संस्कृत साहित्य में,विषेशकर उसकी काव्य परम्परा मे वेदव्यास, वाल्मिकि, भवभूति, भारवि, श्रीहष, बाणभट्ट,कालीदास आदि महाकवियों ने प्रकृति ...
संस्कृत साहित्य में,विषेशकर उसकी काव्य परम्परा मे वेदव्यास, वाल्मिकि, भवभूति, भारवि, श्रीहष, बाणभट्ट,कालीदास आदि महाकवियों ने प्रकृति की जो रसमयी झांकि प्रस्तुत की है,वह अनुपम-अतुलनीय तथा अलौकिक है. उसकी पोर-पोर में कुदरत की आदिम सुवास है-मधुर संस्पर्श है और अमृतपायी जीवन दृष्टि है .प्रकृति में इसका लालित्य पूरी निखार के साथ निखरा और आज यह विश्व का अनमोल खजाना बन चुका है. सच माना जाय तो प्रकृति,संस्कृत काव्य की आत्मा है--चेतना है और उसकी जीवन शक्ति है. काव्यधारा की इस अलौकिक चेतना के पीछे जिस शक्ति का हाथ है,उसका नाम ही प्रकृति है. पृथ्वी से लेकर आकाश तक तथा सृष्टि के पांचों तत्व निर्मल और पवित्र रहें, वे जीव-जगत के लिए हितकर बने रहें, इसी दिव्य संदेश की गूंज हमें पढने-सुनने को मिलती है. महाभारत में हमें अनेक स्थलों पर प्राकृतिक सौंदर्य की अनुपम छटा देखाने को मिलती है. महाभारत के आरण्यक पर्व ३९.१९ की एक बानगी देखिए.
" मनोहर अनोपेता स्तस्मिन्न तिरथोर्जुनः "
पुण्य शीतमलजलाः पश्यन्प्रीत मनाभवत
कलकल के स्वर निनादित कर बहती नदियाँ, नदियों में बहता शीतल स्वच्छ जल, जल में तैरते-अलौकिक आनन्द मे डूबे हंस, नदी के पावन पट पर अठखेलियां करते सारस, क्रौंच,कोकिला, मयूर, मस्ती में डोलते मदमस्त गेंडे, वराह, हाथी, हवा से होड़ लेते मृग, आकाश कॊ छूती पर्वत श्रेणियां, सघन वन,वृक्षों की डालियों पर धमाचौकड़ी मचाते शाखामृग,चिंचिंयाते रंग-बिरंगे पंछी, जलाशयों में पूरे निखार के साथ खिले कमल-दल, कमल के अप्रतिम सौंदर्य पर मंडराते आसक्त भौंरॊं के समूह, तितलियों का फ़ुदकना आदि को पढकर आदिकवि के काव्य कौशल को देखा जा सकता है.
तो पश्य मानौ विविधन्च शैल प्रस्थान्वनानिच
नदीश्च विविध रम्या जग्मतुः सह सीतभा
सार सांश्चक्रवाकांश्च नदी पुलिन चारिणः
सरांसि च सपद्मानि युतानी जलजै खगैः
यूथ बंधाश्च पृषतां मद्धोन्मत्तान्विषाणि नः
महिषांश्च वराहंश्च गजांश्च द्रुमवैरिणः रामायण- अरण्यकांड सर्ग ११(२-४)
राम अपने बनवास के समय एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाते हैं, तो मार्ग मे अनेक पर्वत प्रदेश, घने जंगल, रम्य नदियाँ, और उनके किनारों पर रमण करते हुए सारस और चक्रवाक जैसे पक्षी, खिले -खिले कमलदल वाले जलाशय और अपने-अपने जलचर, मस्ती मे डोलते हिरणॊं के झुण्ड, मदमस्त गैंडे, भैंसे, वराह, हाथी, न सुरक्षा की चिन्ता, न किसी को किसी का भय, वाल्मिकी ने रामायण में जगह-जगह प्रकृति के मधुरिम संसार का वर्णण किया है.
भवभूति के काव्य में प्राकृतिक सौंदर्य देखते ही बनता है. लताएं जिन पर तरह-तरह के खिले हुए पुष्प सुवास फ़ैला रहे हैं .शीतल और स्वच्छ जल की निर्झरियां बह रही है. भवभूति ने एक ही श्लोक में जल, पवन, वनस्पति एवं पक्षियों का सुंदर वर्णण प्रस्तुत किया है.
माघ के काव्य में तीन विशिष्ठ गुण है. उसमें उपमाएं हैं.अर्थ गांभीर्य है और सौंदर्य सृष्टि भी. कहा जाए तो वे उपमाओं के राजा हैं. विशेष बात यह है कि उन्होंने अधिकांश उपमाएं प्रकृति के खजाने से ही ली है.
शिशुपाल वध में अनेक ऎसे स्थल हैं जिनमें प्राकृतिक सौंदर्य और स्वच्छ पर्यावरण का उल्लेख मिलता है. " काली रात के बाद भॊला प्रकाश आ रहा है .उसके गोरे-गोरे हाथ-पांव ऎसे लगते हैं मानो अरुण कमल हों. भौंरे ऎसे हैं जैसे प्रभात के नीलकमल नेत्रों के कज्जल की रेखाएं हों. सांध्य पक्षियों के कलरव में मस्त हुई यह भोली बालिका( प्रभात) रात के पीछे-पीछे चलकर आ रही है( शिशुपाल वध ६;२८)
महाकवि भारवि के ग्रंथ " किरातार्जुनीय " में अनेक उपमाएं, शृंगार प्रधान व सौंदर्यपरक रुपक है. वन में प्रवाहित नव पवन कदम्ब के पुष्पों की रेणु द्वारा आकाश को लाल कर रहा है. उधर पृथ्वी, कन्दली के फ़ूलों के स्पर्ष से सुगन्धित हो रही है. ये दोनो दृष्य अभिलाषी पुरुषॊं के मन को का-मनियो के प्रति आकक्त करने वाले हैं. नवीन वनवायु अपने आप ही शुद्ध वायु की ओर संकेत कराने वाला शब्द है. उधर धरती सुगंधित है, मन चंचल हो रहा है.(९)
(९) नवकदम्ब जोरुणिताम्बैर रधि पुरन्ध्रि शिलान्ध्र सुगन्धिभिः
मानसि राग वतामनु रागिता नवनवा वनवायु भिरादे धे !!
वन में प्रवाहित नव पवन कदम्ब के पुष्पों की रेणु द्वारा आकाश को लाल कर रहा है. उधर पृथ्वी कन्दली के फ़ूलों के स्पर्श से सुगन्धित हो रही है. ये दोनों दृष्य अभिलाषी पुरुषॊं के मन को कामनियों के प्रति आसक्त करने वाले हैं.
प्रकृति के लाड़ले कवि कुमारदास द्वारा रचित" जानकी हरण "प्राकृतिक सौंदर्य एवं उपमाओं के भण्डार से भरा हुआ है. अतीत की निष्कलंक एवं पवित्र प्राकृतिक , प्रायः सभी जगह बिखरी पड़ी है. कई स्थानॊं पर मार्मिक मानवीकरण भी है.
कुदरत की मादक गोद में विचरण करते राजा दशरथ की मनःस्थिति का वर्णण करते हुए कवि लिखता है " राजा ने नदी के उस तट पर विश्राम , जहाँ मंद पवन बेंत की लताओं को चंचल कर रहा था. सुखद पवन गंधी की दुकान की सुगंध जैसा सुगंधित था. वह सारस के नाद को आकर्षित करने वाला था. नीलकमलॊं के पराग को उड़ा-उड़ाकर उसने राजा के शरीर कॊ पीला कर दिया". यह पढकर लगता है कि हम किसी चित्र-संसार की सलोनी घटना को प्रत्यक्ष देख रहे हैं.
श्रीहर्ष ने अपनी कृति " नैषधिय़" में प्रकृति के सलोने रुप का वर्णण किया है. इस दृष्य को उन्होंने राजा नल की आँखों के माध्यम से देखा था. नल ने भय और उत्सुकता से देखा. क्या देखता है कि जल में सुगंध फ़ैलाने वाला पवन जिस लता को चूम-चूम कर आनन्द लेता है,वही लता ( जॊ मकरन्द के कणॊं से युक्त है.) आज अपनी ही कलियों में मुस्कुरा रही है. एक चित्र और देखिए--
"फ़लानि पुष्पानि च पल्ल्वे करे क्योतिपातोद गत वातवेपिते"
वृक्षों ने अपने हाथों में पुष्प और फ़ल लेकर राजा का स्वागत किया. ऊपर की ओर पक्षियों की फ़ड़-फ़ड़ाहट से हवा में होने वाले कम्पन से शाखाएं हिल रही थीं. पढकर ऎसा लगता है कि वृक्षों ने अपने इन्ही हाथों (शाखाओं) में पुष्प और फ़ल लेकर राजा का स्वागत किया हो.
वाणभट्ट ने अपनी कृति" कादम्बरी" में अगस्त्य मुनि के आश्रम के पास, पम्पा सरोवर का वर्णण करते हुए लिखा है" सरोवर में कई प्रकार के पुष्प हैं. जैसे- कुसुम ,कुवलय और कलहार. कमल इतने प्रमुदित है कि उसमे मधु की बूंदे टपक रही है. और इस तरह कमल-पत्रों पर चन्द्र की आकृतियां बन रही है. सफ़ेद कमलों पर काले भवरों का मंडराना अंधकार का आभास देता है. सारस मस्त हैं. मस्ती में कलरव कर रहे हैं. उधर कमल रस का पान करके तृप्त हुई कलहंस भी मस्ती का स्वारालाप कर रही है. जलचरों के इधर से उधर डोलने से तरंगे उत्पन्न हो रही है. मानो मालाएं हों. हवा के साथ नृत्य करती हुई तरंगे वर्षा ऋतु का सा दृष्य उत्पन्न कर रही है.
सुंदर लवंग लता की शीतलता लिए हुए कोमल और मृदु मलय पवन चलता है. मस्त भौंरों और कोयल वृंदो के कलरव से कुंज- कुटीर निनादित है. युवतियां अपने प्रेमियों के साथ मस्त होकर नृत्य करती हैं. स्वयं हरि विचरण करते हैं.-ऎसी वसन्त ऋतु, विरहणियों को दुःख देने वाली है.
वसंत ऋतु का ऎसा सजीव चित्रण जो मस्ती से लेकर, संताप की एक साथ यात्रा करवाता है.
कालिदास ने कवि और नाटककर दोनों रूपों में अद्भुत प्रतिष्ठा प्राप्त की. उन्होंने प्रकृति के अद्भुत रुपों का चित्रण किया है. सरस्वती के इस वरद-पुत्र्र ने भारतीय वाड;गमय को अलौकिक काव्य रत्नों एवं दिव्य कृतियों से भरकर उसकी श्रीवृद्धि की है.
रघुवंश के सोलहवें सर्ग में प्राकृतिक छटा का जो श्लोक है उसका भावार्थ यह है कि वनों में चमेली खिल गई है जिसकी सुगन्ध चारों ओर फ़ैल रही है. भौंरे एक-एक फ़ूल पर बैठकर मानों फ़ूलों की गिनती कर रहे हैं.". वसन्त का चित्रण करते हुए एक कवि ने सजीव एवं बिम्बात्मक वर्णण किया है-" लताएं पुष्पों से युक्त हैं, जल में कमल खिले हैं, कामनियां आसक्ति से भरी है, पवन सुगन्धित है, संध्याएं मनोरम एवं दिवस रम्य है, वसन्त में सब कुछ अच्छा लगता है".
शकुन्तला के बिदाई के समय के चित्र को देखिए-" हे वन देवताओं से भरे तपोवन के वृक्षों ! आज शकुन्तला अपने पति के घर जा रही है. तुम उसे बिदाई दो. शकुन्तला पहले तुम्हें पिलाए बिना खुद पानी नहीं पीती थी, आभूषणों और शृंगार की इच्छा होते हुए भी तुम्हारे कोमल पत्तों को हाथ नहीं लगाती थी, तुम्हारी फ़ूली कलियों को देखकर खुद भी खुशी से फ़ूल जाती थी, आज वही शकुन्तला अपने पतिगृह जा रही है. तुम उसे बिदाई दो".
संस्कृत काव्यधारा में फ़ूलों की आदिम सुवास का अनमोल खजाना ,अपने पूरे लालित्य के साथ समाया हुआ है. प्रकृति के इन विभिन्न आयामों की रचना करने का उद्देश्य ही पर्यावरण संरक्षण रहा है. आज स्थितियां एकदम विपरीत है. जंगलों का सफ़ाया तेजी से हो रहा है. विकास के नाम पर पहाड़ॊं का भी अस्तित्व दांव पर लग चुका है. प्रकृति हमारे लिए सदैव पुज्यनीय रही है. भारतीय मुल्य प्रकृति के पोषण और दोहन करने का है, न कि शोषण करने का. वनों ने सदा से ही संस्कृति की रक्षा की है. पूरे पौराणिक और ऎतिहासिक तथ्य इस बात के साक्षी हैं कि जब तक हमनें वन को अपने जीवन का एक अंग माना, तब तक हमें कभी पश्चाताप नहीं करना पड़ा. आज वनों की अंधाधुंध कटाई से पर्यावरण संतुलन गड़बड़ा गया है. विभिन्न विभाग तथा संस्थाएं इस प्रयास में लगी तो हैं लेकिन उनमें समन्वय की कमी दिखलाई पड़ती है. काफ़ी प्रचार-प्रसार के बाद भी इच्छित परिणाम नहीं मिल पा रहे हैं. यदि हम पर्यावरण को जन-जन से जोड़ना चाह्ते हैं तो आवश्कता इस बात की है कि हमें इसे पाठ्यक्रम में उचित स्थान देना होगा.
गोवर्धन यादव
१०३,कावेरीनगर,छिन्दवाड़ा(म.प्र)४८०००१
०७१६२-२४६६५१ ०९४२४३५६४००
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