सिन्धी कहानी हम सब नंगे हैं -कीरत बाबाणी अनुवाद: देवी नागरानी वह बिल्कुल नग्न थी, सिर से पाँव तक, सिर्फ़ छाती पर एक पट्टी बांधी हुई थी। जवा...
सिन्धी कहानी
हम सब नंगे हैं
-कीरत बाबाणी
अनुवाद: देवी नागरानी
वह बिल्कुल नग्न थी, सिर से पाँव तक, सिर्फ़ छाती पर एक पट्टी बांधी हुई थी। जवान थी, बदन भी चुस्त था। मैं अपने ख़यालों में गुम, समुद्र के किनारे श्यामल धुंधलके में पैदल तेज़ क़दमों को आगे बढ़ता जा रहा था। वो कहाँ से आई, कब आई, कैसे मुझ तक पहुँची इस बात की कतई भनक ही नहीं पड़ी। जब तक उसने अपने हाथ से मेरी कलाई को थामा। उसकी पकड़ बहुत मज़बूत थी। इस अचानक के हमले से मैं सरापा दहल गया, शायद डर भी गया ! अपने तन-मन की हलचल और हालत का क्या बयान करूँ। ये मेरी ज़िन्दगी के साथ हुआ पहला हादसा था।
वह मेरी कलाई को मज़बूती से पकड़े हुए थी। बस उसके मुँह से सिर्फ़ ‘‘धमाल... धमाल... धमाल....’’ लफ़्ज़ निकल रहा था। उस शब्द की परतों में छुपी दर्द की सरसराहट हवा के झोंकों के साथ फिज़ाओं में फैल रही थी।
कितने पल तो मैं बुत बना रहा, पर जल्द ही होश संभाला। क्रोध भरे स्वर में मैंने श्...श्... का स्वर निकाला बिलकुल उसी भाव से जैसे कोई गंदी चीज़ से किनारा करते, घृणा दिखाते हुए करता है।
जब बार-बार मेरी नापसंदगी ज़ाहिर होने के पश्चात् भी उसने मेरी कलाई पर से अपनी गिरफ़्त ढीली नहीं की तो मैंने गुस्से से उसे धक्का दिया और अपनी कलाई आज़ाद करवा ली। एक डरे हुए प्राणी की तरह मैं तेज़ क़दम बढ़ाते हुए आगे बढ़ा। मेरा दिल तेज़ी से धड़क रहा था, पसीने के बावजूद भी मेरा बदन ठंडा होता जा रहा था। पीछे मुड़कर देखने की हिम्मत नहीं थी, ऐसा लगा जैसे कोई भूत मेरा पीछा कर रहा हो।
काफ़ी आगे बढ़ जाने के पश्चात् मेरे डर का अहसास कम हुआ और दिल की धड़कन भी साधारण रफ़्तार से चलने लगी। तब जाकर ख़ुद पर सोचने की पहल की। मैं भी कितना बहादुर और साहसी आदमी हूँ। एक औरत आकर मेरी बाँह पकड़ लेती है और मैं सरापा डर से मात खा गया। आज एक औरत को धक्का मारकर खुद को आज़ाद करवा लिया, ऐसे जैसे वह मुझे खा जाती। बहादुरी का क्या मिसाल कायम किया है मैंने जीवन में ? वो कौन से मन की दशा और दिशा थी कि मैं उस औरत के नंगेपन से डर गया ? क्या मेरे डर का कारण मेरे आसपास से गुज़रते लोगों की नज़रें थी जो हैरत और नफ़रत से मेरी ओर देख रही थी ? या वह छुपा हुआ डर था कि कहीं कोई आवारा शख़्स ऐसी हालत में मेरी तस्वीर न उतार ले और फिर मेरी नैतिकता पर हमला करते हुए मुझे ब्लैकमेल न करे ? ऐसा भी हो सकता है कि यह मेरे मन का खोखला-सा डर बनकर मेरा पीछा कर रहा हो।
ऐसी कितनी दलीलों की कशमकश में भी मैं राहत न पा सका। अपने किये गये शर्मनाक व्यवहार के लिये मेरी कोई भी दलील मुझे अपनी परेशानी से बाहर लाने में कामयाब न हुई। यह हादसा मुझपर इतना हावी रहा कि मैं अपने घर वापस भी किसी दूसरे रस्ते से गया, इस डर से कि कहीं फिर न उसी हालात से रू-ब-रू हो जाऊँ।
घर पहुँचा तो खामोश रहा, हालाँकि डर का अहसास भी धीरे-धीरे कम हुआ जा रहा था, पर मेरा मन शांत न था। डर के स्थान पर अब गुनाह का अहसास उभर आया। अपने भले मानुस होने का भ्रम चकनाचूर हो चुका था। गुनाह का अहसास ज़हरीला ज़ायका पैदा करके मेरे मन, शरीर को झकझोरता रहा। फिर-फिर सुबह वाला दृश्य मेरे सामने फिरता रहा, और मैं अपने कार्य को धिक्कारता रहा। वह सारा दिन मैंने परेशानी की हालत में गुज़ारा। मन का ध्यान केन्द्र से हटाने के लिये निरंतर कमरे में रखी हरेक वस्तु को एकटिकी लगाकर देखता, फिर दूसरी वस्तु की ओर जाता। यह सिलसिला दिन तमाम चला, पर भीतर की हलचल बरक़रार रही।
दूसरे दिन नियमानुसार तैयार होकर समुद्र किनारे टहलने के लिये निकला। मन में डर और शर्म का एक मिला-जुला अहसास था। बेचैनी थी और कल वाले हादसे की फिर से होने की संभावना भी मन में उभर कर आई।
मैं धीरे-धीरे चलता, आकर बिलकुल उसी जगह पर रुक गया। चारों तरफ़ नज़रे घुमाई, हर कोना नज़र से गुज़रा, दूर छोलियाँ मारते समन्दर तक नज़र गई। पर कल वाली औरत मुझे कहीं नज़र नहीं आई, किसी से उसका पता भी नहीं पूछ सकता था, ऐसी बेहयाई भी नहीं कर सकता था कि एक ऐसी औरत का पता पूछूँ ! अचानक मेरे भीतर एक सवाल ने जन्म लिया कि मैं उस औरत की तलाश आखिर किस कारण कर रहा हूँ ? कल ही तो मैंने उसे धक्का देकर खुद को आज़ाद करवाया था। आज मेरे मन में पछतावे का अहसास है या उससे गुनाह माफ़ करवाने की आशा? अगर वह औरत फिर से अपने उसी हाल में आकर मेरे सामने खड़ी हो जाए तो क्या मैं उसकी नग्नता की दहशत सह पाऊँगा या फिर भागकर जान बचाऊँगा ? इन्ही सवालों में उलझता, अब मैं एक नये भ्रम का शिकार होने लगा कि मुझे हक़ीक़त में ऐसी औरत से पूरी हमदर्दी होनी चाहिये, उसकी उस हालत का दर्द महसूस करना चाहिये। उसके लिये कुछ सोचना चाहिए और उसकी बेबसी भरी जिन्दगी की कहानी की तहों तक पहुँचना चाहिए। हालाँकि मैंने ये भी जाना कि वह औरत हमदर्दी जैसे जज़्बे से बहुत ऊपर उठ चुकी थी। दुख, पीड़ा, शर्म से बेमुख हो चुकी थी और शायद मैं खुद से सुलह करने के लिये ये सब सोच रहा था।
यहाँ फिर दिल में एक और ख़याल आया। मैंने सोचा - चलो मैं मान भी लूँ कि मैंने एक नैतिक गुनाह किया है, पर यह दोष क्या मुझपर बाहरी हालात ने नहीं थोपा क्या? क्या मैं ऐसे गुनाह से दामन बचा सकता था ? अगर खुद को आज़ाद कराकर भाग न जाता तो दूसरा कौन-सा रास्ता था उस हालत से बाहर निकलने का ? मैं तो उसकी लाज भी ढाँप नहीं सकता था, उसके अहसासात को भी समझ नहीं सका। उसके धमाल... धमाल... धमाल... लफ़्ज़ों के बीच के दर्द को भी पढ़ नहीं सका। मैं उसे कोई भी सहारा दे न सका, तो फिर मैं क्या कर सकता था ?
मैं चाहते हुए भी उस हादसे को भुला नही पाया। न ही अपना रोज़ का समंदर किनारे सैर करने का नियम तोड़ पाया। इसलिये वहाँ पहुँचते ही चाहे-अनचाहे नज़रे उस औरत को तलाशती, एक तरह से यह हादसा मेरे जीवन के साथ जुड़ गया। उस औरत की ट्रैजिडी मेरे विवेक में दाखिल हो गई थी और मैं उसके जीवन के उस दुखदाई पहलू पर सोचता रहता। मन के चित्रपट पर अनेक कहानियाँ उभरतीं, एक कहानी बुनता, उसे मिटाकर दूसरी गढ़ता। ऐसे कई आकार बने और मिटते चले गए, पर किसी कहानी का ताना-बाना रास न आया।
और फिर एक रात, जैसे मैं सोया हुआ था, वह मेरे घर आई ! मैं बिलकुल हैरत में पड़ गया, पर इस बार मैं डरा नहीं। मैंने अपनी ओढ़ी हुई चादर उसे दी, जैसे वह ख़ुद को ढाँप पाए। उसने मेरा कहा माना। मैंने उसे सामने सोफ़ा पर बैठने को कहा, उसने यह बात भी मान ली। कुछ समय हमारे बीच ख़ामोशी क़ायम रही, पर मेरे भीतर तीव्र मंथन जारी था।
आखिर मैंने मौन तोड़ते हुए पूछा - ‘‘तुम्हारे जीवन में कैसी दुर्घटना हुई जो तुमने हया का परदा हटा दिया है ? जरूर ऐसा कुछ भयानक ही हुआ होगा।’’
मेरी बात सुनकर कुछ देर तो वह सिसकती रही, आँसू बहाती रही। ख़ामोशी में उसका सख़्त हृदय पिघलता रहा, बहता रहा और आँसुओं का सैलाब जब कम हुआ तो मेरे बहुत पूछने पर वह हैरत से मेरी ओर देखकर कहने लगी - ‘‘तुम मेरी कहानी सुनना चाहते हो ? कहानी एक नहीं है, मेरी सौ-सौ कहानियाँ हैं। मैं अकेली तो नहीं हूँ, मेरी जैसी और भी हैं ! हमारी ये कहानियाँ आप जैसे मर्दों की बदसूरती की कहानियाँ हैं, आपकी नंगी वहशत की कहानियाँ हैं।’’
‘‘मैं एक ग़रीब पर भले परिवार की लड़की थी। मैंने अपनी ख़ूबसूरत जवानी लेकर किसी पुरुष की मुहब्बत का सहारा लिया, अपना सबकुछ उसे अर्पण कर दिया। अपनी सभी ख़्वाहिशें और तमन्नाएँ उसकी खुशी पर क़ुरबान कर दीं। पर कोई फ़ायदा न हुआ, मर्द की वहशत की कोई सीमा ही नहीं है, कोई मर्यादा, कोई अंत ही नहीं है। एक दिन उसने मुझपर हाथ उठाया। उसके परिवार के सदस्य भी उसके साथ शामिल हो गए। मैं बेबस, बेसहारा बन गई। मेरी ज़िल्लत भरी ज़िन्दगी शुरू हुई, मैं सितम सहती रही, पर उस सितम भरे जीवन को काटने का हक़ भी मेरा नहीं था, उस हक़ को मुझसे छीनने की कोशिश की गई। पहले तो मुझे ख़ुदकुशी करने पर मजबूर किया गया, मगर मैं अपने जीने का हक़ छोड़ने के लिये तैयार न थी... और फिर ? फिर जैसा होता है, वैसा ही हुआ। जिनको अपनाया था, ज़िन्दगी का सहारा समझा था, वे मुझे अर्थी पर सुलाकर जलाने की तैयारियाँ करने लगे। मुझे इस बात की भनक पड़ गई कि मेरा क़फ़न तैयार हो रहा है और एक दिन सच में, जब मुझपर घासलेट उड़ेला गया, मैंने सभी को धक्के देकर, घासलेट से गीले कपड़े उतार कर फेंक दिये। उन सभी सदस्यों को नंगा करके मैं घर के बाहर निकल आई। उसके बाद मैंने वे वस्त्र फिर नहीं पहने। जो वस्त्र स्त्री की हया को ढाँपने के साधन है, उसको भी अगर आप मर्द, उसकी ही मौत का सामान बना देते हो, तो फिर नारी वह वस्त्र पहने ही क्यों ? एक बेबस औरत के ऊपर उस हालत में क्या गुज़रा होगा, वो तो तुम मर्द ज़ात होकर अच्छी तरह समझ सकते हो। मेरा यह जीवन इन्सानी है भी और नहीं भी, पर मैं अपना अन्त लाना नहीं चाहती। तुम मर्दों के ढोंग पर से पर्दा उठा रहे, वही अच्छा है।’’
ऐसा कहकर वह उठी, चादर उतारकर ज़ोर से मेरे मुँह पर दे मारी। मैंने बहुत मिन्नतें की कि कम से कम चादर ओढ़कर अपना नंगापन ढाँप ले, पर उसका एक ही उत्तर था - ‘मैं नंगी नहीं हूँ, ये आपका असली रूप है, आप सब नंगे हैं।’
मैं फिर भी चादर लेकर उसकी तरफ़ भागा, पर बंद दरवाजे से टकराकर नीचे ज़मीन पर गिर पड़ा।
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