सिंधी कहानी छोटा दुख- बड़ा दुख बंसी खूबचंदानी अनुवाद: देवी नागरानी ‘जल्दी करो शान्ती, मुझे ऑफ़िस के लिये देर हो रही है और तुमने अभी तक नाश्...
सिंधी कहानी
छोटा दुख- बड़ा दुख
बंसी खूबचंदानी
अनुवाद: देवी नागरानी
‘जल्दी करो शान्ती, मुझे ऑफ़िस के लिये देर हो रही है और तुमने अभी तक नाश्ता तैयार नहीं किया है। मुझे आज सुबह ही बॉस को पिछले महीने की प्रोग्रेस रिपोर्ट भी देनी है। जल्दी करो कुछ हाथ चलाओ।’
‘देख नहीं रहे हो कि मेरे हाथ काम कर रहे हैं, और मुझे भी दो ही हाथ है चार नहीं, अगर इतनी जल्दी थी तो ख़ुद नाश्ता बनाते ! तुम्हें तो पता है मैंने आज छुट्टी ली है।’
‘हाँ, पर मुझे तो छुट्टी नहीं है न ! जब तुम्हें ऑफिस जाना होता है तो कैसे वक़्त से नाश्ता बनाती हो, बाक़ी मेरे लिये...।’
शान्ती रसोईघर के दरवाज़े पर कमर पर हाथ रखकर खड़ी सिद्धार्थ की ओर देखती रही। फिर उसका गुस्सा मन के सागर से बाढ़ की तरह उफन आया। वह रसोईघर से थोड़ा आगे आकर, पति के पास में खड़ी होकर हाथ हिलाते हुए कहने लगी - ‘आख़िर तुम भी इतना रोब किस बात पर जताते हो ? मेरी पगार तुम्हारी पगार से पांच हज़ार ज़्यादा ही है। मैं अपनी ज़िन्दगी खुद चला सकती हूँ, तुम मुझपर इतना रुबाब मत दिखाओ ! अभी अगर नाश्ता करना है तो चुपचाप टेबल पर बैठो, नहीं तो ऑफिस की कैंटिन तो खुली ही पड़ी है।’
इतना कहकर शान्ती पैर पटकती रसोईघर में चली गई और सिद्धार्थ आवक्-सा खड़ा उसे देखता रहा। फिर आहिस्ता-आहिस्ता अपनी गर्दन झुकाए, ऑफिस का बैग लेकर वह दरवाज़े के बाहर आया।
घर के बाहर ऑटो पकड़ने की नाकाम कोशिश की, पर कोई भी ऑटो वाला अंधेरी स्टेशन चलने को तैयार नहीं। वह दो-तीन ऑटो वालों से झगड़ा भी करता है, उन्हें आर.टी.ओ में शिकायत करने की धमकी भी देता है, पर ऑटो वाले मुस्कराते हुए आगे बढ़ जाते हैं। वह सोचता है कि अंधेरी में दस हजार से भी ज़्यादा ऑटो हैं फिर भी उसे ऑटो नहीं मिलता ! पर उसे सवालों का जवाब कौन दे ?
आखिर सामने से बस आती दिखाई देती है, वह जैसे-तैसे बस में चढ़कर अंधेरी स्टेशन पहुँचता है। उसे चर्चगेट जाना है। वैसे भी वह अंधेरी से रवाना होने वाली धीमी ट्रेन से ही चर्चगेट जाता है, पर आज तो उसे वैसे भी देर हो गई है। उसे बॉस को रिपोर्ट भी तो देनी है ! आज वह बोरीवली से आती फास्ट ट्रेन पकड़ता है।
गाड़ी में भीड़ तो है, पर जैसे कि यह बारह डिब्बों वाली ट्रेन है, वह आसानी से गाड़ी में घुस पाता है और कुछ ज़ोर लगाकर अन्दर बैठने वाले स्थान के पास जाकर खड़ा होता है। आज वह खुद को थका हुआ महसूस कर रहा है, जैसे किसी ने उसके शरीर से ख़ून ही निकाल दिया हो। ऑटो वालों का बर्ताव तो वह भूल जाता है पर शांन्ती के कहे शब्द उसके कानों में अभी भी रेंग रहे हैं। ‘आखिर तुम इतना रोब किस बात पर जताते हो ? मेरी पगार तुम्हारी पगार से पांच हज़ार ज़्यादा ही है। मैं अपनी ज़िन्दगी खुद चला सकती हूँ।’
हाँ, अगर उसे अपनी ज़िन्दगी खुद चलानी थी तो फिर उसने मुझसे शादी क्यों की ? अपनी ज़िंदगी खुद चलाती।
शान्ती सिद्धार्थ से चार साल बड़ी है। एक ही ऑफिस में काम करते हैं और शान्ती की पोज़ीशन भी सिद्धार्थ से ऊँची है और पगार भी ज़्यादा, जिसकी शोखी उसने आज सुबह ही उसने जताई। सिद्धार्थ को वह दिन याद आता है जब वह लंच रूम में उसके साथ खाना खा रहा था और शान्ती की एक मराठी सहेली ने उससे पूछा - ‘शान्ती तुम कब अपनी शादी की दावत दोगी ? तीस साल की हो गई हो, अभी क्या जोगन बनके रहना है?’
जोगन बनकर रहने की बात से लंच रूम में ठहाके लगने लगे। शान्ती खाना छोड़कर बीच में ही बाहर चली गई। उसकी आँखों में उमड़ आए आँसू सिद्धार्थ ने देख लिये थे, उसे लगा कि वह जाकर शान्ती से हमदर्दी जताए, पर हिम्मत न जुटा पाया।
उस शाम ऑफिस के छूटने के पश्चात् जब वह बाहर निकला तो शान्ती को भी सीढ़ियों से उतरते देखा। वह जैसे ही तेज़ रफ्तार से सीढ़ियाँ उतरने लगी, उसका पाँव खिसका और वह चार-पांच पायदानों से लुढ़कती हुई नीचे गिर पड़ी। उसका पर्स भी कहीं छूट गया और दुपट्टा कहीं गिरा, गनीमत कि वह सलवार कमीज़ पहने हुए थी, अगर साड़ी होती तो जाने क्या होता ?
शान्ती को गिरता देखकर सिद्धार्थ लगभग सीढ़ियाँ छलांगता हुआ नीचे आया और शान्ती को हाथ देकर उठाने में मदद की। पर्स और दुपट्टा देते हुए पूछा - ‘आप को कहीं चोट तो नहीं आई है ?’
‘नहीं !’ कहते हुए शांन्ती ने सिद्धार्थ को थैंक्स कहा और वह आगे बढ़ गई। सिद्धार्थ ने जिस हाथ का सहारा देकर शाति को उठाया था, वह हाथ उस स्पर्श से जैसे गर्म हो गया था। उसके मन-मस्तिष्क में मंथन होने लगा। वह किसी अनजान शक्ति के तहत शान्ती के पीछे तेज़ कदमों से बढ़ा। उसके सामने खड़े होकर उसकी आँखों में देखते हुए कह बैठा - ‘मिस शान्ती मैं आपसे शादी करने के लिये तैयार हूँ !’
इतना कहकर वह आगे बढ़ा, पर शान्ती चुपचाप वहीं खड़ी रही। दूसरे दिन वह जैसे ही अपनी ऑफिस की टेबल के पास आया तो वहाँ उसने एक छोटा सफ़ेद लिफ़ाफ़ा पाया। आश्चर्यजनक स्थिति में लिफ़ाफ़ा खोला तो उसमें से एक छोटा पत्र निकला जिस पर लिखा था ‘यस !’
सिद्धार्थ ने सर ऊपर उठाया तो पाया सामने शान्ती मुस्करा रही थी, वह भी मुस्करा उठा ! यह सात साल पहले की बात है।
वह बीते हुए कल की यादों से बाहर निकला, तो देखा फास्ट गाड़ी दादर स्टेशन पहुँचने वाली है और पास में दो सीटें भी खाली हुई थीं। वह बैठ गया तो उसे लगा कि उसकी टांगों के साथ-साथ मन को भी राहत मिली है। बैठते ही उसे मोबाइल की घंटी सुनाई दी। पहले तो उसने समझा कि पास में बैठे आदमी का है, पर जब उसने कहा - ‘आपका मोबाइल बज रहा है’ तो उसने ऑफिस बैग से फोन निकालकर देखा, शान्ती का फ़ोन था। फ़ोन उठाते ही सिद्धार्थ ने सुना उसका चिल्लाना कि वह फोन क्यों नहीं उठा रहा है, वह उसे पंद्रह बार फोन कर चुकी है... वगैरह ! सिद्धार्थ पहले ही शान्ती से नाराज़ था, वह भी चिल्लाकर कह सकता का गर्दी में उसे फ़ोन की आवाज़ सुनाई नहीं दी और अगर वह चिल्लाना बंद नहीं करेगी तो वह फ़ोन बंद कर देगा।
जैसे ही वह फ़ोन बंद करने जा रहा था, उसे शान्ती की सिसकी सुनाई दी। रोते हुए शान्ती बार-बार अपने पांच साल के बेटे गौतम का नाम लेती रही। सिद्धार्थ ने नर्मी से रोती हुई शांन्ती से पूछा - ‘शान्ती शान्त हो जाओ और मुझे बताओ कि बात क्या है ? गौतम तो स्कूल गया है ना ?’ रोती हुई शान्ती ने उसे बताया कि - टीचर के बुलावे पर वह इस समय स्कूल में ही है, गौतम को तेज़ बुख़ार है और वह क्या करे उसे समझ नहीं आ रहा। साथ में सिद्धार्थ को जल्द से जल्द स्कूल पहुँचने के लिये कहा। पर दो पल चुप रहकर खुद को सँभालते हुए सिद्धार्थ ने कहा - ‘मैं अगली स्टेशन पर उतरकर अंधेरी की गाड़ी पकड़ता हूँ, तब तक तुम गौतम को फैमिली डॉक्टर अशोक शाह के पास ले जाओ। मैं सीधा वहीं पहुँचता हूँ और उसे फ़ोन भी कर देता हूँ। तुम ऑटो लेकर सीधे डॉक्टर के पास आओ।’
‘कम फ़ासले पर ऑटो वाले भी नहीं चलते’ रोते हुए शान्ती ने कहा। सिद्धार्थ को अपना सुबह वाला मंजर याद आया, पर गौतम को तो डॉक्टर के पास ले जाना ही था। नर्मी से शान्ती को समझाते हुए कहा - ‘ऑटो वाले को दुगुने पैसे देना और बच्चे के ठीक न होने की बात बताना। मुझे विश्वास है कि तुम्हें ऑटो मिल जाएगा। सब ऑटो वाले एक जैसे तो नहीं होते है न ? अब मैं फ़ोन रखता हूँ और जल्द ही डॉक्टर के यहाँ मिलता हूँ।’
सिद्धार्थ मुंबई सेंट्रल स्टेशन पर उतरकर, सामने प्लेटफार्म से अंधेरी जाने वाली ट्रेन पकड़ता है। उसके मन में गौतम और शान्ती के लिये प्यार और चिंता उमड़ आई। उसकी आँखों के आगे गौतम का बीमार चेहरा और शान्ती का रोता हुआ चेहरा, दोनों रक्स करने लगे, मन में तूफ़ान के आसार भी मंडराने लगे।
इस वक़्त उसके मन से सुबह शान्ती के साथ हुए झगड़े और उन कड़वी बातों का कहीं नामोनिशान नहीं था। वह सब भूल बैठा है। यह मन भी अजीब है। किस तरह एक छोटे दुख को बड़े दुख के नीचे दबा देता है और इन्सान ? क्या इन्सान मन का इतना गुलाम है कि छोटे दुख और बड़े दुख में वह फ़र्क महसूस नहीं कर सकता ? कौन जाने!
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