देवेन्द्र कुमार पाठक 'महरूम' के दोहत्थड़-दोहे सरहद पर अतिक्रमण की कोशिश मेँ है चीन. ताज़-तख़्त की होड़ मेँ अगुआई है लीन. (1) ...
देवेन्द्र कुमार पाठक 'महरूम' के दोहत्थड़-दोहे
सरहद पर अतिक्रमण की कोशिश मेँ है चीन.
ताज़-तख़्त की होड़ मेँ अगुआई है लीन. (1)
घर मेँ होँ घरदारियाँ बाहर होँ षड़यंत्र.
नहीँ बचा सकता कोई यंत्र तंत्र या मंत्र.(2)
मजहब जाति ज़मात मेँ यदि बँट गया समाज.
यहाँ करेंगे एक दिन फिर परदेशी राज. (3)
ओहदोँ पर काबिज़ यहाँ हैँ दोपाए नाग.
चैनल पर किकिया रहे बढ़ चढ़ ख़बरी काग.(4)
दागदार हर महकमा वर्दी है ख़ूंख़ार.
हैँ ग़ुमराह ज़वानियाँ मूक बधिर अधिकार.
---
जसबीर चावला की कविताएँ
बस मुस्कुराइये
~~~~~~~~~
मुस्कुराइये
बस मुस्कुराइये
बेबात मुस्कुराइये
किसी भी कोण की मुस्कुराहट हो
बस मुस्कुराइये
किसी बहाने से मुस्कुराइये
बिना बहाने के मुस्कुराइये
बस मुस्कुराइये
००
मोनालीसा क्यों मुस्कुराई/छोड़ो
पर्याप्त है/मुस्कुराई
यूं ही मुस्कुराई
नहीं खुला/न खुलेगा
मुस्कुराहट का भेद
भेद न खुलने पर ही
मुस्कुराइये
००
सोये अबोध शिशु की मुस्कान
मां के चेहरे पर मुस्कुराहट
इस मुस्कान पर
आप भी मुस्कुराइये
दूध पीते बछडे़ को देखिये
नन्हें बच्चे को खेलते
पानी में बदख तैरते
इस पर भी मुस्कुराइये
बस मुस्कुराइये
००००
जीवन का गुणा भाग
********************
सबेरे की सैर
उद्यान में घूमते
तुमसे सदैव तेज चला
तीन के मुकाबले
दो ही चक्कर लगा पाती तुम
*
मैं उदाहरणों में उलझा रहा
अंक गणित के सदा
स्टेडियम में एक धावक की गति
तेज है दूसरे से
कहां कहां/कब कब
मिलेंगे धावक दोनों
*
अवचेतन में रेस लिये
जीवन बना मैदान
मिलन/सहमति के बिंदु
ओर ज्यादा होते
जो न होते जोड़ बाकी
मध्य दोनों
***********
आ चरखा चला
------------
राजनीति में आ
शुरु कर चरखा
चुंधिया रहीं आंखें
धन की बरखा
देश चरागाह है
तू 'चारा' भी खा
जीते जी खा
मर कर भी खा
गली गली में बुत
बुतों में भी खा
सत्ता का बंटवारा
कब किसनें देखा
लुटेरों के गिरोह
पुत्र भाई सखा
हिंसा भी मकबूल
इनको स्वाद चखा
पुश्तों की सोच
सूत्र जांचा परखा
--
अमीर और ऊंट
-----------
एक अरबपति को
स्वर्ग में देख
भगवान चकराया
अरबपति अंदर
कैसे घुस आया
*
मैंने तो नियम बनाया
ऊंट भले ही
सूई के छेद से
निकल जाये
पर न कोई अमीर
स्वर्ग में घुसने पाये
*
कहा अमीर ने
मेरी बात सुनिये
फिर मन चाहे जो
फैसला कीजिये
*
मैं ऊंट पर ही बैठ
छेद से आया हूं
रिश्वत दी यमराज को
सूई साथ लाया हूं
***
(बाइबिल की कथा मैथ्यू 19:24ऊंट भले ही सूई के छेद से निकल जाये,अमीर आदमी स्वर्ग नहीं जा सकता)
---
क्षमता
''''''''
वे भुना सकते हैं
हर चीज
चाहे
रिश्ता हो
दोस्ती
फर्जी चैक
राजनीति
या
मौका
०
डाक्टर 'नो'
''''''''''''''
वह भगवान नहीं थे
पर
भगवान से कम भी नहीं
ऐसा कहते थे लोग
०
हाथ साफ है उनका
हर आपरेशन कामयाब
दिल का
पूजते थे उन्हें
अफवाहों सी फैलती
शोहरत
०
चले गये
एक दिन
दुनिया से
चुपचाप
सोये सोये
दिल के ही दौरे से
०
उद्घाटित हुआ सत्य
खुली किताब
दिल विहीन थे
तनिक न थी जगह
न कोना
करूणा/दया/ममता का
०
गोदाम में भरे थे
दौलत के अंबार
शोहरत की पूंजी
चस्पे अखबार
कैसे थे डाक्टर वो
शायद डाक्टर 'नो'
०००
प्रिय पप्पू/लल्ली के नाम पाँति
--
प्रिय पप्पू/प्रिय लल्ली
और सारे प्रेमी/प्रेमिकाओं
मैंने चस्पा किये हैं
तुम्हारे नकली नाम
ताकि पहचान छुपी रहे
पर सवाल मेरे
असली हैं
००
सबेरे बाग में टहलते
मैंने देखा
पाम ट्री पर
कील से खुदा
तुम्हारा नाम
ओर जीने मरने की कसमें/वादे
साथ साथ
और दिल का निशान
आर पार निकला था तीर
तारीख भी खुदी थी
कोई दस बरस पहले की
००
मैंने आगरा के ताज महल में
पाया तुम्हारा नाम
अंजता/एलोरा में
लालकिला/चार मीनार/कुतुब मीनार
खजुराहो/कोणार्क
देश भर में
ट्रेनों के बाथरूम में भी
तुमने उकेरे/खोदे/लिखे
अपने नाम
कील/कोयले/ईंट/कलम से
छत/दीवार/पेड़ पर
ओर बनाये
तीर बिंधे दिल/लिखी कसमें
साथ जीने/मरने की
००
भूटान के पारो वेली में देखा
म्युजियम की दीवारों पर तुम थे
नाम था थिनले/जिग्मे वांगचू/ताशी/पेमा
००
इजिप्ट के लक्सर में देखा
तुम मौजूद थे
कोणार्क मंदिर में
गीजा में
कोफू के पिरामिड में/अबू सिम्बेल में भी
दीवारें कर रही बंया
तुम्हारा हाल-ए-दिल
तारीखें डली थी
तुम्हारे आमद की
वहां तुम सना/इरफान/सलमा/ सलमान थे
००
इटली के पीसा के हिलते टावर में
रोम के क्लोजियम में
वेनिस/एमस्टरडम की तेरती बोट/फेरी में
केलिफोर्निया का यसोमिते पार्क
ऊंचे पेड़
तीन हजार साल पुराने
टांगे हैं परचम तुमने
उन पर भी
महोब्बत के इजहार के
कहीं लिखा नाम डेविड/लीसा
कहींलिंडा/जान/स्टेला/राबर्ट
संसार का हर देश/हर नाम
००
पप्पू मैं तुमसे पूछता हूं
और सब लिखने वालों से
लल्ली कैसी है/कहां है
जिंदा भी है
या मर गई/मारी गई
दहेज की वेदी पर
या
झेल रही है दंश
बेटियां पैदा करने का
इरफान तुम बोलो
सना को दे चुके तलाक
कह कर तीन तलाक
कर लिये दो निकाह/बीवीयां
भूल कर कि
शरियत क्या कहती है
और डेविड से स्टेला तक
तुम बताओ
अब तक बदले
कितने ब्वाय फ्रेंड/गर्ल फ्रेंड
कितनी अंगूठीयां पहनी/उतारी
वेडिंग गाऊन
ये बच्चे उस पति से हैं/ये उस पत्नि के
क्या यही कैफियत है
उस प्यार की
टंगा है जो
किसी पेड़ के तने पर
छत/दीवार पर
लिखा है जहां
धुंधलाई इबारत से
आय लव यू लल्ली
आय लव यू पप्पू
००००
रूपेश कुमार "राहत"
तारे घबराते हैं
तारे घबराते हैं
शायद इसीलिये टिमटिमाते ह़ैं
सूरज से डरते हैं
इसीलिये दिन में छिप जाते हैं।
चाँद से शरमाते है
पर आकाश में निकल आते ह़ैं
तारे घबराते हैं
शायद इसीलिये टिमटिमाते हैं।
लोग कहते हैं
अंतरिक्ष अनंत ह़ै
लेकिन मैंने देखा नहीं
मैं तो केवल इतना जानता हूँ
सूरज बादल में छिप जाता है
चाँद बादल में छिप जाता है
सो तारे जब डरते शरमाते होंगे
बादल में छिप जाते होंगे।
तारे घबराते हैं
शायद इसीलिये टिमटिमाते हैं ।
--
एक छाँव की तलाश मैं
एक छाँव की तलाश मैं
घूमा डालडाल पातपात
रुके नहीं कदम हों दिन या रात।
कहे सूरज भी शीतल रश्मियाँ करने को
है उफ़ान में नद़ी नहीं बहाव कम करने को।
एक छाँव की तलाश में
तीव्र हैं आशाय़ें थके बदन नहीं
चाह है किलकाऱी रूदन का प्रश्न नहीं।
क्षीण है शक्ति कहा ऋ
सशक्त हैं पदचिन्ह यहाँ।
एक छाँव की तलाश मैं
गगन विशाल है हमने माना
अटल है पर जीत़ कम पड़ रहा अंतरिक्ष।
जलन है तपन में बडी है डर किसे
ज्वालामुखी अंगार हो रहे शीतल़ छुअन से मेरी।
एक छाँव की तलाश में।
रूपेश कुमार "राहत"
10 -12 - 02
रूम न। 55
टेगौर हॉस्टल़ सागर यूनिवर्सिटी
--------------.
उमेश मौर्य
लूट
लूट सको तो लूट, खुल्लम खुल्ला भारी छूट।
भारत की इस राजनीति में गघे बन गये ऊॅट।।
लूट सको तो लूट, खुल्लम खुल्ला भारी छूट।
फिर आये न आफर ऐसा, एक बार में भर ले पैसा,
अपना काम बने ये देखो,बैल कहे या बोले भैसा,
कहने पर मत जाओ मोहन, आयेगा न अवसर ऐसा,
जनता को चिल्लाने दो, वो सच बोले या झूठ
लूट सको तो लूट, खुल्लम खुल्ला भारी छूट।
फिर आये न आये कुर्सी, इसकी नहीं कोई गारण्टी
रिश्तेदारों को कर लो भर्ती, बनी रहेगी शोहरत घर की
अपना राज है लूटो-मारो, नहीं जरूरत है डरने की
महगाई का बोझ डाल दो, जनता जाये टूट
लूट सको तो लूट, खुल्लम खुल्ला भारी छूट।
~~~~~~~~~~~~~( 2 )~~~~~~~~~~~~~
मिटने वाली
जब देश नहीं, जब धर्म नहीं, भाषा भी मिटने वाली है |
तब क्या कविता, क्या ग़जल लिखें,
संस्कृति भी मिटने वाली है |
अब कौन यहाँ है भगत सिंह,
है कहाँ आजाद की आजादी,
अब कहाँ बसंती रंग यहाँ,
है कहाँ जोश की वो आंधी ,
सब टूटे है जैसे खुद से,
अधमरे है फिर भी हँसते है,
अपने ही बोझ तले जन जन ,
कभी गिरते है कभी उठाते है,
भारत की धरती से लगता है
क्रांति ही मिटने वाली है|
~~~~~~~~~~(3)~~~~~~~~~~~
जाग जाग हे युवा जाग अब
यही देश है जहां प्रताप ने खाई, घासों की रोटी,
यही देश है जहाँ पे जन्मी ,मर्दाना झांसी बेटी,
मुगलों, अंग्रेजों, के आगे, झुका नहीं था शीश कभी,
मगर आज अपने स्वारथ में , उनकी बलि को भूल गए,
भारत माता की जय कहकर, फांसी पर वे झूल गए,
वे ना होते तो क्या, ये भारत भारत होता,
न होती गीता रामायण, न साहेब कीर्तन होता,
हम खड़े है जिस धरती पे, उसके नीचे कितने वीर दबे,
आज भी गुरुगोविन्द देव के, बुझे नहीं है तीर सधे,
जाग जाग हे युवा जाग अब, क्रांति का बिगुल बजा फिर से,
भारत माँ की लाल चुनर का, खोया मान दिला फिर से ....
---------------.
मोतीलाल
मैं जब कभी जाता हूँ
नदी तट पर
तुम गाती रहती हो
नदी के पार
जंगल के सघन छाया तले
अनंतकाल से
रस भरे गीत
जिसमें छाया रहता है
तुम्हारे ह्रदय का स्पंदन
जंगल की मधुरता
व धारा का तेज भी ।
मैं चाहता हूँ
मुग्ध होकर सुँनू तुम्हें
और भूला बैठूँ
कुछ देर ही सही
अपने होने का अहसास भी
आगे निकलने की होड़ में
इस जिंदगी के बीच ।
इसी हड़बड़ी के बीच
बमुश्किल आ पाता हूँ नदी पर
तब भी लगता है
कुछ छुट चुका है
अपने हाथ से
पर जब सुनता हूँ
तुम्हारे गीत
भूल जाता हूँ कुछ पल
बाँध बैठता हूँ अपने को
बिल्कुल तुम्हारे संग
तब यही अहसास जगता है
मैं भी कुछ गाऊँ
पर पत्थरों के इस जंगल में
कौन सुनेगा मेरा गीत
तुम भी तो नहीं रहोगी
मेरे आसपास ।
* मोतीलाल/राउरकेला
* 9931346271
--------------.
मनोज 'आजिज़'
(सावन को समर्पित एक ग़ज़ल जो उसके देर से आने पर लिखी गयी हो )
ग़ज़ल
--------
ऐ नदी तू आधी-अधूरी बहती है
मेरी आँसू ले लो, किनारा मिल जायेगा
ऐसे तो कैलेंडर में सावन चल रहा
किसान कहते बरसे तो जाँ मिल जायेगा
तरस आता है कभी खेतों के बगुलों पर
केंचुएँ, मछली हो तो उन्हें खाना मिल जायेगा
तपती धूप बदन पे लगी महीनों तक
बूंदों की आगोश में सहारा मिल जायेगा
सुना कहीं दूर सावन की झड़ी है
कहो सावन से यहाँ भी बसेरा मिल जायेगा
ग़ज़ल ( बरसात आ जाने पर)
---------
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हर शाख गुल मुस्काए, बरसात जो है
तपिश ख़त्म हो जाये, बरसात जो है
खामोश रहने की बात ऐसे आसाँ नहीं
यूँ नज़्म लब पे आये, बरसात जो है ,
सैलाब दिल में होता है मुरादों का
कैसे कोई छुपाए, बरसात जो है
हर शै में खूबसूरती का मौजूं होना
हर शै दिल को भाये, बरसात जो है
मुमकिन हो हर गम सबके धुल जाये
उम्मीद शख्त हो जाये , बरसात जो है
कब किस पर हमेशा ही रहम बरसा
कोई घर पे भींग जाये, बरसात जो है
पता -- इच्छापुर, ग्वालापाड़ा, पोस्ट- आर आई टी
जमशेदपुर-१४ झारखण्ड
फोन-0997368014
---------------.
संस्कृता मिश्रा
सफ़र की खातिर
यहाँ पर छतें तरसती हैं एक घर की ख़ातिर
और तू गाँव छोड़ आया, इस शहर की ख़ातिर
सियासतदां नहीं हूँ, तभी ईमान पक्का है
इधर से आ नहीं मिलती मैं उधर की ख़ातिर
वफ़ा का रुतबा क्या है ये इस तरह समझो
कुछ कश्तियाँ डूबती हैं खुद, लहर की ख़ातिर
फ़ुटपाथ के अँधेरों में सस्ती शराब की बोतल
वो खटा था दिनभर क्या, इस सहर की ख़ातिर
जब से सुना है उड़ान तो हौसलों से है
तब से तरसता नहीं दिल किसी पर की ख़ातिर
तू भटकायेगा मुझे क्या इन लालचों के दम से
अपना महल छोड़ आयी हूँ, इस सफ़र की ख़ाति
नज़र ए सुबह न दे तू तो भी उसे रंज नहीं
वो शज़र तो खड़ा है तेरी दोपहर की ख़ातिर
------.
नितेश जैन
दूरी .....................
हर पल बादलों सी नम होती ये आंखें
दबी-दबी हवाओं सी चलती ये सांसें
कभी पत्तों की ये सरसराहट
तो कभी चेहरे पे झलकती ये आहट
वक्त बेवक्त बस यही कहती है
जाने क्यों ये दूरी रहती है
दिल के एक कोने में छुपी गहराई
आंखों में है तो बस एक परछाई
ये नीला आसमां, ये ठहरा हुआ समां
ये तनहाइयां, ये खामोशियां
कभी सहमी-सहमी सी आहें
तो कभी डरी-डरी सी बाहें
कदम-कदम पे बस यही पूछती है
जाने क्यों ये दूरी रहती है
दर्द भरे ये जो लम्हें हैं
जिन्दगी में एक दिन सबको सहने हैं
न कोई अपना, लगते सब बेगाने हैं
जैसे नदी तालाबों से जुड़े किनारे हैं
अब तो यादों के सहारे वक्त
यूं ही कट जाता है
ये वक्त ही एक दिन
सब को जीना सिखाता है
ये राहें हल पल सहती है
जाने क्यों ये दूरी रहती है
नितेश जैन
नई दिल्ली
9536087834
----.
मानस खत्री ‘मस्ताना‘
जूते(कविता)
एक मामूली जूते पर लगा
5000 का ‘प्राइज़ टैग’
देख मेरा मन चकराया,
हमने दुकानदार को
अपने पास बुलाया,
दुकानदार आया
मुस्कुराया।
बोला भाई साहब...
क्या शानदार जूते हैं!
हमने कहा, ठीक है
पर इसके दाम
आसमान छूते हैं।
दुकानदार बोला,
‘प्रीमियम क्वालिटी लेदर‘ का बना
‘ब्राण्डेड‘ जूता है भाई,
कौन-सा रोज़-रोज़ लेना है,
एक बार इसे तो कीजिये ‘ट्राई‘।
हमने कहा,
जब पाँव में ही पहनना है
फिर क्यों दें इतना दाम,
दुकानदार बोला, सर...
फिर तो आप चप्पलों से ही चलायें काम।
लेकिन ध्यान रहे...
अभी सिर्फ 5000 का है,
आप की शादी में
4 गुना दाम लगाया जायेगा,
और आपका ही जूता
चोरी कर आपको ही
चूना लगा जायेगा।
थोड़ा ‘सीरियस‘ होकर हमनें कहा,
मान्यवर हमें इन शादी-रस्मों
के चक्कर में न उलझाइए,
सीधा-सीधा इन जूतों का
सही दाम लगाइए।
दुकानदार ने एक जोड़ी जूता
हाथ में उठाया...
हमे दिखाया!
और बड़े गर्व से बताया,
जूते बहुमुखी गुणों की खान हैं,
अफसर, बाबू, चपरासी,
सबकी कराते पहचान हैं।
और आप समझते हैं...
सिर्फ पाँव में इनका स्थान है?
आम आदमी जो कभी
भ्रष्ट लोकतंत्र की चक्की में पिसता था,
चक्कर काटते-काटते
कितनी जूतियाँ घिसता था।
वही अब भरी सभा में
जूता उछालता है,
और... जिनके पास से गुज़रता हैं,
मीडिया भी उन्हें खंगालता है।
पड़ता है एक बार,
दिखता है बार-बार।
सिर्फ भारत नहीं,
‘इन्टरनेशनल लेवेल‘ पर भी वारदात हुई है,
सुना है अब तो जूता-‘प्रूफ‘
सुरक्षा की भी बात हुई है।
भाईसाहब, इतिहास गवाह है,
जूतों ने न कभी
इतनी प्रसिद्धि पाई है,
आज जूतों के दाम,
कपड़ों से ज्यादा ‘हाई‘ है।
इतना कह कर दुकानदार
वहाँ से जाने लगा,
‘आम आदमी‘ होने का दर्द
हमें सताने लगा।
मैंने कहा -
जनाब! आपकी बातों में दम है,
ये सिर्फ जूता नहीं,
जूता-‘बम‘ है।
बस इतना गम है
आम आदमी हर रोज खाता है,
असल जूता इस जूते का असर
भाप भी नहीं पाता है।
महंगाई, बेरोज़गारी, आतंक, भ्रष्टाचार
हर ‘ब्राण्ड‘ का जूता आजमाया जाता है,
‘योजनाओं‘ के नाम पर हमें अक्सर
जूता सुंघाया जाता है।
‘आम‘ पर तो सरेआम जूते बरसते हैं,
फिर भी पाँव जूतों को तरसते हैं।
भाईसाहब...
अब आप जुल्म मत ढहाइए,
इन सबका समाधान हो!
ऐसा कोई जूता हो तो हमें दिखाइए।
5000 क्या... 50,000 ले जाइए।।
-रचनाकारः मानस खत्री ‘मस्ताना‘।
-उम्रः 20 वर्ष।
-पताः गुरू कृपा सदन,
एच.आई.जी-31,
कोशलपुरी कालोनी, फेज़-1,
फैज़ाबाद-224001।
--------------.
अखिलेश चन्द्र श्रीवास्तव
अक्सर ऐसा होता है …
कि पौधे काटने छांटने के बाद ….
और … जोश से बढ़ते … हैं
फलते …फूलते और हरियाते हैं …
और यदि न काटा जाये तो
उनकी बाढ़ रुक जाती है ………
बुढा जाते हैं असमय ………
फल फूल भी उन पर नहीं लगते
लगते भी हैं तो बहुत कम और ….
मरे …… मरे ........
यह साबित करता है ………
कि यदि अपनी अदम्य इच्छा
जीने की हो ……तो ……
कोई ताकत हमें जीने से रोक नहीं सकती
हमारा जोश व् तरक्की रोक नहीं सकती
हमारी जीवन शक्ति अजेय है …………
जिन बच्चों में पढ़ने की
आगे बढ़ने की .. इच्छा होती है ……………
पढ़ते हैं तमाम असुविधाओं और
काट छाँट के बावजूद ……
प्रतिभाएँ सदैव जन्म नहीं लेती
केवल अमीरों के घर
सुख सुविधा साधन ………….
हो सकते हैं पर साध्य नहीं ...
कबीर तुलसी रैदास ……….
जिये और मरे गरीबी में …….
पर कौन रोक पाया उनकी उन्नति ……
आगे बढ़ने की चाह और भावना
अतः दबना नहीं है दबाने से …….
मरना नहीं है केवल मार खाने से …
कट के भी आगे बढ़ना सीखो
उखड़ के भी जमना सीखो …….
कुछ तो सीखो तुम झाड़ से पौधों से …
कुछ तो बनो अपनी प्रतिभा से
हिम्मत से ………
मुसीबतों को आना है ..वे जरूर आयेंगी
अपने साथ तमाम तकलीफें भी लायेंगी
उनसे जो जूझ सकते …वो ही बहादुर हैं
उसी बहादुर को जीने का हक़ है
जीने का हक़ है …….
केवल उसे ही जीने का हक़ है
---
(सभी चित्र - सौजन्य जसबीर चावला)
sabhi kavitayen achchi hain aur vibhinn kaviyon ke vibhinn vichachoron ka sunder guldasta pesh karti hain sabhi kav iyon ki mehnat aur bhavnaon ko salaam
जवाब देंहटाएंKafi behtar rachana, Sanskrita ji! wah
जवाब देंहटाएंManoj Aajiz
सभी कविताये अच्छी लगी |
जवाब देंहटाएं