‘गरीब ( के ) खाने में ताक-झाँक’/ प्रमोद यादव गरीबखाने में ताक-झाँक की हमेशा से आदत रही है बड़े लोगों की – राजाओं -महाराजाओं की , नेताओं -अभ...
‘गरीब ( के ) खाने में ताक-झाँक’/ प्रमोद यादव
गरीबखाने में ताक-झाँक की हमेशा से आदत रही है बड़े लोगों की – राजाओं -महाराजाओं की , नेताओं -अभिनेताओं की ,मंत्रियों -संतरियों की. उन्हें सदैव डर सताए रहता है कि कहीं ये लोग भी उनकी तरह मटन-बिरयानी तो नहीं खींच रहे...उनकी तरह वोद्का , बियर या जानीवाकर तो नहीं गटक रहे..इसलिए गाहे-बगाहे, समय-असमय जब भी उन्हें किसी गरीबखाने में घुसने का अवसर मिलता है ( किसी आपद स्थिति में अथवा चुनावी दिनों में ) तो ये पेल के घुस जाते हैं – पूरे लाव-लश्कर के साथ. वहां जो कुछ भी मिलता है ( गरीब के घर में रोटी-चटनी के सिवा और मिलेगा क्या ? ) चाव से खाकर( और देखकर ) संतुष्ट हो लेते हैं कि चलो अभी भी स्थिति यथावत है,बिरयानी-वोद्के तक नहीं पहुंचे. फिर युवराज गरीबी पर चिंता जताता है,उनकी समस्याओं की पूछ -परख लेता है , यह जताने की चेष्टा करता हैं कि हम भी घर पर यही कुछ. खाते हैं..हम आपसे इतर नहीं गरीब जानता है कि कोई युवराज एक जून का खाना उसके गरीबखाने में साथ बैठकर खा लेगा तो ना उसका भला होना ना ही गरीब का. ना ही देश में महामारी की तरह व्याप्त गरीबी का . पर गरीब तो बेजुबान होता है ..क्या कहे और कुछ कहे भी तो कौन सुने नक्कारखाने में तूती की आवाज ?..गरीबनवाज चुपचाप हाथ जोड़े ‘ अतिथि देवो भव ’.की मुद्रा में धन्यवाद ज्ञापित करता है और मन ही मन सोचता है – आज का खाना तो युवराज खा गया ...कल , परसों या नरसों कोई और ‘राज’ या ‘नाथ’ पधार जाए तो यह गरीबपरवर क्या खायेगा ?
बड़े लोग खाने के लिए जीते है और गरीब जीने के लिए खाते है. गरीब कभी जानने की चेष्टा नहीं करता कि ‘वो’ क्या खाते-पीते है पर बड़े लोग हमेशा सशंकित कि कहीं ये गरीबी-रेखा न पार कर जाएँ ..’ऊपर वाले ‘ ने तो मनुष्य को केवल दो वर्गों में बांटा -अमीर और गरीब लेकिन सरकारी-तंत्र ने इसमें भी दो फाड़ कर दिए किसी राजनितिक पार्टी की तरह- गाँव के गरीब अलग और शहर के गरीब.अलग. गरीबी में भी गुटबाजी.. दोनों की सीमाएं भी तय कर दी कि तेईस रूपये तक प्रतिदिन कमाए तो गाँव के गरीब और चवालीस कमाए तो शहर के. इस सीमा को लांघे कि आप अमीरों में शुमार...फिर सरकार की सारी सुविधाओं से आप मरहूम..
सरकार इन दिनों देशवासियों के साथ ‘गरीबी-गरीबी’ का खेल खेल रही है.उसके अधीन योजना आयोग कहती है –गरीबी कम हुई...दस साल में गरीब कम हुए..मंहगाई घटी . . सरकार के सिरफिरों ने इस मौके पर बेतुके बयानबाजी कर गरीबी का गंभीर मजाक भी उड़ाया ..एक सांसद के कहा- मुंबई में बारह रूपये में भरपेट भोजन ...तो एक मंत्री ने कहा- दिल्ली के जामा मस्जिद इलाके में पांच रूपये थाली...एक केन्द्रीय मंत्री ने तो हद ही कर दी,कहा- मात्र एक रूपये में पेट भर सकता है पर यह खाने वाले पर निर्भर है कि वो क्या खाता है. जनाबेआली ...एक रूपये में तो आज जहर भी मयस्सर नहीं कि गरीब खाकर गरीबी ही ख़त्म कर आप लोगों का काम आसान कर दे. और आपको मजाक सूझी है..मीडियावालों ने छानबीन की तो सारे आंकड़े गलत निकले..मालूम पड़ा कि पांच रूपये में पेट ‘खाली’ हो सकता है ( सुलभ शौचालय के सौजन्य से ) पर ‘भरा’ नहीं जा सकता. देश के कर्णधार सांसद भी अपनी केंटिन में पचपन रूपये का थाली खाते हैं गाली दे-देकर तो गरीबों को भरमाने क्यूं अनाप-शनाप मेनू बता मंहगाई कम होने का दावा करते हैं ?
गरीबी के गंभीर समस्या पर ज्यादा सोचने के गंभीर परिणाम हो सकते हैं.दुनिया भर की आदर्श व्यवस्थाएं इसे लेकर फिक्रमंद है तो भला एक आम आदमी क्यों सोचे ?.आम आदमी के सोचने का यह विषय नहीं..सत्तापार्टी और विप क्ष के वाद-विवाद का विषय है यह. आम आदमी को केवल उसका तात्कालिक हाल-चाल जानने का हक़ है.उसी का निर्वाह करते मैंने कुछ अदद गरीबखानों का दौरा किया. उसी दौर-दौरे के बातचीत के कुछ अंश यहाँ प्रस्तुत है-
एक गरीब से पूछा- ‘ गरीब कौन हैं ?’
उत्तर था- ‘ जो अमीर नहीं .’
‘गरीबी क्या बला है ?
‘ राजनीती का जिसमे भला है’
‘आप बड़े होते..अमीर होते..नेता होते तो गरीबों को क्या देते ?’
‘ भाषण...’
‘ एक गरीब का अंतिम सपना क्या होता है ?’
‘ मत पूछिए....कुछ-कुछ होता है..’
‘ बता भी दीजिये ...क्या होता है..’
वह शरमाया,फिर बोला - ‘ बाकी का नहीं जानता..अपना बताता हूँ...दो मर गयी..एक भाग गयी..चौथी पर फ़िदा हूँ.. बस, वही मेरा अंतिम सपना है..’
जवाब सुन मुझे भी ‘कुछ-कुछ’ होने लगा..मैं दूसरे गरीबखाने की ओर बढ़ गया..
एक बुद्धिजीवी टाईप के दिखनेवाले गरीब से पूछा- ‘ गरीबी क्या है ?’
उसने फटाक से जवाब दिया- ‘अभिशाप.. जिल्लत....घुन... महामारी...’
मैं खुश हुआ.अगला सवाल किया- ‘ गरीबी में आटा गीला कब होता है ?’
‘ जब कोई युवराज बिना बुलाये गरीब ( के ) खाने पर उतर आये ...’
‘ गरीबी पर दो शब्द कहें..’
‘ अजीब-गरीब...गरीब.. ‘
‘गरीबी पर कभी कोई पुस्तक लिखें तो क्या शीर्षक देंगे ?’
उसने नेहरु की तरह मुद्रा बना कहा- ‘ गरीबी-एक खुजली ‘
जवाब सुन मेरे दिलो-दिमाग में खुजली होने लगी..मैं दूसरे दरवाजे की ओर बढ़ गया.
यह कुछ फ़िल्मी गरीब था..खाना ना मिले ..न सही पर दिन में एक-दो पिक्चर देखना इनका जन्म-सिद्ध अधिकार.
‘गरीब हमेशा हाशिये पर रहे ..इसका कोई अच्छा उदाहरण दें ..’ हमने कहा. .
‘ सिनेमा के सौ साल हुए..हजारों पिक्चर बने.पर गरीबी पर मात्र दो-तीन ही..गरीबनवाज और अमीर-गरीब...बस. सिनेमा में भी सियासत...’ वह गुस्साया.
‘गरीबों पर गाने तो खूब बने होंगे..’ मैंने कहा.
‘ अरे कहाँ ..वही दो-चार ...गरीबों की सुनो वो तुम्हारी सुनेगा..गरीब जानके मुझको दगा न देना..एक धनवान की बेटी ने निर्धन का दामन छोड़ दिया...इसको छोड़ आपको याद हो तो बताएं...यहाँ भी बड़े लोगों की दादागिरी..’
‘ इन सौ सालों में “सबसे गरीब एक्टर “का अवार्ड किसे देना चाहिए ?’
‘स्व.भारतभूषण जी को...’
‘ अच्छा ये बताओ..तुममें अगर किसी निर्माता-निर्देशक की आत्मा समां जाए तो गरीबी पर क्या-क्या फिल्म बनाओगे ?’
‘ सबसे पहले...’गरीब इण्डिया’ फिर ‘जिस देश में गरीब रहता है’..’गरीबी मेरा नाम’..’गरीबों को आने दो’..’गरीब कहे पुकार के’...’गरीब किसी से कम नहीं’..’गरीबों का देवता’. ‘गरीब है कि मानता नहीं’. ’गरीब इज अमीर’..’ ‘ भाग..गरीब ..भाग..’
‘बस ...बस..यार..नाम सुनकर ही मैं गरीबमय हो रहा हूँ ज्यादा देर बैठा तो कंगाल हो जाउंगा..चलता हूँ मैं .’
पिछले साल एम.पी के खंडवा जिले के एक गरीब से मिला था.वहां के प्रशासन की पारदर्शिता से मैं मुग्ध हुए बिना न रह सका. और शहरों में तो इन्हें खोजने में भारी दिक्कतों का सामना करना होता था,यहाँ ये एकदम सुलभ थे-.सुलभ -शौचालयों की तरह.. प्रशासन ने काफी मेहनत करके हर गरीब के घर की दीवार में लिखवा दिया था- ‘मैं गरीब हूँ ’ काश..भ्रष्टाचारियों के घर भी ऐसे ही ‘सूक्ति’लिखने की हिम्मत दिखाते.. मैंने एक गरीब के घर का सांकल खटखटाया तो एक साहुकारनुमा व्यक्ति दरवाजे की ओट से झांकते पूछा- ‘क्या है ? क्या चाहिए ?’
मैंने कहा- ‘ एक अदद गरीब… जो यहाँ रहता है..’
उसने ‘गरीब होगा तेरा बाप’ वाली नज़रों से मुझे ततेरा और कहा ‘बोलो..क्या कहना है ?’
मैंने कहा= ‘ दीवार पर जो लिखा है..उससे आपको कोई आपत्ति नहीं ?’
‘ कैसी आपत्ति और क्यूं..जो लिखा है वह मेरे लिए भैंस बराबर है..आगे बोल..तुझे क्या चाहिए ?’
मैं हैरान था..बार-बार मुझे ‘क्या चाहिए-क्या चाहिए’की चोट से चोटिल कर रहा था. मैंने पूछा- ‘आपके घर में टी.वी. है ?’
उसने सर हिलाया- ‘ हाँ है...फ्रिज भी है वाशिंग मशीन भी.. ए.सी. लगवाने की सोच रहा हूँ..क्या ए.सी. वाले हो ?’
‘ नहीं..मैं ‘एल.बी.डब्लू.’ (से) हूँ..’
‘अच्छा..क्रिकेटर हो...’वह पहली बार खुश हुआ. वह जोर से चीखा-‘ अरे मुनवा..जल्दी आ ..देख कौन आया ..कोई क्रिकेटरबाबू है..इनसे तू क्रिकेट सीख.....’
‘मैं ‘लोक - भारती, वर्धा ’ से हूँ...आपका इंटरव्यू लेने आया हूँ..गरीबी के विषय में..महंगाई के बारे में..न्यूज में तो देखा ही होगा कि कैसे इन दिनों गरीबी पर राजनीती गरमाई है.. ‘ मैंने गुस्से से समझाया. तभी एक अंग्रेजी माध्यम पब्लिक स्कूल का भारी -भरकम बस सामने चौक पर आकर ठिठका. दरवाजे की ओट में खडा गरीब धडाम से दरवाजा खोल बाहर आया..उसके पीछे तीन छोटे – छोटे बच्चे टिप-टाप यूनिफार्म में टाई लगाए चींटियों की तरह कतार से निकले..मैं कुछ कहता ,उसके पहले ही उसने बेरुखी से कहा- ‘ अभी मेरे पास वक्त नहीं.फिर कभी आना..अपाइंट मेंट लेकर आओ तो ठीक रहेगा..’ और वह आँखों से ओझल हो गया.मैं दीवार पर लिखे ‘मैं गरीब हूँ’ की ठाठ देख मूर्छित होते-होते बचा. और .जान बचाकर भाग आया.
बहुत किस्से हैं गरीबी के....गरीब-प्रधान देश जो है. - रहा सवाल गरीबी के मजाक का तो यही कहूंगा- सदियों से यह चल रहा है..एक शेर है न --..
“एक शहंशाह ने बनाके हंसी ताजमहल ,
हम गरीबों का उड़ाया है मजाक..........”.
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प्रमोद यादव
दुर्ग,छत्तीसगढ़
मोबाईल-०९९९३०३९४७५
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शब्द -चित्र बेहतरीन है |
जवाब देंहटाएंआज अपने आप से पूछना पडेगा कि हम जीने के लिए खा रहे हैं कि खाने के लिए जी रहे हैं । सुन्दर प्रस्तुति ।
जवाब देंहटाएंबेहतरीन
जवाब देंहटाएंbehatarin
जवाब देंहटाएंexcellent
जवाब देंहटाएंशकुंतलाजी , सुशील व अन्य मित्रों,
आप सबका आभारी हूँ..
Bahut achchi saamyik tippani hai.
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