स्वाधीनता संग्राम के युग में दक्षिण-भारत में हिन्दी का प्रचार-प्रसार प्रोफेसर महावीर सरन जैन भारत की भाषाओं के अध्ययन के लिए नए प्रतिमानो...
स्वाधीनता संग्राम के युग में दक्षिण-भारत में हिन्दी का प्रचार-प्रसार
प्रोफेसर महावीर सरन जैन
भारत की भाषाओं के अध्ययन के लिए नए प्रतिमानों एवं नई दृष्टि की आवश्यकता है। भारत में बोली जानेवाली भिन्न भाषा-परिवारों की भाषाओं के समान क्रोड के वैज्ञानिक एवं व्यवस्थित अध्ययन की आवश्यकता असंदिग्ध है। किसी भी विषय का भेद दृष्टि से अध्ययन करने पर जहाँ हमें अन्तर, असमानताएँ, भिन्नताएँ अधिक दिखाई देती हैं, उसी विषय का अभेद दृष्टि से अध्ययन करने पर हमें एकता एवं समानता अधिक नज़र आती है। विद्वानों ने भारत की भाषाओं के भेदों की जाँच-पड़ताल तो बहुत की है; ‘ बाल की खाल ’ बहुत निकाली है। कामना है, विद्वान-गण भारत की भाषाओं में विद्यमान सादृश्य के सूत्रों की खोज के काम में भी उसी निष्ठा के साथ प्रवृत्त हों, जिससे भारत की भाषिक एकता की अवधारणा और अधिक स्पष्ट एवं उजागर हो सके।
हिन्दी के मातृभाषियों की संख्या विश्व में चीनी भाषा के बाद सर्वाधिक है तथा इसका प्रचार प्रसार एवं अध्ययन अध्यापन अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर हो रहा है। कुछ ताकतें हिन्दी को उसके अपने ही घर में तोड़ने का कुचक्र रच रही हैं। इनकी शक्ति यद्यपि कम नहीं है तथापि इनके द्वारा समय समय पर किए जाने वाले षड़यंत्रों को बेपरदा एवं बेनकाब करने की आवश्कता असंदिग्ध है।
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मेरा आकलन है कि हिन्दी को आगे बढ़ने से अब कोई ताकत रोक नहीं सकती। हिन्दी निरन्तर आगे बढ़ रही है। बीसवीं शताब्दी के अन्तिम चरण में एक सम्मेलन का समापन करते हुए मैंने यह मत व्यक्त किया था कि 19वीं शताब्दी फ्रेंच भाषा की थी, 20 वीं शताब्दी अंग्रेजी भाषा की थी तथा 21 वीं शताब्दी हिन्दी की होगी। मैंने अपने इस मत की पुष्टि के लिए निम्नलिखित कारणों की विस्तार से विवेचना की थी –
1. भाषा बोलने वालों की संख्या
2. भाषा व्यवहार क्षेत्र का विस्तार
3. हिन्दी भाषा एवं लिपि व्यवस्था की संरचनात्मक विशेषताएँ
4. भविष्य में कम्प्यूटर के क्षेत्र में ‘टैक्स्ट टू स्पीच’ तथा ‘स्पीच टू टैक्स्ट’ तकनीक का विकास
5. भारतीय मूल के आप्रवासी एवं अनिवासी भारतीयों की संख्या, श्रमशक्ति, मानसिक प्रतिभा में निरन्तर अभिवृद्धि।
मातृभाषियों की संख्या की दृष्टि से विश्व में सर्वाधिक बोलीजाने वाली भाषाओं के जो आंकड़े मिलते थे, उनमें सन् 1998 के पूर्व, हिन्दी को तीसरा स्थान दिया जाता था। सन् 1991 के सेन्सॅस ऑफ इण्डिया का भारतीय भाषाओं के विश्लेषण का ग्रन्थ जुलाई, 1997 में प्रकाशित हुआ। यूनेस्को की टेक्नीकल कमेटी फॉर द वॅःल्ड लैंग्वेजिज रिपोर्ट ने अपने दिनांक 13 जुलाई, 1998 के पत्र के द्वारा ‘यूनेस्को प्रश्नावली’ के आधार पर हिन्दी की रिपोर्ट भेजने के लिए भारत सरकार से निवेदन किया। भारत सरकार ने उक्त दायित्व के निर्वाह के लिए केन्द्रीय हिन्दी संस्थान के तत्कालीन निदेशक प्रोफेसर महावीर सरन जैन को पत्र लिखा। प्रोफेसर महावीर सरन जैन ने दिनांक 25 मई, 1999 को यूनेस्को को अपनी विस्तृत रिपोर्ट भेजी।
प्रोफेसर जैन ने विभिन्न भाषाओं के प्रामाणिक आँकड़ों एवं तथ्यों के आधार पर यह सिद्ध किया कि प्रयोक्ताओं की दृष्टि से विश्व में चीनी भाषा के बाद दूसरा स्थान हिन्दी भाषा का है। रिपोर्ट तैयार करते समय ब्रिटिश काउन्सिल ऑफ इण्डिया से अंग्रेजी मातृभाषियों की पूरे विश्व की जनसंख्या के बारे में तथ्यात्मक रिपोर्ट भेजने के लिए निवेदन किया गया। ब्रिटिश काउन्सिल ऑफ इण्डिया ने इसके उत्तर में गिनीज बुक आफ नॉलेज (1997 संस्करण) का पृष्ठ-57 फैक्स द्वारा भेजा। ब्रिटिश काउन्सिल ने अपनी सूचना में पूरे विश्व में अंग्रेजी मातृभाषियों की संख्या 33,70,00,000 (33 करोड़, 70 लाख) प्रतिपादित की। सन् 1991 की जनगणना के अनुसार भारत की पूरी आबादी 83,85,83,988 है। मातृभाषा के रूप में हिन्दी को स्वीकार करने वालों की संख्या 33,72,72,114 है तथा उर्दू को मातृभाषा के रूप में स्वीकार करनेवालों की संख्या 04,34,06,932 है। हिन्दी एवं उर्दू को मातृभाषा के रूप में स्वीकार करनेवालों की संख्या का योग 38,06,79,046 है जो भारत की पूरी आबादी का 44.98 प्रतिशत है। मैंने अपनी रिपोर्ट में यह भी सिद्ध किया कि भाषिक दृष्टि से हिन्दी और उर्दू में कोई अंतर नहीं है। इस प्रकार ब्रिटेन, अमेरिका, कनाडा, आयरलैंड, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड आदि सभी देशों के अंग्रेजी मातृभाषियों की संख्या के योग से अधिक जनसंख्या केवल भारत में हिन्दी एवं उर्दू भाषियों की है। रिपोर्ट में यह भी प्रतिपादित किया गया कि ऐतिहासिक, सांस्कृतिक एवं सामाजिक कारणों से सम्पूर्ण भारत में मानक हिन्दी के व्यावहारिक रूप का प्रसार बहुत अधिक है। हिन्दीतर भाषी राज्यों में बहुसंख्यक द्विभाषिक समुदाय द्वितीय भाषा के रूप में अन्य किसी भाषा की अपेक्षा हिन्दी का अधिक प्रयोग करता है।
प्रस्तुत आलेख का विवेच्य दक्षिण भारत में हिन्दी भाषा के प्रचार एवं प्रसार की मीमांसा प्रस्तुत करना है। इस कारण इसी विशेष संदर्भ में विवेचना प्रस्तुत की जाएगी। इस विवेचना की पृष्ठभूमि के रूप में, स्वाधीनता आन्दोलन युग में हिन्दी की राष्ट्रीय भूमिका को स्पष्ट करना जरूरी है।
स्वाधीनता के लिए जब-जब आन्दोलन तीव्र हुआ, तब-तब हिन्दी की प्रगति का रथ भी तीव्र गति से आगे बढ़ा। हिन्दी राष्ट्रीय चेतना की प्रतीक बन गई। स्वाधीनता आन्दोलन का नेतृत्व जिन नेताओं के हाथों में था उन्होंने यह पहचान लिया था कि विगत 600-700 वर्षों से हिन्दी सम्पूर्ण भारत की एकता का कारक रही है; यह संतों, फकीरों, व्यापारियों, तीर्थ-यात्रियों, सैनिकों द्वारा देश के एक भाग से दूसरे भाग तक प्रयुक्त होती रही है।
मैं यह बात जोर देकर कहना चाहता हूँ कि हिन्दी को राष्ट्रभाषा की मान्यता उन नेताओं के कारण प्राप्त हुई जिनकी मातृभाषा हिन्दी नहीं थी। बंगाल के केशवचन्द्र सेन, राजा राम मोहन राय, रवीन्द्रनाथ ठाकुर, नेताजी सुभाष चन्द्र बोस; पंजाब के बिपिनचन्द्र पाल, लाला लाजपत राय; गुजरात के स्वामी दयानन्द, राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी; महाराष्ट के लोकमान्य तिलक तथा दक्षिण भारत के सुब्रह्मण्यम भारती, मोटूरि सत्यनारायण आदि नेताओं के राष्ट्रभाषा हिन्दी के सम्बंध में व्यक्त विचारों से मेरे मत की संपुष्टि होती है। हिन्दी भारतीय स्वाभिमान और स्वातंत्र्य चेतना की अभिव्यक्ति का माध्यम बन गई। हिन्दी राष्ट्रीय अस्मिता का प्रतीक हो गई। इसके प्रचार प्रसार में सामाजिक, धार्मिक तथा राष्ट्रीय नेताओं ने सार्थक भूमिका का निर्वाह किया।
सन् 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के दौरान दिल्ली के चारों ओर देशवासियों द्वारा संग्राम में भाग लेने के लिए हिन्दी एवं उर्दू में पर्चे बाँटे गए।
भारतीय पुनर्जागरण के अग्रदूत राजा राममोहन राय ने सन् 1828 में ‘ब्रह्म सभा’ की स्थापना की तथा बांग्ला, हिन्दी और फ़ारसी भाषाओं में ‘बंगदूत’ निकाला। इसी परम्परा में केशव चंद्र सेन ने ‘भारतीय ब्रह्म समाज’ की स्थापना की तथा इस भावना को जागृत किया कि भारत की एक राष्ट्रभाषा होनी चाहिए। केशव चंद्र सेन ने सन् 1875 में ‘सुलभ समाचार’ में लिखाः ‘ अगर हिन्दी को भारतवर्ष की एक मात्र भाषा स्वीकार कर लिया जाता है जो सहज में ही वह एकता स्थापित हो सकती है’।
रवीन्द्र नाथ टैगोर ने भारतीय भाषाओं और राष्ट्र भाषा हिन्दी के अंतर-सम्बंधों की व्याख्या करते हुए हिन्दी को ‘राष्ट्रभाषा’ न कहकर ‘भारत-भारती’ कहा:
‘आधुनिक भारत की संस्कृति एक विकसित शतदल के समान है जिसका एक एक दल, एक एक प्रांतीय भाषा और उसकी साहित्य-संस्कृति है। किसी एक को मिटा देने से उस कमल की शोभा नष्ट हो जाएगी। हम चाहते हैं कि भारत की सब प्रांतीय बोलियाँ, जिनमें सुन्दर साहित्य की सृष्टि हुई है, अपने अपने घर में रानी बनकर रहें। प्रांत के जनगण की हार्दिक चिंता की प्रकाशभूमि स्वरूप कविता की भाषा होकर रहें और आधुनिक भाषाओं के हार के मध्य-मणि हिन्दी भारत-भारती होकर विराजती रहे’।
भारतीय नवजागरण के शंखनाद के लिए स्वामी दयानंद सरस्वती ने सन् 1875 में मुंबई में आर्य समाज की तथा स्वामी विवेकानंद ने सन् 1897 में कोलकाता में रामकृष्ण मिशन आश्रम की स्थापना की। आरम्भ में दयानंद सरस्वती संस्कृत में व्याख्यान देते थे। कोलकाता में केशव चन्द्र सेन ने स्वामी दयानंद को संस्कृत के स्थान पर हिन्दी को अपने व्याख्यानों एवं ग्रंथों की भाषा बनाने का परामर्श दिया। प्रभावान्वित दयानंद सरस्वती ने हिन्दी को ‘स्वभाषा’ की संज्ञा दी, हिन्दी में ही व्याख्यान दिए तथा हिन्दी में ही ‘सत्यार्थ प्रकाश’ लिखा एवं अनेक ग्रंथों की रचना की। आर्य समाज ने देश की शिक्षा प्रणाली में हिन्दी को अपनाए जाने पर बल दिया तथा न्यायालयों में हिन्दी के व्यवहार एवं प्रयोग के लिए आन्दोलन चलाए।
पंजाब में स्वामी रामतीर्थ, श्रद्धाराम फुल्लौरी तथा स्वामी श्रद्धानंद आदि ने धार्मिक प्रवचनों, उपदेशों और भजनों के माध्यम से हिन्दी को जनमानस से जोड़ दिया।
महाराष्ट्र भाषी लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने हिन्दी को पूरे राष्ट्र की भाषा बनाने पर बल दिया। दिसम्बर, 1905 में नागरी प्रचारिणी सभा के सम्मेलन में उन्होंने प्रतिपादित किया कि हम अपनी बात पूरे देश में हिन्दी भाषा के माध्यम से ही पहुँचा सकते हैं :
‘यदि आप राष्ट्र में एकता लाना चाहते हैं, तो इसके लिए एक सामान्य भाषा के व्यवहार से अधिक शक्तिशाली और कोई वस्तु नहीं है। - - - हम भारतवासियों के लिए एकता एवं एकात्मकता लाने में देवनागरी लिपि में लिखित हिन्दी ही ‘राष्ट्रभाषा’ बनकर सहायता पहुँचा सकती है’।
आपने पुणें से ‘केसरी’ दैनिक समाचार पत्र निकाला जिसके एक पृष्ठ पर केवल हिन्दी में समाचार छपते थे। तिलक की तरह महादेव गोविंद रानाडे का हिन्दी प्रेम भी सर्वविदित है।
हिन्दी को सम्पूर्ण भारत में व्यवहार की भाषा बनाने, सम्पर्क भाषा के रूप में विकसित करने एवं राष्ट्रभाषा का दर्जा दिलाने में महात्मा गाँधी की भूमिका एवं योगदान अप्रतिम है। गाँधी जी ने हिन्दी के महत्व का आकलन दक्षिण अफ्रीका में ही कर लिया था। यह सर्वविदित है कि दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद की नीति एवं अंग्रेजों के अत्याचारों का विरोध करने के लिए गाँधी जी ने सत्याग्रह आंदोलन चलाया। नेटाल के सत्याग्रह आश्रम में हिन्दी, बांग्ला, तमिल, तेलुगु आदि भाषाओं के बोलने वाले बच्चे रहते थे। गाँधी जी ने निरीक्षण किया कि खेलते समय वे भिन्न भाषी बच्चे हिन्दी बोलते हैं। इससे उन्होंने यह पहचान लिया कि भिन्न भाषियों की सम्पर्क भाषा हिन्दी ही हो सकती है। उन्होने उन बच्चों को हिन्दी के माध्यम से पढ़ाना शुरु कर दिया। भारत लौटने के बाद गाँधी जी ने पूरे देश का भ्रमण किया तथा हिन्दी की सार्वदेशिक भूमिका को जाना तथा यह भी महसूस किया कि देश के किस किस भाग में हिन्दी को जनता की कामचलाऊ भाषा बनाने के लिए क्या करणीय है जिससे पूरा देश हिन्दी के द्वारा एकजुट होकर राष्ट्रीय आन्दोलन की ज्योति को पूरी आभा के साथ आलोकित कर सके।
सन् 1910 में गाँधी जी ने कहाः ‘हिन्दुस्तान को अगर सचमुच एक राष्ट्र बनाना है तो चाहे कोई माने या न माने राष्ट्रभाषा हिन्दी ही बन सकती है’।
सन् 1916 में कांग्रेस के लखनऊ अधिवेशन में गाँधी जी ने हिन्दी में भाषण दिया तथा उद्घोष किया कि ‘हिन्दी का प्रश्न मेरे लिए स्वराज्य के प्रश्न से कम महत्वपूर्ण नहीं है’। इसी अधिवेशन में 26 दिसम्बर को ‘आर्य समाज मंडप’ में गाँधी जी के सभापतित्व में ‘एक भाषा एक लिपि’ विषयक सम्मेलन आयोजित हुआ जिसमें सर्वसम्मति से संकल्प पारित हुआ कि ‘हिन्दी भाषा और देवनागरी का प्रचार प्रसार देश-हित एवं ऐक्य-स्थापना हेतु करना चाहिए’। तमिल भाषी श्री रामास्वामी अय्यर और श्री रंगस्वामी अय्यर इस प्रस्ताव के समर्थक थे।
सन् 1917 में ‘गुजरात शिक्षा सम्मेलन’ के अध्यक्षीय भाषण में गाँधी जी ने राष्ट्रभाषा के मानकों का निर्धारण करते हुए प्रतिपादित कियाः
(1)किसी देश की राष्ट्रभाषा वही हो सकती है जिसे वहाँ की अधिकांश जनता बोलती हो।
(2) वह सांस्कृतिक, राजनीतिक और आर्थिक क्षेत्रों में माध्यम भाषा बनने की शक्ति रखती हो।
(3) वह सरकारी कर्मचारियों एवं सरकारी कामकाज के लिए सुगम और सरल हो।
(4) जिसे सुगमता तथा सरलता से सीखा जा सकता हो।
(5) जिसे चुनते समय क्षणिक, अस्थायी तथा तात्कालिक हितों की उपेक्षा की जाए और जो सम्पूर्ण राष्ट्र की वाणी बनने की क्षमता रखती हो।
इन मानकों पर कसने के बाद गाँधी जी का निष्कर्ष था कि ‘बहुभाषी भारत में केवल हिन्दी ही एक भाषा है जिसमें ये सभी गुण पाए जाते हैं’।
सम्वत् 1974 (सन् 1918) में इन्दौर के हिन्दी साहित्य सम्मेलन के अधिवेशन में दिया गया गाँधी जी का अध्यक्षीय वक्तव्य राष्ट्रभाषा हिन्दी के प्रचार प्रसार के लिए ‘मील का पत्थर’ है।
यहाँ इसको रेखांकित करना अप्रसांगिक न होगा कि हिन्दीतर भाषी राष्ट्रीय नेताओं ने जहाँ देश की अखंडता एवं एकता के लिए राष्ट्रभाषा हिन्दी के प्रचार प्रसार की अनिवार्यता की पैरोकारी की वहीं भारत के सभी राष्ट्रीय नेताओं ने एकमतेन सरल एवं सामान्य जनता द्वारा बोली जाने वाली हिन्दी का प्रयोग करने एवं हिन्दी-उर्दू की एकता पर बल दिया। हिन्दी के जो विद्वान क्लिष्ट हिन्दी का प्रयोग करते हैं, सामान्य जन द्वारा अपनाए गए अरबी, फारसी, अंग्रेजी शब्दों के प्रयोग पर नाक-भौंह सिकोड़ते हैं तथा हिन्दी एवं उर्दू को अलग-अलग भाषाएँ मानते हैं, उनको अपने राष्ट्रीय नेताओं के इन विचारों को ध्यानपूर्वक पढ़ना चाहिए तथा उन विचारों को आत्मसात करना चाहिए। इस प्रसंग में, मैं उदाहरणरण के लिए पंडित मदन मोहन मालवीय, पुरुषोत्तम दास टंडन एवं महात्मा गाँधी जी के हिन्दी साहित्य सम्मेलनों के अधिवेशनों के सभापति भाषणों के अंश प्रस्तुत करना चाहता हूँ :
(क) ‘जितनी भाषाएँ हैं, हमारी हैं। बंगाली हमारी भाषा, पंजाबी हमारी भाषा और गुजराती हमारी भाषा है। हिन्दी अपनी बहिनों में सबसे प्राचीनतम और बड़ी बहिन है - - - - उर्दू और हिन्दी, इन दोनों भाषाओं के रूप गाँठ बन गए हैं। अब इन दोनों को यथासम्भव एक स्थल में लाइए। इस बात के लिए यत्न करना जैसा हिन्दुओं के लिए आवश्यक है; वैसा ही मुसलमानों के लिए भी आवश्यक है। दोनों ओर से यत्न होने से हम भाषा के क्रम को बहुत कुछ एक कर सकते हैं।- - - मद्रास, बंगाल, बम्बई आदि के अनेक विद्वान देश में एक ही भाषा चलाना चाहते हैं। देश के बहुतेरे लोगों की जब ऐसी रुचि है, तब आप का भी एक कर्तव्य है। आप भी ऐसा यत्न करें, जिससे आपकी भाषा राष्ट्रभाषा होने का गौरव पाए। झगड़ों में फँसने के बदले उन्हें मिटाना चाहिए। उर्दू के प्रेमी कहते हैं कि हिन्दी भाषा उर्दू भाषा है। यही सही। यदि आप झगड़ा मिटाना चाहते हैं, तो कह दें, कि अच्छा यही सही। वह उसे एक नाम से पुकारना चाहते हैं, तो पुकारने दीजिए, उसी में उन्हें संतोष करने दीजिए। और यह कीजिए, कि हिन्दी में जो उर्दू-फारसी शब्द आ गए हैं, उनका व्यवहार कर उर्दू वालों को और भी संतुष्ट कीजिए। आपकी हिन्दी में कितने ही शब्द ऐसे हैं जो देश की बहुतेरी भाषाओं में ज्यों के त्यों या कुछ बदले हुए रूप में काम में लाए जाते हैं। आप उन शब्दों के व्यवहार में संकोच न कीजिए। हमें यह देखना चाहिए कि हमारी भाषा के शब्द ऐसे हों, जिनसे सब प्रदेश के लोग लाभ उठाएँ’।
(सन् 1910 में काशी (वाराणसी) के हिन्दी साहित्य सम्मेलन के अधिवेशन में पंडित मदन मोहन मालवीय के सभापति भाषण से)
(ख) ‘जिस भाषा में, मैं इस समय बोल रहा हूँ, वह हमारे देश की स्थानीय बोलियों से भिन्न है, किन्तु वह केवल शिष्टजनों की अप्राकृतिक नियमों से गढ़ी हुई भाषा नहीं कही जा सकती। ग्रामीण मनुष्य भी उस भाषा को पहचानता है और उसे अपनी भाषा कहता है, यद्यपि वह उसे उसी रूप में व्यवह्यत नहीं करता। हिन्दी साधारण ग्रामीण बोली न होते हुए भी किसी विशेष कार्य के लिए गढ़ी नहीं गई। वह पूर्णरूप से और अति व्याप्त और अव्याप्ति के दोषों से बचते हुए जनता की भाषा कही जा सकती है। हाँ, यदि हममें से कुछ चतुर विद्वान इस भाषा में साधारणतया और गौरव शून्यता का दोष देखकर इस प्रकार से उसका शोधन करने बैठे कि उसमें आए हुए प्रचलित शब्दों को काँट छाट कर व्याकरण के ऐसे अकाट्य नियम रखे, जिनको बिना सीखे कोई भी शिष्ट-भाषा-भाषी न कहा जा सके, तो अवश्य ऐसी ‘संस्कृत-हिन्दी’ की सूरत और दशा दूसरी ही हो जाएगी। - - - आज हिन्दी और उर्दू दो भिन्न सभ्यता की सूचक भाषाएँ बन गई हैं। उनका धार्मिक प्रोत्साहन भी भिन्न उपमाओं और रूपकों और भिन्न दिव्य पुरुषों द्वारा होता है। किन्तु वास्तव में, भाषा का आधार एक ही है और अभी यह दोनों स्रोत इतनी दूर एक दूसरे से नहीं हुए हैं कि फिर मिलकर एक प्रबल धारा में परिणत हो भारतवर्ष को अपनी शक्ति से उर्वरा कर सुसज्जित न कर दें। मुझे तो आधुनिक हिन्दी और उर्दू भाषाओं के पोषक देश-भक्तों का यही तात्कालिक कर्तव्य जान पड़ता है’।
(सन् 1922 में कानपुर के हिन्दी साहित्य सम्मेलन के अधिवेशन में श्री पुरुषोत्तम दास टंडन के सभापति भाषण से)
(ग) ‘ - - - पचास वर्ष से हम अंग्रेजी के मोह में फँसे हैं, हमारी प्रजा अज्ञान में डूब रही है। - - - अंग्रेजी सर्वव्यापक भाषा है, पर यदि अंग्रेज सर्वव्यापक न रहेंगे तो अंग्रेजी भी सर्वव्यापक न रहेगी। - - जैसे अंग्रेज मादरी जबान अंग्रेजी में बोलते और सर्वथा उसे ही व्यवहार में लाते हैं, वैसे ही मैं आपसे प्रार्थना करता हूँ कि आप हिन्दी को भारत की राष्ट्रभाषा बनाने का गौरव प्रदान करें। हिन्दी सब समझते हैं। इसे राष्ट्रभाषा बना कर हमें अपना कर्तव्य-पालन करना चाहिए। - - - भाषा वही श्रेष्ठ है जिसको जनसमूह सहज में समझ ले। - - हिमालय में से निकलती हुई गंगा जी अनंत काल बहती रहेंगी। ऐसे ही देहाती हिन्दी का गौरव रहेगा और जैसे छोटी-सी पहाड़ी से निकलता हुआ झरना सूख जाता है वैसे ही संस्कृतमयी तथा फारसीमयी हिन्दी की दशा होगी। - - हिन्दू-मुसलमानों के बीच जो भेद किया जाता है वह कृत्रिम है। ऐसी ही कृत्रिमता हिन्दी व उर्दू भाषा के भेद में है। हिन्दुओं की बोली से फारसी शब्द का सर्वथा त्याग और मुसलमानों की बोली से संस्कृत का सर्वथा त्याग अनावश्यक है। दोनों का स्वाभाविक संगम गंगा-यमुना के संगम-सा शोभित अचल रहेगा। मुझे उम्मीद है कि हम हिन्दी-उर्दू के झगड़े में पड़ कर अपना बल क्षीण नहीं करेंगे। - - भारतवर्ष में परस्पर व्यवहार के लिए एक भाषा होनी चाहिए, इसमें कोई संदेह नहीं है। - - आज भी हिन्दी से स्पर्धा करने वाली दूसरी कोई भाषा नहीं है। - - हिन्दुओं को फारसी शब्द थोड़ा-बहुत जानना पड़ेगा। इसलामी भाइयों को संस्कृत शब्द का ज्ञान सम्पादन करना पड़ेगा। ऐसे लेन-देन से हिन्दी भाषा का बल बढ़ जाएगा और हिन्दू-मुसलमानों में एकता का एक बड़ा साधन हमारे हाथ में आ जाएगा।
(सम्वत् 1974 (सन् 1918) में इन्दौर के हिन्दी साहित्य सम्मेलन के अधिवेशन में महात्मा मोहनदास कर्मचंद गाँधी के सभापति भाषण से)
दक्षिण भारत में हिन्दी की ज्योति ज्योतित करने वालों में सबसे उल्लेखनीय नाम गाँधी जी का है। इन्दौर के अधिवेशन में गाँधी जी का वक्तव्य राष्ट्र-भाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार की आधार-शिला है। गाँधी जी केवल भाषण नहीं देते थे। जो कहते थे, उसके अनुरूप आचरण करते थे। उन्होंने देश की अखंडता और एकता के लिए हिन्दी के महत्व एवं उसके प्रचार-प्रसार पर बल दिया। कांग्रेस द्वारा स्वीकृत चौदह रचनात्मक कार्यक्रमों में राष्ट्रभाषा हिन्दी के व्यापक प्रचार-प्रसार का कार्यक्रम भी समाहित था। गांधीजी का विचार था कि दक्षिण भारत में हिन्दी के प्रचार का कार्य वहाँ के स्थानीय लोग ही करें। कार्य का सूत्रपात करने के लिए गाँधी जी ने अपने अट्ठारह वर्षीय पुत्र देवदास गाँधी को स्वामी सत्यदेव परिव्राजक के साथ दक्षिण-भारत में हिन्दी का प्रचार-प्रसार करने के लिए मद्रास (चेन्नै) भेजा। बाद में इस कार्य में पंडित हरिहर शर्मा भी शामिल हो गए। पंडित हरिहर शर्मा के साथ सुब्रह्मण्यम अपनी पत्नी सहित, का. मा. शिवराम शर्मा एवं आंजनेय शर्मा आदि कुछ नवयुवक हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग हिन्दी पढ़ने के लिए आए। इन्होंने साल भर तक हिन्दी का विधिवत अध्ययन किया तथा अगस्त, 1919 में विशारद की परीक्षा पास कर, दक्षिण-भारत लौटे। सन् 1919 में ही गाँधी जी ने उत्तर भारत से कुछ नवयुवकों को हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए दक्षिण-भारत भेजा। इनमें प्रताप नारायण वाजपेयी, पंडित अवधनंदन, पंडित रघुवर दयाल मिश्र एवं पंडित देवदूत विद्यार्थी आदि शामिल थे। मैंने जब-जब दक्षिण-भारत की यात्राएँ कीं तथा वहाँ के हिन्दी के पुरोधा-प्रचारकों से भेंट कीं, सबने पंडित हरिहर शर्मा, पंडित अवधनंदन तथा पंडित देवदूत विद्यार्थी को अत्यंत श्रद्धाभाव से याद किया। सन् 1993 में दिल्ली में दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा का अमृतोत्सव समारोह आयोजित हुआ। उसका उद्घाटन तत्कालीन प्रधान मंत्री श्री पी. वी. नरसिंहराव ने किया। उन्होंने भी पंडित हरिहर शर्मा एवं श्री देवदूत विद्यार्थी के योगदान को विशेष रूप से रेखांकित किया। उनके शब्द थेः
“दक्षिण के हिन्दी-प्रचार के बारे में सोचते समय खासकर हिन्दीतर भाषी प्रदेश के हिन्दी फैलाव के बारे में सोचते समय स्वर्गीय पंडित हरि हर शर्मा, श्री देवदूत विद्यार्थी जैसे निःस्वार्थ प्रचारकों का पावन स्मरण होता है”।
गाँधी जी की प्रेरणा से हिन्दी के प्रचारकों का दल गठित हुआ। इस दल के प्रचारकों में उपर्युक्त वर्णित नामों के अतिरिक्त मोटूरि सत्यनारायण, भालचंद्र आप्टे, पट्टाभि सीतारमैया, एस. आर. शास्त्री आदि के नाम अपेक्षाकृत अधिक उल्लेखनीय हैं। इस दल ने दक्षिण-भारत के प्रत्येक भूभाग में रहकर एवं जगह-जगह जाकर हिन्दी के प्रचार-प्रसार एवं शिक्षण-प्रशिक्षण के लिए साधक का जीवन व्यतीत किया। इनकी त्याग-भावना एवं तपस्या-मूलक जीवन स्तुत्य है।
दक्षिण-भारत में स्वाधीनता के पूर्व हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए जिन संस्थाओं की स्थापना हुई, उनका परिचय निम्न हैः
1.दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा (सन् 1918)
महात्मा गांधी के हिन्दी प्रचार आंदोलन के परिणामस्वरूप दक्षिण भारत में हिन्दी प्रचार के लिए एक सभा की स्थापना मद्रास नगर के गोखले हॉल में डॉ. रामास्वामी अय्यर की अध्यक्षता में एनी बेसेन्ट ने की।
सन् 1927 में बेंगलूर (बंगलुरु) में गाँधी जी की अध्यक्षता में आयोजित अखिल कर्नाटक हिन्दी प्रचार सम्मेलन में यह अनुभव किया गया कि दक्षिण-भारत में हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग से अलग स्वतंत्र संस्था का गठन करना जरूरी है। मद्रास नगर में स्थापित हिन्दी प्रचार सभा को नवगठित संस्था का रूप मिला तथा इसका नाम “दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा” रखा गया। वहीं इसको पंजीबद्ध किया गया। इसका कार्य दक्षिण-भारत के सभी भागों में हिन्दी का प्रचार-प्रसार करना था। दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा के प्रचारक संतों की तरह जगह-जगह घूमकर हिन्दी का प्रचार-प्रसार करते थे। दक्षिण भारत के विभिन्न भागों के हिन्दी प्रेमी सभा में आकर हिन्दी का प्रशिक्षण प्राप्त करने लगे तथा प्रशिक्षित होकर अपने-अपने क्षेत्रों में हिन्दी की ज्योति प्रज्वलित करने लगे।
गांधीजी जी आजीवन इसके सभापति रहे। सन् 1920 तक सभा का कार्यालय जार्ज टाउन, मद्रास (चेन्नै) में था। बाद में मालापुर एवं ट्रिप्लिकेन में आ गया। मोटूरि सत्यनारायण के कारण त्यागराय नगर (टी. नगर) में इसका विशाल परिसर बना एवं भव्य भवन निर्मित हुए।
सन् 1932 में दक्षिण-भारत हिन्दी प्रचार सभा के चार प्रांतीय कार्यालय खोले गए। सन् 1933 में गाँधी जी विजयवाडा आए। वहाँ उनसे कुछ कार्यकर्ताओं ने यह अनुरोध किया कि आंध्र के लिए हिन्दी प्रचार की स्वतंत्र संस्था का गठन हो। सन् 1934 में गाँधी जी ने दक्षिण-भारत में हिन्दी के प्रचार-प्रसार का निरीक्षण करने तथा दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा के संविधान में आवश्यक सुधार प्रस्तुत करने के लिए काका कालेलकर को अधिकृत किया। काका कालेलकर ने दक्षिण-भारत के सभी भागों का सघन दौरा किया तथा तदनंतर दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा के संविधान में आवश्यक परिवर्तन करने तथा दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा के मद्रास मुख्यालय की चारों प्रांतों में अलग-अलग प्रांतीय सभाएँ स्थापित करने की संस्तुतियाँ कीं। सन् 1935 में तदनुसार संविधान में संशोधन सम्पन्न हुए तथा चार प्रांतीय सभाएँ स्थापित करने का निर्णय लिया गया। सन् 1936 में इन चार प्रांतीय सभाओं की स्थापना हुईः
1.आंध्रः हैदराबाद में “हिन्दी प्रचार संघ” तथा विजयवाडा में “आंध्र राष्ट्र हिन्दी संघ” काम कर रहे थे। दोनों को मिलाकर दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा की प्रांतीय शाखा के रूप में संस्था का गठन हुआ और इसका नाम “दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा, आंध्र शाखा, हैदराबाद” रखा गया।
2.तमिलनाडुः तमिलनाडु शाखा का गठन तिरुचिनापल्ली में किया गया।
3.कर्नाटकः कर्नाटक शाखा का गठन धारवाड में किया गया। बाद में इसकी प्रशाखा बेंगलूर (बंगलुरु) में खोली गई।
4.केरलः केरल शाखा का गठन एर्नाकुलम में किया गया। वर्तमान में इस शाखा का मुख्यालय कोच्चि में है। डॉ. एन. ई. विश्वनाथ अय्यर के अनुसार केरल के विभिन्न नगरों व केन्द्रों में सभा के शाखा-कार्यालय भी अपने भवनों में हैं, जैसे – कालिकट, पालघाट, केल्लम, मावेलिक्करा आदि पर सभा के अपने प्रवीण विद्यालय, विशारद विद्यालय आदि हैं। इसके अलावा अनुदान पाने वाले प्रचारक सम्बद्ध विद्यालय चलाते हैं। (केरल में हिन्दी भाषा और साहित्य का विकास, पृष्ठ 107)
इस प्रकार दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा के मुख्यालय एवं उसकी प्रांतीय सभाओं के द्वारा दक्षिण-भारत के चारों राज्यों में हिन्दी के प्रचार-प्रसार का कार्य प्रशस्त हुआ।
2. हिन्दी प्रचार सभा, हैदराबाद (सन् 1935)
हैदराबाद राज्य में हिन्दी का प्रचार-प्रसार करने के लिए साहित्यिक-शैक्षणिक संस्था हिन्दी प्रचार सभा, हैदराबाद की स्थापना की गई। सभा ने प्रतिकूल परिस्थितियों में भी हिन्दी का प्रचार-प्रसार किया। सन् 1956 से राज्यों के पुर्नसंगठन के कारण सभा में नवीन उत्साह का वातावरण बना। हैदराबाद रियासत का विलयन महाराष्ट्र, आन्ध्र एवं कर्नाटक के नए राज्यों में हो गया और इनमें सभा की शाखाएँ भी प्रस्थापित हो गईं, लेकिन मुख्यालय हैदराबाद ही रहा।
3. केरल हिंदी प्रचार सभा, तिरुवनंतपुरम (सन् 1934)
श्री के. वासुदेवन पिल्ले ने सन् 1934 में तिरुवितांकूर हिन्दी प्रचार सभा की स्थापना की। आरम्भ में यह सभा दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा की परीक्षाओं के लिए छात्रों को तैयार करती थी। सन् 1948 ईस्वी से यह सभा स्वतंत्र रूप से अपनी परीक्षाएँ (हिन्दी प्रथमा, हिन्दी प्रवेश, हिन्दी भूषण और साहित्याचार्य) संचालित करने लगी। सन् 1961 से इस संस्था का नाम “केरल हिन्दी प्रचार सभा” हो गया। इस संस्था के प्रमुख उद्देश्य केरल राज्य में राष्ट्रभाषा हिन्दी का प्रचार-प्रसार करने के लिए हिन्दी की छोटी-बड़ी सभी परीक्षाओं को संचालित करना, हिन्दी की पुस्तकें एवं पत्र-पत्रिकाएँ प्रकाशित करना तथा हिन्दी नाटकों को अभिनीत करना रहे हैं। यह संस्था हिन्दी, मलयालम और तमिल भाषाओं में सामंजस्य स्थापित करने के उद्देश्य से “राष्ट्रवाणी” नाम की एक त्रिभाषा साप्ताहिक पत्रिका का प्रकाशन करती है। इसके अतिरिक्त इस संस्था द्वारा “केरल ज्योति” नामक एक मासिक पत्रिका का प्रकाशन भी किया जाता है। सभा भवन में एक केन्द्रीय हिन्दी महाविद्यालय कार्य कर रहा है। सभा का प्रकाशन विभाग भी सुचारू रूप से चल रहा है।
4. मैसूर रियासत हिंदी प्रचार समिति, बेंगलोर (बंगलुरु) (1938)
सन् 1938 में मैसूर रियासत के हिन्दी प्रेमियों तथा प्रचारकों का सम्मेलन बेंगलोर में आयोजित हुआ जिसमें “मैसूर रियासत हिन्दी प्रचार समिति” की स्थापना मैसूर में की गई। सन् 1939 से इसका कार्यालय बेंगलोर (बंगलुरु) में कार्य कर रहा है।
5.मैसूर हिन्दी प्रचार परिषद, बंगलुरु(सन् 1945)
डॉ. पी. आर. श्रीनिवास शास्त्री के अनुसार इस संस्था का बीजारोपण तो सन् 1942 में हो गया था किन्तु पंजीयन अधिनियम के अनुसार दिनांक 9 जनवरी, 1945 को इसकी अधिकृत स्थापना हुई। इसके अध्यक्ष डॉ. डी. के भारद्वाज, प्रधान सचिव श्री आर. के. गोडबोले तथा संचालक श्री पी. आर. श्रीनिवास शास्त्री थे। (कर्नाटक में हिन्दी प्रचार की गतिविधियाँ, पृष्ठ 115-121)
इन संस्थाओं में कार्य करने वाले हिन्दी प्रचारकों एवं शिक्षकों ने हिन्दी के प्रचार-प्रसार एवं अध्यापन का कार्य समर्पण एवं निष्ठा भाव से निष्पन्न किया। इनकी संख्या हज़ारों में है। इस लेख में सबके नामों का उल्लेख करना समीचीन नहीं है। यह सत्य है कि बहुत से प्रचारकों ने किसी एक राज्य में प्रचार न करके आवश्यकतानुसार अनेक राज्यों में प्रचार-प्रसार किया तथापि यह भी तथ्य है कि अधिकांश प्रचारकों का कार्य-क्षेत्र कोई राज्य विशेष रहा। इस दृष्टि से दक्षिण-भारत के वर्तमान चार राज्यों में कार्य करने वाले अपेक्षाकृत अधिक उल्लेखनीय प्रमुख हिन्दीतर भाषी अग्रगण्य प्रचारकों के नामों का उल्लेख किया जा रहा है।
(1) तमिलनाडुः
(1) मोटूरि सत्यनारायण (आपका जन्म यद्यपि सन् 1902 में आंध्र-प्रदेश में हुआ था तथापि इनका कर्म-क्षेत्र विशेष रूप से दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा, मद्रास रहा। इनका योगदान केवल तमिलमाडु में हिन्दी प्रचार-प्रसार तक सीमित नहीं है। एक लेख में लेखक ने इनके बहु-आयामी योगदान के सम्बंध में चर्चा की हैः
रचनाकार: महावीर सरन जैन का आलेख : प्रयोजनमूलक ...
17 जुलाई 2009 ... महावीर सरन जैन का आलेख : प्रयोजनमूलक हिन्दी की संकल्पना के प्रवर्तक मोटूरि सत्यनारायण.
www.rachanakar.org/2009/07/blog-post_17.html
(2) एस. शारंगपाणि (3) बालशौरि रेड्डी (यद्यपि आपकी मातृ-भाषा तेलुगु है मगर आपका कर्म-क्षेत्र तमिलनाडु रहा है। (4) र. शौरिराजन (5) एस. चंद्रमौलि (6) सदाशिवम् (7) के. वी. रामनाथ (7) एम. सुब्रह्ममण्यम् (8) रुकमाजी राव (9) महीलिंगम् (10) पी. के. बालसुब्रह्मण्यम् (11) डॉ. एन. सुन्द्ररम्
(2) आंध्र प्रदेशः
(1) जंध्याल शिवन्न शास्त्री (2) पीसपाटि वेंकट सुब्बाराव (3) मुडुंबि नरसिंहाचार्य (4) मल्लादि वेंकट (4) सीतारामांजनेयुलु (5) दंमालपाटि रामकृष्ण शास्त्री (6) मेडिचर्ल वेंकटेश्वरराव (7) एस. वी. शिवराम शर्मा (8) भट्टारम वेंकट सुबय्या (9) आंजनेय शर्मा (10) जी. सुन्दर रेड्डी (11) बोयपाटि नागेश्वर राव
(3) कर्नाटकः
(1) शिवराम शास्त्री (2) पंडित सिद्धनाथ पंत (3) डॉ. जांबूनाथन (4) विनायक राव (4) पंडित वेंकटाचलय्या (5) के. वी. श्रीनिवास मूर्ति (5) हिरण्मय्या (6) एस. श्रीकंठमूर्ति (7) रामकृष्ण नावडा (8) एन. नागेशराव (9) लक्षम्मा देवी (10) नागोबाई (11) आर. के. गोडबोले (12) मुत्तूबाई माने (13) ना. नागप्पा (14) बी. एस. शान्ताबाई (15) एम. एस. कृष्णमूर्ति (16) तंगवेलन (17) कटील गणपति शर्मा (18) पी. आर. श्रीनिवास शास्त्री
(4) केरलः
(1) एम. के. दामोदरन उण्णि (2) पी. के. केशवन नायर (3) के. वासुदेवन पिल्लै (4) एन. वेंकटेश्वरन (5) ए. एस. दामोदरन आशान (6) सी. जी. अब्रहाम (7) लक्ष्मी कुट्टी अम्मा (8) एम. तंकम्मा मालिक (9) पी. जी. वासुदेव (10) अभयदेव (11) पंडित नारायण देव (12) पी. नारायण (13) शिवराम पिल्लै (14) ए. चंद्रहासन (15) के. भास्करन नायर (16) गोवर्धन शास्त्री (17) पंडित सी. वी. जोसेफ
मैं इन प्रचारकों को तथा इनकी प्रेरणा एवं मार्ग-दर्शन के कारण हिन्दी का कार्य करने वाले अन्य हजारों प्रचारकों को नमन करता हूँ तथा हिन्दी प्रचार-प्रसार के प्रति इनकी निष्ठा-भावना, संकल्प-शक्ति, समर्पणशीलता तथा प्रतिबद्धता को अपनी श्रद्धा अर्पित करता हूँ।
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प्रोफेसर महावीर सरन जैन
(सेवा-निवृत्त निदेशक, केन्द्रीय हिन्दी संस्थान)
123, हरि एन्कलेव, चाँदपुर रोड
बुलन्द शहर (उत्तर प्रदेश)पिन – 203 001
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