मेरी कविताएं...नज़्में.... (डिम्पल सिंह चौधरी..) 1 - सपनों की बोली... सूरज की तपन का पहला स्पर्श जब पलकों की कोर पर पड़ा तो होश की चट्टा...
मेरी कविताएं...नज़्में....
(डिम्पल सिंह चौधरी..)
1-
सपनों की बोली...
सूरज की तपन का पहला स्पर्श
जब पलकों की कोर पर पड़ा
तो होश की चट्टानों ने
दबा दिया नींद का शहर
और बैठ गई मैं
याद करने
वो गुज़री रात का सपना
सपना...
मगर सपने आते ही कहां हैं अब
उम्मीदों के,
ख़्वाहिशों के,
राजकुमार या राजकुमारियों के,
सुनहरे कल
या
ख़ूबसूरती से लिपटी सुकून की नींदों के...
वर्तमान में लौटी तो
ख़ुद को समझाना पड़ा
कि खाली पेट
ऐसे क़ीमती सपने
कहां आते हैं
बोली लगती है सपनों की
ख़रीदे जाते हैं सुकून और ख़ुशी के सपने
कल रात
सोया था खाली पेट मैं
अब समझ आया
कि आख़िर कैसे
सरक जाते हैं मुफ़िलिसी की नींदों से
ग़रीब के सपने...
(राष्ट्रीय समाचार पत्र ‘अमर उजाला’ में प्रकाशित)
2-
‘दामिनी की आख़िरी विदाई देश के नाम...
आबाद रहना मेरे देश
कि मैंने अपनी रुख़सती की शर्त पर
अपने हिंन्दुस्तान को
शर्मसार होने से बचाने की कोशिश की है
एक अच्छी रुख़सती देना मुझे
कोई रुदन, कोई हाहाकार ना करना
मेरी शवयात्रा में
लोखों बेटियों, मांओं, बहनों, भाइयों
और करोड़ों अंजान कंधों पर सवार होगा मेरा शव
मां........
बताओ ना मुझे याद करोगी ना
मैं..... मैं लड़ी मां.....
अपनी सांस के मर्ज होते आख़िरी छोर तक
मैं लड़ी थी मां....
मगर मेरे जिस्म को औजारों की नकेल ने
ज़मीर तक छलनी कर दिया था
मेरे ज़ख़्म भी मेरे ज़िंदा रहने की ख़्वाहिश को
पनाह नहीं दे पाए मां......
मगर मां.....
मैं मरी नहीं हूं ना ही ख़मोशी के आले को ओढ़ा है मैंने
बस मौत पर मुझे दया आ गई,
कब से दरवाज़े पर टकटकी लगाए
मेरे इंतज़ार में थी
मां....
मौत को चुना है मैंने
ताकि सोने की चिड़िया कहे जाने वाले
मेरे इस हिंन्दुस्तान के माथे पर
मेरी बदनसीब मौजूदगी का कलंक ना लगे....
इसीलिए मैंने मौत को चुना है मां...
मेरे देश....
अस्पताल में मेरी कानों में आवाज़ आई थी कहीं से
कि पूरा देश मेरी ज़िदगी की दुआं कर रहा है,
कि मेरे नाम की मुहर के बिना
हर किसी के सीने में मेरा दर्द है आज
ये हर तरफ़ से आती हुईं आवाज़ें
ये जुलूस, ये हुज़ूम, ये चीख़,
ये शोर, ये तड़प....
सब मेरी ही तो हैं
अब मैं ...मैं कहां रही
मैं अब पूरा मुल्क़ बन गई हूं
ए मेरे देश
हज़ारों आवाज़ों का इंकलाब देके जा रही हूं
लोगों की इन गरजती इंसाफ़ की दहाड़ में
मैंने अपने लिए दर्द सुना है
ए मेरे देश मैं जा रही हूं
मगर इस दहाड़ को यूं ही बरक़रार रखना
ताकि कोई और बहन, कोई और बेटी
उन औजारों, उन अत्याचारों का रुदन ना सहे
जिसे सहा मैंने, जिसे जिया मैंने
और अब मर भी रही हूं
मरी थी मैं तब भी
जब उस रात बस की परछाई मैं
मुझे उजाड़ा गया था
उस रात सिर्फ़ मेरी ही रूह छलनी नहीं हुई थी
बल्कि हर लड़की उस रात दामिनी या अमानत बनी थी
उस रात मेरे साथ
देश की हर औरत एक मौत मरी थी.......
मरा था ये अतुल्य भारत,
मरी थी इंसानियत,
मरी थी इज़्ज़त,
मरा था मेरा आंगन, मरी थी मेरी रूह
मैं तो बाबा के आंगन में फ़िर लौटना चाहती थी
एक आज़ाद चिड़िया की तरह उड़ना चाहती थी
मगर खूंख़ार बाज़ों के नुकीले पंजों ने
मुझे नोच डाला........
मगर अब ये शोर
मेरी ये मुल्क़ बन चुकी आवाजें
अब किसी और बुलबुल को
किसी और चिड़ियां को
कभी यूं मरने नहीं देगी....
मेरे देश
मुझे ऐसी रुख़सती दे दो
कि जहां अब कोई बेटी चीख़े ना
कोई मुल्क़ मरे ना....''''
अलविदा.....
(राष्ट्रीय पत्रिका ‘जनपथ’ तथा प्रसिद्ध ब्लॉग ‘चोखेर बाली’ में प्रकाशित’)
http://sandoftheeye.blogspot.in/2013/04/blog-post.html
3-
कैसी होगी वो
सोच की धूप में
खुद को हर पल जलाती
सच की अग्नि में
लपट-लपट तपती
अपने हाथों पर से
मेरे नाम की मेंहदी मिटाती
हकीकत के बरक से मुझे धो कर
किसी और को सुखाती
वो...
जो कहती है
कि जी नहीं सकेगी मेरे बिना
वो...
जो कहती है खुद को अधूरा मेरे बिना
वो...
जिसकी नब्ज़ में मेरी ज़िंदगी धड़कती है
वो
जो छिपा कर खुद में मेरी सांसें रखती है
वो
जो इंतेहा की हद पर खड़ी
तका करती है आज भी मेरी राहें
वो
जो कहती कुछ नहीं
बस हर दर्द चुपके सहती है...
कैसे कहूं उसे कि सब ठीक हो जाएगा
कैसे समझाऊं कि नया सूरज फिर आएगा
वो
‘जिसे दुनिया अब किसी और की सुहागन कहती है....’
(आगरा से प्रकाशित समाचार पत्र ‘कल्पतरू’ में प्रकाशित..)
4-
तुम्हारे शहर में शाम नहीं होती....
जहां देखो वहां खुलूस है तेरी जुदाई का
तुझे देखा और मर गए जीने वाले
दरख्तों पर वही मौसम अब भी मुस्कराते तो हैं
मगर वो घोंसले, वो पंक्षी अब लौट कर नहीं आते
मेरी आंखों में अब भी तेरे ख्वाब हंसते तो हैं
मगर सांसों में जिंदगी की मोहर लगाने नहीं आते
लगता है तुम्हारे शहर में हिज्र की शाम अब नहीं होती
मेरी उजड़ी शामों में अब तुम साथ रोने नहीं आते
ये जो तेरी सांस मेरे सीने में चलती है, जाने कितनी हैं
दिल के नक़्श पर इनके बाकी निशा तुम बताने नहीं आते
तेरे ख़तों से हर रोज़ बीमारी-ए-पागल बयां करता हूं
होंठों से लगाता हूं घूंट-घूंट मगर मर्ज़ नहीं बताते
मेरी चाहत, मेरी निगाहें तुझे ढूंढती है रेजा-रेजा
उन्ही कदमों पर वापस आओ कि अब ये निशां सम्हाले नहीं जाते
(आगरा से प्रकाशित समाचार पत्र ‘कल्पतरू’ में प्रकाशित..)
5-
मैं...
जो कभी कभी मैं नहीं रहती...
मैं..
जो कभी कभी
सिर्फ मैं नहीं रहती,
उसे चाहने कि हद में
बेपरवाह,
बेचैन ,
बे ताल्लुक़
हर सच से,
फक़त उसके पहलू की आस में
उसकी आवाज कि ख्वाहिशों में
उसकी आंखो में
खुद को देखने के
इंतजार में तड़पती सी,
भागती सी,
बेचैन सी ..
मै ...
जो कभी कभी
सिर्फ मैं नही रहती..
अधूरे ख्वाब की तासीर मैं
उसे ढूंढती सी हर पल
ख्वाहिशों की भीड़ में
उसे मांगती सी हर पल ,
जिंदगी के बरक़ पर
बिखरे पुर्जो के मानिंद
खुद को जोडती सी हर पल,
उसकी हाथ की बिखरी लक़ीरों में
खुद को समेटती सी हर पल,
मैं...
जो कभी कभी
सिर्फ मैं नही रहती...
उसकी चलती नब्ज़ पर
खुद को ढूंढती सी ...
आंख कि कोर मैं
नमी पोंछती सी,
मै....
जो कभी कभी
सिर्फ मैं नही रहती....
(‘दूर तक’ पत्रिका में प्रकाशित)
6-
वो रहती है मेरे बिना
वो रहती है मेरे बिना
बिन काजल, बिन चूरी के
बिना गजरे, बिना किसी रंग के
वो खुद को कहती है अधूरा मेरे बिना
कि में दूर हूं उससे ..
जब पूछता हूं इस अधूरेपन की वजह
तो वो लेकर
मेरे चेहरे को अपने हाथों में
कहती है
'मेरे हमदम '
जब चलती हूं में किसी भी रस्ते पर
तो तेरी परछाई को ओढ़ना चाहती हूं
वो परछाई न हो साथ
तो कैसी बिंदिया, कैसा रंग
कैसी सजी हुई ओढनी
मेरे हमदम
मुझे अहसास हो तेरा गर हर रंग में
तू साथ हो मेरे गर हर संग में
तो में सजूं, संवरू तेरे लिए
चूड़ी की खनक
माथे के सिंदूर की चमक
जूड़े के गजरे की महक
महकाऊं, चमकाऊं तेरे लिए
सुनो ...
मैं वादा करती हूं
जब जब तुम्हारी ये शरारती आंखें
मुझे देखेंगी
मैं खुद को सजाउंगी, संवारूंगी ..
'रहा करो हर पल मेरे साथ मेरे लिए ..
(‘दूर तक’ पत्रिका में प्रकाशित)
7-
तेरी आंखों का रंग..
इक नज़्म,
लिपटी है गिरह से
करती है रुदन
कलेजे से लिपटकर मेरे
और
इशारे से कहती है..
‘गर ग़म है कोई’
तो आ
बैठ मेरे कांधे पे..
आंख की नमी में
जो छलकने को हैं अशहार..
मिसरे,
जो अटके हैं होठों के सादे बरक पर..
भरकर उन्हें
लफ़्ज़ों के तर बोसे में
उड़ेल दे मेरे जिस्म पर...
‘उदास लगते हो’
वह कहती है
गर सोचते-सोचते फूल जाए तेरी सांसें
तो रख दे
मेरे कंधों पर ये बोझ...
वह नज़्म....
जिसकी आंखों का रंग
‘तुम पर गया है...’
8-
अरज
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सुनो...
लौट आओ ना
बहुत तन्हा हूं
सुना है
खुद से बातें करने वाले
ऐसे तन्हा लोग
अक्सर
पागल हो जाया करते हैं
9-
आज़ादी का ख़ौफ़...
ज़ज्बात जो ख़ाली थे
अब क़ैद हैं
मेरी पीड़ा कि गिरह में
सांसों का बंधन
क्यूं मामूली नहीं लगता
कि जब चाहो
होना आज़ाद इनसे
तो तिलमिला जाती हैं
सांसें,
और
त्याग देती है विचार
आज़ादी का...
10-
और वो चली गई.....
याद तो होगा ना
तुझे वो दिन
जब हाथों में लेके मेरा हाथ
कहा था तूने
मुझे इन्हीं हथेलियों में
भरना है हर लम्हे को
इसी कांधे पर
रोना है हर दुख
गुंजाइश ही नहीं
पलकों की कोर में
किसी और के नाम के आंसू की
क्योंकि तुम ही हो
बस तुम ही रहोगे
सिकोड़ ली है वो झोली अपनी
जो तुम्हें मांग कर
भर ली थी मैंने
अब
बस मैं और तुम....
औऱ आज....
सिसकियों के पौधे पर
रोज़ एक सुबह तो आती है
मगर गुज़री रात की
वही स्याह दस्तक लिए
जब तू चली गई थी
उस रात
शहनाई के बादलों में छिपकर
जहाँ सहेलियां
विदाई के गीत गा रही थीं
तू नए जीवन की अग्नि के तेज में
चमककर और निखर आई थी
किसी के हाथों में
रखकर हथेलियां
खाईं थी क़स्में
निभाने की सात जन्म के वादे,
उसी विदाई के घूंघट में
तुझे छिपा लेना था मेरे होने का सच भी
जो ढक लेता मुझे
सारी सिसकियों से,
और करता आज़ाद अब भी
तेरी सांसों में महकने से..
”आज तेरे पौधे पर
एक फूल आया है””
नन्हा फूल
खिलखिलाता
मुस्कुराता
जिसकी आंखें मेरे जैसी होंगी
जैसा सोचा करती थी तू
जो अब सिर्फ सोच में है ‘मेरी’
कल तक तेरी यादों का बोझ था
मगर अब
दो फूलों का बोझ है
मेरी गिरह
मेरी वेदना पर..........
11-
सांसों का कैनवास......
खाली है तहज़ीब
जुबानों में बेबसी के छाले
हर कोई निशब्द
सासों में रेंगते लहू से भरा
हर ज़र्रा
सांसों की ही रोड़ियों पर
जीने की ख़्वाहिश चुभती हुई
भींच लेता है आकर वो
मेरी ज़िंदगी के अक्षरों से
सांसों की मात्राएं सभी
और
लेकर चाबुक हालातों के
उन्हीं मात्राओं से करता है आग्रह
फ़िर से बन जाओ वही अक्षर
जिसे फ़िर उसी निर्मता से
भींचू मैं
टटोलूं मैं
तोड़ दूं बंधन
अक्षरों से मात्राओं का
और सिसके ज़िंदगी
अपना आस्तित्व पाने को
मगर तोड़ दूंगा
हर तार मैं
ज़िंदगी के सितार का
और कर दूंगा लहूलुहान सब
होश-ओ-हवास के कैनवास पर
रेंगता लाल लिबाज़
किसी दिलकश रंग के
सच से महरूम
तू और तेरा आसमां...
आज... मेरे हिस्से की ज़मीं भी बिक गई..
12
लो साहब... मेरी घुटन ले जाओ...
ज़ोर-ज़ोर से
जो धड़का सा है लगा
मन पर, आत्मा की गिरह पर
वो ज़िंदगी के बेहद क़रीब से गुज़री
कुछ पिछली सांसें थी शायद
खामोशी के दरकते कुछ निशां
कोने में और जवां होते
अट्टाहस का विलाप
या आने वाले कल की कोख में
पल रही किसी अनहोनी का ख़ौफ़
यकीं ना मानो तो
लो साबह....देख लो
मेरी पेशानी पर
सीना तान कर
फैली हुईं शिकनें,
लहू में रेंगती, बिलखती सी नब्ज़
बोझिल पलकों पर मद्विम ख़्वाबों की केंचुड़ी
अब गर और भी
जानना चाहो साहब...
तो
फिर ऐसा करो
कि
ये आंखें उधार ले जाओ
अंधेरे से घबरा के मर जाओगे,
मेरी अधूरी कहानी ले जाओ
रोज नई मौत के लहू से तर जाओगे,
गर फिर भी
ख्वाहिश की अंगड़ाई का फ़न उठे
तो
मेरी मौत ले जाओ,
“ज़िंदगी के हाफीज़ों को तरस जाओगे...”
'डिम्पल सिंह चौधरी'
(हाफिज़ा- अच्छी याद्दाश्त)
13-
यथार्थ का बवंडर
निगाहबंद करके
मन की दराज़ में
यादों के काग़ज़ की रेशम परत पर
रख दिया है मैंने
उसके साथ गुज़रे
हर क़ीमती लम्हे को
ख़तरे के हर इरादे से परे
किसी और स्पर्श की कुढ़न से दूर
ओझल हर अजनबी की घूरती नज़रों से
मगर कभी-कभी...
यथार्थ की गठरी से उठा
तिनके सा झोंका भी
हिला जाता है मेरा वजूद
और रेज़ा रेज़ा
पल में बिखर के सब चूर
अंतर्मन के सब दराज़
टूटते जाते हैं
नमी से बोझिल बरक से उड़कर
यादों की स्याही
हो जाती है काफ़ूर
काली सफ़ेद यादों के वबंडर से
लड़ते लड़ते
खाली हो गया वो बरक
जो मेरी निगाहबंद यादों पर
लिखा करता था रेशम के लफ़्ज़,
मगर अब
इंतज़ार की साख़ों पर
पलकें टकटकी लगाए हैं...
काश रुके ये बवंडर
और मेरी हर दराज़ में हर बरक
उसी तरह वापस सिमट जाए
14-
जाने वाला ...
तेरी यादों की सांकर ने
आज फिर
जकड़ लिया मेरा अंतर्मन
गुज़रे हालातों के रोएं
सहला तो जाते हैं ज़ख़्म
मगर
तेरी यादों का प्रवाह
जब
धमनियों में बिलखते रक्त से तेज़
और
जिस्म में चुभती सांसों से ज़्यादा
हो जाता है
तब
नहीं मिल पाती
ज़िंदा-फड़कती कोई नब्ज़
तब
नहीं मिल पाती जीवन को थाह
उस पल कितनी ही बार
जीती हूं अपनी ही मृत्यू
निरंतर...निरंतर
देखो ना....
आज फिर
भीच ली मैंने आंखें
और फिर भर लिया है
अपना ही चेहरा
अपनी ही खाली-बेजान हथेलियों में...
क्यूंकि
हर बार की तरह
इस बार भी
नहीं चाहती जानना
कि
‘जाने वाले...
...कभी वापस नहीं आते...’
15-
ख़ौफ़....
आंखों में मुंतज़िर होते
ख़्वाबों के जम जाने का ख़ौफ़
इकतरफ़ा इश्क के दिए को
इनकार की तेज़ हवाओं का ख़ौफ़
ख़ौफ़ में है चलती हुई नब्ज़ मेरी
ज़िदंगी की शर्त पर मर जाने का ख़ौफ़
बेबाकी के लहज़े पर
ज़ुबां के फ़िसल जाने का ख़ौफ़
ख़्वाहिशों के खूंख़ार हासिए पर
ईमान के लहू-लहू हो जाने का ख़ौफ़
सरहदों पर सुना है अब अमन है
मगर कश्मीर की वादियों से झांकती चीखों का ख़ौफ़
“डिम्पल सिंह चौधरी”
मेरी कविताएं ‘अमर उजाला’, ‘दैनिक जागरण’. कल्पतरु एक्सप्रेस, स्थानीय पत्रिका ‘दूर तक’, ‘आईना बोलता है’, ‘मेरठ दर्पण’ में और राष्ट्रीय पत्रिका ‘जनपथ’ में प्रकाशित होने के अलावा प्रसिद्ध रॉक्स्टार फिल्म के संगीतकार इरशाद कामिल जी की वेबसाइट्स ‘TUM BHI’ पर भी 12 कविताएं ऑनलाइन प्रकाशित हो चुकी हैं...
बेहद शुक्रिया रविशंकर जी..
जवाब देंहटाएंबेहद शुक्रिया रविशंकर जी..
जवाब देंहटाएंशुक्रिया रविशंकर जी....
जवाब देंहटाएंसामायिक विषयों पर लिखी सभी कविताएँ अच्छी लगीं.
जवाब देंहटाएंबेहद शुक्रिया अल्पना जी...आभार
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