सरल लिखना सरल नहीं है डॉ. रामवृक्ष सिंह स्कूल-कॉलेज के दिनों में खुद को भाषा के प्रकांड पंडित के तौर पर स्थापित करने और अपने-आप को दूसरों...
सरल लिखना सरल नहीं है
डॉ. रामवृक्ष सिंह
स्कूल-कॉलेज के दिनों में खुद को भाषा के प्रकांड पंडित के तौर पर स्थापित करने और अपने-आप को दूसरों से श्रेष्ठतर दिखलाने की बड़ी लालसी रहती थी। उन दिनों हम बड़े-बड़े मिश्रित और संगुफित वाक्यों में भारी-भरकम, संस्कृत शब्दों को पिरोकर ऐसी लच्छेदार भाषा लिखते-बोलते थे कि पढ़ने-सुनने वाले अचंभित रह जाएं। चमत्कृत हो जाएं। लोग चमत्कृत होते थे या नहीं, प्रभावित होते थे या नहीं, यह तो हम कभी नहीं जान सके। किन्तु हमारी इस सनक पर कुछ लोग हमारे पीछे हँसते ज़रूर रहे होंगे। इसका हमें पक्का विश्वास है। खैर... धीरे-धीरे कुछ ऐसा हुआ कि हमें दिखावा करने की ज़रूरत नहीं रही। अब किसे प्रभावित करें! किसे दिखाएँ! सबको तो पता है कि हम क्या चीज हैं। इसलिए अब भाषा की उस कृत्रिम गंभीरता, गुरुता और भारी-भरकम विन्यास से भी हमने छुटकारा पा लिया है। यह बिलकुल ऐसे ही है, जैसे मेकअप से मुक्ति।
लेकिन अपने आस-पास देखता हूँ तो लगता है कि कोई-कोई लोग अब भी उसी पुरानी, कैशोर्य-काल वाली आदत को जिलाए चले जा रहे हैं। संभव है कि यह मेरे नज़रिए का ही दोष हो। पर बिलकुल निर्वैयक्तिक रूप से भी मेरी इस धारणा की पुष्टि की जा सकती है। यह अपने-आप में अनुसंधान का विषय हो सकता है।
केवल प्रदर्शन-प्रियता के कारण ऐसा होता हो, यानी केवल दिखाने के लिए लोग कठिन भाषा लिखते-बोलते हों, यह आवश्यक नहीं। बल्कि निरपेक्षतः तो यह बिलकुल भी नहीं कहा जा सकता। वस्तुतः होता यह है कि प्रत्येक विषय की अभिव्यक्ति की अपनी भाषा-शैली होती है, अपनी शब्दावली होती है। कई बार उस विषय को आम-फहम की भाषा में बयान करना कठिन होता है। यह बिलकुल ऐसे है, जैसे किसी बहुत ही गंभीर और उच्च-स्तरीय ज्ञान-भरी बात को बच्चों की भाषा में अभिव्यक्त करना।
आम तौर पर यह माना जाता है कि बच्चों के लिए, यानी बच्चों की कहानी, कविता, लेख आदि लिखना कठिन है। यह कठिनाई कम से कम दो स्तरों पर होती है- एक तो विषयवस्तु के स्तर पर और दूसरी भाषा-शैली के स्तर पर। बच्चों की समझ में कौन-सी बात आएगी, किसी विषय से उनका साधारणीकरण हो पाएगा, कौन-सी बात उन्हें बोध-गम्य होगी, इसकी पूरी समझ होने पर ही उनके लिए विषय-सामग्री का चयन किया जा सकता है। उसके पश्चात् किस तरह की शब्दावली और वाक्य-रचना अपनाई जाए कि बच्चों को पूरी बात हृदयंगम हो जाए, यह समझना भी बहुत जरूरी है। तभी बच्चों के लिए सफलतापूर्वक लिख पाना संभव है।
लेकिन कार्यालयीन जीवन में, विभिन्न प्रकार के गंभीर विषयों पर स्वतंत्र लेखन करते समय और दूसरी भाषा में उपलब्ध सामग्री को अपनी भाषा में अनुवाद करते समय हमें विषय-चयन की छूट नहीं होती। विषय तो पूर्व-निर्धारित होते हैं, हमें तो बस उनके पूरे कथ्य को ऐसे शब्दों और वाक्य-विन्यास में अभिव्यक्त करना होता है, जो हमारे लक्षित पाठक को खूब सरलता से समझ आ जाएँ। इसमें भी अनुवाद की स्थिति थोड़ी भिन्न होती है। अनुवाद के मामले में भाषागत स्वतंत्रता की बहुत कम गुंजाइश बचती है, क्योंकि वहाँ न केवल कथ्य, वरन् भाषा-शैली को भी यथाशक्य स्रोत सामग्री से लक्ष्य सामग्री में ले जाना होता है। विषय और शैली के इस बंधन के चलते अनूदित सामग्री में भाषा व शैली की वे सभी विशिष्टताएँ भी आ जाती हैं, जिन्हें आम पाठक प्रायः कठिनाई कहता है। मसलन विधिक सामग्री को ही लें, जहाँ शब्दों और अभिव्यक्तियों का ताना-बाना बहुत जटिलता लिए हुए होता है। चूंकि यह जटिलता मूल सामग्री में ही अंतर्निहित है, इसलिए यह कतई समीचीन नहीं होगा कि अनूदित सामग्री में से उस जटिलता को हटाकर, सारी बात बिलकुल सपाट शब्दों में लिख दी जाए। यह जटिलता विधिक साहित्य में क्यों है, इसका सही-सही उत्तर तो विधि-विशेषज्ञ ही दे सकते हैं। और शायद वे ही यह भी बता सकते हैं कि विधिक साहित्य का अनुवाद करते समय यदि अनुवादक पूरी बात को सीधे-सीधे, सामान्य शब्दों में समझा कर लिख दे तो उक्त विधिक साहित्य की विधिकता और तकनीकीपन का अपकार होगा या नहीं।
बात हो रही थी सरल लिखने की। जिन क्षेत्रों में सरल लिखना इसलिए संभव नहीं है कि उनकी सामग्री ही सरल भाषिक विन्यास में अभिव्यक्त नहीं हो सकती, उनको छोड़ दें, तो भी आम जीवन में, आम विषयों को सरल शब्दों में, सरल वाक्यों में लिखना कोई सरल कार्य नहीं है। कोई विद्वान व्यक्ति बहुत गूढ़ ज्ञान भरी बात को सरलतम शब्दों में कैसे अभिव्यक्त कर सकता है? वह तो शायद कर भी ले, क्योंकि उसके पास शब्दों का बहुत बड़ा भंडार होता है। किन्तु आम लिपिक, आम अनुवादक और आम अधिकारी, जिसका शब्द-ज्ञान बहुत सीमित होता है, वह कैसे कठिन शब्द की जगह आसान शब्द लिखे? वह अपने वाक्य को कैसे इतना सरल बनाए कि हर व्यक्ति उसे समझ सके? ऐसा करने की सक्षमता व्यक्ति में तभी आ सकती है जब वह पर्याप्त मात्रा में रचनात्मकता का धनी हो। केवल वही व्यक्ति तरह-तरह से एक ही बात को कह सकता है, जिसे अपनी बात को तरह-तरह से कहने में महारत हासिल हो। दूसरे शब्दों में जो खुद एक अच्छा, स्वतंत्र लेखक हो। अनुवाद के मामले में शैली का बंधन होने के बावज़ूद सरलता लाई जा सकती है, किन्तु उस स्थिति में रचनात्मकता की और भी अधिक योग्यता की जरूरत होती है। सीमित स्वतंत्रता मिलने पर भी अधिक से अपनी बात को सही-सटीक तरीके से कह पाना उसी के लिए संभव है, जो इस खेल का माहिर खिलाड़ी हो। बहुत संभव है कि अधिक सरलता के चक्कर में हम अपनी कही गई बात के अर्थ में भोथरापन यानी अस्पष्टता ले आएँ और अभिव्यक्ति का पैनापन खत्म हो जाए। यह बिल्कुल ऐसे ही जैसे एक ही पाने (स्पैनर) से हर गाड़ी और गाड़ी के हर पुर्जे को खोलने की कोशिश करना। क्या यह संभव है? मिस्त्री के लिए एक पाना रखना आसान है। किन्तु उसे बीसियों तरह के पाने और दीगर औजार रखने पड़ते हैं, ताकि आवश्यकता पड़ने पर वह उचित औजार का उपयोग कर सके। इसी प्रकार भावाभिव्यक्ति के लिए हमें कई तरह के शब्द और अभिव्यक्ति-शैलियाँ सीखनी और काम में लानी पड़ती हैं। जैसे एक ही पाने से गाड़ी का हर पुर्जा नहीं खुलता, उसी तरह एक जैसे शब्दों और वाक्यों (जिसे सरलता के आग्रही लोग सरल भाषा कहते हैं) से हर बात नहीं कही जा सकती। और यदि कोई व्यक्ति अर्थ का अपकार किए बिना ऐसा कर ले जाए तो उसे प्रणाम कीजिए। उसने भाषा को साध लिया है। वह भाषा का गुरु है और इस नाते प्रणम्य है।
तुलसी ने संस्कृत का प्रकांड पंडित होकर भी लोक-भाषा अवधी में मानस की रचना की। यकीन जानिए, यदि तुलसी संस्कृत, ब्रज, भोजपुरी और अवधी भाषा, भारतीय संस्कृति और दर्शन के इतने मर्मज्ञ विद्वान न होते तो मानस जैसी रचना का प्रणयन कतई न हो पाता। यदि वे केवल अवधी के ज्ञाता होते तब भी क्या उनकी यह कालजयी रचना इतनी ही महान होती?
विषयान्तर-भय के बावजूद यहाँ यह कहे बिना नहीं रहा जाता कि लोक-जीवन में जो लोग वाकई बड़े होते हैं, वे बड़े सरल भी होते हैं। सरलता को दीनता और मूढ़ता से न जोड़ना चाहिए, बल्कि सरलता को व्यक्ति के औदात्य, उसकी चारित्रिक ऊँचाई से जोड़ना चाहिए, जैसे देश के प्रथम राष्ट्रपति बाबू राजेन्द्र प्रसाद, जैसे राष्ट्र-पिता महात्मा गाँधी। महान व्यक्तियों, ज्ञानी और विद्वान व्यक्तियों के जीवन में भाषा ही नहीं, समग्र आचरण की सरलता परिलक्षित होती है। लेकिन वहाँ तक पहुँचने के लिए वैसी योग्यता भी तो होनी चाहिए!
भाषा के मामले में घूम-फिरकर फिर से सवाल यह उठता है कि क्या सभी लोग भाषा के माहिर खिलाड़ी होते हैं? क्या सभी लोग भाषा के ज्ञानी होते हैं? क्या सभी लोगों में पर्याप्त मात्रा में रचनाधर्मिता होती है? यदि नहीं, तो कार्यालयीन हिन्दी में बात-बेबात सरलता की माँग करना कितनी उचित है? फिर हर व्यक्ति का सरलता का मानदंड भी तो अलग-अलग है। सरलता की माँग करनेवालों को इस बात पर भी ध्यान देना चाहिए। कहीं ऐसा तो नहीं कि जिससे हम सरलता की माँग कर रहे हैं, उस बेचारे गरीब के लिए सरल लिखना भी कोई सरल काम न हो!
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उप महाप्रबन्धक (हिन्दी)/ Dy. G.M. (Hindi)
भारतीय लघु उद्योग विकास बैंक/ Small Inds. Dev. Bank of India
प्रधान कार्यालय/Head Office
लखनऊ/Lucknow- 226 001
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