अनुज इमोशन ऑन डिमान्ड प्रा ․ लि ․ ऊहा-पोह की एक लम्बी स्थिति से गुज़रते हुए आख़िरकार ऊसरसिंह ने मुकदमा करने का अंतिम निर्णय ले ही लि...
अनुज
इमोशन ऑन डिमान्ड प्रा․ लि․
ऊहा-पोह की एक लम्बी स्थिति से गुज़रते हुए आख़िरकार ऊसरसिंह ने मुकदमा करने का अंतिम निर्णय ले ही लिया था। हालांकि वे मुकदमा तो कतई न चाहते थे। लेकिन बड़े-बड़े शहरों की बात ही कुछ और होती है। सभी चौबीसों घंटे जाल लिए ही तो बैठे होते हैं! मशवरा देने वाले हितैषियों की भी कहाँ कमी होती है! किसी और मौके पर मिलें या नहीं, ऐसे मौकों के लिए तो बजाप्ते दुकान सजाए बैठे होते हैं। हर चौक-चौराहे पर हितैषी मिल ही जाते हैं।
चावला साहब ऐसे ही एक हितैषी थे। वकील साहब ने भी तो यही कहा था कि बिना मुकदमा के कोई चारा नहीं है। ऐसे में ऊसर सिंह, चावला जैसे हितैषियों की बात कैसे ना मानते जबकि मानसिक स्थिति ऐसी हो कि कुछ सूझ ना रहा हो! ऊसर सिंह पिछले कई दिनों से इसी उलझन से जूझ रहे थे क्या करें, क्या ना करें, कुछ समझ में नहीं आ रहा था। अब कोर्ट-कचहरी, पुलिस-मुकदमा कभी देखे नहीं थे, इसीलिए अभी भी मुकदमा के नाम से ही घबराए जा रहे थे। लेकिन अब के ज़माने में बिना कोर्ट मुकदमा के कोई सुन भी तो नहीं रहा था उनकी! कितने ही दिनों से तो मिन्नत कर रहे थे! कहाँ कोई सुन रहा था!
चावला ने तो यह बात पहले दिन ही भाँप ली थी और वकील साहब को बता भी आए थे कि ऊसर सिंह एक ‘पोटेन्शियल क्लाइन्ट' हैं। लेकिन ऊसर सिंह को यह समझने में एक लम्बा समय लग गया था कि पी․के․ चावला कचहरियों में मांडवाली करते हैं। ऊसरसिंह तो उन्हें अपना हितैषी ही समझते थे लेकिन उन्हें क्या पता था कि चावला सिर्फ अपना हित साध रहे हैं। जैसे ही ऊसरसिंह ने मुकदमा करने का अंतिम तौर पर फैसला कर लिया और केस के ब्यौरे के साथ वकील साहब को उनकी फीस दे दी, चावला ने भी अंतिम तौर पर राम-राम कह दिया। अब तो चावला दिख भी नहीं रहे थे, नहीं तो पहले-तो सुबह-सुबह पार्क में टहलते हुए रोज ही मिल जाते थे! ऊसर सिंह चावला को कोसते तो थे लेकिन फिर यह सोच-सोचकर अपने मन को समझा लेते थे कि आखिर अंतिम निर्णय तो उन्होंने खुद ही लिया था!
ऊसर चा अब तक कचहरी परिसर में समा चुके थे। मन-मारकर कचहरी के बरामदों की सीढि़याँ चढ़ने लगे थे। सोच रहे थे कि इन सब झंझटों से मुक्ति मिल जाती, यदि बेटा इस झगड़े से निपट लेता। बेटा तो निपट लेता, सक्षम भी था लेकिन यदि वह निपटने वाला बेटा ही होता तो क्या आज यह नौबत आती!
वे सुस्त चालों से वकील साहब के बैठक-खाने की ओर बढ़े जा रहे थे।
“आइये ऊसर सिंह, कहाँ रह गये थे इतनी देर? चलिए जल्दी, समय हो गया है”, वकील साहब ने अपने काले कोट को बाँहों पर रखते हुए कहा और बिब ठीक करते हुए कुर्सी छोड़ दरवाजे़ की ओर बढ़ गए। रास्ते में ऊसर चा को केस में हुई प्रगति के बारे में बताते भी जा रहे थे।
“हमारी अपील पर कोर्ट ने नोटिस सर्व कर दिया है। सबसे अच्छी बात यह हुई है कि केस एडमिट हो गया है, नहीं तो आजकल अदालतों में इतने हवाले-घोटालों और हत्या आदि के केस भरे पड़े हैं कि ऐसी छोटी-मोटी बातों के लिए वक़्त कहाँ है आदलतों के पास! कोर्ट ने अपने केस को बहुत ही गम्भीरता से लिया है․․․”ए और भी बहुत कुछ बताते जा रहे थे जो ऊसर चा को शायद ही समझ में आ रहा था लेकिन वे ‘हूँ-हाँ' करते जा रहे थें
हरकारे ने हाँक लगाई, “केस नम्बर-163, ऊसर सिंह बनाम इमोशन ऑन डिमान्ड प्रा․लि․।”
ऊसर चा वकील साहब के पीछे-पीछे कमरे में घुस गए। ऊसर चा पहली बार किसी कोर्ट को अन्दर से देख रहे थे। कुछ ज्यादा ही सहमे हुए थे। लेकिन अन्दर का माहौल देखकर उन्हें थेड़ी राहत हुई थी। माहौल उतना सख़्त नहीं था जितना उन्होंने अंदाजा जगाया था। पीेछे की पंक्ति में बैठे कुछ लोग आपस में मशवरा कर रहे थे। दो-तीन वकील आपस में चुहुल कर रहे थे। जज साहब के साथ खड़ा पगड़ी वाला एक संतरी आधा शरीर झुकाकर जज साहब के कानके पास अपने मुँह को लाकर कुछ कर हरा था और जज साहब उसे सुनते हुए मुस्करा रहे थे। पुलिस के दो कॉन्स्टेबल भी निहरी अवस्था में खड़े शायद अपनी बारी का इन्तजार कर रहे थे।
जज साहब ने ऊसर चा के वकील बतरा साहब को देखते ही पूछा, “पार्टी आ गयी?”
“जी जनाब, यही हैं”, वकील साहब ने ऊसर चा की ओर हाथ से इशारा करते हुए कहा।
“अच्छा ․․․हाँ․․․ऊसर सिंह जी, हमने आपका केस देखा है। कहाँ फँस गए किस चक्कर में! कहाँ के रहने वाले हैं?” जज साहब ने ऊसर सिंह पर नज़रें गड़ाते हुए पूछा।
“जी․․․!” ऊसर चा अकचका गए।
“अरे भाई, मैंने पूछा कहाँ के रहने वाले हैं?” जज साहब ने दोबारा पूछा था।
“यू․पी․ में गोरखपुर के सर”
“कौन सा गाँव?”
“बोकाने! ये किधर पड़ता है?”
“मझरिया के दक्षिण पड़ता है सर।”
“अरे, उधर ही तो मेरा भी ससुराल है। बिलबिल चाकी। जानते हैं? लेकिन अब वहाँ कोई रहता नहीं है, सास-ससुर अब रहे नहीं, इसीलिए हमलोगों का भी आना-जाना लगभग छूट ही गया है। सास-ससुर के मरने के बाद ससुराल में भी कौन पूछता है!” फिर थोड़ा अचरज करते हुए पूछे, “मझरिया में ठाकुर लोगों की बस्ती है क्या?”
“हम लोग ठाकुर नहीं भूमिहार हैं सर”
“तब सिंह लिखते हैं! भूमिहार लोग तो चौधरी, त्यागी ओर शर्मा आदि लिखता है?”
“हमारे यहाँ सिंह भी लिखता है सर”
“अच्छा․․․।”
“अपना घर कहाँ पड़ेगा सर?” ऊसर चा ने हिम्मत बाँधकर पूछ ही लिया।
“हमलोग लखनऊ के रहने वाले हैं।” जज साहब ने ठंडे शब्दों में कहा। फिर थम कर पूछे, “क्या करते थे आप वहाँ, मास्टर थे ना?”
“जी सर”
“क्या पढ़ाते थे?”
“हिन्दी, संस्कृत और संस्कृत और विज्ञान पढ़ाता था सर”
“क्या! तीनों सब्जेक्ट पढ़ाते थे? विज्ञान भी!”
“मेरी पोस्टिंग तो संस्कृत में ही हुई थी सर, लेकिन चूँकि संस्कृत में बच्चा नहीं आता था इसलिए मुझे हिन्दी पढ़ाने की जिम्मेवारी दे दी गई थी। पीछे कुछ साल पहले जब वो प्रलय वाली बाढ़ आई थी, तब उसी बाढ़ में विज्ञान पढ़ाने वाले ठाकुर जी बह गए थे। बहुत खोजा गया लेकिन मिले नहीं। तभी से हमको विज्ञान भी पढ़ाना पड़ता था।”
“क्या! बह गए! और मिले ही नहीं!” जज साहब ने विस्मय व्यक्त किया और फिर हँसने लगे।
हँसते हुए बोले, “स्साला․․․ अपने देश की भी जो हालत है ना․․․ पूछिए मत․․․।”
जज साहब ने ऊसर सिंह से सामने की बेंच की ओर इशारा करते हुए बैठने को कहा और वकील साहब की ओर मुख़ातिब हुए। इधर जज साहब की आत्मीय बातचीत से ऊसर चा गदगद हो गए थे।
जज साहब ने वकील साहब से कहा, “डिफेन्डेंट ने रिटन स्टेटमेंट फाइल कर दिया है। देखा है आपने?”
“जी जनाब, लेकिन मुझे री-ज्वॉयन्डर फाइल करने के लिए समय चाहिए।”
“हाँ तो लीजिए ना, मैंने कहाँ रोका है। लेकिन जल्दी से निपटा दीजिए, बेचारा बूढ़ा मास्टर नाहक परेशान हो रहा है। मेरे ससुराल के पास का है․․․।”
फिर जज साहब ने मुंशी की ओर देखते हुए कहा,“इन्हें री-ज्वॉयन्डर फाइल करने के लिए दो हप्ता का समय दे दीजिए। और कितना केस है? बुलाइये जल्दी-जल्दी।”
जज साहब दूसरे केस में उलझ गए। उधर वकील साहब का इशारा पाकर ऊसर चा कोर्ट-कमरे से बाहर निकल वकील साहब के पीछे-पीछे हो लिए। वकील साहब अपने चेम्बर में आ गए थे।
वकील साहब ने कहा, “अच्छा ऊसर सिंह, अगली तारीख को आप समय से कुछ पहले ही आ जाइयेगा। हो सकता है कि डिफेन्डेंट का वकील आपको क्रॉस-एक्ज़ामिल करे। मैं थोड़ा टिप दे दूँगा तो ठीक रहेगा। अच्छा तो अब चलिए”, वकील साहब ने कोट उतार कर कुर्सी को ओढ़ाया और बिब को ढीला करते हुए कहा था।
ऊसर चा जब जाने को मुड़े तो वकील साहब ने ताईद की ओर इशारा करते हुए उनसे कहा, “इनका कुछ कराते जाइये, बेचारे पिछले दो दिनों से आपके काम में ही लगे हुए हैं।”
ऊसर सिंह को पूरा गाँव या तो माट्स साहब कहता था या ऊसर चा। पूरी पंचायत में उनकी बड़ी इज्ज़त थी। वे गाँव के ही सरकारी स्कूल में संस्कृत के शिक्षक थे। हालांकि अब संस्कृत पढ़ता कौन था! चूँकि सरकार ने नीति बना रखी थी और संस्कृत को एक भारतीय भाषा की मान्यता थी इसलिए संस्कृत के शिक्षक की बहाली हो जाती थी, नहीं तो संस्कृत पढ़ने में कहाँ किसी की रूचि दिखती थी! विद्यालय में शिक्षक को खाली बैठाकर तो वेतन नहीं दिया जा सकता ना, इसीलिए ऊसर चा को हिन्दी पढ़ाने की जिम्मेवारी दे दी गई थी। ऊसर चा के रिटायरमेंट से कुछ सालों पहले बूढ़ी गंडक नदी पर बना बाँध टूट गया था। बाँध के टूटने से गाँव में प्रलयकारी बाढ़ आई थी। इसी बाढ़ में विज्ञान के एक शिक्षक भूपेन्द्र ठाकुर बह गए थे। गोताखोरों ने बहुत कोशिश की थी लेकिन उनका कुछ अता-पता नहीं चल पाया था। थोडे़ दिनों बाद विद्यालय प्रशासन ने विज्ञान के शिक्षक की नई नियुक्ति होने तक, ऊसर चा को विज्ञान भी पढ़ाने की जि़म्मेवारी दे दी। ना नई नियुक्ति हुई और ना ही कभी ऊसर चा इस जि़म्मेवारी से उबर पाए। रिटायरमेंट तक संस्कृत और हिन्दी के साथ-साथ विज्ञान भी पढ़ाते रहे।
ऊसर चा जीवन में धन-दौलत तो बहुत नहीं कमा पाए लेकिन बच्चों को अच्छी परवरिश देने में सफल ज़रूर हो गए। बच्चे भी वैसे ही निकले। तीन में से दो तो आई․आई․टीयन कहलाए।! ज़ाहिर सी बात थी कि नौकरी भी उसी तरह की मिली। सबसे छोटा लड़का पढ़ाई-लिखाई में मेडिऑकर था इसीलिए बी․ए․ पास कर प्रतियोगिता परीक्षाओं की तैयारी में लग गया। यह तो ऊसर चा की पितृत्व-क्षमता ही थी कि उसे भी जब नौकरी मिली, तो आई․ए․एस․ की और कलेक्टर कहलाया। अब तो सब की शादी भी हो गयी थी ओर सभी अपने-अपने बच्चे-बच्चों के साथ सुख-सुविधा से अपना-अपना जीवन जी रहे थे।
कहने को तो ऊसर चा पोते-पोतियों और नाती-नातिनों से भरपूर थे लेकिन कहाँ नातिन-नाती और पोती-पोते! इस भागम-भाग वाले समाज में किसे फुर्सत थी कि कोई किसी बूढ़े के थके हुए कदमों से कदम-ताल करे! ऊसर चा को दो बेटियाँ तो पराया धन होती हैं। इसीलिए ऊसर चा की लाख जतन के बावजूद बेटियाँ पराई हो गइर्ं। अब चूँकि मूलधन ही अपना न था, तो फिर सूद की बात ही कहाँ उठती थी!
ऊसर चा की पत्नी को मरे हुए कई वर्ष गुजर गए थे, इसीलिए ऊसर चा को भी अकेले रहने की आदत सी पड़ गयी थी। खाते, सोते आर पड़े रहते अपनी कोठरी में। कहाँ जाते! अब गाँव तो था नहीं कि दूर-दराज के गाँव के अजनबी भी माट्स साहब प्रणाम कहकर सजदा में लोट जाते! महानगर के इस अजनबी समाज में तो जान-पहचान वाले भी दुआ-सलाम को राजी न थे। इसी लिए कोठारी में ही पड़े रहते थे। पुराने दिनों को याद करते हुए कभी-कभी भुनभुनाने ज़रूर लगते थे। पत्नी तो अब कम ही याद आती थी। आती थी तो दिमाग से झटक दिया करते थे। सोचते- “अच्छा ही हुआ कि हँसते-खेलते चली गयी। नहीं तो आज सह नहीं पाती यह सब। पागल ही हो जाती।”
यही सब सोच-सोच कर हँसते, गाते और कभी थोड़े से उदास भी हो जाया करते। कभी-कभी अकेले में गुस्सा भी जाते थे। लेकिन उस गुस्से और ठहाके का क्या जो ‘मोनोलॉग' में अभिव्यक्त हो।
ऊसर चा का अधिकतर समय बड़े लड़के के घर पर ही गुज़रता था। ऐसा नहीं था कि मँझला बेटा उन्हें पसंद नहीं करता था या उन्हें किसी तरह से प्रताडि़त करता था या फिर उन्हें घर से निकाल देता था, लेकिन ऊसर चा बड़े लड़के के घर ही पड़े रहना अधिक पसंद करते थे। हालांकि मन-मारकर ही रहते थे। सोचते- “जीवन और कितना लम्बा है ही! थोड़े समय की बात है। फिर तो उस धाम जाना ही है। यहाँ सबकुछ ठीक ना हो, ना सही। लेकिन वहाँ तो सब ठीक-ठाक से गुज़रे! आग तो बड़ा लड़का ही देगा। बड़े लड़के के हाथों मिली मुखाग्नि से ही बैकुण्ठ की चौखट खुलती है।” बस, इसीलिए बड़े लड़के के घर ही पड़े रहते थे।
एक और बात थी। ऊसर चा के बड़े बेटे में थोड़ा-थोड़ा गँवईपन अबतक बचा हुआ रह गया था। इसीलिए ऊसर चा को उसमें थोड़ा ज्यादा अपनापन दिखता था। इधर बड़ा बेटा भी बाबूजी को अपने परिवार की मुख्यधारा से जोड़कर रखने का हिमायती था, लेकिन पत्नी को भी तो छोड़ नहीं सकता था। ऐसे में, इतने बड़े घर में भी ऊसर चा के हिस्से, पीछे की छोटी सी कोठरी ही आ पाई थी। घर के सदस्य उनके कमरे में कम ही जाते थे। बेटे के पास समय था नहीं और बहू को उनका रहन-सहन भाता नहीं था। एक बाई आती और कमरे की साफ-सफाई करने के साथ-साथ उनका नाश्ता-खाना भी रख जाती थी। बेटे ने बाबूजी के लिए एक टेलीविज़न पर ही कार्यक्रम देखना अच्छा लगता था। जब भी प्राइम-टाइम के समय बहू और बच्चे टी․वी․ के सामने बैठे होते, ऊसर चा भी शरीक हो जाते। वे जब अपनी धोती टूँगकर सोफे पर पालथी मारकर बैठते तो बच्चे मुँह सिकोड़ लेते। बहू भी उन्हें देख अपनी बड़ी-बड़ी आँखें नचाने लगतीं। हालांकि ऊसर चा की मुश्किल बेटे की मौजूदगी में थोड़ी कम हो जाती थी लेकिन फिर भी, बहुरानी अपने पति से नजरें बचाकर आँखें दिखाने से बाज नहीं आती थीं। बहुरानी जैसे ही अपनी बड़ी-बड़ी आँखें तरेरतीं, ऊसर चा सीधे उठकर अपने कमरे में चले जाते। हालांकि ऊसर चा अपने को लीविंग रूम में जाने से रोकते बहुत थे, लेकिन क्या करते! अपने को बार-बार समझाते फिर भी मन ना मानता। उनको अपनी कोठरी वाले टेलीविज़न पर चल रहा लाइव कार्यक्रम भी बासी ही दिखता, जबकि लीविंग रूम का रिकार्डेड कार्यक्रम भी उन्हें जीवन्त बना देता था। ऐसा नहीं था कि ऊसर चा माजरा समझते नहीं थे। उन्होंने कई बार यह कोशिश भी की थी कि इतने महँगे सोफे पर पालथी मारकर ना बैठें और थोड़े ठीक-ठाक से रहें, लेकिन अब बुढ़ापा माने तब ना! अपनी लाख कोशिशों के बावजूद ऊसर चा इस नई पीड़ी से कदमताल कर नहीं पाते थे। कभी कोशिश करते और पैर लटकाकर भी सोफे पर बैठते, तब भी उनकी धोती घुटनों तक उठ जाती और खेत के डरेरों पर घूम-घूम कर सख्त हुए काले-काले कंकालनुमा पाँव दीख पड़ते। ऐसे में, सिकुड़ी हुई झुर्रियों भरी चमड़ी वाले पाँव बहू के मन को खटास से भर देते थे। बहुरानी बिदक जातीं ओर उनके बिचकते हुए मुँह और तालू से चिपककर एक बारगी छूटती हुई जीभ से चट की एक तेज आवाज़ निकलती और ऊसर चा सतर्क हो जाते। लेकिन दूसरी बार निकलने वाली चट की तेज आवाज़ और तैश में नाचती आँखें फिर से ऊसर चा को उनकी उसी अकेली कोठरी में धकेल देतीं।
कोठरी बुरी और सीलन भरी रही हो या उसमें बिजली नहीं आती हो या फिर कि दीवारों के पलस्तर झड़ रहे हों, ऐसी कोई बात नहीं थी। यह कोठरी सुख-सुविधाओं से परिपूर्ण एक अच्छा सा कमरा था, लेकिन ऊसर चा उसे कोठरी ही कहते थे। कोठरी की ओर कोई जल्दी फटकता भी नहीं था। टेलीविज़न भी दिन-भर टर्र-टर्र करता रहता था। चूँकि सुनते कम थे इसलिए टेलीविजन की आवाज़ तेज़ ही रहती थी। यह तो गनीमत था कि उनकी कोठरी मकान के पीछे वाले हिस्से में थी, नहीं तो बच्चों की पढ़ाई पर कितना असर पड़ता!
बहू तो पहले भी कम ही बातें किया करती थी, लेकिन जब से थोड़ा ऊँचा सुनने लगे थे, बहुरानी ने तो ‘हूँ-हाँ' भी बंद कर दी थीं इतना चिल्लाए कौन, गला ना खराब हो जाए! ऊसर चा जब खांसते तो ऐसा लगता मानो अभी ही सारा-का-सारा बैक्टीरिया और वायरस बच्चों की नस-नस में भर देंगे! इसीलिए बच्चों को भी सख़्त हिदायत थी कि वे पीछे के कमरे में ना जाएँ। बच्चे भी कौन सा जाना चाहते थे! समय ही कहाँ था! स्कूल, होमवर्क, कम्प्यूटर और रियॉल्टी शो। इतना समय कहाँ बचता था कि का से थक चुके बूढ़े के लिए भी कुछ निकाल लिए जाएँ! बेटों को तो मल्टी-नैशनल्स ने जैसे कोल्हू का बैल ही बना रखा था! बेचारे वे भी क्या करते! चाहकर भी बाबूजी से दो बातें कर नहीं पाते थे। उधर ऊसर चा मुँह जोहते रहते थे ओर यह सोच-सोचकर घुले जाते थे कि और कुछ नहीं तो, कभी-कभर बेटे पास आते, और अपनी माँ को ही याद कर जाते!
ऊसर चा इतने बड़े शहर में रहना नहीं चाहते थे। कि गाँव में ही रहें लेकिन गाँव में अब बच कौन गया था! बच्चे भी तो एकबार जो गाँव से निकले तो बस निकल ही गए थे। नौकरी-चाकरी, शादी-ब्याह सब बाहर। शादी-ब्याह के बाद तो गाँव जैसे अजनबी टापू ही हो गया था। उनके बच्चे तो गाँव का नाम भी नहीं जानते थे। ऊसर चा बहुत दिनों तक गाँव के पुस्तैनी मकान को सीने से लगाए रखे लेकिन अब जब वारिश ही सम्भालने को तैयार न थे, तो फिर किसके लिए बचाए रखें! खेत की ज़्यादातर ज़मीन तो पत्नी की दवाई और बच्चों की पढ़ाई-लिखाई में ही स्वाहा हो गई थी। करते भी क्या! कभी बाढ़ तो कभी सूखा और पेंशन जितनी मिलती थी, इस ज़माने में ऊँट के मुँह में जीरा जैसा ही था। घर में तो एक शाम खाकर काम चलाया जा सकता था, लेकिन हॉस्टल का मेस तो नहीं मानता था ना! वहाँ तो समय से भुगतान करना पड़ता था नहीं तो खाना ही बन्द। फजीहत अलग। कॉलेजों के फीस भी तो आसमान छू रहे थे। ऐसे में, खेतों के ख़रीदार ही सम्बल देते थे। इस तरह जब तक दोनों बच्चों की इंजीनियरिंग की पढ़ाई समाप्त होती और छोटा बेटा स्थायित्व को प्राप्त होता, ऊसर चा के पास घरारी वाली ज़मीन को छोड़कर कुछ भी बचा ना रहा।
ऊसर चा यह मानते थे कि बेटे-पोतों को मुँह देखकर जितने सुख से जि़न्दगी कट जाती है, सोने की लंका में नहीं कटती। इसीलिए घरारी वाली ज़मीन भी बेचकर शहर आ गए थे। बेटे के साथ रहने और आज के इस भागम-भाग वाले ज़माने में भी पोतों के साथ खेलने की बड़ी हसरत लिए ऊसर चा शहर तो आ गए थे, लेकिन मृग धीरे-धीरे मरीचिका का सच जानने लगा था। पोतों के साथ खेलने-खिलाने का शौक तो बस शौक ही बना रहा। ना कभी पोते गोद में बैठे और ना ही दादा को डाइनिंग टेबल पर पूरे परिवार के साथ बैठना कभी नसीब हो पाया।
इन सब के बावजूद ऊसर चा को इस बात का संतोष होता रहता कि उन्होंने अपनी जि़म्मेवारी निभाने में कोई क़सर उठा नहीं रखी थी। तीनों के तीनों बेटे अच्छी तरह सेट्ल हो गये थे और अच्छी जि़न्दगी जी रहे थे। छोटे-बेटे को छोड़ भी दें तो एक ही शहर में रहने वाले दोनों भाइयों के परिवारों के बीच खूब सौहार्द्र था। बच्चे भी एक-दूसरे से खूब घुले मिले थे। छोटे वाला बेटा तो कम ही आता-जाता था लेकिन उसके बच्चे आते-जाते रहते थे। हालांकि ऊसर चा यह पहचान नहीं पाते थे कि कौन सा बच्चा किस बेटे का है, लेकिन नाम उन्हें अपने सभी पोतों के याद थे। उन्हें इस बात में भी कोईभ्रम नहीं होता था कि किस-किस बेटे के बच्चों के क्या नाम हैं। उन्हें तो यह भी कंठस्थ था कि किस बच्चे का जन्म किस वर्ष हुआ था और उस बच्चे के जन्म के समय रोपनी चल रही थी या कटनी या फिर कि ओसौनी। हालांकि यदि बड़े बेटे की पहली संतान को छोड़ दें तो डनहें तो अपने बाकी पोतों के जन्म लेने का पता भी महीने बाद ही हो पाया था। ऊसर चा को अपने पोतों के नाम और चेहरे में सामंजस्य बिठाने में बड़ी कठिनाई होती थी। ऐसे में, उनके लिए चेहरे से यह पहचानना भी कठिन हो जाता था कि कौन सा बच्चा किस बेटे का है। कई बार तो बच्चों के दोस्त भी घर पर आते तो ऊसर चा की कठिनाई बढ़ जाती। पोतों और उनके दोस्तों में अन्तर कर पाना भी उन्हें भारी पड़ने लगता। बच्चे भी तो दूर-दूर ही रहते थे। कभी ग़लती से कोई बच्चा कोठरी की चौखट पर आ जाता तो ऊसर चा कोदेख ठिठक कर खड़ा हो जाता। पोते को चौखट पर खड़ा देख बूढ़ी आँखें चमक उठतीं और झुर्रियों से भरे चेहरे मुस्कराने लगते। झुर्रियों भरे हुए कंकालनुमा काले-काले चेहरे को मुस्कराता देख, बच्चे भयाक्रांत हो जाते और भाग खड़े होते थे।
आज कोर्ट की तारीख थी। ऊसर चा अब तक कचहरी परिसर में समा गए थे।
“हाँ तो वकील साहब, आपको प्लेन्टिफ से कुछ पूछना है?” जज साहब ने डिफेन्डेंट के वकील की ओर देखकर पूछा।
“हाँ जनाब, मैं चाहता हूँ कि अदालत ऊसर सिंह को कटघरे में बुलाए, मुझे उनसे कुछ सवाल पूछने हैं,” डिफेन्डेंट के वकील ने कहा।
“आप यहाँ आइये, इस कटघरे में खड़े हो जाइये और वकील साहब जो कुछ भी पूछते हैं उसका सही-सही जवाब दीजिए”, जज साहब ने ऊसर सिंह की ओर देखते हुए आदेशात्मक स्वर में कहा।
फिर शुरू हुए बहस-मुबाहिल।
“आपका नाम?”
“जी, ऊसर सिंह”
“ऊसर सिंह जी, आपने मेरे क्लाइन्ट पर यह आरोप लगाया है कि उसने आपको ठग लिया है”,
“वह बहुत बड़ा ठग है वकील साहब, आप भी उसका काम मत कीजिए, पापी का साथ देने पर भी पाप लगता है․․․”, ऊसर सिंह तुरन्त बोल पड़े।
“आपसे जितना पूछा जाए उतने का ही जवाब दीजिए”, जज साहब ने बीच में टोकते हुए ऊसर सिंह को रोका।
“हाँ तो ऊसर सिंह, आपका कहना है कि मेरे क्लाइन्ट ने आपको आपकी इच्छानुसार सेवा नहीं दी लेकिन पैसे पूरे ले लिए”,
“मुझे ऑब्जेक्शन है जनाब, इच्छानुसार नहीं, ऐग्रीमेन्ट में दर्ज क्लॉज के अनुसार सेवा नहीं दी”, ऊसर सिंह के वकील बतरा साहब ने बीच में टोका।
“एक ही बात हुई”, डिफेन्डेंट के वकील सलील सिन्हा ने हाथ के इशारे से बतरा साहब को शांत रहने की सलाह दी।
“ऊसर सिंह, आपके कितने बेटे हैं?”
“तीन”,
“तीनों की शादी हो चुकी है?”
“जी”
“बच्चे-वच्चे?”
“सब के हैं”,
“वे सब कहाँ रहते हैं?”
“इसी शहर में”,
“आप कहाँ रहते हैं?”
“बड़े बेटे के साथ”
“उसके कितने बच्चे हैं?”
“जी, तीन। दो बेटे और एक बेटी”,
अब वकील साहब जज साहब की ओर मुड़ते हुए बोलने लगे, “जनाब ये बिल्कुल ठीक कह रहे हैं। ऊसर सिंह के तीन बेटे हैं और तीनों इत्त्ाफाक़ से इसी शहर में रहते हैं। जनाब यह ग़ौर करने की बात है कि तीनों बेटों से ऊसरसिंह को कुल आठ पोते-पोतियाँ हैं, और मैं एकबार फिर इस प्वॉयन्ट पर ज़ोर देना चाह रहा हूँ कि ये सभी इसी शहर में रहते हैं। जनाब यह बात भी बहुत अहम् और गौर करने वाली है कि ऊसर सिंह अपने बड़े बेटे के साथ रहते हैं जिसके खुद की तीन संतानें हैं। अर्थात् ऊसर सिंह अभी भी तीन पोते-पोतियों के बीच रहते हैं।”
“मुद्दे पर आइये”, जज साहब ने डिफेन्डेंट को टोका।
“ऊसर सिंह, अब मुझे ये बताइये कि जब आप तीन-तीन पोते-पोतियों के साथ रह ही रहे थे, फिर आपको मेरे क्लाइन्ट इमोशन ऑन डिमान्ड प्रा․लि․ से सेवा लेने की ज़रूरत ही क्यों पड़ी”, डिफेन्डेंट के वकील ने ऊसर सिंह पर नज़रें गड़ाते हुए पूछा और फिर मुस्कराते हुए जज साहब की ओर देखने लगे।
“मुझे आपत्त्ाि है जनाब, डिफेन्डेंट मामले को दूसरी तरफ मोड़ रहे हैं, जबकि मेरे क्लाइन्ट का आरोप कुछ ओर है”, ऊसर सिंह के वकील बतरा साहब बीच में झपटें।
‘ठीक है, ठीक है, जिस बात का केस से सीधा संबंध ना हो वे सवाल नहीं पूछे जाएँ”, जज साहब ने बीच-बचाव करते हुए कहा।
“जनाब पूरे मुक़दमे का दारमोदार ही यह है। जनाब, मेरा क्लाइन्ट इमोशन ऑन डिमान्ड प्रा․लि․ एक मल्टीनैशनल कंपनी है। यह कंपनी पिछले कई सालों से इस देश में अपनी अबाध सेवा दे रही है। इसकी सेवा की गुणवत्ता को डी․जी․एस․एण्ड डी․ तथा देश की अन्य सरकारी मानक एजेन्सियों ने मान्यता भीदे रखी है। जनाब यह कंपनी देश भर में बूढ़े-बुजुर्गों को पोते-पोतियाँ, बहुएँ और युवा लोगों को अस्थायी तौर पर पतिव्रता पत्नियाँ तथा अन्य नाते-रिश्तेदार किराये पर उपलब्ध कराती है। जनाब, आप कंपनी का प्रोफाइल देख लीजिए, हमारे क्लाइन्टेल में हाई-फाई सोशलाइट्स से लेकर साधारण लोग तक और राजनेताओं से लेकर रिटायर्ड नौकरशाहों तक सभी शामिल हैं। लेकिन इतने सालों में कभी किसी कस्टमर ने कंपनी की सेवा पर इस तरह ऊँगली नहीं उठाई। जिस तरह कि महाशय ऊसरसिंह ने उठाई है। जनाब, हम ऐग्रीमेन्ट होता है, क्लाइन्ट जिस रिश्ते में जितने इमोशन की माँग करता है, हम उतना इमोशन का ऐग्रीमेंट होता है, क्लाइन्ट जिस रिश्ते में जितने इमोशन की माँग करता है, हम उतना इमोशन ईमानदारी से प्रोवाइट करते हैं। बल्कि कंपनी ने तो अपने यहाँ ऐडवाइजर्स भी बहाल कर रखें हैं जो कंपनी से सेवा लेने वाले क्लाइन्टेल को समय-समय पर इस बाबत सलाह भी देते रहते हैं कि किस रिश्ते के लिए कितनी इमोशनल-छौंक की आवश्यकता पड़ती है और किस इमोशन के फुलफिल्मेन्ट के लिए कौन से रिश्तेदार को कितने समय के लिए किराये पर लिया जा सकता है या लेना चाहिए। हमारी कंपनी समय-समय पर अपने कस्टमर को प्रोमोशनल ऑफर्स भी देती रहती है। जनाब, सर्विस सेक्टर में आजकल यह एक बहुत ही प्रोफिटेवल बिजनेस है, इसीलिए इसमें कॉम्पेटीशन भी गलाकट है और मैं यह बात शर्तिया कह सकता हूँ कि हमारे क्लाइन्ट को बदनाम करने के लिए किसी प्रतिद्वंद्वी कंपनी ने ऊसर सिंह को सुपारी दे रखी है और ये उसी के इशरे पर यह सारा जंजाल रच रहे हैं”, फिर थोड़ा दम भर कर बोले, “जनाब, पिछले वर्ष ऊसर सिंह ने मेरे क्लाइन्ट से एक साल के कॉन्ट्रैक्ट पर एक पोता किराये पर लिया था। लेकिन पिछले छः महीने से इन्होंने कंपनी की नाक में दम कर रखा है। कभी बच्चा बदलने को कहते हैं तो कभी दी हुई फीस वापस माँगते हैं।”
“कॉन्ट्रैक्ट के क्लॉज को किसने तोड़ा?” ऊसर सिंह के वकील ने व्यंग्य करते हुए पूछा।
“कॉन्ट्रैक्ट खुद इन्होंने तोड़ा है, मेरे क्लाइन्ट ने नहीं”, सलील सिन्हा ने प्रतिवाद किया।
फिर ऊसरसिंह की ओर मुड़ते हुए बोले, “अच्छा छोडि़ये, ये बताइये ऊसर सिंह कि जब आपको मेरे क्लाइन्ट, मतलब कि इमोशन ऑन डिमान्ड प्रा․ लि․, कि सेवा पसन्द नहीं आई तो आपने कंपनी में इसकी शिकायत की?”
“जी”,
“फिर कंपनी ने क्या किया?”
“उसने बच्चा बदल दिया”,
“और उस बच्चे में भी आपको पोते जैसा अपनापन नहीं दिखा?”
“जी नहीं”,
“फिरक्या हुआ?”
“कंपनी ने उसे भी बदल दिया लेकिन इसके लिए कंपनी ने अलग से और ज्यादा पैसा लिया था”,
“हाँ तो लेगा नहीं? आपने ऊँची क्वॉलिटी का इमोशन डिमान्ड किया था, अच्छी चीज के लिए अच्छा पैसा तो देना ही पड़ता है। जनाब, स्किल्ड गुड्स के लिए अधिक किराया देना पड़ता है, यह हर कंपनी का रूल है, चाहे आप किसी भी कंपनी में चले जाएँ और कोई भी इमोशन या रिश्ता किराये पर ले लें, सभी कंपनियों में ऐसा ही रूल है”, सलील सिन्हा ने ऊसर सिंह पर दोष मढ़ते हुए कहा।
“जनाब, यह इस ऐग्रीमेन्ट के क्लॉज थ्री-सी का खुला उल्लंघन है”, बतरा साहब सलील सिन्हा को दबोचने का कोई भी मौका हाथ से जाने देना नहीं चाहते थे।
“हाँ तो ऊसर सिंह, आपको यह नया पोता भी पसंद नहीं आया”, डिफेन्डेंट के वकील सलील सिन्हा ने बात आगे बढ़ाई।
“जी नहीं”,
“और अंत में आपने उस नन्हें से बच्चे को धक्के मारकर भगा दिया, दैट्स ट्रू?”
“मैंने किसी को धक्का मारकर नहीं निकाला है बल्कि उस बच्चे ने ही मुझे धक्का देकर गिरा दिया था और भाग गया था,” ऊसर सिंह ने प्रतिवाद किया।
“जनाब, जब आप पूरे केस को ठीक से देखेंगे तो आपको साफ-साफ दिख जाएगा कि दरअसल हमारे क्लाइन्ट इमोशन ऑन डिमान्ड प्रा․लि․ की सेवा में कोई भी दोष नहीं है, बल्कि दोष इन ऊसर सिंह में है। इनके पास कोई भी बच्चा टिकता ही नहीं। जब इनका अपना पोता इनके पास नहीं टिक पाया तो किराये के पोते क्या खाक टिकेंगे!”
“आई ऑब्जेक्ट जनाब, डिफेन्डेंट नाहक मेरे क्लाइन्ट पर दोष मढ़ रहे हैं”, बतरा आग-बबूला हो आए थे।
“जनाब, यह आदमी बच्चों को भूतों से डराता है, उन्हें बादलों के बीच कभी शैतान दिखाकर डराता है तो कभी बादलों की आकृतियों में भगवान बताता है, जबकि आजकल के बच्चे अब यह जानते हैं कि भूत-वूत कुछ नहीं होता। यह आदमी बच्चों को परियों के झूठे किस्से सुनाया करता है। जनाब, यह आदमी पंचतंत्र की कहानियों में बच्चों को उलझाना चाहता है। अब जनाब, आज के आधुनिक बच्चे हैं, क्या ऐसे माहौल में रह पाएँगे? अब यह चाहते हैं कि बच्चे इनके पाँव छूकर इन्हें रोज प्रणाम करें और इनके साथ सुबह में प्रार्थना गाएँ। यह संभव है क्या? जनाब खोट इस व्यक्ति में ही है, मेरे क्लाइन्ट में नहीं,” सलील सिन्हा ने अपनी दलील ज़ोरदार ढंग से रखी।
“तो ये सारी बातें ऐग्रीमेन्ट में साफ-साफ लिखी जानी चाहिए थीं कि क्लाइन्टेल इस तरह का कोई डिमान्ड नहीं करेगा।” बतरा ने प्रतिवाद किया।
“जनाब, मैं एक बार फिर जोर देकर कहता हूँ कि मेरे क्लाइन्ट में कोई दोष नहीं है इसलिए इस केस को खारिज कर दिया जाए”, सलील सिन्हा ने फिर से गुहार लगायी।
अब जज साहब ऊसर सिंह की ओर मुड़े ओर उनसे पूछने लगे, “ऊसर सिंह, कंपनी ने जो बच्चे उपलब्ध कराये थे, आखिर उन बच्चों से आपको क्या-क्या समस्याएँ आ रही थीं?”
सलील ने टोका, “जनाब इनसे यह भी पूछिए कि अपने इतने सारे पोतों के रहते हुए उन्होंने किराये पर पोते क्यों लिए?”
जज साहब ने सलील सिन्हा को झिड़का, “अब आप चुप रहिए, मुझे पूछने दीजिए, यदि आज समाज में अपने अपनों से प्रेम-भाव रखते और रिश्तेदारी निबाहते, तो क्या आपके इन मल्टीनैशनल्स की दुकानदारी चल पाती?”
फिर ऊसर सिंह की ओर मुखातिब होते हुए बोले, “हाँ ऊसर सिंह, बताइये, मैं आपसे सुनना चाहता हूँ। सबकुछ साफ-साफ बताइये।”
“हुजूर, मुझे तो यह सबकुछ पता भी नहीं था, मुझे तो चावला साहब ने इस कंपनी का पता बताया था और फिर मुझसे कंपनी पर केस भी करवाया। मैंने तो बस कागजों पर दस्तख़त किए और इस उम्मीद पर पैसे दे दिए कि मुझे साथ खेलने के लिए एक पोता मिल जाएगा, जिसे मैं अच्छी-अच्छी बातें सिखलाऊँगा, उसे कहानियाँ सुनाऊँगा, उसे भूतों से डराऊँगा, परियों से मिलाऊँगा, गोद में उठाऊँगा और फिर उसके सामने उससे भी छोटा बच्चा बन जाऊँगा․․․ लेकिन सब बेकार, कुछ भी ऐसा नहीं हुआ हुजूर। सारे इमोशन झूठे निकले, सब फरेब है।”
“जनाब, ऐग्रीमेन्ट के किसी भी क्लॉज में इस तरह की बातें नहीं कही गई हैं कि कन्ज्यूमर कंपनी द्वारा उपलब्ध कराये गए बच्चों से इसतरह की आलतू-फालतू बातें करेगा।” सलील ने ऊसर सिंह के स्टेटमेन्ट से कंपनी के पक्ष में तर्क इकट्ठे करने के लिहाज से बीच में अपनी बात रखी।
“आप बिल्कुल खामोश रहिए”, जज ने उन्हें फिर से झिड़क दिया।
ऊसर सिंह फिर बोलने लगे, “हुजूर, मैंने तो बच्चे को सिर्फ इतना कहा था कि जब वह सुबह-सुबह आए, तो आते ही मेरे पाँव को छूकर मुझे प्रणाम करे और मुझे मि․ सिंह नहीं बल्कि मूझे दादू या दद्दू, जो उसे अच्छा लगता हो, कहकर पुकारे। हुजूर इस बात पर वह बच्चा हँसता था। मैंने जब इसबात के लिए एजेन्सी में शिकायत की तो मेरी बात पर वह गोरी सी लड़की, जो वहाँ ऐडवाइजर के पद पर काम करती है, वह भी हँसने लगी थी और उसने हँसते हुए मुझसे कहा था-“मि․ सिंह, यू आर सो प्रीमिटिव बाई य्योरथॉट․․․।”
ऊसर सिंह आसमान की ओर देखकर आगे बोलने लगे, “जनाब, मेरे दादा जी हमेशा ही बीमार होने का ढोंग किया करते थे और मेरी माँ तथा बाबूजी को परेशान किया करते थे। लेकिन हम सब भाई-बहन उनकी यह चाल समझ गए थे और उन्हें धर-दबोचने की जुगत में लगे हुए थे। एक दिन दादाजी ने हमेशा की तरह ढोंग किया ओर आंगल में ही बेहोश होकर गिर पड़े। घर में रोआ-रोहट होने लगी। माँ तो दहाड़ मार कर रोने लगी। कोई पानी लाने दौड़ा, तो कोई वैद्य जी के घर भागा। मैं चुपके से दादाजी के पास गया और मैंने धीरे से दादा जी के तलवे में गुदगुदी लगा दी। दादाजी से रोका नहीं गया और वे हँसने लगे। फिर उठकर बैठ गए और मुझे दौड़ा चले। बाद में दादाजी ने मेरी बड़ी पिटाई की थी, फिर दुलार भी किया थां लेकिन नाराज बहुत हुए थे।”
“देखिए-देखिए जनाब, यह प्वॉयन्ट नोट किया जाए कि यह व्यक्ति यह चाहता था कि हमारी कंपनी के बच्चे भी इसके साथ उसी तरह चुहुल करें जैसा कि यह आदमी अपने दादा के साथ किया करता था। जबकि हमारे क्लाइन्ट ने सीधे-सीधे कहा था कि कंपनी ऐसी सेवा और ऐसा इमोशन प्रोवाइड नही करती”, डिफेन्डेंट वकील सलील सिन्हा को लगा कि अब वे केस जीत जाएँगे इसीलिए यूरेका कहने के अंदाज में चीख पड़े।
“लेकिन जनाब, कंपनी ने तो अपने ऐग्रीमेन्ट में ऐसा कुछ भी साफ-साफ नहीं लिखा है। जनाब लगता है कि मेरे फाजि़ल दोस्त ने अपनी ही कंपनी का ऐग्रीमेन्ट पेपर अभी तक ठीक से पढ़ा नहीं है”, बतरा ने बात उछाली।
जज साहब ने दोनों को चुप कराया और ऊसर सिंह की ओर मुड़ते हुए बोले, “हाँ ऊसर सिंहआप बोलिए․․․।”
“हुजूर, अब क्या बोलूँ, ये वकील साहब ठीक कह रहे हैं कि मैं भी उन बच्चों से वैसा ही कुछ चाहता था जैसा कि हमलोग अपने दादाजी के साथ किया करते थे। शायद जमाना बहुत बदल चुका है हुजूर और मैं ही इस भागते ज़माने के लायक नहीं हूँ। हुजूर, मेरे पास जितने पैसे थे, इस इमोशन ऑन डिमान्ड प्रा․लि․ कंपनी ने मुझसे ठग लिये हैं, मेरे पास अब कुछ भी बचा नहीं लड़ना है। मुझे बस मेरे पैसे वापस दिला दीजिए ताकि मैं अपने गाँव लौट सकूँ। हुजूर मैं यहाँ इस शहर में अब और नहीं रहना चाहता। हुजूर आपलोग बड़े लोग हैं, कुछ भी करा सकते हैं, मेरे पैसे मुझे वापस दिला दीजिए, मैं अब यहाँ नहीं रहना चाहता, उन्हीं पैसों से मेरी घरारी वाली ज़मीन फिर से मुझे वापस दिला दीजिए हुजूर․․․ मैं वहीं रहूँगा, अपने गाँव में․․․”, ऊसर सिंह फफक-फफक कर रोने लगे थे।
उन्हें रोता-बिलखता देख बतरा ओर सलील दोनों मुस्कराने लगे। लेकिन जज साहब मेज पर अपना सिर झुकाकर कुछ लिखने लगे थे।
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798, बाबा खड़गसिंह मार्ग,
(गोल डाक खाने के निकट),
नई दिल्ली-110001․
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(शब्द संगत / रचना समय से साभार)
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