सिन्धी कहानी पैंतीस रातें -छत्तीस दिन मूल:ठाकुर चावला अनुवाद: देवी नागरानी ‘‘मामी ! अगर मेरी शादी कामियाब होती तो आज मेरी अपने ससुराल में...
सिन्धी कहानी
पैंतीस रातें-छत्तीस दिन
मूल:ठाकुर चावला
अनुवाद: देवी नागरानी
‘‘मामी ! अगर मेरी शादी कामियाब होती तो आज मेरी अपने ससुराल में पहली होली होती। मेरा पति मुझे गुलाल लगाने के लिये पीछे से छिप-छिप कर आने के बहाने ढूँढ़ता और मेरी सास भी तो मुझपर न्यौछावर जाती।’’ ऐसा कहते आशा नम आँखों से बालकनी में चली गई। मामी उसके पीछे चली आई और उसके सर पर हाथ फेरने लगी। वह चाहती थी कि आशा अपने भीतर दबी हुई वेदना को बाहर निकाले।
सुलझी हुई आशा के सपने छत्तीस दिन में ही ताश के बने महल की तरह ढह गए। छः महीने और छत्तीस दिन उसके जीवन की पगडंडी की दास्तां हैं। जब वह छोटी थी, गोद में लिये जाने की उम्र में, तब वह बच्चों की हस्पताल में मरते-मरते बची थी और बचपन से यूं ही बड़ी होती रही। माता-पिता और नानी के अथाह मोह ने उसे लाड़ली बना दिया। वह कोई भी ख़्वाहिश लबों पर लाती और उसकी पूर्ति के लिये कमर कसी जाती। पढ़ाई हो या दुनियावी सुख उसको बेहतरीन कोचिंग क्लास में दाख़िल करवाकर बहुत अच्छे अंको से कामियाब करने का प्रयास किया जाता। सिन्धी और सिन्धी सूफ़ी संगीत सीखने की चाह उसे कॉलेज में संगीत प्रतियोगिता में अव्वल लाकर खड़ा करती।
दूसरी तरफ़ आशा के माता-पिता, उसके सुखमय जीवन के लिये वर तलाशते रहे। रिश्ते-नातों के मामले में हर बात पसंद आए, ऐसा तो मुश्किल होता है। कितनी ही नापसंद बातों को नज़र-अंदाज़ करना पड़ता और वही आशा ने भी किया और उसके माता-पिता ने भी यही करते हुए उस रिश्ते को क़ुबूल किया।
छः महीने मंगनी के बाद वह बैठी रही। हफ़्ते में एक बार वह उसे कभी बाहर, तो कभी घर में भी मिलने आया करता था। एकांत में सुनहरे आनेवाले कल के चमकते सितारे दिखाते हुए वह कहता ‘मेरा एक बंगला है, नई मुम्बई में प्रॉपर्टी है। मैं अपनी फर्म में मैनेजिंग डायरेक्टर हूँ, एक लाख के करीब महीने की आमदनी है। शादी के पश्चात् हनीमून के लिये तुम्हें मॉरिशियस या स्विज़रलैंड ले चलूँगा। तुम चाहो तो अपनी ऑफ़िस खोल सकती हो, जिसमें तुम कॉम्प्युटर सिखा सकती हो। तुम्हारे जन्म-दिन पर तुम्हें सीधे शो-रूम से नई कार सौग़ात के तौर ख़रीद दूँगा...।’ मंगनी हुई और शादी की रस्मों की चर्चा होती रही। लड़के ने ज़ाहिर किया कि कोई रस्म उनकी तरफ़ से न होगी क्योंकि यह उनकी रीति-रस्मों में शामिल नहीं है और सारा का सारा शादी का ख़र्च भी लड़की वालों को उठाना होगा। विवाह के सभी शगुन सम्पन्न हुए पर लड़की वालों के खर्च पर, और शादी का मुहूरत भी लड़के ने अपने समयानुकूल तय किया।
शादी धूम-धाम से सम्पन्न हुई पर लड़का जिस्मानी तौर से पूर्णतया स्वस्थ नहीं था, यह बात छुपाई गई। दूल्हे ने यह छल किया पर मजबूरन आशा और उनके परिवार वालों ने वह कमज़ोरी ज़ाहिर न की। शादी की पहली रात, जहाँ दूल्हे-दुलहन का कमरा सजा हुआ होना चाहिए था, दीवारो पर गुलाब की लड़ियाँ और बिस्तर पर रेशमी चादर फूलों से महकी हुई होनी चाहिये थी, ऐसा कुछ नही था वहाँ। उनके कमरे का दरवाज़ा सारी रात खुला रहा, जहाँ धीमी रोशनी के बजाय तेज़ रोशनी रही। दहेज से लाई हुई नाइटी पहनने के बजाय उसे धुला हुआ कुर्ता-पैजामा पहनने को दिया गया। अपनी विधवा माँ का पुराना मंगलसूत्र उसे पहनाया गया। दरवाज़े के पास घर का पालतू कुत्ता लेटा रहा और रोती हुई आशा करवटें बदलते सोचती रही कि यह कैसी शादी है, हाँ नई दुल्हन की कोई ग्रह प्रवेश की रस्म अदा नहीं हुई और न ही घूँघट हटाने की?
आशा ने अपनी डायरी में लिखा है कि उसकी सास ने दूसरे दिन सुबह की चाय पीते हुए कहा - ‘‘मैं समझी हाल में रखने के लिये तुम माँ से डी वी डी और २९’’ की टी.वी. ले आओगी।’’ मैं सुनकर हैरान हो गई। शादी के तीसरे दिन वाली तारीख़ के तहत आशा ने लिखा है - आज सुबह जब मैंने स्नान घर में शावर चलाकर स्नान किया तो थोड़ा पानी बाहर निकल आया और मेरे बाहर आते ही मुझे न सिर्फ़ अपने पति से सुनना पड़ा कि - ‘मैं गँवार हूँ, मुझमें कोई अच्छा संस्कार नहीं है’, और सास ने भी कहा कि ‘माँ ने तुम्हें क्या सिखाया है।‘ मुझे बहुत दुख हुआ और उसके बाद मैंने कभी शॉवर को छुआ तक नहीं।
‘तुम अपने को समझती क्या हो, कोई हूर तो हो नहीं, काली भैंस की तरह हो। क्यों नए-नए कपड़े पहन कर ख़ुद को सजाती हो। मम्मी की पुरानी साड़ियाँ निकाल कर पहन लो।’
‘‘हर बार जब मैके जाओ, लौटते हुए कोई न कोई काम की चीज लेकर आओ, पैसे, ओवन, ग्रिलर वगैरह’’ यह डाइरी में दर्ज है। जब हनीमून के लिये हवाई जहाज़ का टिकट करवाने गया तो मुझे साथ नहीं ले गया। लौटते ही कहा - हिन्दुस्तान के बाहर जाने से सब दोस्त मना कर रहे हैं। मॉरिशस और स्विट्जरलैंड की बजाय साउथ में चलो घूम आते हैं। मैंने चुप्पी साध ली। मुझे बहस करके बात बढ़ाना बेमतलब लगा। वहाँ भी जब-जब समुद्र के किनारे बैठकर कोई भी बात करते तो वह बहस बन जाती। वह अपनी जिस्मानी कमज़ोरी को छुपाने के लिये हर बात को मोड़ देते थे, यहाँ तक कि जितने दिन हम साथ में रहने वाले थे, उससे चार दिन पहले ही घर लौट आए।
मुझे अभी भी अच्छी तरह याद है, उसने कहा ‘तुम अपनी बातचीत, चाल-चलन बदलो और उसके लिये मैं तुम्हें छः महीने देता हूँ, अगर तुम न बदली तो मैं तुम्हें छोड़ दूँगा।’
इस तरह शादी के पश्चात् छत्तीस दिन मैंने पति और सास के ताने सहे और एक दिन कहीं से उड़ती ख़बर कानों तक आई कि मेरे पति ने कुछ दिन पहले ही मर्दानगी से लागू एक छोटा ऑपरेशन कराया है। इस बारे में मुझे कुछ भी बताया नहीं गया, न ही मुझे विश्वास में लिया गया। गर ऐसा करते तो मैं भी शायद उनका साथ देती। मेरे साथ विश्वासघात हुआ इसकी मुझे फ़िक्र नहीं पर उन्होंने किसी न किसी बहाने मेरे माता पिता को छला, उनसे सोना, जेवर और कीमती चीज़े हासिल करते रहे। आख़िर सब्र का बांध टूटा और छत्तीस दिन के बाद मैं माँ के आगोश में और नानी की गोद में छलक पड़ी। इतना रोई कि मेरे दुख आबशार बनकर बहने लगे।
सुबह खौफ़ के साथ उठा करती थी, इस डर में जीती थी कि आज का दिन जाने कैसे बीतेगा। छत्तीसवें दिन पति की मौसी के पास खाना था। रात १.३० बजे लौटते समय दोनों मुझे मेरी माँ के घर छोड़ने आए यह कहते हुए कि चार-पांच दिन यहाँ रह लो ताकि मन बहल जाए और मैं भी सोचने लगी कि रोज़ की जली-कटी सुनने से कुछ दिन निजात हासिल हो।
डायरी के ४२ वे पन्ने पर वह लिखती है ‘‘आज छः दिन भी पूरे हो गए है, रात का एक बजा है। इन छः दिनों में एक बार भी उन्होंने फ़ोन नहीं किया और न ही मेरी कोई खोज ख़बर ली। इससे तो यही लगता है कि यह छत्तीस दिनों की दास्तां थी !’’
काश रिश्तों की बुनियाद विश्वास की नींव पर रखी गई होती तो किसी को भी छल-कपट का रंज न होता, ज़िन्दगी में दिलों की बीच की दरारें चौड़ी न होती। तबाही पर अंकुश लग जाता अगर दिल की गहराइयों से प्यार के झरने फूट पड़ते !!
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