पन्द्रह दिसम्बर उन्नीस सौ एकसठ को हैदराबाद, सिंध में जनमे जीशान साहिल ने उन्नीस सौ सतहत्त्ार में नज़्में लिखनी शुरू की थीं। पोलियो से...
पन्द्रह दिसम्बर उन्नीस सौ एकसठ को हैदराबाद, सिंध में जनमे जीशान साहिल ने उन्नीस सौ सतहत्त्ार में नज़्में लिखनी शुरू की थीं। पोलियो से पैर ख़राब होने और ‘काइफोस्कोलियोसिस' नाम की बीमारी की वजह से पढ़ाई पूरी नहीं कर पाए और जि़न्दगी का बड़ा हिस्सा उन्होंने व्हील चेयर पर गुज़ारा। सन् दो हज़ार में वो कराची आए। उन्नीस सौ पंचानवे में कराची पर लिखी उनकी नज़्मों का संग्रह ‘कराची और दूसरी नज़्में' प्रकाशित हुआ। इस संग्रह ने जीशान को दुनिया की कई भाषाओं में पहुँचा दिया। इनकी नज़्मों की सात किताबें छप चुकी हैं। ‘एरीना', ‘चिडि़यों का शोर', ‘कहर आलूदा आसमान के सितारे', ‘जंग के दिनों में' और आखिरी किताब ‘नीम तारीक मोहब्बत' आदि प्रमुख हैं। आखिरी दिनों में वे अपने उपन्यास की तैयारी कर रहे थे कि साँस लेने में दिक़्कत की वजह से कराची में शनिवार चौदह अप्रैल दो हजार आठ को उनकी मृत्यु हो गई। ‘शब्द संगत' उन्हें बड़े एहतराम के साथ प्रस्तुत कर रहा है।
जीशान साहिल
नज़्म
[1]
चाँद फूलों की एक शाख़ नहीं/जिसे हम अपनी मेज़ पर रख के/ घर से बाहर निकल जाएँ/ जिससे चाहें उससे मिलें/और फिर/एक हसीं मोड़ पर बिछड़ जाएँ/ख़्वाब गुज़री हुई मुहब्बत के/ दूर जाती हुई हवाएँ यूँ ही/ काग़ज़ों की तरह बिखर जाएँ/ हमसे कुछ दूर तेज़ बारिश में/ जि़न्दगी अपना रक़्स करती रहे। तंग ओ तारीक1 दिल की गलियों में/ कुछ न कुछ रोशनी उतरती रहे।
[2]
भीगी हुई एक साइकिल/ रखी रही दालान में/ गाती रहीं कुछ लड़कियाँ/ ख़्वाब भरे मैदान में/ मैदान के चारों तरफ़/ दीवार पर फैली हुई। फूलों भरी एक बेल थी/ इस बेल की हद से परे/ बारिश से बोझिल याद थी/ या एक नई ई-मेल थी/
[3]
यही आरज़ू थी यही थी तमन्ना/ किसी रोज़ मैं भी सितारा बनूँगा/ दिलो-जाँ को मश्अल बनाने की ख़ातिर/ सुलगते सुलगते शरारा1 बनूँगा/ मैं दरया तो शायद कभी बन न पाऊँ/ अगर हो सका तो किनारा बनूँगा। मुहब्बत में शायद फ़ना होते-होते/ मैं मिट जाऊँगा और दुबारा बनूँगा।
[4]
चारों जानिब2 देखने पर/ याद कुछ आता नहीं है/ हम कहाँ से आए हैं और जा रहे हैं किस तरफ/ कट नहीं पाती है अक्सर/ अब किसी से रात शायद/ हो नहीं पाती है बरसों/ अब कहीं बरसात शायद/ जल नहीं पाती दिलों में/ जि़न्दगी की आग शायद/ हम सुरीला राग शायद/ सुन नहीं पाते खुशी का/ ख़्वाब हमकों ढूंढ़ते आते हैं/ हम मगर मिलते नहीं/ घर की दीवारों के अंदर फूल तक खिलते नहीं/ गुम उदासी के समन्दर में/ यूँ ही हो जाएँगे। हम मुहब्बत करते-करते। एक दिन खो जाएँगे।
[5] बारिश में एक जहाज मेरे दिल के पास से/ ख़्वाबों की रहगुज़र से गुज़रता चला गया/ किस तरह बादलों ने उसे रास्ता दिया/ कैसे वो गुज़रा नीलगूँ3 तारों के पास से/ कैसे हवा में अपने परों को समेट कर/ भीगी हुई ज़मीन पर उतरा वो शाम को/ बैठे हुए थे उसमें मोहब्बत के हमसफ़र/ कैसे वो याद रख सका उन सबके नाम को/ क्यों छोड़कर चले गए सब उसको अपने घर/ क्यों रात में लगा नहीं उसको किसी से डर/ हर एक बात दिल में छुपाए हुए रहा/ वो तेज़ रोशनी में नहाए हुए रहा।
[6]
बारिश में एक चिडि़या/ मेरे दिल के पास आई/ भीगे हुए परों को/ मेरी मेज़ पर सुखाया/ किसी अजनबी ज़ुबाँ में/ कोई नग़्म-ए-मोहब्बत मुझे देर तक सुनाया/ मुझे ख़्वाब-सा दिखाया/ न फ़लक4 पे थे सितारे/ न ज़मीं पे जि़न्दगी थी/ मगर एक प्यारी चिडि़या/ मेरी मेज़ से अचानक जो कहीं चली गई थी/ वो जहाँ से उड़ गई थी/ वहाँ दूर तक फ़ज़ा5 में/ बड़ी तेज़ रोशनी थी।
[7]
रात को देर से/ जब मैं सोने लगा/ चाँद ने छू के देखी कलाई मेरी/ चल रही थी बहुत/ दिल के अन्दर ही अन्दर/ कहीं जि़न्दगी/ ढल रही थी बहुत/ जिस्म को काटने वाली/ अँधी छुरी/ हाथ थामे हुए रूह की/ घर तरफ़ चल रही थी बहुत।
[8]
मेरी खिड़की में कबूतर भीगने आए न थे/ एक तरफ़ रक्खे हुए फूल कुछ कुम्हलाए न थे/ दूसरी जानिब खिंची दीवार पर साए न थे/ हो रही थी तेज़ बारिश और तुम्हारी याद में/ गीत कमरे में रखी तस्वीर ने गाए न थे।
[9]
हो सकता है जैसे शहर में/ घर बनते हैं/ ख़्वाब हमारे बन जाते हैं/ खिलने और मुरझाने वाले/ फूल सितारे बन जाते हैं/ चुप रहने और गाने वाले/ बारिश लेकर आने वाले/ रोज़ उफ़क़1 तक जाने वाले/ पंछी और आवारा बादल/ दोस्त हमारे बन जाते हैं/
ख़ुदा करे कि मुझे नीम शब2 हवा न मिले/ ख़ुदा करे कि मुझे सुब्ह दम सबा3 न मिले/ ख़ुदा करे कि मुझे साइते-दुआ4 न मिले/ ख़ुदा करे कि मुझे लम्हए-वफ़ा न मिले/ ख़ुदा करे कि मुझे दश्त5 की/ सिरा न सिले/ खुदा करे कि सितारा ए सफ़र न मिले/ ख़ुदा करे कि मुझे कोई आइना न मिले/ ख़ुदा करे कि मोहब्बत मुझे जु़दा न मिले/ ख़ुदा करे कि मुझे तू मिले/ ख़ुदा न मिले।
सूर- ए- फ़तिहा
एक सूर ए फ़ातिहा/ उन लोगों के लिए/ जो किसी एक जु़बान में/ मुहब्बत की नज़्म नहीं लिख सके/ और एक उन लोगों के लिए/ जो किसी दूसरी ज़ुबान में/ दीवार पर लिखे हुए नारे न पढ़ सके/ उन लोगों के लिए/ एक सूर-ए-फ़ातिहा/ जो अज़नबी जु़बान में/ जिन्दगी की भीख न माँग सके/ जो एक नई जु़बान में सच का मतलब/ और आज़ादी का मफ़्हूम6 न समझ सके/ और जो अपने दरवाजे़ के सामने/ अपने दोस्तों के लिए खिले हुए फूल न तोड़ सके/ और जो हवा में अपने दुश्मनों की तरफ/ एक पत्थर भी न उछाल सके/ और उन सब के लिए/ जो किसी की याद में अपनी आँखों का रुख़/ किसी के दिल की तरफ़ न कर सके/ और उन सबके लिए भी/ जिनका रुख़ अपनी बन्दूकों की तरफ़/ और जिनकी बन्दूकों का रुख़/ उनकी हथेलियों की तरफ़ था।
वो खु़दा
वो ख़ुदा जिसे कोई पसंद नहीं करता/ एक अरब है और खेमे में रहता है/ वो तेल फ़रोख़्त1 नहीं करता/ और खु़दक़श हमले नहीं करता/ और सबकी मदद करता है/ और दीवारे-गयी2 के सामने से सीटी बजाते हुए गुज़रता है/ और इबादत के दौरान मैडोना को याद करता रहता है/ वो अपने दोस्तों को बग़दाद के बारे में बताता है/ अलक़ायदा को बुरा-भला नहीं कहता/ उसने कभी कोई नारा नहीं लगाया/ और इस्राइली फ़ौजों पर पत्थर नहीं उछाले/ जब वो शहर जाता है/ तो मरने वालों के जनाज़े/ यासर अराफ़ात और जनरल शरवन की तस्वीरें/ और दीवारों पर नारे देख कर / उसके मुँह में/ रेत भर जाती है/ किसी को नहीं मालूम/ एक यहूदी औरत/ उससे मुहब्बत करती है। और उसे अपना खु़दा समझती है।
जंग के दिनों में
जंग के दिनों में/ मुहब्बत आसान हो जाती है/ और जि़न्दगी मुश्किल/ कल सिगरेट के पैकिट के बदले/ सिपाही आपकी जान ले सकते हैं/ और एक खु़शबूदार साबुन देकर/ आप एक लड़की की मुस्कराहट/ और जिस्म हासिल कर सकते हैं/ जंग के दिनों में लोग/ धमाके और शोर/ के दौरान पड़ोसी और जासूस में/ फ़र्क़ करना भूल जाते हैं/ ख़ंदक़ घर में बदल जाती है/ और रोशनी ब्लैक आर्ट बन जाती है/ अख़बार तारीख़ लिखते हैं/ और मौत हर जगह अपना नाम/ जंग के दिनों में/ दिन नहीं निकलता/ सारी दुनिया में रात रहती है।
चिडि़यों का शोर
सफ़ेद काग़ज़ पर/ पेंसिल के चलने की आवाज़ बहुत कम है/ सड़क पर से टैंक गुज़रने की आवाज़ उससे कुछ ज़्यादा है/ और शायद मेरी आवाज़/ इन दोनों आवाज़ों से ज़्यादा है/ मगर सब से ज़्यादा है/ चिडि़यों का शोर/ जो बढ़ता ही रहता है/ जब एक शिकारी आता है/ हरामी बन्दूक चलाता है/ एक चिडि़या ख़ौफ़ से मर जाती है/ बाक़ी शोर मचाती हैं/ चिडि़यों का शोर ज़्यादा बढ़ जाता है/ बढ़ता ही जाता है।
नज़्म
एक दीवार है/ जिसके पीछे से/ हम निकलते हैं/ अपने दुश्मन को मारने/ और उसे माफ़ करके वापस आ जाते हैं। सिर्फ़ हमारे दोस्तों/ और महबूबाओं के लिए/ और हमेशा खिला ही रहता है/ नज़्म। एक तोहफ़ा है/ जो दिया जाता है बहारों को/ जंग से वापस न आने पर/ या फिर आशिकों के/ एक-दूसरे से/ हमेशा के लिए/ जुदा होने पर/ नज़्म/ एक ख़्वाब है/ नज़्म/ एक कशिश है/ जो किसी और को/ दरिया पार कराती है/ एक याद है/ जो हमेशा सिर्फ़ याद ही रहती है।
दहशतगर्द शायर
एक खु़शगवार दिन/ जब लोगअपने दफ़्तर और बच्चे/ स्कूल वक़्त पर पहुँच जाते हैं/ दहशतगर्द शायर अपने ख़्वाबों की बन्दूक लेकर/ हवाई फायरिंग शुरू कर देते हैं। कोई हलाक नहीं होता। कोई जख़्मी नहीं होता/ किसी को डर नहीं लगता/ किसी दरख़्त से एक पत्ता तक नहीं गिरता/ किसी खिड़की का शीशा भी नहीं टूटता/ शायर अपना काम जारी रखते हैं/ शाम होने तक/ किसी दीवार में एक सूराख़ तक नहीं कर पाते/ किसी दरवाज़े पर निशान भी नहीं डाल पाते/ लोग हस्बमामूल1 घरों को वापस आते हैं/ बच्चे रास्तों में क्रिकेट खेलते हैं/ लेकिन किसी को ख़्वाबों के ख़ाली कारतूस नहीं मिलते/ दहशतगर्द शायर कहीं नज़र नहीं आते/ जब रात होती है तो अचानक अँधेरे में/ कभी रोशनी की लकीर/ आसमान की तरफ़ जाती नज़र आती है/ इसी मामूली चमक में/ सितारे अपना रास्ता बनाते हैं/ इसी रास्ते पर/ दहशतगर्द शायर/ अपनी बन्दूक लिए/ जिन्दगी भर परेड करते रहते हैं।
--
--
(शब्द संगत / रचना समय से साभार)
Bahut Khub, Keep it Up!
जवाब देंहटाएं