व्यंग्य एक सुबह मन्त्री जी के बंगले की पूरन सरमा मैं जिस समय मन्त्री जी के बंगले पर पहुँचा तो सुबह के सवा आठ बज चुके थे तथा मन्त्री...
व्यंग्य
एक सुबह मन्त्री जी के बंगले की
पूरन सरमा
मैं जिस समय मन्त्री जी के बंगले पर पहुँचा तो सुबह के सवा आठ बज चुके थे तथा मन्त्री जी सो रहे थे। धीरे-धीरे लोगों की भीड़ व कोलाहल बढ़ रहा था। मुझे लगा शायद मन्त्री बनने के बाद लोगों के शोर से जगने की आदत पड़ गई हो, वरना पहले तो ये पाँच और छः के बीच उठ जाया करते थे। सौभाग्य से मन्त्री जी मेरे ही क्षेत्र से एम․ एल․ ए․ थे। मैं बहुत बेचैन था। नौ बजे तक उनके जगने के संकेत नहीं मिले तो मैंने वहाँ के कर्मचारी से फिर पूछा-‘क्यों भाई अब भी नहीं उठे क्या ?'
‘बस अब उठने ही वाले होंगे।'
‘अरे भाई इस भीड़ में मिलने का नम्बर आयेगा तब तक तो अॉफिस में आकस्मिक अवकाश का आवेदन पहुँचाना होगा।'
‘क्या करें साहब रात को देर से सोये हैं। आदमी जागेगा भी तो सोयेगा भी ?' कर्मचारी ने कहा।
मैं चुप हो गया। मेरी इच्छा हुई कि मैं भागकर इस काम करने वाली सरकार के मुख्य मन्त्री के पास जाऊँ और कहूँ कि देखिये जनता परेशान हो रही है और आपके मन्त्री जी सो रहे हैं। परन्तु अपने काम का स्मरण करके शांत रहा। वहाँ बेचैनी से टहल रहे एक सज्जन से मैंने पूछा-‘कब से टहल रहे हैं आप ?'
फट पड़ा-‘पाँच दिन हो गये। मिलने का नम्बर ही नहीं आता। नौ बजे से पहले बाहर नहीं आते। आते हैं तो पाँ-सात लोगों से मिलने के बाद उद्घाटन, भाषण, चाटन का समय हो जाता है। समझ में नहीं आता कि इस देश का क्या होगा, ये भी पुराने वालों के ही चरण चिह्नों पर चल रहे हैं। सारे ही एक थैली के हैं ?'
दूसरे सज्जन जो मुँह लटकाये एक पेड़ के नीचे बैठे थे, उनसे पूछा-‘क्यों साहब चेहरे पर उदासी के घने बादल क्यों छाये हैं ?'
उत्त्ार में बोले-‘भगवान दुश्मन को भी यह बदनसीब दिन न दे, जो उसे मन्त्री से मिलने जाना पड़े। बच्चे का इंटरव्यू है आज। मन्त्री जी ने आश्वासन दिया था कि वे हेल्प करेंगे, परन्तु दस बजे इंटरव्यू है और वे अभी सो रहे हैं।'
तभी तीसरे सज्जन खुद-ब-खुद आकर रो पड़े-‘क्या खाक करेंगे ये लोग काम ? भगवान भले मिल जायें, परन्तु ये तो शहंशाह हो गये हैं। झलक ही नहीं देना चाहते।
जैसे ये जनता गुलाम है-जो यों ही खड़ी रहेगी। मैं तो सार्वजनिक हित के लिये आया हूँ। गाँव में जच्चाखाना नहीं है। हर वर्ष दस-पाँच औरतें देखभाल व नासमझी में अकाल मर जाती हैं। यह प्रसूति-गृह खुल जाये तो जनता का कल्याण हो।
2
मन्त्री कहते हैं कि थोड़ा टच में रहो तो काम हो जायेगा। चुनाव में तो एक साथ उठना-बैठना, खाना-पीना, सोना रहना था, परन्तु मन्त्री क्या बने नखरे ही अलग हो गये। गाँव से गाँठ का किराया खर्च करके आते हैं, इन्हीं के क्षेत्र में विकास का काम है और सोते रहते हैं।'
तभी शोर हो गया कि ‘मन्त्री जी जाग गये' मुझे बड़ी हँसी आई कि नींद का खुलना जागना मान रहे हैं लोग। ये तो जागते हुये भी सोये हुए हैं। मैं लपककर लाइन में जा लगा। आठवाँ नम्बर था। करीब साठ-सत्त्ार लोग थे। धूप में खड़े थे। मेरा नम्बर आया तो मन्त्री जी ने जबरन डेढ़ इंच हँसी चेहरे पर बिखेरी और बोले-‘कहिये कैसे आना हुआ है ?'
मैं बोला-‘अजी बस एक टेलीफोन कराना था आपसे।'
‘अरे भाई टेलीफोन ही करते हैं दिनभर। एक टेलीफोन और सही। बोलो कहाँ करना है। दोपहर में कर देंगे।'
‘नींद अभी करना होगा। दोपहर को आपको याद कौन दिलायेगा ?'
‘अरे भाई यह डायरी किस काम की है। इस डायरी में जो भी दर्ज हुआ वह समझो हो गया। काम हो या न हो, टेलीफोन जरूर हो जायेगा।'
‘देखिये पहले वाल मन्त्री जी भी यही कहते-कहते चले गये। इसलिये आप तो टेलीफोन कर ही दो।'
‘देखो दूसरे लोग बाहर खड़े हैं, उनसे भी मिलना है तथा सवा दस बजे सेक्रेटेरियट में मीटिंग है केबीनेट की, इसलिये समझो टेलीफोन हो गया। हम लोग इस तरह एक-एक आदमी को इतना समय देने लगे तो जनता का काम कैसे होगा ?' मन्त्री जी बोले।
मैंने कहा-‘चुनाव के समय तो आप मेरे घर आकर बुला ले जाते थे और आज आपके पास समयाभाव हो गया है।'
‘देखो भाई स्थितियों को समझा करो। इस समय जन-प्रतिनिधि हूँ। पब्लिक मैन की लाइफ भी कोई लाइफ है। दोस्ती भी नहीं निभा सकता, अब तुम जाओ तुम्हारा टेलीफोन हो जायेगा।'
मुझे फिर मजाक सूझा सो बोला-‘और आप यह नौ बजे तक कब से सोने लगे। सुबह उठकर खेतों पर जाया करते थे। नया आलम खूब पेला है आपने।'
‘सच तो यह है शर्मा जी। नींद ही बहुत आने लगी है। सरकारी सुविधाएँ इतनी हैं कि जागते-जागते ही नींद आ जाती है। अरे भाई सो लेने दो। पता नहीं किस घड़ी नींद उड़ जाये।
3
तुमसे तो क्या छिपाना पलंग का गद्दा इतना मुलायम और मोटा है कि बिना गोलियों के आने लगी हैं नींद भी। स्वास्थ्य भी देख रहे हैं। चार महीने में करीब चालीस किलोग्राम वनज ‘इन्क्रीज' हो गया है।'
‘आपको पता है चार महीने में मेरा वनज पाँच किलो घट गया है।' मैंने कहा।
वे बोले-‘मुझे पता है आपका वनज घट रहा है। जनहित की सोचने वाला कमजोर ही रहता है। जब से चिंता-फिकर छोड़ा है स्वास्थ्य बिना ‘हिल स्टेशन' गये ही गोलमटोल हो गया है।'
‘अच्छा खैर छोड़ो, टेलीफोन जरूर कर देना।'
‘हाँ जाओ, मुझे भी मीटिंग में जाना है। उसके बाद सोशल वेलफेयर का फंक्शन है, फिर लंच तथा शाम को सी․ एम․ से मिलना है उनके निवास पर।'
यह कहकर वे कमरे से बाहर निकले तो भीड़ उनके पीछे होली। वे सीधे गाड़ी में घुसे और फुर्र हो गये। लोग बड़बड़ाते रहे। कुछ मासमी धुन में कदमताल करते हुये रिक्शे वालों को पुकारने लगे तो कुछ अपने वाहनों से फूट गये।
मन्त्री जी के यहाँ सुबह का यह आलम विचित्र, सुहाना तथा कुतूहलपूर्ण होता है। मन्त्री जी की दिनचर्या का यह पहलू आम है। सो रहे हैं, खा रहे हैं, मीटिंग में हैं, पूजा में हैं, सी․ एम․ के गये, तबियत ठीक नहीं या फिर दिल्ली गये। आम आदमी का चक्र यह है कि वह अनवरत इस तरह ही उनके बंगलों पर जाता रहा है तथा अनादि काल तक जाता रहेगा। दोनों की नियति यही है। इसी उपक्रम में कभी मिल जायें और काम हो जाये तो ठीक अन्यथा आशा-निराशा की आँखमिचौली चालू है। वे मन्त्री बने हैं तो मन्त्री ही रहेंगे, आपसे मिलकर क्या मिलेगा उनको, इससे अच्छा तो वे सोयेंगे।
मौलिक एवं अप्रकाशित व्यंग्य
(पूरन सरमा)
124/61-62, अग्रवाल फार्म,
मानसरोवर, जयपुर-302 020,
(राजस्थान)
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Achchi rachna hai badhaiee
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जवाब देंहटाएंशानदार व्यंग्य के लिए बधाई....प्रमोद यादव
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