विजय शर्मा सेलमा लेगरलॉफ ः पहली नोबेल पुरस्कार विजेता 2003 के नोबेल पुरस्कृत जॉन मेक्सवेल कोट्ज़ी अपने प्रीतिभोज समारोह के अवसर पर बतात...
विजय शर्मा
सेलमा लेगरलॉफ ः पहली नोबेल पुरस्कार विजेता
2003 के नोबेल पुरस्कृत जॉन मेक्सवेल कोट्ज़ी अपने प्रीतिभोज समारोह के अवसर पर बताते हैं कि पुरस्कार मिलने पर एक दिन उनकी संगिनी डोरोथी ने अचानक कहा कि तुम्हारी माँ को कितना गर्व होता! अफसोस वे यह देखने को जीवित नहीं है! और तुम्हारे पिता भी! उन्हें तुम पर कितना गर्व होता! अपनी संगिनी की बात को पहले वे गम्भीरता से नहीं लेते हैं परंतु बाद में उन्हें लगता है कि वह ठीक कह रही हैं। नोबेल पुरस्कार पाने पर उनकी माँ गर्व से भर उठती। मेरा बेटा नोबेल पुरस्कार विजेता! इससे बढ़ कर एक माँ के लिए और कौन-सी प्रसन्नता और गर्व की बात हो सकती है। आगे वे जोड़ते हैं कि अगर हम अपनी माँ के लिए नहीं तो आखिरकार किनके लिए ऐसे काम करते हैं जो हमें नोबेल पुरस्कार तक ले आता है? वे बचपन का उदाहरण देते हैं, जब हम पुरस्कार जीतते ही दौड़ कर अपनी माँ को दिखाने आते हैं, “मम्मी, मम्मी, देखो मैंने ईनाम जीता है।”
पुरस्कार ही नहीं जब भी हमारे अन्दर किसी गहरी संवेदना का संचार होता है उसे हम अपनों से बाँटना चाहते हैं चाहे यह पुलक हो अथवा भय। बच्चा मिट्टी खाता है तो वह अपनी माँ को दिखाने आता है और उसे भी वह मिट्टी खिलाना चाहता है। एक वीरबहूटी पकड़ लाता है तो माँ को किलक कर दिखाता है। चोट लग जाती है तो उसका दरद तब तक कम नहीं होता है जबतक कि माँ चोट को फूँक से उड़ा नहीं देती है। हम बड़े हो जाते हैं तब यह बालक कहीं हमारे अन्दर छुप जाता है परंतु आह्लाद के समय, खुशी के वक्त हमारे अन्दर बैठा यह बालक निकल आता है और हम अपनों के पास दौड़ पड़ता है।
सच है, बचपन से अपनी जीत में हम सबसे पहले अपने माता-पिता को शामिल करना चाहते हैं। कोट्ज़ी को जब यह पुरस्कार मिला उनके माता-पिता जा चुके थे। वे कहते हैं कि यदि उनकी माँ जीवित होती भी तो वह उस समय तक साढ़े निन्यानवे साल की हो चुकी होती। अब तक उसकी संज्ञा जा चुकी होती। उसे पता नहीं चलता कि उसके आसपास क्या हो रहा है। इसके बावजूद उन्हें अवश्य अफसोस हुआ होगा कि जब उन्हें पुरस्कार मिला। तब तक उनके माता-पिता जीवित नहीं थे। इसी तरह 2006 के विजेता ओरहन पामुक को यह कचोट हुई होगी कि जब उन्हें पुरस्कार मिला उसके मात्र एक साल पहले उनके पिता गुजर चुके थे। उनकी माँ उनके लेखक बनने के खिलाफ थीं, उनके पिता ने इसके लिए सदैव उन्हें उत्साहित किया था। वे बड़े प्यार से कहा करते थे कि एक दिन तुम्हें नोबेल पुरस्कार मिलेगा। और पामुक को यह मिला और बहुत कम उम्र में मिला। मात्र बावन वर्ष की उम्र में मिला। फिर भी उनके पिता यह देखने को जीवित न थे। उनकी माँ भले ही उनके लेखक बनने के निर्णय से शुरुआत में खुश नहीं रही हों, परंतु जब बेटे ने सफलता प्राप्त की, जब उसे नोबेल पुरस्कार मिला तब वे अवश्य न केवल खुश होंगी वरन गर्वित भी होंगी।
केवल बचपन में ही नहीं, जीवन में जब भी हमें कुछ कीमती प्राप्त होता है, उसे हम अपनों के साथ बाँटना चाहते हैं। जब हमें किसी से प्यार हो जाता है तो हम अपने साथी को सबसे पहले अपने माता-पिता को दिखाना चाहते हैं। जब कोई अच्छी किताब पढ़ते हैं तो लगता है कि इसे अपनों से शेयर किया जाए। इसी तरह जब कोई उपलब्धि - छोटी अथवा बड़ी कोई उपलब्धि हमें होती है, हम यह खबर सबसे पहले अपने लोगों को देना चाहते हैं। अपने माता-पिता या दोनों में से जिसके ज्यादा करीब होते हैं, उससे शेयर करना चाहते हैं। हमें बहुत अफसोस होता है जब उपलब्धि का सुख, उसकी खुशी में साथ देने के लिए हमारे अपने हमारे संग नहीं होते हैं। वे हमसे दूर, कहीं बहुत दूर, जा चुके होते हैं। यह बड़ी कचोटने वाली बात होती है कि वे कठिनाइयों में, दुःखों में हमारे संग थे पर खुशी के समय संग नहीं होते हैं।
ऐसा ही कुछ हुआ 1909 की साहित्य की पुरस्कार विजेता सेलमा लेगरलॉफ के संग। जब उन्हें यह नोबेल पुरस्कार मिला उनका सौभाग्य था कि उनकी माँ यह शुभ दिन देखने के लिए जीवित थीं। परंतु उनके पिता जा चुके थे। वे अपनी सुदृढ़ कल्पना के द्वारा एक ऐसा शब्द चित्र खींचती हैं मानो उनके पिता जीवित हों। और वे उन्हें यह खुशखबरी सुनाने पहुँची हैं। इसी रेखाचित्र के माध्मम से वे पुरस्कार प्राप्ति में सब सहयोगियों के प्रति अपनी कृतज्ञता ज्ञापित करती हैं।
नोबेल पुरस्कार प्राप्ति के अवसर पर पुरस्कार व्यक्ति भाषण देते हैं, यह एक परम्परा है। पर कुछ लोग भाषण नहीं भी देते हैं। कारण अलग-अलग हो सकते हैं। हेरॉल्ड पिंटर अपनी अस्वस्थता के कारण स्टॉकहोम न जा पाए और उन्होंने आधुनिक युग की संचार सुविधाओं का लाभ उठाते हुए लन्दन के एक स्टूडिओ से ह्नील चेयर पर बैठे हुए वीडियो द्वारा अपना भाषण प्रसारित किया। नजीब महफूज जीवन में कभी कैरो के बाहर नहीं गए। उनका भाषण उनके पत्रकार दोस्त ने पढ़ा और पुरस्कार उनकी बेटियों ने ग्रहण किया। राजनीतिक कारणों से अलैक्जेंडर सोल्ज़ेनित्सिन ने पुरस्कार की घोषणा के बरसों बाद पुरस्कार प्राप्त किया और उस अवसर पर भाषण दिया। नोबेल के इतिहास में जिस पहली महिला साहित्यकार, सेलमा लेगरलॉफ को यह पुरस्कार मिला उन्होंने भी भाषण नहीं दिया था। हाँ, उन्होंने अपनी ड्डतज्ञता अवश्य प्रकट की थी। इस वर्ष इस बात को सौ वर्ष हो रहे हैं। यह जानना रोचक होगा कि उन्होंने क्या कहा। नोबेल पुरस्कार के अवसर पर होने वाले प्रीतिभोज के अवसर पर वे अपना आभार प्रकट करने का एक बड़ा नायाब तरीका अपनाती हैं। वे बड़े काल्पनिक तरीके से अपनी बात कहती हैं। कुछ दिन पहले वे स्टॉकहोम आने वाली ट्रेन में बैठी थीं। यह शाम का समय था। रेल के डिब्बे में धुँधली रौशनी थी और बाहर अंधेरा था। कहानी कहने का इससे बेहतर समय क्या हो सकता है। इससे बढि़या सेटिंग, इससे अच्छी पृष्ठभूमि क्या हो सकती है? अर्ध अंधकार - थोड़ा उजाला, थोड़ा अंधेरा रहस्य का सृजन करता है। उनके सहयात्री अपनी-अपनी सीट पर ऊँघ रहे थे। वे बिलकुल शांत होकर ट्रेन की गड़गड़ाहट सुन रहीं थी।
वे उन सारे अवसरों को स्मरण करने लगीं जब वे इसके पहले स्टॉकहोम आई थीं। वे सदैव कुछ कठिन कार्य करने स्टॉकहोम आई थीं। कभी परीक्षा देने, कभी अपनी पांडुलिपि लिए हुए किसी प्रकाशक की खोज में। इस बार वे नोबेल पुरस्कार ग्रहण करने आ रहीं थीं। और यह भी कोई आसान कार्य न था। उनका विचार था कि यह भी एक कठिन कार्य होगा। उस साल पूरे पतझड़ के दौरान वे वार्मलैंड के अपने पुराने घर में पूरे एकाकीपन में रह रही थीं। अब वे बहुत सारे लोगों, बहुत सारे विशिष्ट लोगों का सामना करने वाली थीं। अकेले रहते-रहते वे जि़न्दगी की चहलपहल से कट गई थीं। बहुत शर्मीली हो गई थीं। और अब उन्हें दुनिया का सामना करने को लेकर कुछ अजीब हिचकिचाहट हो रही थी। थोड़ा अजीब लग रहा था। अगर हम काफ़ी देर तक बन्द स्थान में रहें और तब बाहर निकले तो पहले-पहल रौशनी में आँखें ठीक से नहीं खुलती हैं। वे प्रकाश का अभ्यस्त होने में कुछ समय लेती हैं। यही स्थिति उनकी थी।
इस यात्रा के दौरान सेलमा लेगरलॉफ को अपने भीतर, कहीं गहरे में, एक आश्चर्यजनित खुशी का अनुभव हो रहा था। वे अपनी उथलपुथल को यह सोच कर भगाने का प्रयास कर रही थीं कि उनके सौभाग्य से किन-किन लोगों को प्रसन्नता मिलेगी। वे अपने दोस्तों, भाई-बहनों को याद करती हैं, उनके पुरस्कार प्राप्ति से जिन्हें हार्दिक प्रसन्नता होगी। सबसे ज़्यादा उन्हें अपनी बूढ़ी माँ के लिए संतोष है। वे जिन्दा हैं और घर पर हैं। वे यह शुभ दिन देखने के लिए जीवित हैं। पर अपने जीवन के इस ऐतिहासिक दिन उन्हें अपने पिता की कमी बहुत खलती है जो उस समय जीवित न थे। उन्हें पूरा विश्वास है कि पिता इस दिन सर्वाधिक प्रसन्न होते। परंतु दुःख है कि वे जा चुके हैं। उन्हें इस अहसास से गहरी पीड़ा होती है। आज चाह कर भी वे उनके पास जाकर उन्हें यह शुभ समाचार नहीं दे सकती हैं। अगर वे जीवित होते तो वे उनके पास जाकर बतातीं कि उन्हें नोबेल पुरस्कार मिला है। इसे सुन कर वे कितने खुश होते। पिता के खुश होने का कारण वे जानती हैं। वे मात्र इसलिए खुश नहीं होते कि उनकी बेटी ने ईनाम जीता है। वरन वे खुश होते क्योंकि उन्हें लिखित शब्दों और उनके रचयिताओं से प्रेम था। वे उन लोगों का आदर करते थे। वे अपने जीवन में किसी अन्य ऐसे व्यक्ति से नहीं मिली हैं जो लेखन को प्रेम उनके पिता जितना करता हो। जो लेखक का इतना आदर करता हो। वे निःश्वास लेकर सोचती हैं, काश उनके पिता जीवित होते और जान पाते कि स्वीडिश अकादमी ने उनकी बेटी को इस पुरस्कार से नवाज़ा है। उन्हें गहरा दुःख है कि वे अब उन्हें यह बात कभी नहीं बता सकती हैं।
वे कभी किसी अन्य व्यक्ति से नहीं मिली थीं जिसके मन में लिखित शब्दों और उसके सृजनकर्ता के लिए इतनी श्रद्धा और प्रेम हो इतना आदर हो। उनकी इच्छा हो रही है कि किसी तरह उनके पिता को पता चले कि स्वीडिश अकादमी ने उन्हें इस महान पुरस्कार से नवाजा है। खैर ट्रेन चल रही थी जो भी रात में भागती टे्रन में बैठा है जानता है कि लम्बे लमहे आते हैं जब रात के अंधेरे में ट्रेन सुगमता से चलती जाती है। ट्रेन की धड़धड़ाहट लुप्त हो जाती है और उनके स्थान पर पहियों की आवाज शांत, सकून पहुँचाने वाला मधुर संगीत बन जाता है। डिब्बे रेल की पटरियों पर दौड़ते हुए नहीं बल्कि समष्टि में सरकते जा रहे होते हैं। हमारा प्ररिवेश हमारी मनःस्थिति को प्रतिबिम्बित करता है। यदि हम प्रसन्न हैं तो परिवेश भी खुश होता है यदि दुःखी हैं तो वह हमें रोता हुआ लगता है। हम शांत हैं तो परिवेश भी हमारे संग में हमें शांत नजर आता है। जिस मनःस्थिति में सेलमा ट्रेन में बैठी थीं वे सोच रही थीं कि मुझे अपने पिता से पुनः मिलना चाहिए। वे किसी और दुनिया में चली जाती हैं ट्रेन की आवाजें इतनी हल्की हो जाती हैं कि वे उनसे बेखबर दिवास्वप्न में खो जाती हैं। उन्हें स्मरण नहीं रहता है कि वे ट्रेन में हैं। रह जाते हैं बस उनके पिता और बाकी सब उनके लिए बेमानी हो जाता है।
वे सोचती हैं कि वे स्वर्ग में अपने पिता से मिलने गई हैं। आज तक उन्होंने ऐसी बातें दूसरों के संबंध में खूब सुनी थीं। तो आज यह उनके संग क्यों नहीं हो सकता था। उनके विचार ट्रेन से भी तेज दौड़ने लगे। वे कल्पना में बह जाती हैं। उनके पिता अवश्य फूलों और खुशनुमा धूप से भरे बागीचे में बरांडे में रॉकिंग चेयर पर बैठे होंगे। उनके सामने चिडि़याँ होंगी। वे फ्रिटजोफ का आख्यान पढ़ रहे होंगे और उन्हें देखते ही किताब नीचे रख देंगे। अपना चश्मा सिर पर चढ़ा लेंगे, उठेंगे और उनकी ओर बढे़ंगे। वे कहेंगे, ‘गुड डे, मेरी बिटिया, तुम्हें देख कर बहुत खुशी हो रही है,' या फिर ‘तुम यहाँ कैसे, कैसी है मेरी बिटिया?' ठीक वैसे ही जैसे वे सदा कहा करते थे। सेलमा इस समय एक छोटी बच्ची, मात्र बेटी बन जाती हैं। उनका उल्लास उनका उत्साह देखते बनता है। वे कहती हैं कि पिता फिर से कुर्सी पर बैठ जाएँगे और तब आश्चर्य करने लगेंगे कि मैं उन्हें देखने क्यों आई हूँ। “पक्का कुछ गड़बड़ नहीं है?” वे अचानक पूछेंगे। वे कहेंगी कि सब ठीक है। फिर जब वे खुशखबरी सुनाने जा रही होंगी वे उसे थोड़ी देर के लिए रोक लेंगी। अप्रत्यक्ष रूप से धीरे-धीरे पिता के समय इस बात को खोलती हैं। वे एक दूसरा रास्ता अपनाते हुए पिता से कहती हैं कि वे उनसे कुछ सलाह करने आई हैं। वे बहुत भारी )ण के तले हैं। वे पिता के इतना नजदीक थीं कि इतना लाड़ लड़ा रही हैं। पिता पुत्री का इतना सुन्दर सम्बन्ध देख कर मन खुशी और गर्व से भर जाता है। उनके पिता कहेंगे कि इस सम्बन्ध में उनकी कोई सहायता नहीं कर सकते हैं। उनके इस घर में पैसे के अलावा सबकुछ है। कहेंगी कि पिताजी यह पैसा नहीं जिसका )ण मुझ पर है, यह उससे भी खराब है। और तब उनके पिता कहेंगे बेटी शुरू से सब बताओ।
वे अपने पिता से कहती हैं कि आपसे सहायता माँगना ज़्यादती नहीं है, आप ही शुरू से इसके जिम्मेदार हैं। याद है कैसे हम बच्चों के लिए आप पियानो बजाते थे और बेलमैन के गीत गाते थे। सर्दियों में आप तेग्नर, रनबर्ग और एंडरसन पढ़ने देते थे। यहीं से पहली बार वे कर्ज में फँसीं। परिकथाओं, वीरगाथाओं को पढ़ने का चस्का, मानव जीवन से प्रेम, इसकी सारी हीनता और गौरव के साथ धरती जिस पर हम रहते हैं, वे इस कर्ज को कैसे चुकाएँगी? पिता कुर्सी पर उठकर बैठ जाएँगे। उनकी आँखों में चमक आ जाएगी और वे कहेंगे कि मैं खुश हूँ कि तुम इस कर्ज में हो। सेलमा कहेंगी कि यह ठीक है पर इतना ही नहीं है, जरा सोचो मैं कितनो लोगों के कर्ज में हूँ। कितने लोगों की देनदार हूँ। उन बेघरबार, गरीब लोगों के बारे में सोचो जो आपकी जवानी के दिनों में वार्मलैंड (उनके घर) आते-जाते थे और मसखरापन करते थे। गीत सुनाते थे। उन लोगों का मनोरंजन करते थे। क्या उनकी मसखरी और मजाकों का कर्ज नहीं है? और वे पहाड़ी लोग जो छोटी सी झोपड़ी में रहते थे और जिन्होंने उन्हें जल-आत्माओं और पर्वत-कन्याओं की कहानियाँ सुनाई। जिन्होंने उन्हें बताया कि कठोर पहाड़ और जंगल में कविता है। वे पीले चेहरे और पिचके गाल वाले सन्यासी और संन्यासिनें जिन्होंने अपने अंधेरे बन्द कोटरों में स्वप्न देखे और आवाजें सुनीं। सेलमा ने उनसे पौराणिक और दंतकथाएँ उधार लीं। उन लोगों के किसान जो जेरुसलम गए क्या उन्होंने लिखने के लिए सेलमा को जो खजाना दिया उसकी देनदार वे नहीं हैं? सिर्फ उनकी ही नहीं समस्त प्रकृति की भी वे देनदार हैं? पृथ्वी पर विचरण करने वाले जानवर, आकाश के पक्षी, पेड़ पौधे, फूल पत्त्ाियाँ सबने उन्हें अपने रहस्य सौंपे क्या मैं उनकी कर्जदार नहीं हूँ? वे अपने लेखन में प्रेरक बनने वाले हर व्यक्ति, हर वस्तु का देनदार स्वयं को मानती हैं। वे उन सबकी कृतज्ञ हैं।
वे कल्पना करती हैं कि यह सब सुन कर उनके पिता मुस्कुरा कर सिर हिलाएँगे और जरा भी चिंतित नहीं दिखेंगे। लेकिन वे कहेंगी कि क्या आपको नहीं समझ में आता है कि मेरे सिर पर कर्ज का बड़ा बोझ है? दुनिया में कोई नहीं बता सकता है कि वे इससे कैसे मुक्त हो सकती हैं। वे सोचती हैं कि स्वर्ग में बैठे केवल वे ही यह बता सकते हैं। और यह कहते हुए वे और गम्भीर होने का नाटक करेंगी। पिता सदा की तरह बेफिक्री से कहेंगे, ‘हाँ, वे बता सकते हैं उनकी परेशानी का हल है।' इस पर वे रुकेंगी नहीं आगे कहेंगी कि उन पर केवल इतना ही नहीं और बहुत सारा )ण है। वे उनकी ऋणी हैं जिन्होंने भाषा बनाई है। भाषा जो एक बड़ा औजार है और उन सब की जिन्होंने उस भाषा का प्रयोग करना उन्हें सिखाया है। उनकी भाषा को इस ऊँचाई तक पहुँचाया है कि वे अभिव्यक्ति में कुशल हो सकी हैं। वे मात्र उनकी कर्जदार नहीं हैं जो उनके समय में लिख पढ़ रहे थे बल्कि उन जबकि जो उनसे पहले हुए हैं। वे अपने पूर्ववर्ती एवं समकालीन, अपने देश के साथ अन्य सब देशों के साहित्य की देनदार हैं। उन सबकी जिन्होंने लेखन को कला में ढाला, जो मशाल बने, जिन्होंने राह दिखाई। नार्वे के महान, महान रूसी रचनाकार सबकी ऋणी हैं। वे उस काल में हुईं जब उनके अपने देश का साहित्य अपने चरम पर था। फिर वे एक-एक करके अपने देश के महान लेखकों का नाम गिनाती हैं, उन रचनाकारों की विशेषता बताती हैं। संगमरमरी सम्राट के निर्माता राइडबर्ग, स्नोइल्सकाई की काव्य दुनिया, स्टिंरगबर्ग के पहाड़ की चोटियाँ, गैजेस्र्टाम की लोककथा, एन-सार्लोट एडग्रेन के आधुनिक पात्र, अरंस्ट अहल्गे्रन, हैडंस्टाम का पूर्व, सोफी एल्कान जो इतिहास को जीवंत बनाती है, वार्मलैंड के मैदानी भागों की कहानियाँ कहने वाले फ्रोडिंग, लेवर्टिन के आख्यान, हॉलस्ट्रोम के मृत्यु विषय, कार्लफील्ड के रेखाचित्र सब जिन्होंने उन्हें प्रेरित किया उनकी कल्पना को पोषण दिया, उन्हें प्रतिस्पर्धा की शक्ति दी और उनके स्वप्नों को साकार होने में सहायता दी। क्या वे इन सारे लोगों की ऋणी नहीं हैं?
और उनके पिता आश्वासन देंगे कि चिंता मत करो हम इस देनदारी का कोई न कोई उपाय अवश्य निकाल लेंगे। और वे बात को आगे बढ़ाते हुए कहेंगी कि पिता आप समझ नहीं रहे हैं कि यह सब मेरे लिए कितना कठिन है। आप इस बात को नहीं देख रहे हैं कि मैं अपने पाठकों की भी ऋणी हूँ। देखा जा सकता है कि इस पुरस्कार ने उन्हें कितना विनीत बना दिया है। वे अपने हर उम्र के पाठक के प्रति कृतज्ञता अनुभव करती हैं, बच्ची बड़े बूढ़े सब उम्र के पाठकों के प्रति। उन सब पाठकों की जिन्होंने उनके लिखे को पढ़ कर अपनी प्रतिक्रिया उन तक किसी न किसी रूप में पहुँचाई और उनकी भी जो प्रत्यक्ष रूप से अपनी बात उन तक ना पहुँचा सके। और भला वे अपने समीक्षकों आलोचकों को कैसे भूलती हैं। वे अपने सब समीक्षों का )ण भी स्वीकार करती हैं जिन्होंने उन्हें प्रसिद्धि दिलाई। ये समीक्षक उनके पुरस्कार की घोषणा के समय जीवित हों या न हों पर वे कृतज्ञता व्यक्त करती हैं और वे तमाम अनुवादक जिन्होंने उनका काम दुनिया के अन्य भाषा भाषियों तक पहुँचाया उन्हें भला वे कैसे भूल सकती हैं।
और तब वे देखेंगी कि उनके पिता अब उतने शांत नहीं हैं। वे बात की गम्भीरता को समझ रहे हैं। उन्हें पता चल रहा है कि उनकी सहायता करना इतना आसान नहीं है। एक व्यक्ति का आप में विश्वास आपके आत्मविश्वास को सुदृढ़ कर देता है। वे अपने मित्र एसलडे को याद करती हैं जिसने उन पर तब विश्वास कर उनके लिए राह खोली जब उन पर कोई और विश्वास नहीं कर रहा था। जिन लोगों ने उनके कार्य को सुरक्षित रखा, उनकी और उनके काम की चिंता की। वे अपने उस साथ और सहयात्री को भी स्मरण करती हैं जो उन्हें दक्षिण ले गया जिसने उन्हें कला की महानता दिखाई और उनकी जिन्दगी को खुशनुमा बनाया। वे सारे लोग जिन्होंने उन्हें प्यार, आदर, सम्मान दिया। वे अपने पिता से पूछेंगी कि इन ढेर सारे लोगों का कर्ज कैसे चुकाया जाए? अब तक उनके पिता इस बात की गहनता को समझ चुके होंगे और कहेंगे कि तुम ठीक कहती हो बिटिया सच में यह काम कठिन है। लेकिन वे यह भी पूछेंगे कि क्या किसी और की देनदारी नहीं है? और तब वे कहेंगी कि यह सब काफ़ी भारी कर्ज है पर असली बात तो अभी आनी है और इसीलिए वे उनसे सलाह करने आई हैं। वे नहीं जानती हैं कि उनके पिता इस बात में उनकी क्या सहायता करेंगे। पिता बात पूछते हैं और तब वे अपने नोबेल पुरस्कार पाने की, नोबेल समिति के प्रति कृतज्ञ होने की बात कहेंगी।
और तब उनके पिता आश्चर्य से कहेंगे कि वे विश्वास नहीं कर पा रहे हैं कि उनकी बेटी को इतना बड़ा पुरस्कार मिला है। पिता जब बेटी का चेहरा देखेंगे तो उन्हें इस बात की सच्चाई पर यकीन आ जाएगा। इसके बाद जो वे बताती हैं वह ठीक वैसा ही है जैसे एक कली को फूल बनते हुए निहारना। उनके पिता के चेहरे की प्रत्येक झुर्री काँपने लगेगी और उनकी आँखें आँसुओं से भर जाएँगी। वे कहेंगी कि उन लोगों का )ण उन पर कितना ज़्यादा है जिन्होंने उनका नाम नोबेल पुरस्कार के लिए प्रस्तावित किया और जिन लोगों ने उनके नाम पर निर्णय लिया। यह केवल सम्मान और पैसे की बात नहीं है। यह दिखता है कि नोबेल समिति ने उन के काम पर आस्था दिखाई है और सारी दुनिया के समक्ष उन्हें प्रस्तुत किया है। वे समिति के इस कर्ज को कैसे चुका सकती हैं? अब उनके पिता मौन हो जाएँगे, गहन विचारमग्न हो जाएँगे। उनके मुँह से कोई शब्द नहीं निकलेगा। फिर वे अपनी खुशी के आँसू पोंछते हुए अपनी मुट्ठी रॉकिंग चेयर के हत्थे पर मार कर कहेंगे कि मैं उस बात के लिए अपना सिर नहीं खपाऊँगा जिसका हाल स्वर्ग और पृथ्वी पर किसी के पास नहीं है। मैं इतना खुश हूँ कि तुम्हें नोबेल पुरस्कार मिला है मुझे किसी बात की चिंता नहीं है!
और इसी के साथ वे रात्रि भोज के अवसर पर उपस्थित स्वीडन के राजसी लोगों तथा सब गणमान्य व्यक्तियों को संबोधित करते हुए कहती हैं कि मेरे सारे प्रश्नों का इससे बेहतर उत्तर क्या हो सकता है। इसी के साथ वे स्विडिश अकादमी के सम्मान में टोस्ट प्रपोज करती हैं और सबको उसमें सम्मिलित होने का आमंत्रण देती हैं।
मनुष्य की दृढ़ इच्छा शक्ति, लगन और परा शक्ति पर आस्था कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी उसके लिए राह खोलती चलती है। जीवन की तमाम बाधाओं को पार करते हुए भी सृजन जारी रह सकता है। सेलमा लेगरलॉफ इसका जीता जागता उदाहरण हैं। अपने माता पिता की चौथी संतान सेलमा का जन्म 1858 में मारबाका में हुआ। सेलमा दूसरे बच्चों से अलग थीं। जन्म के समय से ही। उनके पिता एरिक गुस्तॉव लेगरलॉफ लेफ्टिनेंट थे और माता का नाम लुसिया था। सेलमा लेगरलॉफ का पूरा नाम सेलमा ओटीलियाना लोविसा लेगरलॉफ है। सेलमा की पैदाइश कूल्हे की खराबी के साथ हुई थी और जल्द ही उनकी दोनों टाँगे बेकार हो गई। इसी कारण वे कभी भी बच्चों के साथ न खेल सकीं। उनका जीवन बचपन और बच्चों से दूर एकाकी गुजरा। अपनी शारीरिक अक्षमता के कारण वे अपने भाई-बहनों तथा अन्य बच्चों से अलग स्वभाव की थीं। वे प्रारम्भ से ही ज़्यादा गम्भीर और शांत थीं। जो बच्चा खेल कूद नहीं सकता है और प्रतिभाशाली है वह अंतरमुखी हो जाता है। अपनी आंतरिक शक्ति के बल पर बाद में उन्होंने अपनी शारीरिक अयोग्यता से काफ़ी हद तक छुटकारा पा लिया। उस युग में जीवन और उनके आसपास का समाज धार्मिक था। इस प्रतिभाशलिनी बालिका ने सात वर्ष की उम्र में अपना पहला उपन्यास लिख डाला और दस वर्ष की उम्र में सम्पूर्ण बाइबिल पढ़ डाली थी।
विपत्तियाँ कभी अकेली नहीं आती हैं। पिता की बीमारी के कारण 1884 में उन लोगों को अपना मारबाका का इस्टेट बेचना पड़ा। और सेलमा को शिक्षिका की नौकरी करनी पड़ी। लेकिन क्या अच्छा है और क्या बुरा है, यह बता पाना बहुत कठिन है। उनका प्रशिक्षण स्टॉकहोम के रॉयल वीमेंस सुपिरियर टे्रनिंग एकेडमी में हुआ था। वे लैंड्सक्रोना में दस वर्ष (1858-1895) तक शिक्षिक थीं। यह शिक्षण कार्य उनके लिए ब्लेसिंग इन डिसगाइज साबित हुआ। बच्चों के लिए लिखे ‘द वंडरफुल एडवेंचर्स ऑफ नाइल्स' ने उन्हें सदैव के लिए अमर कर दिया। असल में ‘वंडरफुल एडवेंचर्स ऑफ नाइल्स' नेशनल टीचर एसोशियेशन के द्वारा कमीशन थी। इस किताब को लिखने के लिए उन्होंने तीन साल तक प्रकृति अध्ययन किया। जानवरों और पक्षियों के जीवन का निरीक्षण किया। विभिन्न प्रदेशों की लिखित-अलिखित लोककथाओं और लोक गीतों का अध्ययन किया। इतनी तैयारी के बाद उन्होंने यह किताब लिखी इसी से उनकी लगन और परिश्रम को समझा जा सकता है। यह किताब दो भागों हैं।
नाइल्स के रोमांचक कारनामों की कहानी बहुत सरल परंतु रोचक है, जिस पर बाद में कई भाषाओं में एनीमेशन तथा बाल फिल्मों का निर्माण भी हुआ। कहानी कुछ यूँ है, किशोर नाइल्स होल्ग्रेसन को खाने, सोने और शैतानी करने में मजा आता था। उसे अपने परिवार के फॉर्म पर जानवरों को तंग करना बहुत अच्छा लगता था। एक दिन जब परिवार के लोग बाइबिल के पाठ कंठस्थ करने के लिए चर्च चले गए वह जाल लेकर चल दिया उसने एक टोम्टे पकड़ा। टोम्टे ने वायदा किया यदि नाइल्स उसे छोड़ देगा तो वह उसे एक बहुत बड़ा सोने का सिक्का देगा। नाइल्स ने प्रस्ताव ठुकरा दिया तो टोम्टे ने उसे भी टोम्टे बना दिया। टोम्टे बनते ही नाइल्स का आकार बहुत छोटा हो गया और वह जानवरों की भाषा समझने लगा। जानवर लड़के को इस लघु आकार में देख कर बहुत रोमांचित थे, साथ ही बहुत गुस्से में थे। वे उससे बदला लेना चाहते थे। नीचे जब यह सब चल रहा था फॉर्म के ऊपर से जंगली बत्त्ाखों का एक झुंड प्रवास से लौटता, उड़ता हुआ गुजरा। फॉर्म की एक सफेद बत्त्ाख ने इस झुंड में शामिल होने का प्रयास किया। परिवार के चर्च से लौटने के पहले मुक्ति के लिए नाइल्स ने इस ऊपर जाती बत्त्ाख की गर्दन को पकड़ लिया और उसके साथ उड़ता हुआ जंगली बत्त्ाखों के झुंड में जा मिला।
जंगली बत्त्ाखों को एक लड़के और एक पालतू बत्त्ाख का इस तरह उनमें शामिल होना अच्छा नहीं लगा। वे उन्हें पूरे स्वीडन की यात्रा पर ले चले। सारे ऐतिहासिक क्षेत्र दिखाए, उनकी सारी प्राड्डतिक विशेषताएँ और आर्थिक स्रोत दिखाए। इन सारे अनुभवों ने नाइल्स को किशोर से एक पुरुष बना दिया। उसे ज्ञात हुआ कि पालतू बत्त्ाख को अनुभवी जंगली बत्त्ाख की तरह उड़कर अपनी क्षमता सिद्ध करनी होगी। अैर नील्स को सिद्ध करना होगा कि प्रारम्भिक गलतफहमी के बावजूद वह एक उपयोगी साथ है। इसी यात्रा के दौरान नाइल्स को ज्ञात होता है कि यदि वह साबित कर सके कि वह बदल कर एक अच्छा आदमी बन गया है तो शायद टोम्टे उसे वापस सामान्य आकार का बना दे। कितने नायाब तरीके से सेलमा ने भूगोल को बच्चों के लिए रोचक बनाया है। इस किताब में सेलमा नाइल्स के बहाने समूचे स्वीडन की आर्थिक प्राकृतिक दुनिया की सैर कराती हैं। कुछ लोग इस बात से नाखुश थे कि बत्त्ाखें और नाइल्स 53 वें अध्याय में हॉलैंड के ऊपर से गुजरते हैं लेकिन उससे प्रभावित नहीं होते हैं वहाँ उतरते नहीं हैं। बाद में कुछ अनुवादों में इस बात को एक और अध्याय में जोड़ दिया गया।
वे स्वीडन की वर्तनी सुधार के कार्य में भी जुटी हुई थीं और कुछ अन्य बुद्धिजीवियों के संग मिल कर उन्होंने अपनी भाषा लिपि की जो वर्तनी तैयार की, वह सरकारी तौर पर 1906 में मान्य हुई। उनके देश में उनके नाम पर दो होटेल हैं, और उनका जन्मस्थान मारबाका अब एक संग्रहालय है। 1992 से स्वीडन की मुद्रा पर उनका फोटो प्रकाशित हो रहा है। इसी तरह उनके नाइल्स के रोमांचक कारनामों का चित्र भी वहाँ की मुद्रा पर अंकित है।
1895 तक शिक्षण करने के बाद उन्होंने अपना जीवन लेखन को समर्पित कर दिया। वे प्राचीन स्विडिश जीवन की चितेरा हैं। उन्होंने स्विडिश भाषा में उपन्यास लिखे। वे तत्कालीन स्विडीश लेखकों जैसे अगस्ट स्ट्रिंगबर्ग के यथार्थवाद से सहमत नहीं थीं। उन्होंने ‘गोस्टा बर्लिंग्स सागा' लिखना शुरू किया। इसके पहले अध्याय को उन्होंने एक साहित्यिक प्रतियोगिता के लिए भेजा और वह चुन लिया गया। पूरी किताब के प्रकाशन का पुरस्कार मिला और सेलमा साहित्य की दुनिया में पूरी तौर पर आ गईं। स्कॉटिश लेखक थॉमस कारलाइल से प्रभावित उनकी पहली किताब ‘गोस्टा बर्लिंग्स सागा' के दोनों भाग काव्यात्मक गद्य विधा में हैं। इसे उन्होंने 1891 में रचा और इसका इंग्लिश अनुवाद 1898 में आया। इसमें उन्होंने वार्मलैंड की लोककथाओं को पुनर्निर्मित किया है। 1894 में ‘इनविजिबल लिंक्स' उनका कहानी संग्रह आया, जिसने उन्हें साहित्य के क्षेत्र में स्थापित कर दिया।
1894 में वे एक अन्य लेखिका सोफी एल्कान से मिलीं जल्दी ही दोनों में दोस्ती हो गई। दोनों के बीच खूब पत्राचार होता। सेलमा को सोफी से प्रेम हो गया। कई वर्षों तक दोनों एक दूसरे के रचनात्मक कार्यों की समीक्षा आलोचना करती रहीं। लेकिन समान पेशे और प्रतिभा के लोग ज़्यादा समय तक एक दूसरे को सहन नहीं कर पाते हैं इन दोनों की दोस्ती भी टूटने लगी। सेलमा ने अन्य कई लोगों को लिखा कि उनका काम सोफी के कार्य से प्रभावित है। वे जो भी दिशा लेना चाहती हैं सोफी उससे इत्त्ाफाक नहीं रखती है और इस तरह उनका कार्य मनचाही दिशा में नहीं हो पाता है। सोफी के हस्तक्षेप से उनका नुकसान हो रहा है। बाद के दिनों में ऐसा लगता है, और जो स्वाभाविक भी है कि एल्कान को सेलमा की सफलता से ईर्ष्या होने लगी। 1897 में सेलमा फालन चली गइर्ं। यहाँ उनकी मुलाकात वाल्बोर्ग ओलान्डर से हुई जो शीघ्र ही उनके साहित्यिक सहायक बन गए। यह साहित्यिक दोस्ती जल्द ही मित्रता में बदली। सोफी को ओलान्डर से ईर्ष्या थी, जिसने सेलमा और सोफी के रिश्ते में आग में घी का काम किया। ओलान्डर का जुड़ाव शिक्षा से था साथ ही उसका काम स्वीडन में उस समय चल रहे स्त्री-मताधिकार के आन्दोलन से भी जुड़ा हुआ था।
जब वे इटली गईं तो उन्होंने वहाँ बाल ईशु की गाथा को एक मिथ्या में परिवर्तित देखा। इसी से प्रेरित हो कर उन्होंने अपना उपन्यास ‘द मिरेकल्स ऑफ एंटीक्राइस्ट' लिखा। इसमें वे ईसाई धर्म और नैतिक सामाजिक सिस्टम के अंतरसम्बन्धों को खोजती हैं। इसे उन्होंने सिसली में घटित दिखाया है। वैसे उनके अधिकांश लेखन की घटनाएँ उनके अपने स्थान वार्मलैंड में घटित होती हैं। यूरोप भ्रमण के दौरान उन्होंने जेरुशेलम नाम के एक कम्यून को देखा और उसी से प्रोत्साहित हो कर उन्होंने अपना उपन्यास ‘जेरूसलम' (द होली सिटी) लिखा। इस उपन्यास की कथावस्तु स्वीडन का धार्मिक आन्दोलन है कि जिसकी परिणति पैलेस्टीन की ओर एक बड़े जनसमूह के पलायन से हुई। इसका प्रकाशन 1901-1902 में हुआ और इनका अनुवाद काफी बाद में 1915-1918 में जाकर आया। इस पर 1996 में एक फीचर फिल्म बनी जिसने काफी नाम कमाया। उनकी कई अन्य कहानियों पर भी फिल्में बनीं। स्वीडन के प्रारम्भिक फिल्म निर्देशक विक्टर जोस्ट्रोम ने उनकी कई कहानियों को फिल्म में ढाला। उन्होंने सेलमा की कहानियों की ग्रामीण पृष्ठभूमि का फिल्मांकन बहुत संवेदनशीलता के साथ किया है। इस कारण फिल्मों में कहानियों की संवेदना उभर कर आई है। ये मूक फिल्में अपने ऐतिहासिक और फिल्मी विशेषताओं के लिए आज भी महत्त्वपूर्ण हैं।
रचना कई भागों में करना उनकी खासियत है। उनहोंने 1925-28 में ‘द रिंग ऑफ द लोवेनस्कोल्डा', एक त्रयी के रूप में रचा। दो भागों में ‘द आउटकास्ट' तथा ‘वंडरफुल एडवेंचर्स ऑफ नाइल्स', ‘फ्रॉम अ स्वीडिश होम्सट्ड' उनका कहानी संग्रह है। ‘क्राइस्ट लेज़ेंड्स', ‘द एम्परर ऑफ पुर्तगालिया', ‘द सिल्वर माइन' आदि उनके अन्य उपन्यास हैं। इतना ही नहीं उन्होंने बच्चों के लिए ‘ट्रोल्स एंड मैन' नाम से दो भाग में कहानी संग्रह तैयार किया। बहुत कम नोबेल पुरस्कृत साहित्यकार हैं जिन्होंने बच्चों के लिए कहानियाँ लिखीं। एक और नोबेल पुरस्कृत साहित्यकार हैं जिन्होंने बच्चों के लिए कहानियाँ लिखीं। ये हैं आइजक बासविस सिंगर। इन्होंने न केवल बच्चों के लिए कहानियाँ लिखीं बल्कि यह भी विस्तार से बताया कि वे बच्चों के लिए लिखना क्यों पसन्द करते हैं। उन्होंने यह बात बड़े गर्व के साथ कही है। सेलमा ने उपन्यास, कहानी संग्रह, बच्चों के लिए कहानियाँ लिखने के अलावा 1922 में ‘मारबाका', ‘मेमोरीज़ ऑफ माई चाइल्डहुड' नाम से आत्मकथात्मक कार्य भी किया। इसके साथ ही वे अपनी डायरी ‘द डायरी ऑफ सेलमा लेगरलॉफ' जिसका प्रकाशन 1932 में हुआ के लिए भी जानी जाती हैं।
ताजिन्दगी वे स्वीडन की लोककथाओं से अपना कच्चा माल लेती रहीं। लोककथाओं का भंडार असीमित होता है। उन्होंने अपने काम में इन लोककथाओं की प्रकृति और इनकी ताजगी को बनाए रखा। उनकी उच्च कल्पना शक्ति का नमूना उनके प्रीतिभोज संबोधन में देखा जा सकता है। आज भी सेलमा लेगरलॉफ स्विडिश साहित्य में बेजोड़ हैं और उनकी इस कामयाबी का श्रेय उनके लेखन की सादगी को जाता है। उनके चरित्र विचारों और अपने क्रियाकलापों में बहुत सरल होते हैं और लोक कथाओं के प्रभाव के कारण उनके साहित्य में बुराई पर अच्छाई की जीत होती है। कहानीपन इनकी विशेषता है और इसी कथा रस के कारण आज भी वे लोकप्रिय हैं। नोबेल समिति ने अपनी घोषण में उनके कार्य की प्रशंसा करते हुए कहा है कि यह पुरस्कार उन्हें उनके उदार आदर्शवाद, स्पष्ट कल्पना चित्रण और आध्यात्मिक नजरिए के लिए दिया जा रहा है। वे लेखन में इन विशेषताओं के लिए जानी जाती हैं। स्विडिश अकादमी अपने पुरस्कार विजेताओं में से कुछ विशिष्ट लेखकों को अपनी समिति में शामिल कर लेती हैं। सेलमा लेगरलॉफ उन भाग्यशाली लोगों में से एक हैं। उन्हें 1909 में नोबेल पुरस्कार मिला और इसके पाँच साल बाद 1914 में उन्हें समिति की सम्मानित सदस्यता प्रदान की गई। द्वितीय महायुद्ध के प्रारम्भ होने पर उन्होंने अपना नोबेल प्राइज़ मेडल ओर स्विडिश अकादमी से प्राप्त अपने स्वर्ण पदक को फिनलैंड की सरकार को दान कर दिया ताकि सोवियत यूनियन से लड़ा जा सके। उनके इस औदार्य से फिनलैंड की सरकार इतनी विगलित हो गई कि उन लोगों ने दूसरे तरीकों से धन एकत्र किया और सेलमा लेगरलॉफ के तमगों को उन्हें ज्यों का त्यों लौटा दिया। 18 मार्च 1940 को गुजरने वाली सेलमा लेगरलॉफ पहली महिला साहित्यकार हैं जिन्हें नोबेल पुरस्कार प्राप्त हुआ। उनका मानना है कि बुद्धिमान और सक्षम लोगों के द्वारा की गई प्रशंसा से बढ़ कर कोई और स्वाद नहीं होता है। और यह स्वाद उन्हें भरपूर मिला।
जिस साल सेलमा को नोबेल पुरस्कार मिला उसी साल एक और लेखिका उभर रही थी जिसे आगे चल कर 1928 में नोबेल पुरस्कार मिला। 1909 में सिग्रिड अन्सेट का पहला उपन्यास ‘द गनर डॉटर' आया और उन्हें साहित्य जगत में पहचान मिली। वे नोबेल पुरस्कार प्राप्त करने वाली तीसरी महिला साहित्यकार हैं। प्रथम होने का अपना महत्त्व है और गौरव सेलमा लेगरलॉफ को प्राप्त है।
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विजय शर्मा
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(शब्द संगत, अगस्त 09 से साभार)
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