मिथक - परिचर्चा और निष्कर्ष अवसर - साकेत साहित्य परिषद सुरगी, जिला - राजनांदगांव का वार्षिक विचारगोष्ठी, सुरगी, दिनांक - 16. 06. 2013 वि...
मिथक - परिचर्चा और निष्कर्ष
अवसर - साकेत साहित्य परिषद सुरगी, जिला - राजनांदगांव का वार्षिक विचारगोष्ठी, सुरगी, दिनांक - 16. 06. 2013
विषय - लोक साहित्य में मिथक
भाग लेने वाले साहित्यकार -
1. कुबेर सिंह साहू, भोढ़िया
2. हीरालाल अग्रवाल, खैरागढ़
3. सरोज द्विवेदी, राजनांदगांव
4. डॉ. पी.सी. लाल यादव, गंडई
5. डॉ. शंकरमुनिराय, दिग्विजय कालेज, राजनांदगांव
6. यशवंत, शंकरपुर, राजनांदगांव
7. डॉ. गोरेलाल चंदेल, खैरागढ़
8. डॉ. जीवन यदु 'राही', दाऊ चौरा, खैरागढ़
1. कुबेर सिंह साहू -
परिचर्चा के विषय में लोक, साहित्य और मिथक ये तीन शब्द हैं। शिष्ट साहित्य और लोक साहित्य में घालमेल होता रहा है। मिथकों का सृजन, मनुष्य का प्रकृति के साथ जीवन संघर्ष और प्रकृति की अजेय शक्तियों को लेकर उसकी जिज्ञासा से जुड़ा हुआ है। मिथक का निर्माण समाज के जानकारों और चिंतनशील लोगों ने ही किया होगा! किसी भी मिथक की व्याख्या तर्कों और ज्ञान के द्वारा संभव नहीं है, इसीलिये ये मिथक कहे जाते हैं। परन्तु मिथकों के द्वारा बहुत सहजता के साथ मानव समाज के सत्य और ज्ञान को समझा-समझाया जा सकता है; और यही मिथकों की रचना का उद्देश्य भी है। हर समाज-जाति-राष्ट्र का अलग-अलग मिथक होता है। शिष्ट मिथक असहिष्णु होते हैं, आलोचना पर फतवे जारी हो सकते हैं। सुकरात को इसीलिये जहर दिया गया था। ईसा को सूली पर चढ़ाने का कारण यही था। इसके विपरीत लोक मिथक पूरी तरह सहिष्णु होते हैं, इन मिथकों पर फतवा जारी नहीं हो सकता।
2. हीरालाल अग्रवाल -
साहित्य वह पत्थर है जिस पर ऊपर का दबाव बना रहता है, इस पर साहित्य खरा उतरता है । जीवनानुभव से निकले शब्द को लोककथा लोकगीत आदि का नाम देते हैं । भावार्थ यह कि मिथक का निर्माणकर्ता कोई एक व्यक्ति नहीं बल्कि सामुहिक होता है, प्रश्नों (समस्या) के समाधान हेतु भी लोक से मिथक का निर्माण होता है, इसमें सत्यता है ।
3. आ. सरोज द्विवेदी -
जो लोक जीवन में व्याप्त है वह लोक साहित्य है। जिसे लिखा जाता है वह कागजी साहित्य है। मिथक शब्द निकला नहीं बना है, जीवन के मंथन से जो संसार अनुभव निकला वह मिथक है। ये ही बन गया मिथक। मिथक को उठाकर देखेंगे तो अंधविश्वास भी मिलेगा। जैसे सांप पर धरती टीकी है। जीवन के मंथन से अनुभवसार निकलता है वह उस क्ष्ोत्र का मिथक बन जाता है यही मतलब होना चाहिए। हम जो साहित्य लिख रहे हैं उसकी प्रमाणिकता हो या न हो, पर मिथक की प्रमाणिकता है। राजमहल (राजनांदगांव का किला) से सुरगी तक (15 कि.मी.) सुरंग थी। यह मिथक है इसे बल्देव प्रसाद मिश्र ने भी कहा है। जीवन अनुभव से निकला सार मिथक हो सकता है।
4. डॉ. पी.सी. लाल यादव -
लोक व्याप्त है, अध्ययन के लिए कई जनम लेने पडेंगे। व्यापकता निःसंदेह वेदों से पहले भी है, अतः व्यापक भी है। लोक साहित्य की समग्रता है। यह या वह विविध विधाओं में हैं। लोक को करीब से वही जानता है जो उनके बीच रहत है, मिथक किस तरह से आया? है, क्या चीज? मानव समाज आज विकसित है। प्राकृतिक घटनाएं होती है - तो जाने-अनजाने भय उत्पन्न होता है, जबकि हम विकसित हैं, तो भय उत्पन्न क्यों होता है, प्राकृतिक रहस्यों को जानने के लिए इच्छा उत्पन्न होती है, भय है, वहीं प्रेम है, भय से प्रीति-प्रेम हो जाने पर पूजा आस्था जागृत हेती है। यही भाव बिंबों के माध्यम से लोक जीवन में आया। रूपक-बिंबों के माध्यम से प्रतीक आया। बिंब-प्रतीक-रूपक ही लोक के मिथक हैं। शेष (नाग) के गुंडरी बदलने से धरती हिलती है, यहां बिंब है। पुराना और नया बिंब अलग है। छत्तीसगढ़ी लोकजीवन में मिथक जुड़े हुए हैं। मिथक लेाक की रंगीन कल्पना है। परिवेश कल्पनाओं को जन्म देने का भी काम करता है। लोक की रंगीन कल्पनाएं सरल होती है। मिथक की रचनाएं जनजातियों में ज्यादातर मिलती है। एक मिथ है ‘‘पहले महिलाओं की दाढ़ी-मूंछे होती थी‘‘ जंगल में शेर ने घोषणा की, किसी एक महिला को बहू बनाऊंगा। बकरी को भी जिज्ञासा हुई कि, उसे शेर की बहू बनना चाहिए। उसने एक महिला से गहने मांगे, महिला ने श्रृंगारिक गहनों के साथ अपनी दाढ़ी-मूंछे भी दे दी। बकरी ने लगा भी लिया और शेर के घर चल दी। शेर ने पसंद भी किया और अपनी बहू बना भी लिया। पर कहा जाता है तब से बकरी शेर के घर से नहीं लौटी। लोक की कथाएं सारगर्भित रही है, जैसे कि जोंक और खटमल का बनना कीचक से शुरू होता है।
5. डॉ. शंकरमुनि राय -
भारत के कोने-कोने में मिथक है। कुत्ते खुलेआम यौनाचार करते हैं यह मिथक महाभारत की कथा से जुड़ा है। जो मिथक है, वह एक विचार है, पाप और पुण्य का। मिथक वह चीज है जिसमें बड़ी-बड़ी चीजों को समझाने का प्रयास होता है। कौन सा मिथक कब का है, इसकी कहानी या इतिहास है। पारस पत्थर के छू लेने से लोहा सोना बन जाता है परंतु पारस पत्थर को कोई ढूंढ नहीं पाया। शिष्ट साहित्य में मिथक की कथाएं समझाने के लिए आती है। जैसे आपके दिमाग में कीड़े क्यों काट रहे हैं?
6. यशवंत मेश्राम -
लोक में उपसर्ग लगाने से परलोक बनता है। यह परलोक लोक पर कब्जा जमाए रहना चाहता है, विश्व का 20 प्रतिशत आबादी 80 प्रतिशत जनता पर आज अपना कब्जा (कारपोरेट घराने) जमाए हैं। लोक संघर्ष इस हेतु आदि-अनादि से वर्तमान चल रहा है। लोक साहित्य को अलग से डाक टिकट, स्पीड पोस्ट, ठप्पा (मुहर) की आवश्कता नहीं होती। छनकर जो आता है वह शिष्ट (सभ्य) साहित्य में बदल जाता है । एक उदाहरण -
ठोठो नांगर ठोठो पार
ठोठो जोते नदिया पार
ठोठो कके डयकी पेज लेगे
कोलिहा धमयाय रे यार
ठोठो - कृषक, डायकी - कृषक पत्नि, जोते - कृषि भूमि नदिया या नाले के पार है, कोलिहा - दबंग, पूंजीपति, शोषक, अत्याचारी। तो यहां कोलिहा बिंब के माध्यम से प्रणय निवेदन को लोक साहित्य में सरल ढंग से समझाया गया है। सीधे संघर्ष नहीं तो गीतों के माध्यम से विरोध दर्ज हो जाता है।
7. गोरेलाल चंदेल -
मिथक अंगरेजी शब्द है, मिथक के साथ-साथ अन्य चीजें जुड़ी है। लोककथाओं को अलग-अलग करना बहुत मुश्किल काम है। केवल मिथक कह देने से लोककथा नहीं होती। लोककथा के सामने मोची के घर के खाल की बदबू भी खुशबू में बदल जाती है। लोककथाओं में जीवन संघर्ष है। समाज के अंतरविरोध, विसंगतियों, शोषण के रूप लोककथा लोकगीत में उतर जाते हैं। कथा का अंत नैतिक मूल्यों से होता है। हमारी पंरपरा में लेाककथा आती है। निश्चित ही समाज की हर धड़कन को समझने वाले ने उसकी शुरूआत की। कथाएं वैदिक काल से पूर्व की है, जब से मनुष्य ने वाक शक्ति का प्रयोग किया, प्रकृतिपूजा, आदिम मनुष्य के पूजन में लाया। आर्यों के आगमन के साथ लोकमिथकीय धारा बदलीं। आर्यों की शिष्ट धारा अलग रहीं। जैसे सत्यनारायण की कथा, हलषष्ठी पूजा की कहानियां, लोक की धारा के भीतर से अलग कथा फूटती है। इतिहास में जिस चालाकी से शोषण का स्वरूप है वह प्रतीक रूप में कोलिहा ही है। जैसे महादेव के भाई सहादेव (लोककथा) महादेव पार्वती सामाजिक चेतना प्रदान करती है। फिर से जीवित चेतना को छलने में शोषक समाज कमी नहीं करता। चालाकियों से ऐसा लागता है कि इससे भला करने वाला और कोई नहीं है। समाज की पीड़ा का कारण कोलिहा है। चेतना के कारण एक-एक कूटेला मारा जाय, जागृति लाती है। मिथ के भीतर इतिहास-समाज शास्त्र दोनों रहते हैं। इतिहास समाज शास्त्र मिथ से, उससे टकराने से, राज खुलता है। मिथ के मूल में ईश्वर की कल्पना ही जाती है - तो साफ है कि ईश्वर ने रचनाएं नहीं की। मनुष्य ने ईश्वर की स्थापना की मिथकों के भीतर से समाज को तलाशने की जरूरत है। लोककथा-गाथा को समाज की दृष्टि से पढ़िए, मनोरंजन की दृष्टि से नहीं। चमत्कारिक घटनाओं के रूप में न देखें! मुझे खुशी है अपने रचनाकारों के बीच मैंने अपने हिस्से रखे।
8. डॉ. जीवन यदु 'राही' -
डॉ. जीवन यदु ने परिचर्चा में भाग लेते हुए अध्यक्षीय रूप में निष्कर्ष स्वरूप निम्न बिंदु रखे -
(1) मिथ की अलग-अलग बातें हैं। अलग-अलग क्ष्ोत्र हो सकते हैं।
(2) लोकसाहित्य का जन्म लोक से होता है। बहुत पढ़े-लिखे लोगों से नहीं होता। लोक की चीजें लोक से पैदा होती हैं।
(3) मनुष्य के अनुभव से साहित्य पैदा होता है।
(4) लोकसाहित्य का अनुभव अलग-अलग होता है। मिथक की बात करते हैं तो बारीक सा फर्क है। मिथक - लोकाधारित रहा है।
वेदाधारित समाज जो भी लिख रहा है वह लोकाधारित मिथक को वेदाधारित मिथक से कहीं न कहीं काट रहा है।
(5) पुराने शब्द कोश में मिथ शब्द नहीं मिलता। हिन्दी में मिथ शब्द सार्थक होकर आया। अनुवाद से नहीं आया। मिथ के आसपास का शब्द मिथ्या है। किसी ज्ञान को मिथ में लपेट कर कहें तो वह सुनेगा और गुनेगा, यह मिथक है। मिथक तार्किक ज्ञान नहीं है बल्कि ज्ञान का एक साधन है। मिथ के गुदे को हटाया जाय तो सारा ज्ञान प्राप्त हो जाएगा। आज जीते जी मिथक बनने लग गए लोग। आखिर ऐसा क्यों? मिथ्या गढ़ने से मिथक नहीं बन जाता।
(6) मिथक की रंगीन कल्पना है, संदर्भित है, प्रासंगिक हो जाती है। आधुनिक परिवेश जुड़ जाता है। पाषाण युग, पशुपालक युग में अलग-अलग मिथ रहे हैं।
(7) लोक के संघर्ष से मिथ की रचना होती है ।
निष्कर्षतः उपरोक्त परिचर्चा से कह सकते हैं - मिथक जीवनानुभव और शोषक विरूद्ध संघर्षों की अमर दास्तान हैं - जो अनवरत चालू और सामाजिक विसंगतियों के चलते वर्तमान रहेगा ही।
संकलन, लेखन एवं निष्कर्ष की प्रस्तुति -
यशवंत
शंकरपुर वार्ड नं. 7
गली नं. 4
राजनांदगांव 491441
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