नूतन प्रसाद का व्यंग्य - निर्बल के बलराम

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श्रो ताओं, मै तुम्हें एक कहानी सुनाऊंगा. तुम्हारी इच्छा सुनने की नहीं तो भी तुम्हारे कान में जबरदस्ती उड़ेल दूंगा. जबरदस्ती का जमाना है. जब ...

श्रोताओं, मै तुम्हें एक कहानी सुनाऊंगा. तुम्हारी इच्छा सुनने की नहीं तो भी तुम्हारे कान में जबरदस्ती उड़ेल दूंगा. जबरदस्ती का जमाना है. जब भाषावादी क्षेत्रीयता की और जातिवादी लड़ाइयां अनिच्छा से लड़ रहे हैं तो मेरी कहानी भी सुननी पड़ेगी.

तो परम्परानुसार सर्वप्रथम गणेशजी को प्रणाम कर कहानी शुरु करता हूं. गणेशजी दूसरे देवताओं को ठगकर याने उनके अधिकार छीनकर प्रथम पूज्य बने थे वैसे ही दूसरी की लिखी कहानी तुम्हें सुनाकर सर्वश्रेष्ठ कहानीकार घोषित होना चाहता हूं . साहित्य की यही नियति है कि मुर्गी मिहनत करती है और अंडे फकीर खाता है. नाटककार पर्दे की पीछे दुबका रहता है तो कलाकार स्टेज पर वाहवाही लूटते हैं. तुलसीबाबा कथावाचकों के समक्ष कब नतमस्तक नहीं हुए.

मैं नतमस्तक हूं अकाल के आगे जो बिना बुलाये मेहमान बन जाता है. इस अतिथि का पदार्पण नहीं होता तो ग्रामीणों को नगर भ्रमण करने का मौका नहीं मिलता. सरकार को लोगों को सहायता देने की घोषणा करने का सुअवसर प्राप्त नहीं होता. वैसे वह उस समय भी सहायता करने की घोषणा करती है जब लोग दंगे में मर जाते हैं. पहले से ही सुरक्षात्मक कदम उठा देगी तो दयालु कैसे कहलायेगी ! लेकिन इस बार ऐसा नहीं हुआ. राज्य शासन ने पिछले सारे रिकार्ड तोड़ दिये. उसने अकालग्रस्त क्षेत्र को सहायता देने की बात किसी को नहीं बताया. यहां तक कि विरोधी दल को भी इसका पता नहीं चला. वैसे विरोधी दल को कुछ मालूम भी नहीं रहता. उसके सदस्य की नीलामी हो जाने के बाद ही उसे ज्ञात होता है तब उसका सिर्फ एक काम बच जाता है - सत्ता पक्ष का विरोध करने का । विरोधपक्ष की परिभाषा में ही यह लिखा है कि वह सरकार की गलत नीतियों की ही नहीं वरन अच्छी नीतियों का भी विरोध करें.

नाजुक स्थिति को सुधारने के लिए तत्काल कार्यवाही करनी थी इसलिए रात को विधानसभा सत्र लगाया गया. सत्तापक्ष के सारे सदस्य धड़ाधड़ आ गये. एक मंत्री ने जुए की जीतती बाजी छोड़ दी. चार सदस्यों ने फिल्म आधी छोंड़ दी. पांच सदस्य बार रुम से सीधे यहीं दौड़े क्योंकि अकालग्रस्त क्षेत्र को तत्काल सहायता पहुंचाना था.

यद्यपि कागजी घोड़े नहीं दौड़ने थे,ठोस कार्य होना था फिर भी मुख्य सचिव, उपसचिवों को गुप्त रुप से बुला लिया गया. उन्हें सख्त आदेश दिया गया कि किसी सदस्य को निंद्रादेवी अपनी आलिंगन में लेती है तो बेमौसम पानी बरसा कर उन्हें जगा दें ताकि चलते कार्य में बाधा उपस्थित न हो क्योंकि अकालग्रस्त क्षेत्र को तत्काल सहायता पहुंचाना था.

उस रात बिजली बंद थी. मोमबत्तियां लालटेन खरीदने का वक्त नहीं था इसलिए कुर्सियों को जला कर रोशनी की गई. वैसे कई सदस्य चड्डी बनियान के सिवा बाकी कपड़ों को जलाकर सभा की कार्यवाही जल्दी निपटाने उत्सुक थे क्योंकि अकालग्रस्त क्षेत्र को तत्काल सहायता पहुंचाना था.

सभा की कार्यवाही प्रारंभ हुई. अध्यक्ष को औपचारिकता पूरा करने का अवसर नहीं मिला. यहां तक कि मुख्यमंत्री भी बिना भूमिका बांधे कहने लगे - मित्रों आप लोगों को बताने की आवश्यकता नहीं कि भंयकर दुर्भिक्ष पड़ा है. लोग त्राहि त्राहि कर रहे हैं. सुनने में यहां तक आया है कि रोटियां बनाने के लिए घास भी नहीं मिल रही है इसलिए. . . . ।

चन्द्रभान ने बीच में छलांग लगायी - महोदय, मुझे लोगों के साथ सहानुभूति है लेकिन दो तिहाई सदस्य सहायता देना चाहते हैं कि नहीं इसके लिए मतदान तो हो जाय.

मुख्यमंत्री ने उनका गला दबाया -मैं जानता हूं कि तुम मेरी कुर्सी पर बैठना चाहते हो. इसके लिए षड़यंत्र भी रच रहे हो लेकिन इस वक्त तो टांग मत अड़ाओ.

चन्द्रभान चुप हो गये. मुख्यमंत्री फिर बोले - तो मेरा विचार है कि लोगों के पास चांवल, दाल, गेहूं , तेल यानि आवश्यक वस्तुएं जल्दी भेजी जाये. . . . . ।

प्रतापनारायण जिनका मुंह बहुत देर से बोलने के लिए खुजला रहा था ने मुंह मारा - मैं ये नहीं कहता कि लोग तड़प तड़प कर असार संसार त्याग दें पर यह भी तो पता होना चाहिए कि वे किसके समर्थक हैं. अगर विरोधियों के समर्थक हुए तो व्यर्थ खर्च करने से क्या लाभ ?

मुख्यमंत्री ने उनकी भी धुनाई की - शटअप, यही तुम्हारी शराफत है ! तुम्हारे जैसों के कारण ही सत्तापक्ष बदनाम होता है. कौन किसका है अभी देखने का समय नहीं है.

अन्य सदस्य चन्द्रप्रताप और प्रतापनारायण को धिक्कारने लगे. रामशरण ने कहा - मुख्यमंत्री जी ठीक कह रहे हैं. तुम दोनों ऐसे ही उटपुटांग वक्तव्य देते हो और सम्हालना हमें पड़ता है.

यह सच है कि ये दोनों हमेशा समाज विरोधी हरकतें करते हैं. पर उनका दल उबार ही लेता है अभी भी उन्होंने गलत बयान दिये हैं पर सुनने को मिलेगा कि चन्द्रप्रताप और प्रतापनारायण लोगों की दयनीय स्थिति का समाचार सुनकर रो पड़े.

मेरे साथ भी इसी प्रकार का उल्टा नियम लागू है. जिसे मैं कहानी कह रहा हूं वह हकीकत है. ऐसा भी हो सकता है कि कहानी मैंने शुरु की पर समाप्त कोई दूसरा करे. श्रोता भी सोच रहे होंगे कि विरोधी दल के बिना विधानसभा का सत्र कैसे लग गया. लो भाई, तुम्हारी बात मान लेता हूं- विरोधी आ ही गये. वे एक साथ दरवाजे से नहीं घुस सके तो खिड़कियों से अंदर पहुंचे. सबसे पहले उनने सरकार मुर्दाबाद के नारे लगाये. मुख्यमंत्री के पुतला जलाने का अवसर नहीं मिला तो संसदीय गाली का प्रयोग कर उनका दिल ही जलाया. इस पर अध्यक्ष ने आक्षेप किया तो विरोधी नेता ने कहा - हमें स्पष्ट रुप में बताया जाये कि रात में ही सत्र क्यों लगाया गया. इसकी सूचना हमें क्यों नहीं दी गई ?क्या जनता का दुख हमारा दुख नहीं है ?

मुख्यमंत्री ने लिखित उत्तर दिया- कार्यवाही तत्काल करनी थी. हमारे पास इतना समय नहीं था कि सुबह का इंतजार करते या तुम्हें सूचना देते.

विरोधी दल नाराज हो गया. वह वाक आउट कर गया. वह उस वक्त भी वाक आउट कर जाता है जब जनता के हित में प्रस्ताव रखा जाता है लेकिन इस समय वह लोगों का हित करने को कटिबद्ध था. वह लौट कर आया. जल्दी आया और कहा - बेमतलब देरी की जा रही है ! लोगों के ऊपर क्या बीत रही है किसी को पता है ! अगर सरकार अपना कर्तव्य पूरा नहीं कर सकती तो इस्तीफा दे ।

सत्तापक्ष ने दुलत्ती लगायी - तुम्हें तो बस आलोचना करने का बहाना मिलना चाहिए. तुम्हारे कहने से इस्तीफा क्यों दे !सत्ता जनता ने सौंपी है इसलिए उसकी जल्दी सहायता करने हम खुद चिंतित हैं.

- खाक चिंतित हो ! लोग कितने दिनों से भूखे हैं. कमजोरी के कारण उन्हें बीमारियां तो नहीं लग गयीं. अगर लग गयी तो कौन सी दवाइयां देनी पड़ेगी इसके बारे में कुछ मालूम है ?

इस प्रश्न का सरकार के पास कोई जवाब नहीं था इसलिए तुरंत सात सदस्यों की एक कमेटी गठित की गई . जिसमें दो मंत्री, दो विरोधी, और तीन अधिकारी नियुक्त हुए . वे अकालग्रस्त क्षेत्र में गये और सूक्ष्म से सूक्ष्म जानकारी एकत्रित कर लौट आये. ऐसे ही तथ्य लाने के वे आदि थे. एक बार भंयकर बाढ़ आयी. वहां की स्थिति का वे अवलोकन कर रहे थे कि एक आदमी डूबता हुआ दिखा. अधिकारियों को उसके ऊपर दया आयी तो उनने कहा - इसे कोई बचा लेता तो कितना अच्छा होता ?

विरोधियों ने कहा - बड़े उपकारी हो तो तुम्हीं बचा लो न !

मंत्रियों ने झगड़ा शांत किया - आपस में क्यों लड़ते हो ?कोई जिये या मरे इससे हमें क्या ! हम तो बस जानकारी एकत्रित करने आये हैं.

और उनने आदमी को मरने दिया पर कागजात सुरक्षित बचा कर ले आये. इस बार वे प्रमाण देने के लिएं चित्र भी खींच कर लाये थे तथा दुखी स्वर में बताया कि वहां की गंभीर स्थिति का वर्णन करने के लिए हमारे पास वाणी नहीं है लेकिन जल्दी सहायता नहीं पहुंची तो अनर्थ हो जायेगा. . . . ।

सत्ता और विरोध पक्ष की आवाज एक साथ निकली - तो यहां देरी कौन कर रहा है. हम भी तो यही चाहते हैं कि वहां की स्थिति सम्हालकर दूसरा काम करें.

सभा का कार्य सम्पन्न हुआ. सदस्यों ने पारित प्रस्ताव पर हस्ताक्षर भी नहीं किया. उनने कहा कि इसके कारण जेल जाने का दण्ड मिलेगा तो सहर्ष स्वीकार कर लेंगे लेकिन किसी भी स्थिति में समय नहीं गंवाना है. वाहनों में खाद्यान्न लदना शुरु हो गया. आधा कार्य हो चुका कि विरोध पक्ष की पैनी आंखों ने देखा कि सामान अत्यंत घटिया है. उसने तुरंत अपना कर्तव्य निभाया- ऐसी सरकार को धिक्कार है जो जीवन देने के नाम पर जहर खिलाने उतारु है. चांवल में कीड़े गेंहू में कंकड़ तो तेल से मिट्टी तेल की बू आ रही है. लोग इनके सेवन करेंगे तो उनके स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ेगा.

समान तुरंत बदला गया. स्वास्थ्य वर्धक तथा अच्छी वस्तुएं वाहनों पर लादी गई. भोजन पकाने में देरी होती इसलिए सेव, अंगूर, पेड़े रसगुल्ले भी रख लिए गये. वाहन रवाना होने वाले थे कि विरोध पक्ष ने कहा - हमें किसी पर विश्वास नहीं. बीच रास्ते में माल उतार लिये गये या डाकूओं ने लूट लिया तो मिहनत बेकार चली जायेगी. इसलिए समानों को सुरक्षित पहुंचाने के लिए हम भी साथ जायेंगे.

उनकी चालाकी को सत्तापक्ष ने ताड़ लिया. खाद्यमंत्री ने मुख्यमंत्री के कान में कहा - सर , दाल में काला नजर आ रहा है. ये अपनी खिचड़ी पकाने की सोच रहे हैं. देखिये न , सामान तो हम भेज रहे हैं लेकिन हमारे दुश्मन ये प्रचार कर सम्पूर्ण यश लूट लेंगे कि खाद्यान्न तो हम लाये हैं. अतः हमें साथ चलना होगा यही नहीं अपने हाथ से बांटेगे भी. . . ।

खाद्यन्न के साथ दोनों दल हो लिए. लो साहब, मैं वर्णन भी नहीं कर पा रहा पर वे अकालग्रस्त क्षेत्र मे पहुंच गये . सत्तापक्ष ने ऊंची स्वर में आवाज लगायी -भाइयों, हम तुम्हारी आवश्यकता की प्रत्येक वस्तु लाये हैं. इसके लिए भारी मुसीबतें उठानी पड़ी पर कोई गम नहीं. तुम्हें सुख सुविधा देना हमारा कर्तव्य है. आओ, और अपना हिस्सा ले जाओ .

विरोध पक्ष भी पीछे न रहा. उसने भी ऊंची आवाज में चिल्लाया - दुखी मित्रों, सत्तापक्ष झूठा है. उसकी बातों पर विश्वास मत करो क्योंकि खाद्यान्न तो हम लाये हैं. आओ जल्दी आओ और अपने अधिकार की वस्तुएं ले जाओ. हम लूटने तैयार हैं.

इधर ये लोगों को आमंत्रित कर रहे थे पर दूसरी ओर से आदमी तो क्या उनकी आवाज तक नहीं आ रही थी. प्रतीक्षा करते बहुत देर हो गई तो उन्हें बहुत गुस्सा आया. सत्तापक्ष ने चिड़चिड़ाकर कहा - अजीब तमाशा है. वैसे तो मांगे पूरी कराने अनशन, हड़ताल और प्रदर्शन करते हैं पर जब स्वयं मदद देने आये हैं तो उनकी सूरत तक नहीं दीख रही. कुछ भी हो जब सामान लाये हैं तो सौंपकर जायेंगे.

विरोध पक्ष भी भन्नाया - देखो इन घमन्डियों को, सरकार इनकी नहीं सुनती तो हमारी शरण में गिरते हैं लेकिन स्वयं कष्ट हरने आये है तो इनके मुंह सिल गये हैं. जवाब तक नहीं देते. तो हमारा भी प्रण है कि लायी हुई वस्तुओं को उनके मुंह में ठूंस देंगे.

कहानी रोककर बेताल ने विक्रमार्क से पूछा- राजन, तुम इस ध्रुव सत्य से परिचित हो कि कुंए के पास प्यासे को ही जाना पड़ता है लेकिन इस बार सत्ता और विरोध पक्ष पुराने सिद्धांतों की अवहेलना कर सहायता देने स्वयं पधारे हैं तो लोग उनके पास क्यों नहीं आ रहे है ! उन्हें तो खाद्य वस्तुओं पर टूट पड़ना था ?

विक्रमार्क शव को कंधे पर लादे चलता ही रहा क्योंकि वह शव से ही अतिशय प्रेम करता था. वह नहीं बोला तो बेताल ने पुनः कहा - तुम समय बर्बाद कर रहे हो. मैं लास्ट वर्निंग देता हूं कि दस के गिनते तक तुमने उत्तर नहीं दिया तो तुम्हारा सिर टुकड़े - टुकड़े होकर बिखर जायेगा.

विक्रमार्क ठठाकर हंस पड़ा. बोला -बेताल, तुम बहुत जल्दी नाराज मत हो जाया करो. सोचो, भला मैं मर गया तो शासन कौन करेगा ! और अकालग्रस्त क्षेत्र के लोगो के सम्बंध में पूछते हो तो वे सहायता लेने आते ही कैसे, वे भी तो तुम्हारे समान लाश बन चुके थे !

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रचनाकार: नूतन प्रसाद का व्यंग्य - निर्बल के बलराम
नूतन प्रसाद का व्यंग्य - निर्बल के बलराम
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