :)
जवाब देंहटाएंbadhiya he.
जवाब देंहटाएंkajal kumar aur kalam sahb dono ko dhnaywad
जवाब देंहटाएंthank u kajal kumar ji aur kalam saheb
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