(हिंदी साहित्य की लघुपत्रिकाओं में प्राची का एक अलग, महत्वपूर्ण स्थान है. इसके प्रकाशन के पांच वर्ष पूरे होने पर संपादक राकेश भ्रमर ने हिंद...
(हिंदी साहित्य की लघुपत्रिकाओं में प्राची का एक अलग, महत्वपूर्ण स्थान है. इसके प्रकाशन के पांच वर्ष पूरे होने पर संपादक राकेश भ्रमर ने हिंदी साहित्यकारों को संबोधित करते हुए एक सारगर्भित संपादकीय लिखा है. मोटे तौर पर संपादकीय में कही गई बातें आपकी प्रिय, इस साहित्यिक वेब पत्रिका रचनाकार भी लागू होती है. इसी बात को ध्यान में रखते हुए, व साहित्यकार बिरादरी को कुछ सीख मिले, इस हेतु उनका संपादकीय यहाँ अविकल पुनर्प्रकाशित किया जा रहा है)
प्राची के पांच साल
प्राची का प्रकाशन ‘प्रज्ञा' के नाम से अप्रैल 2008 में एक मासिक पत्रिका के रूप में प्रारंभ हुआ था. तब से यह पत्रिका निरंतर प्रकाशित हो रही है. पत्रिका का पंजीकरण होने के बाद इसे ‘प्राची' नाम प्राप्त हुआ. जून 2010 से यह ‘प्राची' के नाम से प्रकाशित हो रही है, क्योंकि भारत सरकार के पत्र-पंजीयक के यहां से यहीं नाम स्वीकृत हुआ. प्रस्तुत अंक पत्रिका का 61वां अंक है, परन्तु प्राची के नाम से इसका 37वां अंक है. इस बीच में अनेक मुश्किलें और बाधाएं आईं; रायबरेली से इसे जबलपुर लाना पड़ा, परन्तु इसका प्रकाशन नहीं रुका. बल्कि 62 पृष्ठों से प्रारंभ हुई पत्रिका उसी आकार-प्रकार में 76 पृष्ठ की हो गई और इसके मूल्य में भी कोई परिवर्तन नहीं किया गया. अप्रैल 2008 से अब तक हम मात्र 20 रुपये में इसे पाठकों तक पहुंचा रहे हैं. यह प्रज्ञा प्रकाशन के लिए एक उपलब्धि है; जबकि पत्रिका में विज्ञापनों की संख्या नगण्य है. इसे कोई व्यावसायिक आधार भी प्राप्त नहीं है. साहित्यिक पत्रिका के प्रकाशन में बहुत जोखिम उठाने पड़ते हैं सबसे बड़ा जोखिम अर्थ का होता है, जो पत्रिका को कहीं से भी प्राप्त नहीं होता है. यह जोखिम प्रेमचंद से लेकर आज तक के साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशक और संपादक उठाते रहे हैं और भविष्य में भी उठाते रहेंगे.
यह प्रकाशक और संपादक का जुनून होता है, साहित्य के प्रति एक अनुराग, लगाव या नशा, जो प्रकाशन के जोखिम को सदा उठाता रहता है. हम भी यह जोखिम उठा रहे हैं, केवल आपके आत्मिक प्यार, स्नेह और शुभाशिर्वाद के सहारे और हमारा प्रयास रहेगा कि पत्रिका का प्रकाशन निर्बाध गति से निरंतर होता रहे, और यह प्रतिमाह नियत तिथि तक आपके हाथों में पहुंचती रहे. आपके सुझावों का हमें इंतजार रहता है, कृपया पोस्टकार्ड पर अपने दो शब्द लिखने में संकोच न करें. आपकी प्रेरणा ही हमारी ऊर्जा और शक्ति है. इसे बनाए रखें, तभी हम आपके मध्य विराजमान रहेंगे.
प्रारंभ से ही हमारा प्रयास रहा है कि प्रज्ञा/प्राची को एक सम्पूर्ण साहित्यिक पत्रिका के रूप में प्रकाशित किया जाए; ताकि इसमें हिन्दी साहित्य की गद्य-पद्य की समस्त विधाओं की रचनाओं को स्थान दिया जा सके. इसके अतिरिक्त हमने यह भी कोशिश की कि हिन्दी साहित्य के साथ अन्य भारतीय भाषाओं एवं विश्व की अन्य भाषाओं के साहित्यकारों की उत्कृष्ट रचनाएं भी प्राची के माध्यम से पाठकों तक पहुंचती रहें. इस प्रयास में हम कहां तक सफल हुए हैं, यह केवल आपके विचारों के माध्यम से ही हम जान सकते हैं, परन्तु खेद के साथ कहना पड़ रहा है कि कुछ लेखक संपूर्ण पत्रिका की प्रशंसा तो करते हैं, परन्तु व्यक्तिगत रचनाओं पर टिप्पणी करने से बच जाते हैं. पाठकों-लेखकों से मेरा अनुरोध है कि वह प्रत्येक रचना पर खुलकर अपने विचार व्यक्त करें; तभी हम अगले अंकों में रचनाओं के चयन में पाठकों/लेखकों की अभिरुचि का ध्यान रख सकेंगे.
एक मुख्य बात, जिसका उल्लेख मैंने संपादकीय के माध्यम से पहले भी किया है, फिर से कहना चाहूंगा कि प्राची में प्रकाशनार्थ प्राप्त होनेवाली रचनाओं में सबसे अधिक संख्या छन्दहीन कविताओं और बेतुकी गजलों की होती है. कहना अंसगत न होगा कि इनमें से ज्यादातर कविताएं और गजलें अधकचरी होती हैं और पद्य के मापदण्डों पर खरी नहीं उतरतीं. पता नहीं लेखकों को यह भ्रम कैसे हो जाता है कि छन्दहीन कविताएं और गजलें लिखना बहुत आसान होता है. जहां कविताओं में एक केन्द्रीय भाव और संवेदनशीलता का होना आवश्यक है, वहीं गजलों में छंद, मात्रा, रदीफ और काफिये का पूरा ख्याल रखना जरूरी होता है. बहुत सी रचनाओं को पढ़कर मुझे कवियों और शायरों की बुद्धि पर तरस आता है कि वे भावहीन कविताएं और छंदमुक्त गजलें लिखकर तो अपने को कवि और शायर मान लेते हैं, परन्तु उन रचनाओं को दुबारा नहीं पढ़ते कि उनकी कमियों की तरफ ध्यान दे सकें. अपनी रचनाओं में वह भाषा और व्याकरण का तो अनुशासन नहीं मानते, परन्तु उर्दू-फारसी के कुछेक शब्दों के नीचे बिन्दु लगाना नहीं भूलते. इतना सा ज्ञान प्राप्त करके वह समझते हैं कि वह हिन्दी-उर्दू के महान शायरों की श्रेणी में आ गये हैं. उनकी बुद्धि और भाषा ज्ञान नुक्ते तक जाकर खत्म हो जाता है.
दूसरी मुख्य बात यह है कि आज का लेखक लिखना तो चाहता है, परन्तु न वह ज्ञान अर्जित चाहता है, न श्रम करना चाहता है. वह केवल एक कागज पर कुछ शब्द लिखकर उन्हें ‘कविता' का नाम देकर सम्पादक के पास अपनी लम्बी-चौड़ी सम्मानों की सूची के साथ भेज देता है. वह समझता है कि सम्पादक उसकी सम्मान-सूची देखकर प्रभावित हो जाएगा और आंख मूंदकर उसकी बेहद कमजोर, कूड़े में फेंक देनेवाली कविता को सम्मान के साथ अपनी पत्रिका में प्रकाशित कर देगा. इस प्रकार के कवियों और लेखकों की सम्मान-सूची में उनकी प्रकाशित कृतियों की संख्या या तो न के बराबर होती है, या उनकी सम्मान-सूची का दसवां हिस्सा भी नहीं होती. उनको देश के प्रत्येक कोने, शहर और कस्बे से सम्मान प्राप्त हो जाते हैं; परन्तु उनकी प्रकाशित कृतियों का कोई अता-पता नहीं मिलता. ऐसे महान साहित्यकारों से मेरा विनम्र निवेदन है कि सम्मान-पत्र बटोरने में अपना समय व्यर्थ न गंवाएं, बल्कि कुछ समय रचनात्मक कार्यों में भी लगाएं; ताकि उनके दिवंगत होने के बाद उनकी रचनाओं को लोग याद कर सकें. किसी लेखक की अच्छी रचनाएं ही उसे कालजयी बनाती हैं, न की उसकी सम्मान-सूचीतीसरी
प्रमुख बात, जो मैं कहना चाहता हूं, वह यह है कि आधुनिक हिन्दी लेखक श्रमहीन हैं. वह बहुत ज्यादा लिखना समय की बरबादी समझता है, इसीलिए वह लेख, निबंध, कहानी और उपन्यास लिखकर अपना समय बरबाद नहीं करता. दो-चार कहानियां लिखने में जो श्रम और समय लगता है, उतना ही श्रम लगाकर और उतने ही समय में वह सौ-डेढ़ सौ कविताएं लिखकर एक कविता-संग्रह छपवा लेता है अपने खुद के पैसे से और उस कृति की बदौलत गली-कूचों से अथाह सम्मान भी बटोर लेता है.
प्राची में प्रकाशनार्थ बहुत कम कथायें प्राप्त होती हैं, संभवतः इसका एक कारण यह हो सकता है कि पत्रिका पारिश्रमिक देने में असमर्थ है. (हालांकि प्रज्ञा कहानी पुरस्कार योजना के तहत हमने चयनित कहानियों को पुरस्कार राशियां भी प्रदान की हैं और पाठक-लेखक इस बात से परिचित होंगे) चूंकि कहानी लेखन में समय और श्रम दोनों ही लगते हैं, इसलिए लेखक बिना किसी पारिश्रमिक के एक लघु पत्रिका के लिए कहानी भेजना मूल्यहीन और अनुचित समझते हों. कारण चाहे जो भी हों, परन्तु कहानियों का पर्याप्त मात्रा में प्रकाशन के लिए प्राप्त न होना एक दुखद और चिंताजनक स्थिति है. इस त्रासदी से बाहर निकलने के लिए मैं कहानी और कथा लेखकों से केवल अनुरोध कर सकता हूं कि वह कहानी-लेखन में रुचि लें, अपने कीमती समय का कुछ अंष लिखने में व्यतीत करें, श्रम करें. आशा करता हूं कि एक कहानी या लेख समाप्त करने पर वह असीम सुख का अनुभव प्राप्त कर सकते हैं. आधुनिक कविताएं बेतुके गद्य के अलावा और कुछ नहीं होतीं, इसलिए ऐसे कवियों को मेरा सुझाव है, अगर उनके मस्तिस्क में पारिवारिक या सामाजिक मुद्दों से जुड़ा हुआ कोई भाव आता है, तो उसे लेख या कहानी के रूप में परिवर्तित करने का प्रयास करें. मेरा मानना है कि एक बेहूदी और बचकानी कविता लिखने से अच्छा है कि वह गद्य लेखन का प्रयास करें, तो अच्छा लेखन कर सकेंगे
आज के लेखकों में छपास की भूख भी अत्यधिक है. वह अपनी ढेर सारी पद्य रचनाएं, जिनमें अतुकांत कविताएं ही होती हैं, एक साथ छपने के लिए भेज देते हैं. ये रचनायें भी छायाप्रतियां होती हैं, जिससे आभास होता है कि कवि महोदय एक साथ अन्य पत्रिकाओं में भी इतनी ही संख्या में रचनाएं भेजते होंगे. एक साथ बहुत सारी कविताएं भेजने का परिणाम बहुत अच्छा नहीं होता है, क्योंकि संपादक को अगर पहली ही रचना पढ़ते समय प्रकाशन योग्य प्रतीत नहीं होती है, तो वह अन्य रचनाओं को बिलकुल पढ़ने का कष्ट नहीं उठाता, क्योंकि उसके सामने अन्य रचनाएं भी होती हैं. इस तरह संभव है कि उस कवि की अच्छी रचना भी कचरे के ढेर में पहुंच जाए. अतः कवि और लेखकों से अनुरोध है कि एक साथ ढेर सारी रचनाएं प्रकाशनार्थ न भेंजें. एक-दो रचना भेजने के बाद जब तक उसके बारे में कोई निर्णय नहीं प्राप्त होता, तब तक अन्य रचना न भेंजें. रचना प्रकाशन के बाद लेखकीय प्रति भेजने का प्रावधान है, अन्यथा तीन-चार माह के बाद लेखक और कवि रचना को अस्वीकृत समझकर उसे अन्यत्र भेज सकते हैं. प्राची के प्रत्येक अंक में यह सूचना छापी जाती है कि लेखक कृपया अपनी रचना की मूल प्रति ही प्रकाशनार्थ/विचारार्थ भेंजें, परन्तु अधिकांश लेखक इस सूचना पर कोई गौर नहीं करते और वह अपनी रचना की छायाप्रति भेज कर निश्चिंत हो जाते हैं, कि उनकी रचना प्रकाशित हो जाएगी. कई बार रचना की गुणवत्ता के आधार पर हम उस पर विचार कर लेते हैं, परन्तु अधिकांश रचनाएं अस्वीकृत कर दी जाती हैं, क्योंकि छायाप्रति कराते समय लेखक इस बात का ध्यान नहीं करते कि मूल रचना के अंश सही-सही छायाप्रति में आ गये हैं.
कई लेखक तो अपनी पूर्व प्रकाशित रचना की सीधे पत्रिका या पुस्तक से ही छायाप्रति करवाकर भेज देते हैं. ऐसी स्थिति में हमारे पास इन रचनाओं को अस्वीकृत करने के अलावा और कोई चारा नहीं होता जो लेखक अपनी रचनाओं को टंकित करवा कर भेजते हैं, वह भी उसे दुबारा पढ़ने का कष्ट नहीं करते. लेखक की भाषा को एक टंकणक सही तरीके से टंकित करेगा, यह सोचना भ्रामक है. टंकित करते समय गल्तियां होना स्वाभाविक हैं और कई बार टंकणक किसी शब्द को नहीं समझता है तो वह अपने ज्ञान के आधार पर उसकी जगह कोई और ही शब्द टंकित कर देता है. इस प्रकार वाक्य का अनर्थ हो जाता है. लेखकों से निवेदन है कि टंकित रचना को भी वह एक बार ठीक से पढ़ लें, और आवश्यक सुधार करने के बाद ही किसी पत्रिका के पास प्रकाशनार्थ प्रेषित करें. टंकण की गल्तियों के कारण भी कई बार रचना अस्वीकृत हो जाती हैं.
द्वितीय प्रज्ञा कहानी पुरस्कार में कम संख्या में कहानियां मिलने के कारण पुरस्कार योजना को निरस्त किया जा चुका है, परन्तु इसके इतर चयन समिति ने पंद्रह कहानियों को प्रकाशनार्थ स्वीकृत किया है. इन कहानियों में पांच प्रथम कहानियों को हम इस अंक में प्रकाशित कर रहे हैं. एक कहानी को लेखक की सूचना के आधार पर प्रकाशित नहीं किया जायेगा. शेष नौ कहानियों को आगामी अंकों में प्रकाशित किया जायेगा. इन सभी चौदह कहानियों के लेखकों को समुचित पारिश्रमिक देने की व्यवस्था है, जो कहानियों के प्रकाशित होने के एक मास के अंदर मनीआर्डर द्वारा भेज दिया जायेगा.
लेखकों और पाठकों से विनम्र अनुरोध है कि अपना सहयोग हमें प्रदान करते रहें और अपने मूल्यवान विचारों से हमें अवगत कराते रहें. अगले अंकों में प्रकाशित किये जाने वाले पत्रों में किसी सर्वश्रेष्ठ पत्र को हम पुरस्कृत करने की योजना भी बना रहे हैं, अतः आज ही अपनी कलम उठाइए और प्राची में प्रकाशित रचनाओं या किसी अन्य सामयिक विषय पर अपने विचार हमें संक्षिप्त में लिख भेजें. हम उन्हें प्राची के ‘आपने कहा है' स्तम्भ में प्रकाशित करेंगे और घोषणा के बाद हम उन्हें पुरस्कार से सम्मानित करेंगे.
आपका
शुभाकांक्षी!
राकेश भ्रमर
राकेश भ्रमर
रचनाकार में मेरे सम्पादकीय को पढ़्कर लेखको ने मुझसे सम्पर्क किया है. धन्यवाद.
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