उजाले की नीयत उजाले की नीयत (कहानी संग्रह) कुबेर सर्वाधिकार ः लेखकाधीन प्रथम संस्करण ः 2009 कीमत ः 60/ रू संशोधित ...
उजाले की नीयत
उजाले की नीयत
(कहानी संग्रह)
कुबेर
सर्वाधिकार ः लेखकाधीन
प्रथम संस्करण ः 2009
कीमत ः 60/ रू
संशोधित द्वितीय वेव संस्करण ः 2013
प्रकाशक
मेघज्योति प्रकाशन
बौद्ध विहार, साधुचाल, तुलसीपूर
राजनांदगँव (छ. ग.)
मो. 9424111060
प्रकाशकीय
हिन्दी जगत में राजनांदगाँव की अपनी विशिष्ट पहचान और परंपरा रही है। कुबेर इसी परंपरा की एक सशक्त कड़ी हैं। 'भूखमापी यंत्र' कविता संग्रह के द्वारा हम उनकी प्रतिभा से परिचित हो चुके हैं। 'भूखमापी यंत्र' समकालीन कविताओं के किसी भी चर्चित संग्रह के समकक्ष है। कुबेर संभावनाओं के कवि ही नहीं, संभावनाओं के कथाकार एवं व्यंग्यकार भी हैं। वे हर क्षण आदमी से इन्सान बनने की संभावनाओं का निरंतर अन्वेषण करते प्रतीत होते हैंं
कुबेर स्वभावतः वयंग्यकार हैं। 'भूखमापी यंत्र' में व्यंग्य की जिस अंतर्धारा का हम अनुभव करते हैं, इस कहानी संग्रह में उसी अंतर्धारा को और अधिक गहनता, तीव्रता और विस्तार के साथ अनुभव करते हैं। इस लिहाज से इस संग्रह में संग्रहीत कहानियाँ, व्यंग्य के निकट होते हुए भी दिशाबोध काने में सक्षम हैं, इसलिये ये कहानी ही मानी जायेगी।
इस संग्रह में संग्रहीत कहानियाँ कोरी कल्पनाओं की उपज नहीं हैं, अपितु लेखक के अनुभव संसार का कलात्मक चित्रण हैं। लेखक का अनुभव आपका भी अनुभव हो सकता है, इसीलिये इन कहानियों को पढ़ते हुए आप अपने ही अनुभव संसार में विचरण करते हुए अनुभव करते हैं। संग्रहीत कहानियाँ केवल कहने के लिये ही नहीं लिखी गई हैं, अपितु इसमें निहित विचारों की तीव्रता पाठक को सोचने के लिये विवश भी करती है। ये पाठक के अंतर्मन की सुसुप्त संवेदनाओं पर प्रहार करने में सक्षम हैं। लेखक किसी प्रगतिशील संघ से स्पष्टतः संबंधित नहीं हे, परंतु संग्रहीत कहानियों में वे प्रगतिशीलता की शर्तों और तत्वों का स्पष्टतापूर्वक निर्वहन करते हैं।
कथ्य की भिन्नता और व्यापकता पाठक की जिासाओं को उद्दीप्त करती हैं और एकरसता के भंवरजाल से बचाती हैं। विकी का पत्र और बेबी निर्दोष है, में जहाँ बाल मन की कोमल भावनाओं का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण किया गया है, वहीं उजाले की नीयत तथा अँधेरी रेखाओं में, में स्त्री-पुरूष की आदिम यौन कुंठाओं का चित्रण किया गया है।
यद्यपि प्यार की जीत कहानी में महान् रूसी साहित्यकार अलेक्सान्द्र पुश्किन की शैली का, अन्न से अनेक में परदेसी राम वर्मा की शैली का और अँधेरी रेखाओं में, में मुक्तिबोध की शैली का प्रभाव परिलक्षित होता है फिर भी अन्य कहानियों में शिल्प की मौलिकता विद्यमान है। इस प्रकार शिल्प की दृष्टि से संग्रहीत कहानियों में पर्याप्त भिन्नता है। भाषा सहज और प्रवाहयुक्त है।
यह कृति न सिर्फ राजनांदगाँव की साहित्यिक परंपरा को पुष्ट करती है, अपितु समकालीन कथा-साहित्य को भी समृद्ध करती है।
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दिनांक ः 1 जनवरी 2009
सुरेश सर्वेद
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कुछ शब्द
- कहानी न सिर्फ मानव-सभ्यता के विकास की साक्षी है, अपितु मानव-सभ्यता को मर्यादित करने का उपक्रम भी है। यह समाज की समालोचना भी करती है।
- कहानी कथाकार के मस्तिष्क या हृदय की उपज नहीं होती, यह तो उसके अनुभव-संसार का विस्तार होती है, जिसे वह सबके साथ सब के हित में बांटना चाहता है।
- कहानी केवल साहित्य ही नहीं होती, समकालीन समाज के आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक व राजनीतिक विकास का संपूर्ण व प्रामाणिक इतिहास भी होती है।
- कहानी कभी पूर्ण व समाप्त नहीं होती। (सत्य कभी समाप्त होता।) यह तीनों कालों में व्याप्त, अविनाशी होती है।
- जिन तथ्यों, संदर्भों और समस्याओं से हम मुँह मोड़ना चाहते हैं, कहानी हमें उन्हीं तथ्यों, संदर्भों और समस्याओं से संबंधित होने के लिये विवश करती है।
- कहानी समाज के लिये कल्याणकारी मार्गों का अन्वेषणा करती है, अतः यह अन्वेषक भी होती है। यह दिव्यदृष्टि और दिव्य-शक्तियों से युक्त होती है।
- कहानी सहृदय को आह्लादित ही नहीं आंदोलित भी करती है।
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कुबेर
मो. 9407685557
दिनांक - 1 जनवरी 2009
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उजाले की नीयत
अनुक्रम
क्र. शीर्षक पृष्ठ क्र.
01 अँधेरी रेखाओं में 08
02 पुलिस का छापा 15
03 स्वर्गकी नियति 20
04 उजाले की नीयत 28
05 बेबी निर्दोष है 36
06 विकी का पत्र 46
07 स्वर्ग सुख 55
08 मुखौटों वाली संस्कृति 58
09 प्यार की जीत 65
10 अन्न से अनेक 71
11 दूसरा सिंदूर 79
12 भगवान विष्णु का अज्ञातवास 87
13 भगत जी पर भगवद्कृपा 98
14 तिरोहन 105
15 गुरूजी का सच 109
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1 अँधेरी रेखाओं में
किसी विचार वीथी या अनमोल वचन स्तंभ के अंतर्गत मैंने यह पढ़ा था कि - 'पान खाओ, लेकिन पान मत करो।' मैंने इस वाक्य को गुरूमंत्र मानकर आज तक पान नहीं किया। लेकिन पान खाना मेरी दिनचर्या का वैसे ही अनिवार्य अंग बन चुका है, जैसे झूठे वादे करना किसी नेता की दिनचर्या का अंग। कोई चाहे पान खाने के लाख हानिकारक प्रभावों का वर्णन करे और मैं पान खाने के किसी एक गुण का भी बखान न कर सकूँ, तब भी मुझे दुनिया वालों की (और घर में बीवी की भी) कोई परवाह नहीं है। वैसे ही, जैसे - कुत्ता भौंके हजार, हाथी चले बाजार। इस दृष्टि से मुझमें और नेता में चाहे अधिक अंतर न मालूम पड़े, पर आप विश्वास रखें, मैं इस श्रेणी का प्राणी कतई नहीं हूँ।
कई सालों के शोध के पश्चात् मैंने पान खाने के कम से कम दो फायदों का पता लगाया है। प्रथम यह कि सुबह-सुबह एक रूपिया का पान खाकर अक्षतयोनीबाला सी समाचार पत्र की नई प्रतियों को विक्षत करने का अधिकार प्राप्त कर लेना। द्वितीय यह कि पान ठेला महज पान ठेला ही नहीं होता है, यह एक सांस्कृतिक मंच भी होता है, जहाँ समाज के विभिन्न वर्ग के लोग आपस में मिलते हैं और सामाजिक, आर्थिक, राजनीति तथा साहित्य जैसे गूढ़ विषयों पर अपने विचारों का आदान-प्रदान करते हैं। देश की बहुमुखी प्रगति का पूर्ण विवरण यहाँ सहज, सुलभ हो जाता है, अर्थात यूँ कहें कि पान खाने से सामान्य ज्ञान कोश में वृद्धि होती है तो कोई अतिशयोक्तिपूर्ण कथन नहीं होगी।
ठंड का मौसम समाप्ति पर था। फरवरी महीने का अंतिम सप्ताह चल रहा था। घर के अंदर भले ही पंखा चलाकर सोना पड़े पर बाहर सड़कों पर बिना शॉल, स्वेटर तथा मफलर के ठंड सहन-क्षमता से परे हो जाती है। नियमतः उस दिन भी मैं रात्रि-भोजन के पश्चात् पान खाने की इच्छा से चौक वाले पान ठेले पर अकेला, टहलता हुआ चला आया। पान ठेले को ढेलू राम ने दुल्हन की तरह सजा रखा था। छत पर शीशे की कारीगरी, ग्राहकों के सामने वाली दीवार को लगभग पूरा ढंकता हुआ एक बड़ा सा चौकोर शीशा तथा चारों दीवारों पर आयत बनाते हुए चार ट्यूब लाईटें; छत पर हरे, नीले, पीले व लाल बल्बों की चौकड़ी अलग। व्यवस्थित ढंग से सजे हुए सिगरेट्स व बीड़ी के विभिन्न ब्राण्स, माचिस के बण्डल्स, विभिन्न प्रकार की अगरबत्तियों के आर्षक पैकेट्स, तम्बाकू के डिब्बे, पेन कंघी, साबुन आदि अति आवश्यक सामग्रियाँ अपनी-अपनी चमक अपने-अपने ढंग से बिखेर रहे थे। इन सबके मध्य में बैठा था, पान की चुनी हुई पत्तियों पर चूने और कत्थे की डंडियाँ घुमाता हुआ ढेलू राम।
सुबह का समय होता तो ढेलू राम हाथ का उपयोग किए बगैर, बंदर के समान सिर को एक विशेष मुद्रा में, झटके के साथ नीचे झुका कर कहता 'नमट्कार गुरूदेव'।
पान के बीड़े से मुँह भरा होने के कारण वह कभी भी शुद्ध उच्चारण नहीं कर पाता और हमेशा 'नमट्कार गुरूदेव' ही कहता, लेकिन अभ्यस्त होने के कारण मैं हमेशा नमस्कार गुरूदेव ही सुनता। इस प्रकार का अभिवादन वह आज भी, प्रातः कर चुका था, अतः इस समय उन्होंने केवल पीक-भरी मुस्कुराहट के साथ मेरा स्वागत किया और कुछ ही क्षणों के पश्चात् पान का एक बीड़ा मेरे हाथों में थमा दिया।
शर्मा जी जो कि स्थानीय हायर सेकेण्ड्री स्कूल में हिन्दी और संस्कृत विषय लिया करते थे, और जो सदैव पी.-एच. डी. करने का स्वप्न देखा करते थे, पहले ही ठेले के सामने पड़ी अपाहिज बेंच पर अपनी छः वर्षीय कथित कश्मीरी शॉल को ओढ़े बैठे प्रातःकालीन अखबार में प्रकाशित सामग्रियों की, बाल की खाल निकालने में व्यस्त थे। उनके अनुसार, प्रसाद, पंत और निराला की छायावादी तथा मुक्तिबोध की प्रगतिवादी साहित्य से संबंधित उनके व्याख्यान को मेरे अलावा कोई दूसरा समझ ही नहीं सकता था, अतः मेरे मिलते ही वह प्रसाद और पंत की छायावाद, मुक्तिबोध की प्रगतिवाद और निराला के काव्य की स्वच्छन्दतावादी प्रवृत्तियों पर समन्वित रूप से आलोचनात्मक-समालोचनात्मक व्याख्यान देना प्रारंभ कर देता। मैं भी बिना कुछ समझे, समझने का स्वांग भरता हुआ, उनकी हाँ में हाँ मिलाता हुआ, उनका व्याख्यान सुनता-सहता रहता, अथवा सुनने का उपक्रम करता रहता। न तो मैं, उसके मन में मेरी समझ को लेकर जो विश्वास बनी हुई थी, उसे तोड़ना चाहता था और न ही इस विषय पर अपनी अज्ञानता ही जाहिर होने देना चाहता था, अतः यह स्वांग बेहद जरूरी था। परंतु आज उनको अखबार के कालमों में खोया देख कर मैंने मन ही मन भगवान को धन्यवाद दिया। डेढ़-दो घंटे की सिरदर्दी व्याख्यान को सुनने से बच पाने और जल्दी घर वापस लौट पाने की प्रत्याशा में मैं मन ही मन पुलकित हो रहा था। तभी मेरी उम्मीदों पर घड़ों पानी फेरते हुए शर्मा जी शुरू हो गये। अखबार में छपी एक कविता की ओर इशारा करते हुए शर्मा जी भभक उठे - ''अरे, यह भी साली कोई कविता है? लिखते हैं -
'सरल,
समानांन्तर, और
आड़ी-तिरछी रेखाएँ;
उलझे हुए परस्पर,
जिसमें से उभर-उभर आती है,
प्रतिक्षण एक नवीन आकृति ।
एक के बाद दूसरी
आकृतियों का उभरना,
फिर मिटना
(एक सिलसिलेवार घटना)
परंतु इसके पूर्व कि -
मैं वांक्षित आकृति उभरती देख पाता
व्याप्त हो जाता है घोर तमस,
और बन जाता है वह वातावरण
जो सिनेमा हॉल में हो जाता है निर्मित
अचानक लाइट के गुल हो जाने पर।'
महोदय, सुना आपने। अरे! बाल की खाल भी निकल आए, लेकिन भला कोई इसका अर्थ निकाल सकता है?'' और घोर हिकारत के साथ नकारात्मक ढंग से अखबार के उस पन्ने को मोड़कर, एक ओर फेंक कर, पान की पीक की पिचकी मार कर तथा खखार कर गला साफ करने के बाद वे अपने पारंपरिक ढर्रे पर आ गये। इधर मेरे दिमाग पर जैसे हथौड़े बरसने लगे। मेरी समझदारी इसी में थी कि यह सब मैं निःशर्त, निष्काम भाव से सहता चला जाऊँ। अपनी पीड़ा कम करने के उद्देश्य से मैं अकारण इधर-उधर ताकने लगा।
स्ट्रीट लाईट के सामने वाले पोल की ट्यूब लाईट कई दिनों से फ्यूज पड़ी थी, जिसके कारण वहाँ पर कुछ अँधेरा छाया रहता था। यह कोई नई बात नहीं थी। लेकिन खंभे के नीचे गुदड़ी में लिपटी एक मटमैले ढेर पर मेरी निगाहें अटक गईं। मैंने सोचा, संभवतः कोई भिखारी होगा जो मैले-कुचैले, फटे-पुराने कपड़ों से ठंड और अपने शरीर के मध्य अभेद्य दीवार खड़ी न कर सकने की स्थिति के कारण स्वयं सिर-घुटने मिलाकर गुटमुटाया हुआ ढेर हो रहा है। उस ढेर के अंदर कोई पुरुष ही होगा, यह कह पाना कठिन था। चाहे जो हो, शर्मा जी द्वारा अभी-अभी अखबार में से उद्धरित वह कविता अचानक मेरे मस्तिष्क में जीवंत हो उठी।
अपने विचारों में न जाने मैं कब तक खोया रहा। मेरी तंद्रा जब टूटी, शर्मा जी और वर्मा जी के बीच किसी विषय को लेकर तीखी झड़प छिंड़ी हुई थी, जैसे पानीपत की लड़ाई छिंड़ी हो। कुछ समय पश्चात् ही मैं समझ सका कि बहस देश की अर्थव्यवस्था पर छिंड़ी हुई थी। वर्मा जी की अर्थशास्त्रीय व्याख्याएँ मेरी समझ से परे का विषय था। ऊपर-ऊपर की जो बातें मेरी समझ में आई उसका सारांश यूँ था -
वर्मा जी के अनुसार विगत चार दशकों में देश के अंदर हर क्षेत्र में काफी विकास हुआ है। गरीबों की भलाई के लिये बहुत कुछ किया गया है, और अब आम आदमी का जीवन-स्तर पहले से काफी ऊँचा उठ चुका है। जनसंख्या विस्फोट के बावजूद इतना सब कुछ हो पाना एक बड़ी उपलब्धि है।
शर्मा जी इस तर्क का पुरजोर खंडन करते हुए खंभे के नीचे सोये उस भिखारी की ओर इशारा करते हुए कहने लगे - ''क्या हमारे देश की आर्थिक विकास का यह जीवंत पहलू भी आप झुठला सकते हैं? कहिये।''
वर्मा जी को सामने की वह सच्चाई देखकर कोई उपयुक्त तर्क नहीं सूझ पाया होगा और वे चुप रहने पर विवश हो गये। शर्मा जी के मुख-मंडल पर विजयी आभा दमकने लगी।
शर्मा जी और वर्मा जी की इन दलीलों को शायद वह ढेर भी ध्यान से सुन रहा था। अब, जबकि यह बहस समाप्त हो गई थी, शायद उसने अपनी प्रतिक्रिया जाहिर किया था। अचानक उसमें एक हरकत हुई और जोर से खखारने के बाद पच्च से ढेर सारा बलगम बगल में थूँक कर वह पुनः गुटमुटा गया। शायद समाज, सरकार और हम जैसे तथाकथित बुद्धिजीवियों के प्रति वह अपना तिरस्कार प्रगट करना चाहता हो। मुझे लगा, उसके थूँक में से ढेर सारे छींटें उड़कर हम सबके चेहरों पर आ पड़े हों। तथाकथित सभ्य समाज पर यह शायद उसका प्रहार था। मेरा मन अवसाद से भर उठा। झण भर के लिये हम सब सहम गये। उसके खखार की आवाज से मैंने अनुमान लगा लिया था कि वह मर्द नहीं औरत थी। खुले आसमान के नीचे अभिभावकहीन किसी औरत का खयाल आते ही मेरा मन विचलित होने लगा। इधर, इस इलाके में कई दिनों से मैंने किसी भिखारन को देखा नहीं था, लिहाजा मेरा जिज्ञासु मन, या सही मानों में मेरे मन की अतृप्त वासना, उसके वय, रंग-रूप, यौवन आदि की कल्पनाओं में खो गया। अपनी गिरी हुई इस हरकत पर मैंने स्वयं पर लानत भेजी। मेरा मन अब उखड़ चुका था।
मौन तोड़ते हुए एकाएक अग्रवाल जी शुरू हो गये। उनके साथ हम सब विधानसभा भवन तथा संसद भवन के गलियारों के चक्कर न जाने कब तक लगाते रहे। राजनीतिक चर्चाएँ बराबर होती रहीं। परंतु चाह कर भी और कोशिश करके भी मैं अपना ध्यान उस ढेर पर से हटा नहीं पा रहा था।
एक मरियल, आवारा कुत्ता दुम हिलाता और कूँ, कूँ करता हुआ आकर उस ढेर से सटकर पसर गया। ढेर को कोई आपत्ति नहीं हुआ। उसे निश्चित रूप से ऊष्णता की आवश्यकता थी और वह उसे किसी भी कीमत पर प्राप्त करना चाहता था, चाहे वह कुत्ते के शरीर से ही क्यों न हो। उसे रेबीज का भी भय नहीं था।
पान ठेला बंद होने का समय हो चुका था। ग्राहक छँट चुके थे। धीरे- धीरे हम सब भी खिसकने लगे। निराला पर शोध करने वाले शर्मा जी से न तो अपनी छः साल पुरानी तथाकथित कश्मीरी शॉल उस भिखारिन को ओढ़ाते बना और न ही पार्लियामेंट में गरीबों के उत्थान के लिये योजनाएँ बनाने वाले अग्रवाल जी के मन में आया कि वह उस भिखारिन को पापुलर का एक पैकेट ही ले जाकर दे दे। अर्थशास्त्री वर्मा जी निश्चित् रूप से इस समस्या का हल मार्क्स आदि अर्थशास्त्रियों के सिद्धातों में ढूँढने लग गए होंगे।
चार साल की तैयारियों के बाद फुटपाथी तिब्बतियों की दुकान से खरीदी अपनी नई शॉल को मैंने भी तह करके अपने बगल में दबा लिया। शायद मुझे अपनी ही भावुकता से भय होने लगा था। मैं उस ठंड का अनुमान लगा रहा था, जिसका उस भिखारिन ने आज तक सामना किया था, जिसका सामना आज भी वह करेगी और अभी आने वाली कई रातों तक करती ही रहेगी।
सुबह-सुबह मेरी पत्नी बाहर गली में किसी पर बिगड़ रही थी। शोर से मेरी नींद टूट गई। रजाई के बाहर झाँकते हुए मैंने देखा - रूग्ण, क्षीणकाय और अधेड़ वय में ही बूढ़ी हो चुकी एक भिखरिन एल्युमिनियम का पिचका हुआ कटोरा लेकर दरवाजे पर बैठी खाँस रही थी। उसके चेहरे पर नवागत सूर्य की सुनहरी किरणें पड़ रही थी। मुझे रात का लैंप पोस्ट वाला वह दृश्य स्मरण हो आया। भिखारिन को प्रत्यक्ष देख कर मैं सहम गया। मुझे लगा कि उसके इस हालत के लिये औरों के अलावा मैं भी जिम्मेदार हूँ। मैंने भी उसके हिस्से का रोटी, कपड़ा और मकान उससे छीना है। उससे नजरें मिलाने की मुझमें हिम्मत नहीं हुई और मन में आये इस अपराध बोध को छिपाने के लिये स्वयं को मैंने रजाई में छिपा लिया।
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2 पुलिस का छापा
मुखबिर ने हवलदार के कान में फुसफुसाते हुए कहा - ''सा'ब, वो रही वह जगह, नाले के पास, बेशरम की झाड़ियों में।''
हवलदार ने मुखबिर के जमीन के समानांतर उठे हुए हाथ की तर्जनी की दिशा में देखने का प्रयास करते हुए दबे स्वर में, धीरे से पूछा - ''अबे, किधर?'' आवाज में तीव्रता नहीं थी पर रौब तो था ही।
''हाँ, सा'ब वो देखो, रोशनी टिमटिमा रही है न, वहीं।''
अब की बार शायद हवलदर साहब ने भी वह टिमटिमाती रोशनी देख ली थी। आश्वस्त होकर सिर हिलाने लगा। ''हूँ..... तो यहाँ जमे हैं मा ....द .. लोग।'' एक गंभीर पुलिसिया गाली से उन्होंने अपनी आश्वस्ति प्रमाणित की।
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मौका पाकर मुखबिर वहाँ से खिसक गया। पुलस ने भी इसका कोई नोटिस नहीं लिया, उसका मतलब तो सध चुका था। आधी रात का समय। दीवाली की रात। पुलिस गस्ती दल अपनी ड्यूटी पर थी। शहर के बाहर खेतों के आगे एक नाला है। मुखबिर की निशानदेही पर वे वहाँ पहुँचे थे। मुखबिर की सूचना पर अब उन्हें पूर्ण इत्मिनान हो चुका था। क्यों न हो?
दीपावली के पूर्व लिये अग्रिम वेतन और बीवी के गहने इस फड़ में हार जाने के बाद ईर्ष्यावश उस व्यक्ति ने पुलिस में जाकर मुखबिरी की थी।
जुआरी अक्सर ऐसे ही होते हैं।
पुलिस गस्ती दल में हबलदार साहब के अलावा पुलिस का एक सिपाही और नगर-सेना के दो जवान थे। हबलदार साहब कमान संभाले हुए थे। योजना बनी कि कुछ दूर आगे बढ़ने के पश्चात् एक जवान दाएँ से, दूसरा जवान बाएँ से और सिपाही दाएँ वाले जवान के साथ कुछ दूर चलकर सामने की ओर से हमला करेगा। हबलदार स्वयं सीधा चलेगा। घेराबंदी चारों ओर से, मुस्तैदी के साथ होना चहिये। ध्यान रहे, जरा भी आवाज नहीं होना चाहिये।
योजना अनुसार सबने अपना-अपना मोर्चा संभाल लिया। सिपाही ने साथी जवान के साथ कानाफूसी की - ''मूर्ख समझता है हम लोगों को? हम लोग दूर से घेरा बनाकर आएँ, ताकि वह खुद हमसे पहले पहुँच कर सारा माल हथिया ले। चल उधर से तू आ, इधर से मैं चलता हूँ।''
जुआरियों की घ्राण शक्ति शायद कुत्तों के समान होती होगी। पुलिस की गंध बखूबी भांप जाते हैं। जवान फड़ तक पहुँचे भी नहीं थे और वहाँ हड़कंप मच गई। किसी ने ढिबरी फूँकी और जिसके हाथ में जो आया, समेट कर सौ मीटर दौड़ की प्रतियोगिता के लिये दौड़ पड़े।
आगे-आगे जुआरी और पीछे-पीछे उन पर टॉर्च की रोशनी फेकते जवान। गजब की स्टेमिना होती है दोनों में। बाएँ वाले जवान के हिस्से में कार्ल लुईस का चेला आया था। दौड़ते-दौड़ते जवान की साँसें फूलने लगी। जुआरी को अपनी स्टैमिना पर विश्वास था। अब तक पुलिस के किसी जवान ने उसकी बराबरी नहीं की थी। जवान से अब दौड़ा नहीं जा रहा था। जुआरी को धर दबोचने में विफल हो जाने पर उसे कोई शर्मिंदगी नहीं होने वाली थी। फिर भी अपनी जान की बाजी लगाकर वह उसके पीछे दौड़ रहा था। इसे उसकी देशभक्ति समझने की भूल आप न करें। उसके लिये यह पुलिस की पे्रस्टिज का सवाल नहीं था, सरकारी काम के लिये भला कौन साला अपनी जान आफत में डाले? सवाल यहाँ पैसों का था, जो उस जुआरी से मिलने वाला था। बच्चों के लिये पटाखों और कपड़ों की व्यवस्था करना जरूरी था। पर यह क्या, न घोड़ी रुक रही थी, न दूल्हा उतर रहा था। रेस जारी था।
जवान इससे पहले ऐसे जीवट जुआरी के पल्ले कभी नहीं पड़ा था। पैर जैसे दो-दो मन भारी हो गए थे। कदम लड़खड़ाने लगे थे। अब गिरा तब गिरा, परंतु किस्मत ने साथ दिया। जुआरी का पैर संभवतः किसी गड्ढे पर पड़ गया होगा। वह क्रिकेट के फील्डर की तरह गोता खा गया। दूसरे ही क्षण जवान के हाथ उसकी गिरेबान में था।
कुछ क्षण दोनों ही हाफते खड़े रहे। बोल सकने लायक ऊर्जा किसी में शेष नहीं थी। साँसों के कुछ व्यवस्थित हो जाने के बाद जवान को अपने पुलिसिया कर्तव्य का स्मरण हो आया। इतना दौड़ लगाने के लिये मजबूर किया गया था, सो गुस्सा अलग। जवान के प्रशिक्षित और अभ्यस्त हाथ-पैर अब जुआरी के शरीर पर चलने लगे थे। मुँह से पुलिसिया वेद मंत्रों की जाप अलग चल रही थी। रही-सही ऊर्जा जब खतम हो गई, बेवजह दौड़ की वजह से पैदा हुआ गुस्सा भी जब ठंडा पड़ गया, और जुआरी की अकड़ भी जब खतम हो गई तब कहीं जाकर जवान ने समझा कि उन्होंने अपना आधा कर्तव्य निभा लिया है और अब आगे की कार्यवाही करना चाहिये।
जवान ने एक गंभीर पुलिसिया आप्त वचन से शुरू करते हुए कहा - ''ला बेटा निकाल, माल कहाँ रखा है। नहीं तो सड़ा दूँगा साले जेल में।''
जुआरी ने गिड़गिड़ते हुए कहा - ''नहीं है साहब, मैं तो पूरा हार गया। बचा-खुचा वहीं रह गया। देख लो ये जेब, ये लो, ये लो।'' उसने अपनी सारी जेबें उलट दी।
जवान का एक और तमाचा जुआरी के गाल को झनझना गया। - ''बनाता है साला, निकाल वर्ना ......।''
''सच कहता हूँ सा'ब! सिर्फ पाँच रूपिये बचे हैं, ये लीजिये।'' जुआरी ने आत्म-समर्पपण करते हुए कहा।
फिर से एक भरपूर तमाचा जड़कर जवान ने कहा - ''पाँच रूपये दिखाता है साला।'' और न जाने जुआरी के कपड़े के किस गुप्त जेब में से मुड़े-तुड़े मुट्ठी भर नोट निकालकर अपनी जेब में ठूसते हुए उसने कहा - ''हमको बनाता है साला।''
जुआरी गिड़गिड़ाता रहा, कलपता रहा - ''सा'ब, मेरे बच्चे भूखों मर जायेंगे सा'ब। कल दीवाली है सा'ब।'' जिसके अंदर संवेदना हो, वह भी कैसा पुलिस वाला? जवान के ज्ञानेन्द्रियों के सभी दरवाजे किसी भी संवेदना के लिये पूरी तरह बंद हो चुके थे।
जुआरी के शरीर में और किसी गुप्त जेब की प्रत्याशा में जवान के हाथ चलते रहे, और जब और कुछ भी मिलने की कोई उम्मीद न रही तब जुआरी को अपनी पकड़ से मुक्त करते हुए और लगभग परे ढकेलते हुए, उसने धमकाकर कहा - ''भाग साले यहाँ से।''
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जवान की सारी थकान जाती रही। शरीर हल्का होकर जैसे हवा में उड़ने लगा। मन में लड्डू फूटने लगे। आज की मेहनत सार्थक जो हुई थी। दीपावली आराम से मनेगी अब। बच्चों के कपड़ों और पटाखों के लिये अन्य जुगाड़ करने की अब काई जरूरत नहीं रही। परंतु चेहरे पर उभर आए मन की खुशियों की तरंगों को दबाते हुए, और असफलता जनित निराशा और थकान का मुखौटा लगाते हुए वह मिलन हेतु पूर्व निर्धारित स्थल की ओर रवाना हुआ। रास्ते में उनके दोनों साथी भी मिल गये। एक ने पूछा - ''क्यों भाई, कितना झटके?'' कुछ हाथ लगा?''
''अब तुमसे क्या झूठ बोलना यार। पता नहीं, कहाँ गायब हुआ साला। मिला ही नहीं, फिर झटकना कैसा? तुम अपनी बताओ।'' पता नहीं, जवान की अवाज हताशा और निराशा की न जाने कितनी गहरी खाई से निकलकर आ रही थी।
''अरे मिया! जो हालत तुम्हारी, वही हमारी। साला ऐसा बोगस रेड तो कभी नहीं गया।'' पहले वाले की हताशा और निराशा की गहरी खाई से भी अधिक गहरी खाई से निकलने की कोशिश करता हुआ दूसरे जवान ने कहा।
तीसरे ने भी उन दोनों का ही अनुशरण किया।
फड़ वाली जगह से शायद कुछ बरामद हो जाय, इस प्रत्याशा में तीनों उसी ओर चल पड़े। संभावनाएँ बहुत थी। लेकिन उम्मीदों पर पानी फिर गया। मुंशी जी पहले से ही वहाँ मुस्तैद नजर आये।
मुंशीजी ने देखा, मुजरिम एक भी पकड़ा नहीं गया है। मतलब साफ है। लंबे हाथ पड़े हैं। गब्बर की तरह बरस पड़ा वह - ''क्यों, चले आये खाली हाथ? तीन-तीन मिलकर एक भी नहीं पकड़ सके?''
इसके पहले कि मुशी जी आगे और कुछ कहता तीनों ने अपनी-अपनी मुट्ठियाँ उसकी ओर बढ़ दी। मुंशी जी की बोलती वहीं की वहीं बंद हो गई।
अब तो चारों हँसते हुए, और एक-दूसरे को दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएँ देते हुए अपने डग्गे की ओर चल पड़े।
उनकी भाषा में रेड पूरी तरह सफल रहा। पर पुलिस रिकार्ड में इसका उल्लेख आपको कहीं नहीं मिलेगा।
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3 स्वर्ग की नियति
मैं जिस शहर में जन्मा, पला-बढ़ा उसका नाम स्वर्ग हैै, अतः चाहें तो आप मुझे स्वर्गवासी कह सकते हैं। देवता भी स्वर्ग में बसते हैं, पर वे स्वर्गवासी नहीं कहलाते। मैं और मेरे शहरवासी, चूँकि देवता नहीं हैं, अतः आप हमें निःसंदेह स्वर्गवासी कह सकते हैं। परंपरानुसार लोग मर कर ही 'स्वर्गवासी' उपाधि से विभूषित होते हैं, पर हमारे अहोभाग्य कि हम जीते-जी इस उपाधि के हकदार हो गए हैं।
आज के पहले मुझे इस बात की जानकारी नहीं थी कि मैं स्वर्गवासी हूँ। भला हो नगर निगम वालों का, जिनके विज्ञापन से मुझे इस बात की जानकारी हुई। शहर के मध्य, चौराहे पर, विज्ञापन तख्त में बड़े-बड़े गुलाबी अक्षरों में लिखा हुआ है, 'आप स्वर्ग में हैं।'
मेरे इस स्वर्ग में कई प्रकार, कई जाति-धर्म और कई सम्प्रदाय के लोग रहते हैं। पर यहाँ इन्सान भी रहते हैं, इसकी जानकारी मुझे नहीं है। यहाँ के लोग स्वयं को अधिकारी, व्यापारी, नेता अथवा संत-मौलवी आदि कहलाना पसंद करते हैं, परन्तु इन्सान कहलाना शायद वे अपनी शान के खिलाफ समझते हैं। अतः नगर निगम को चाहिए कि एक विज्ञापन तख्त और लगाए, जिसमें लिखा हो कि - 'आप इंसानों के शहर में हैं', ताकि लोग जान सकें कि कुछ भी होने के पहले वे इन्सान ही हैं। पर ऐसा करने का दुःसाहस शायद उसमें नहीं है।
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पिछले कुछ वर्षों से रोजगार के सिलसिले में मैं बाहर रहा करता हूँ और अपने इस स्वर्ग में आना कभी कभार ही होता है। आज इस शहर में कदम रखते ही सबसे पहले इसी विज्ञापन तख्त को देखा। देखकर सुखद अनुभूति हुई। आज से पहले इस प्रकार की तख्ती मैंने यहाँ नहीं देखी थी। नगरवासियों का यह नूतन प्रयोग था।
मैं विचारों में खोया, थैले को एक हाथ से दूसरे हाथ में बदलता, राज-मार्ग केे बाईं ओर पैदल चला जा रहा था। मार्ग निःसंदेह विभिन्न प्रकार के मोटर वाहनों, रिक्शा, सायकिल, पैदल चलने वालों और आवारा मवेशियों से खचाखच भरा हुआ था। सौहार्द्रपूर्ण सहअस्तित्व वाली इस प्रकार की जीवनशैली यहीं संभव है। पशु और मनुष्य में यहाँ कोई भेद जो नहीं है। कुछ-कुछ मामलों में तो पशु ही इन्सानों से श्रेष्ठ माने जाते हैं। इस पर तो हमे लानत भेजनी चाहिये, और चुल्लू भर पानी में डूब मरना चाहिये, परंतु परंपरा अनुसार हमें गर्व ही होता है। हमारी महान् संस्कृति का ऐसा उदाहरण मिलेगा भला और कहीं?
लोगों को, परस्पर धकियाते हुए दूसरों से आगे निकल भागने की जिद के अलावा और कुछ सूझ नहीं रही होगी। पर मैं इन सबसे बेखबर विचारों में खोया, अपने ही धुन में धुत, घर की ओर बढ़ा जा रहा था। उस व्यस्त मार्ग पर भी मैं बिलकुल अकेला था। मुझे शर्मा जी की भी कोई सुध नहीं थी जो बराबर मेरे साथ ही चले आ रहे थे। मेरी चुप्पी शर्मा जी को शायद अखर रही थी। उसने कहा - ''कहो जनाब कहाँ खो गए?''
होश संभालते हुए मैंने कहा - ''क्या आपको मालूम हैं कि आप स्वर्ग नामक इस शहर में हैं?''
''हाँ, क्यों?''
''तब आपको यह भी मालूम होगा कि आप इन्सानों के नहीं, देवताओं के शहर में हैं।''
शर्मा जी ने हो... हो... की हँसी में बात टाल दी।
सड़क पर जा रहे एक रिक्शे की ओर इशारा करते हुए मैंने फिर सवाल किया - ''क्या आप उस रिक्शे को खींच रहे मरियल आदमी और उस पर सवार उस तोंदियल व्यक्ति के बीच संबंध बता सकते हैं?''
शर्मा जी मेंरे इस तमतमाये हुए तेवर की शायद जानबूझकर उपेक्षा करना चाहते थे, लिहाजा उपेक्षापूर्ण लहजे में उसने कहा - ''निःसंदेह, वह आदमी जिसे आप मरियल कह रहे हैं, रिक्शा वाला है और वह तोंदियल पैसे वाला कोई ग्राहक हैं। वह मरियल अपने बीवी-बच्चों के लिये अपना खून सुखाये जा रहा है।''
मैंने शर्मा जी को बीच में ही रोकते हुए कहा - ''नहीं जनाब, मैं आपसे सहमत नहीं हूँ। वह मरियल हमारी नजरों में निःसंदेह मनुष्य है, पर उस तोंदियल की नजरों में पशु से भी गया बीता प्राणी है। लेकिन सच तो यह है कि उस तोंदियल से बड़ा पशु शायद ही और कहीं हो।''
शर्मा जी ने मेरा प्रतिवाद करना चाहा, लेकिन उसे बलात् रोकते हुए मैंने आगे कहा - ''सच तो यह है जनाब कि इन जैसे लोगों ने ही रिक्शा खींच रहे उस आदमी और उसके समान असंख्य लोगों के हक, अपनी तोंदों तें दबा कर बैठे हुए हैं। गरीबों को पशुवत् कार्य करने के लिए मजबूर करके अपने महलों को उनके खून-पसीने से चमका रहे हैं।''
मुझे बीच में ही अपना ढर्रा बंद करना पड़ा क्योंकि हम उस चौराहे पर आ चुके थे, जहाँ से हमारे रास्ते अलग-अलग दिशाओं की ओर जाते हैं। एक दूसरे से विदा लेकर हम अपने-अपने घर की ओर चल पड़़े। मुझे अपनी भड़ास न निकाल पाने के कारण झुंझलाहट हो रही थी। शर्माजी मुझसे पिण्ड छूट जाने के कारण निश्चित ही खुश हो रहे होंगे।
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मुहल्ले में सन्नाटा पसरा हुआ था। लोग सामान्य ढंग से ही सड़कों पर आ जा रहे थे, पर सामान्य चहल-पहल का अभाव था। होटलों की भट्ठियाँ पहले जैसे ही दहक रहे थे, चाय बनाई जा रही थी, पकौड़े तले जा रहे थे, ग्राहक भी चाय की चुस्कियाँ ले रहे थे, पर उनके बीच चुटीले संवादों का अभाव था। लोग केवल मतलब की ही बात कर रहे थे। बच्चे गलियों में खेल जरूर रहे थे पर उनमें उत्साह नहीं था। एक अजीब तरह का तनाव वातावरण को असामान्य बना रहा था। चलते हुए मैं उस चौक तक आ पहुँचा था जहाँ ठेलू राम का पान ठेला पड़ता है। निकट पहुँचने पर ठेलू राम ने मेरा अभिवादन किया और पान की पत्तियाँ चुनने में फिर व्यस्त हो गया। पहले सा गर्मजोशी नहीं दिखाई दिया। बेंच पर बैठे अन्य परिचित लोगों से दुआ-सलाम करते हुए मैं आगे बढ़ गया।
अभी भी मैं अपने घर से आधा पर्लांग दूर था। मुहल्ले में छाये सन्नाटे से मेरा मन उद्विग्न होने लगा था। बाईं ओर की जमीन एक अर्से से बंजर पड़ी हुई थी। वहाँ अब सरकारी इमारतों का निर्माण प्रगति पर था। मेरे मन में अचानक एक प्रश्न कौंध गया। क्या इस दुनिया में सभी लोग अन्न खा कर संतुष्ट हो जाते हैं? और उतनी ही तीव्रता से इस प्रश्न का प्रतिवाद भी हुआ - ''नहीं।'' बहुत सारे ऐसे लोग भी हैं जिन्हे अन्न से संतुष्टि नहीं मिलती। ये ईंट, सिमेंट और कंक्रीट खाये बिना जीवित नहीं रह सकते। इन्हें पीने के लिए पानी नहीं गरीबों का खून चहिए। कुछ लोग केवल पैसों से अपनी क्षुधा शांत करते हैं। ये लोग केेवल पैसा खाते हैं, पैसा ही पीते हैं पैसों पर सोते हैं और पैसों पर ही चलते हैं। इन्हें आम जनता भी केवल पैसों की तरह ही नजर आती है। इनके हाथ आया हुआ मनुष्य, मनुष्य नहीं रह जाता, पैसे छापने वाली मशीन हो जाता हैं। कुछ लोग ऐसे होते है जिनका भोजन कुर्सी होती है। इन्हें तो खाने, पीने, सोने, बैठने के लिए बस कुर्सी ही चाहिये। कुर्सी के लिए ये अपनी मान-मर्यादा सहित, अपना सब कुछ दांव पर लगाने में भी नहीं शरमाते। इन सभी में एक समानता होती है, इन्हें साधारण और प्रचलित खेल-खिलौने अच्छे नहीं लगते। इन्हें अपनी ऊब मिटाने और खेलने के लिये आम आदमी की इज्जत चाहिये।
मेरे विचारों का क्रम तब टूटा जब मेरे अवचेतन मन ने सूचित किया कि मैं अपने घर की सीढ़ियाँ चढ़ रहा हूँ।
घर में भी वैसा ही माहौल था जैसा बाहर गलियों में, स्तब्धता और तनाव का। मैंने बड़ों के पैर छुए। सिर पर आशिर्वाद का हाथ रखते हुए माँ सुबक पड़ी। उसके हाथ कांप रहा थे। आशंकाओं से उत्पन्न भय को दबाते हुए और सहज होने का प्रयास करते हुए मैंने पूछा - ''क्या हुआ माँ? आप सब खामोश क्यों हैं?''
''माया अब नहीं रही बेटे।'' कहकर माँ फफककर रो पड़ी।
मुझे विश्वास ही नहीं हुआ। मैं सबके चेहरे पर सच्चाई पढ़ने का प्रयास करने लगा। सबकी आँखें झुकी हुई थी। मन बेचैन था और आत्मा जैसे चित्कार रही थी। मुझे माँ की कथन पर अविश्वास करने का कोई कारण नजर नहीं आया कि मैं अपने दिल को झूठी तसल्ली दे पाता। कुछ क्षण के लिए मैं जैसे चेतनाशून्य हो गया। पास रखी कुर्सी पर मैं बिछ गया। अतीत मेरे हृदय को मथने लगा।
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माया मास्टर साहब की बेटी थी। पाँच साल पहले मास्टर साहब हमारे मुहल्ले की शाला में स्थानांतरित होकर आए थे और हमारे पड़ोस में रहने लगे थे। तब माया ग्यारहवीं में पढ़ती थी। मास्टर साहब नेक और सज्जन व्यक्ति थे। प्रारंभिक जान पहचान धीरे-धीरे घनिष्ठता में बदल गई और शीघ्र ही एक दूसरे के घर आने-जाने का सिलसिला भी प्रारंभ हो गया। दोनों परिवार की घनिष्ठता और पारिवारिक संबंधों के लिये सर्वाधिक जिम्मेदार माया ही थी। माया ने माँ पर न जाने कैसा जादू किया था कि वह उसके बिना रह नहीं सकती थी।
मृदुल स्वभाव वाली माया के चेहरे पर हमेशा शांत आभा छाई रहती थी। आँखों में चंचलता की जगह अपनत्व का भाव अधिक होता। वाणी जैसे जानी-पहचानी और मन को भाने वाली होती थी। वह कम बोलती, पर अधिक कह जाती। माँ से भरपूर ममता पाती और फिर उसे विकास पर लुटा देती। तब उनकी चेष्टाएँ बाल सुलभ हो जाती थी।
विकास मेरा छोटी भाई है जो तब मिडिल में पढ़ता था। अपनी पढ़ाई समाप्त कर मैं तब नौकरी की तलाश में था। दिन में अधिकांश समय घर से बाहर ही रहता। मेरी उपस्थिति में माया हमारे घर कम ही आती। कभी आमना-सामना होने पर वह झेंप जाती और तुरंत मेरी आँखों से ओझल हो जाती। उनका शरमरना मुझे अच्छा लगता। उनकी बातें मुझे आकर्षित करती। उन्हें कविताएँ लिखने का शौक था। कविताओं को संशोधित करने विकास के जरियेे वह मेरे पास भेजती। उन कविताओं को पढ़कर मुझे लगता कि शायद वे मेरे लिये ही लिखी गईं हो।
इसी बीच मेरी नौकरी लग गई और मुझे बाहर रहने के लिये मजबूर होना पड़ गया। उस दिन, जब मैं सामान लेकर घर से बाहर निकलने वाला था, माया का चेहरा उदास और मुरझाया हुआ लग रहा था। माँ की आँखें बात-बात में डबडबा जातीं। माया उन्हें सांत्वना देती और खुद भी भावुक हो जाती। माँ मुझे बार-बार समझा रही थी कि बाहर रहते हुए मुझे क्या करना चाहिये और क्या नहीं। और यह भी कि मैं अपने स्वास्थ्य का ध्यान रखूँ। जाते ही खत लिखूँ। जब मैं अपना बैग उठा रहा था, एक अत्यंत भावुक और कोमल वाक्य ने मेरे मन को छू लिया - ''अपना खयाल रखियेगा।'' यह माया की मनुहार थी। मैंने आश्वस्त निगाहों से माया की ओर देखा। उसकी आँखों में सिर्फ मेरे भविष्य के सपने थे।
माँ की अनुभवी निगाहों ने हमारी निगाहों को अच्छी तरह पढ़ लिया था। माया को उसने मन ही मन बहू स्वीकार कर लिया था। संभवताः इसीलिए हमारे लिये एकांत सृजित करने के लिये किसी बहाने वह कमरे के बाहर चली गई। हमारा प्यार हमारे परिवार के लिये न तो अनजाना था और न ही आपत्तिजनक।
वही माया अब नहीं रही।
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न जाने किस प्रेरणा से प्रेरित हो, मैं माया की कविताओं का फाइल ढूँढने लगा। मेरे मस्तिष्क की चेतन, अचेतन और अवचेतन स्थिति की हर स्पंदन कों माया की सूक्ष्म और अदृश्य अनुभूतियाँ रह रह कर उद्वेलित कर रही थी। तभी ग्रीष्म की झंझा की तरह विकास मेरे कमरे में दाखिल हुआ। किंवाड़ आवेग में धकेला गया था जिसकी आवाज से मैं अपनी चेतना के बिखरे संदर्भाें को सूत्रबद्ध करने लगा।
मेरी प्रश्नवाचक दृष्टि विकास के चेहरे पर जाकर अटक गई। क्रोध, घृणा और वेदना के सम्मिलित मनोभावों से उसका चेहरा तमतमाया हुआ था। आँखों से अंगारे बरस रहे थे। वह बगैर किसी भूमिका के प्रारंभ हो गया। तूफान किसी भूमिका का मोहताज नहीं होता। वह कह रहा था - ''छात्रों की जुलूस पर पुलिस ने लाठीचार्ज किया है। काफी लोग घायल हुए हैं। बहुत से छात्रनेता पकड़े गये हैं। शायद मेरे पीछे भी पुलिस लगी हुई है।''
मैं फिर भी मौन रहा। प्रश्न मेरी निगाहें कर रही थी। विकास ने आगे कहा - ''माया की मौत के लिये ठेकेदार के आदमी जिम्मेदार हैं। सब राक्षस हैं साले हरामजादे। ऐसा आज पहली बार नहीं हुआ है, पहले भी हो चुका है, रोज होता है। इसी मुहल्ले की, घंसू की लड़की रज्जो के साथ भी यही हुआ था। शाम को रज्जो अपने बाप के साथ काम से लौट रही थी। मोड़ पर जहाँ सरकारी इमारतें बन रही हैं, कुछ लोग उन दोनों को बलपूर्वक कार में बिठा कर कहीं ले गए थे। सुबह होने पर वे दोनों उसी जगह पर बेहोशी की हालत में मिले थे। कल माया की बारी थी।''
मैं मूर्तिवत विकास की बातों को सुन रहा था। ''सूर्य निकलने से पहले माया उन राक्षसों की नगरी से दूर, बहुत दूर जा चुकी थी; अपने अपवित्र हो चुके शरीर को छोड़कर। नगर के सभी असरदार लोग अपराधियों से मिले हुए हैं। उनका कौन क्या कर सकता है? छात्रों ने नगर बंद का आह्वान कर जुलूस निकाला है।'' विकास ने अपनी बात समाप्त की।
विकास से ही आगे पता चला कि मास्टरजी, जो सदा संयत और नम्र व्यवहार के लिये जाने जाते थे, एकाएक परिवर्तित हो गये थे। टूटने के बजाय मास्टर जी खुद ही इस अनाचार और अत्याचार के खिलाफ निकाले गये जुलूसा का नेतृत्व कर रहे थे। वे न्याय मांग रहे थे। जुलूस पर पुलिस ने अंधाधुंध लाठीचार्ज किया था। इस अन्याय का विरोध करते हुए मास्टर जी बुरी तरह घायल हो गये थे। फिर भी न तो मास्टर जी का आक्रोश थम रहा था और न ही जुलूस की उग्रता।
पर उन लोगों के लिये यह सामान्य घटना थी। उन्हें इससे कोई फर्क नहीं पड़ने वाला था।
संध्या उतर आई थी। स्वार्गिक सुख भोगने वालों की कोठियों में फिर एक रज्जो, फिर एक माया लाकर बंद की जा चुकी होंगी और कल प्रातः शायद फिर यही दृश्य दोहराया जायेगा।
क्या यही स्वर्ग की नियति है?
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4 उजाले की नीयत
यह जिला मुख्यालय से पश्चिम की ओर सुदूर वन प्रांत में बसे एक कस्बे में, मार्च महीने की एक रात में घटित एक सामान्य सी घटना की असामान्य सत्य कथा है।
दूर चौराहे पर मुहल्ले के सारे बेरोजगार युवक और कुछ बड़े-बुजुर्ग, नगाड़े की थाप और फाग गीतों की लय पर झूम रहे थे। रंगों और मस्तियों का त्यौहार होली के आगमन में कुछ ही दिन शेष थे।
सड़क के दोनों ओर पंक्तिबद्ध बौराए आम के पेड़ों की मादक खुशबू से वातावरण महक रहा था। जिला मुख्यालय से आने वाली अंतिम यात्री बस, जिसे यहाँ रात्रि प्रवास कर प्रातः पुुनः जिला मुख्यालय हेतु प्रस्थान करना होता है, आ चुकी थी। यात्री अपने-अपने घर जा चुके थे। चालक और परिचालक पास के सुमन हॉटल में खाने-पीने में मस्त थे। हॉटल के ये अंतिम और सम्मानित ग्राहक थे।
पास ही विमला का पान 'पैलेस' था। हॉटल से निवृत्त हुए अधिकांश साहब लोग यहाँ पान चबाते हुए गपशप में व्यस्त थे। इनमें अधिकांश वन विभाग के सिपाही, शिक्षा विभाग के गुरूजी और अन्य विभागों में कार्यरत बाबू और इक्के-दुक्के अफसर लोग थे। 'देशी महुए' की अधिकता के कारण इनकी जुबाने बहक रही थी और कदम लड़खड़ा रहे थे।
इनके गपशप के विषय गंभीर राजनीतिक अथवा आध्यात्मिक नहीं हो सकते थे। अलबत्ता चर्चा के विषय थे कि कौन साहब कितना और क्या पीता है। किस दफेदार ने विभाग को कितना चूना लगाया और गाँव की किन-किन लड़कियों पर किसकी-किसकी नजरें गड़ी हुई हैं, इत्यादि .......।
कुछ लोग सुुमन हॉटल और विमला पान पैलेस के गुणों का बखान कर रहे थे। इस दूरस्थ वनांचल में ये दोनों ही इस गाँव (स्थानीय लोगों का शहर) के नाक हैं। वैसे तो यहाँ बाहर से लोटा लेकर आये अनेक सेठ लोग भी दिन दूनी रात चौगुनी फल-फूल रहे हैं, पर सुमन और विमला सेठ की बात ही कुछ और है। सुमन और विमला को उसके ग्राहक उनकी प्रबंधन क्षमता के कारण अथवा खुशामद करने के लिए इसी उपाधि से संबोधित करते हैं। वैसे ये स्थानीय महिलाएँ है जो व्यवसाय में अपने पतियों से अधिक चतुर, जवान और सुंदर हैं; परंतु सेठ की श्रेणी में हरगिज नहीं आते हैं।
पानठेले में व्यस्त कुछ लोग अपने उन मित्रों से जल रहे थे जो इस समय नदारत थे। वे उन्हें जी भरकर कोस रहे थे और कयास लगा रहे थे कि नदारत रहने वाले किस मित्र के साथ कौन सी रेजा और किस साहब के साथ कौन सी बाई हमबिस्तर हो रही होगी। नदारत रहने वाले ये सारे मित्र छटे हुए और गजब के जुगाड़ू लोग थे। रोज शाम, चाहे जैसे भी होे, ये अपने रात को रंगीन बनाने के लिये महुआ-दारू और स्थानीय वन बालाओं का जुगाड़ कर ही लेते थे। कुछ लोग जो इन सब बातों से उकता चुके थे और स्वयं के लिये जुगाड़ न कर पाने की खीझ के कारण अत्यंत दुखी मन थे और इस गम को गलत करने के उद्देश्य से कुछ ज्यादा ही चढ़ाये हुए थे, दुलो के बारे में अत्यन्त अश्लील और भद्दी टिप्पणियाँ करके अपनी भद्रता को बिना संकोच अनावृत्त व कंलंकित कर रहे थे। उनकी इन टिप्पणियों से उनकी असली मानसिकता और चरित्र का दोगलापन जाहिर हो रहा था।
दुलो, जिसके बारे में सारी अश्लील टिप्पणियाँ की जा रही थी, न तो नगरवधू थी और न ही गाँव की कोई अनिंद्य रूपवती षोड़सी, जिसके इर्द-गिर्द गाँव के मनचले और तथाकथित भद्र मानसिकता वाले उपरोक्त साहब लोग भिनभिनाते। दुलो पचीस-तीस साल की भिखारिन थी। वह साँवली जरूर थी पर बदसूरत नहीं थी। पीठ पर निकल आए कूबड़ और एक पैर की पोलियोजन्य असक्तता से भी उसकी सुंदरता कम नहीं हुई थी। वह मैली-कुचैली धोती पहने, हाथ में कटोरा लिये दिन भर दर-दर भटकती और साप्ताहिक बाजार के लिये बनाई गई गुमटियों में से किसी एक में अनधिकृत कब्जा कर रात बिताती। वह इसी दिनचर्या अनुसार आज भी रात बिता रही थी। अधेड़ वय का अंधा सोमना उसका 'बिजनेस पार्टनर' था।
कस्बाई मच्छरों के तीखे डंक से बचने के लिये दुलो ने अपने शरीर को चादर से अच्छी तरह लपेट लिया था। वह अपने अतिक्रमित गुमटी में, जहाँ इस समय स्ट्रीटलाइट और पान ठेलों तथा होटलों के बाहर जल रहे विद्युत बल्बों की कुछ-कुछ रोशनी पहुँचने से उजियारा फैल रही थी, चुपचाप लेटी हुई थी। पास ही के दूसरी गुमटी में उसका तथाकथित 'बिजनेस पार्टनर' अंधा सोमना खर्राटे भर रहा था। मच्छरों के डंकजनित दाह को कम करने के लिये वह बार-बार अपने शरीर के उन हिस्सों को बुरी तरह खुजला रही थी। उसे पान ठेले पर जमें उन साहब लोगों की बेढंगी बातों के शोर की वजह से शायद नींद नहीं आ रही थी। विमला पान पैलेस से आ रही गप्पबाजी को वह बड़े ध्यान से सुन रही थी। न सिर्फ सुन रही थी बल्कि उन बातों से वह अब रस भी ले रही थी, और जिससे रह-रह कर उसे रोमांच हो आता था। साथ ही साथ वह मदोंर् के विषय में अपने स्त्रियोचित ज्ञान और इन साहबों के विषय में अपनी पूर्व अवधारणाओं और पूर्वाग्रहों को भी संशोधित करती जा रही थी। तभी उसे अपने विषय में की जा रही वह टिप्पणी सुनाई दी। सुनकर उन साहबों के प्रति उसके मन में जो सहज और स्वाभाविक सम्मान व श्रेष्ठता के भाव थे, एक ही झटके में टूटकर बिखर गये।
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दुलो के मस्तिष्क पर मंहगू, सोमना और इन साहबों के चेहरे बारी-बारी से उभरने लगे। महंगू जो उसका पति हुआ करता था, और जिसके साथ उसने जीवन के दस वर्ष बिताये थे। वे दस वर्ष, जिनके बारे में वह कभी भी निर्णय नहीं कर पाई कि वेे दिन स्वार्गिक सुख के थे या नारकीय यातना के। सोमना, जो पिछले कुछ सालों से भिखमंगों की टोली में कहीं से आकर शामिल हो गया था, उसके साथ रहता है, और साथ ही गली-गली घूमकर भीख मांगा करता है। आँख वाले किसी साथी का साहचर्य उसकी मजबूरी थी। अपनी मर्दानगी को तुष्ट करने के लिये भी उसे एक औरत की जरूरत थी; परंतु ऐसी वैसी हरकत के द्वारा किस्मत से हाथ आई दुलो को वह कभी नाराज नहीं कर सकता था। फिर भी, कम से कम वह दुलो की जवानी और उसकी उम्र को स्पर्श इन्द्रिय द्वारा महसूस करना चाहता था, जानना चाहता था। और शायद इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिये समय-कुसमय वह उनकी बाहों की मांसपेशियों को और कभी-कभी वक्ष के उभारों को भी मसलने का प्रयास करता। बदले में हर बार वह भद्दी गालियाँ खाता, परंतु बलात्कार जैसा कुकृत्य करने का दुःसाहस उसने कभी नहीं किया। और अंत में पान ठेले पर उसके प्रति, और समूची महिला जाति के प्रति अश्लील टिप्पणियाँ कर रहे इन साहबों के चेहरे, जो शराब के असर से स्वतः बेनकाब होते चले जा रहे थे।
शरीर के उन अंगों को जो अनावृत्त हो गये थे, और जहाँ मच्छरों का ताजा हमला हुआ था, ढंककर वह सोने का पुनः प्रयास करने लगी, परंतु नींद उससे कोसों दूर थी। उसकी आँखों में मंहगू लंगड़े की तस्वीर उभरने लगी। वह मंहगू के पास जाने का प्रयास कर रही है, लेकिन नशे में धुत महंगू अपशब्दों के साथ उसे परे ढकेल देता है। बांझ और न जाने कैसी-कैसी भद्दी गालियाँ देते हुए उसे वह बुरी तरह पीटने लगता है। और अंत में उसके बालों को पकड़कर, उसे घसीटते हुए, रात की घोर नीरवता और अंधेरे में, घर से बाहर गली में, छोड़ जाता है। यह रोज का क्रम है, परंतु आज दुलो की आँखों में भी खून उतर आया है। क्या इसीलिये उसने उसका हाथ थामा था? वह घायल सिंहनी की भांति उठती है। कपड़ों का उसे होश नहीं है। आवेगातिरेक में उसका शरीर कांप रहा है। वह दहाड़ रही है- ''अरे भड़वा, नामर्द, मुझे बांझ कहता है। अरे छक्का, कमर तो चलता नहीं, बस लात-घूंसा ही चलता है। लात-घूंसों से बच्चा होगा?'' और फिर वर्षों से उसके प्रति शरीर तथा मन में व्याप्त घृणा को जो मुँह में इकत्र हो आया था, अंदर से बंद किंवाड़ पर पूरे आवेग से उछाल देती है 'पचाक'। वह दरवाजे पर नहीं मंहगू के चेहरे पर थूँक रही थी, न सिर्फ थूँक रही थी, बल्कि उससे संबंध विच्छेद के दस्तावेजों पर हस्ताक्षर भी कर रही थी। तब से वह भिक्षावृत्ति कर जीवन निर्वाह करती हुई इस कस्बे में आकर ठहर गई है। शायद स्वार्थ और सुरक्षा की भावनावश उसे सोमना से दोस्ती का समझौता करना पड़ गया है।
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बांझ शब्द उसके कानों में गूँजने लगा। लेटे रहना जब मुश्किल हो गया तो वह उठ कर बैठ गई। साहब लोगों की आवाजें बंद हो गई थी। हॉटल और ठेले बंद हो चुके थे। अंधेरा बढ़ चुका था। उसने आस-पास के अंधेरे को महसूस किया। अपनी जवानी पर नजर डाली। क्या वह सचमुच बांझ है? अपने हाथों से अपने वक्ष को, जो अभी भी गदराए और कंसे-कंसे थे, सहलाया। उसके मन ने निश्चय पूर्वक कहा, 'नहीं, वह बांझ नहीं है'। भावावेश के कारण उसका शरीर थर्रा उठा। उसे अपने अंदर आदिम भूख की तीव्रता घनीभूत होती जान पड़ी। उसने सोमना की ओर देखा, जो अभी बेसुध हो खर्राटे ले रहा था। उसे सोमना और मंहगू एक से लगे। सोमना पर एक हिकारत भरी नजर डालकर वह पुनः सोने का प्रयास करने लगी।
दुलो की आँखों में इस समय उस काले, लंबे और गठीले बदन वाले दफेदार की तस्वीर उभर आई, जिसके शरीर पर शायद लंबे घने बाल होने के कारण लोग जिसे पीठ पीछे भालू कहकर मजे लेते। दुलो भिक्षा मांगने के क्रम में जब भी उसके घर जाती, उस दफेदार की घनी, काली मूछों के ऊपर से झांकती उनकी दोनों रक्तवर्ण आँखें हमेशा ही उसे कामुक नजरों से घूरती रहती, जिसे देखकर उसका बदन भय से काँपने लगता। अभी, आधी रात के इस गहन अँकार में वह इन्हीं घनी मूंछों और इन मूंछों के ऊपर झांकती उन रक्तवर्ण कामुक नजरों को बड़े शिद्दत के साथ महसूस करने लगी। न जाने कब उसकी आँखें लग गई।
रात की वीरानी ने वातावरण को पूरी तरह से अपने कब्जे में ले लिया था। चौराहे पर बज रहे नगाड़े की थाप भी पता नहीं कब से बंद हो चुका था। महुवे की शराब के नशे में बेसुध होकर थिरकते लोग अपने-अपने घर जा चुके थे। अलबत्ता पास ही बह रहे जंगली नाले के उस ओर, जंगलों के बीच से सियारों के हुआँने की आवाजें जोर पकड़ने लगी थी।
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चादर के अंदर किसी को घुसते हुए महसूस कर दुलो की नींद खुल गई। अंधेरा घना था, उसने सोचा, सोमना होगा। लेकिन सीने पर किसी मजबूत पंजे की दबाव ने उसका भ्रम तोड़ दिया। वह समझ नहीं पाई कि उसके साथ यह क्या होने जा रहा है। किसी अनहोनी की आशंका से उपजी दहशत की जकड़ ने उसकी चेतना और उसके विवेक को शून्य कर दिया था। वह पूरी ताकत से चिल्लाना चाहती थी, पर आवाज गले से बाहर नहीं आ पा रही थी। वह मुक्ति हेतु छटपटाने लगी। बहुत जल्द ही उसने समझ लिया कि हमलावर की नीयत क्या है। अंधेरे की वजह से वह उसे साफ-साफ नहीं देख पा रही थी इसीलिये वह उसे अब स्पर्ष के द्वारा पहचानने का प्रयास करने लगी थी। शराब की तीखी गंध जो उस व्यक्ति के धौंकनी के समान तेज चल रही सांसों से निकल रहा थी, उसके नथुनों में भरने लगी थी। उसने उसके शरीर पर लंबे-लंबे बाल अनुभव किये। घनी मूँछों के ऊपर से झाँकती दो रक्तवर्ण आँखों की चुभती हुई कामुकता को देखा।
उसका प्रतिरोध अब धीरे-धीरे क्षीण होने लगा था, और उसकी आदिम भूख उसके अस्तित्व पर प्रबल होने लगी थी। क्षणिक दुर्बल संघर्ष के बाद उसका प्रतिरोध समाप्त हो गया।
कुछ देर बाद सब कुछ शांत हो गया। तूफान थमकर लौट चुका था।
वातावरण का अंधकार अब उसके मन पर घनीभूत होने लगा था। इस घटना से बेखबर, बेसुध सोमना की ओर उसने देखा; वह अभी भी उसी तरह खर्राटे भर रहा था। उसे क्या पता कि उजाले ने अंधकर से मित्रता करके उसे छल लिया था। वह शक्तिहीन और निश्तेज हो चुकी थी। उसकी कल्पना ने उसे उसके गर्भ में किसी नवागंतुक के स्पन्दन का अनुभव कराया। वह सिहर उठी। चुपचाप उठी और आहत कदमों से चलती हुई, जाकर सोमना के बगल में लेट गई। अब सोमना की भी नींद टूटी। उसने करवट बदलकर उसके जिस्म को टटोला; पीठ के कूबड़ पर हाथ फेरा, गदराए स्तनों को मसलकर देखा और तत्परता पूर्वक उसने पूरे आवेग के साथ उसे अपने आगोश में समेट लिया।
दुलो ने अब की बार बहुत सोच-समझ कर अपने अस्तित्व को सोमना के हाथों सौपा था; शायद मिटाने के लिये या शायद मिटे हुए को और मिटा कर बचाने के लिये।
वातावरण की स्तब्धता को अब एक साथ दो खर्राटे चीर रहे थे। दूर जंगल में सियारों के हुआँने की आवाजे भी अब बढ़ने लगी थी।
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5 बेबी निर्दोष है
बेबी रोज देर रात तक बिस्तर पर करवटें बदलती रहती हैं। हाथ में कभी फिल्मी पत्रिका लिए, कभी बाजारू उपन्यास लिए तो कभी मनोहर कहानियाँ या सत्यकथा की प्रतियाँ लिए। इसी क्रम में न जाने कब उसकी आँखें लग जाती हैं। टी. व्ही. की देर रात वाली फीचर फिल्मों का उसे बड़ा सहारा रहता है। टी. व्ही. हो या टेपरिकार्डर, वाल्यूम कंट्रोल इता खुला रहता है कि पास वाले, डैडी के कमरे से छनकर आने वाली आवाजें उसमें घुलमिलकर गडमड हो जाय। पाठयक्रम की किताबों से उसे परहेज है। इस वर्ष दसवी बोर्ड की परीक्षा है, पर उसके पास न तो पढ़ने का समय है और न ही पढ़ने की मनःस्थिति। समय तो उसके पास काफी होता है, पर उसकी अपनी कुछ समस्याएँ हैं, उलझने हैं और मन में चलने वाली अंतद्वंर्द्वों की श्रृँखलाबद्ध कड़ियाँ हैं, जो न तो उसे पढ़ने देती हैं और न ही सोने। प्रातः जब वह सोकर उठती है तो उसके पास केवल इतना ही समय होता है कि वह स्कूल जाने के लिए तैयार हो सके। डैडी अॉफिस जा चुके होते हैं। नौकरानी नास्ते और भोजन की तैयारियों में व्यस्त होती हैं। यही बेबी का नित्य का क्रम है।
बेबी को समय ने असमय ही समझदार बना दिया है। जबसे वह समझने लायक हुई है, न जाने कितनी नौकरानियाँ बदली है, उसे स्मरण नहीं है। शायद उतनी, जितनी बार डैडी का स्थानांतरण हुआ है। हर बार नया शहर, नया बंगला और नई नौकरानी; सब कुछ अलग होते हुए भी परिस्थितियाँ एक जैसी। सभी नौकरानियों के चेहरे एक से, काम एक से; आखिर औरतें ही तो होती हैं सभी। बेबी को सिर्फ दुलारो का स्मरण है। आज तक की नौकरानियों में से वह केवल दुलारो को ही जानती है। उसके लिए सभी नौकरानियाँ दुलारो ही है। दुलारो जिसके रहते उसने होश संभाला है।
अभी घर में जो नौकरानी है, उसकी अवस्था बेबी से कुछ ही अधिक होगी। घर का काम करने के लिए, बाजार से सब्जी लाने के लिए और अन्य कामों के लिए एक-दो जवान रोज समय पर आते हैं और अपनी ड्यूटी पूरी कर लौट जाते हैं। रायफलधारी जवान पूरी वर्दी में बाहरी गेट पर हमेशा पहरे पर होते हैं। हर चार घंटे बाद वे अपनी पारी बदल लिया करते हैं। ठीक दस बजे प्रदेश पुलिस की गाड़ी बंगले पर उपस्थित हो जाती है, बेबी को स्कूल छोड़ने के लिए। सही समय पर स्कूल से घर के लिए फिर एक गाड़ी। गेट पर तैनात राइफलधारी संतरी, बाजार से सब्जी खरीदकर लाने वाला पुलिस का सिपाही, और सबेरे-सबेरे जर्सी गाय को दूहने वाला नगर सैनिक का जवान, सब का नाम एक ही था, जवान। सभी खाकी वर्दीधारी, जो इस बंगले से प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से संबंद्ध होते हैं, सबका नाम एक ही होता है, जवान। डैडी अपवाद हैं; सारे जवानों के बॉस जो हैं वे।
रातें बेबी के लिए ढेर सारी समस्याएँ लेकर आती हैं। कितना अच्छा होता कि रात कभी होती ही नहीं। पहले, बचपन में वह दिनभर रात होने की प्रतीक्षा किया करती थी। उसे अभी भी याद है, दिनभर वह आँगन में गौरैया की तरह चहकती-फुदकती रहती थी। आँखें डैडी के लौटने की बाट जोहती रहती थी, और कभी डैडी डयूटी पर से अचानक लौट आते तो वह गोद में जाने के लिए मचल उठती। तब डैडी मम्मी पर व्यंग्य करते हुए कहते - ''देखा मिसेज कप्तान, हमारी रानी बिटिया सबसे ज्यादा हमें प्यार करती हैं।''
''बेटी हमारी जो है।'' मम्मी कहती और घर ठहाकों से गूँज उठता। बेबी तुतलाते हुए डैडी से प्रामिस करवाती - ''डैडी! आप रात को जल्दी घर आयेंगे न? आज मैं आप से परियों वाली कहानी सुनुँगी।''
''अरी बिटिया! बस यूँ गया और यूँ आया।'' कहकर डैडी उनके गालों की चुम्मी लेकर उन्हें प्यार करते और फिर अपने काम में व्यस्त हो जाते या अपनी डयूटी पर वापस चले जाते।
मम्मी रात में उन्हें ढेर सारी कहानियाँ सुनातीं। परियों की, जिनके पंख होते और जो उड़कर पलभर में कहीं भी जा सकती थी, गायब हो सकती थी, तरह-तरह के जादू कर सकती थी। जलपरियों की, जिनके मछली के समान पंख होते औ जो पानी में इस तरह अटखेलियाँ करती कि बेबी बस आह भरकर रह जाती। वह सोचती - 'भगवान ने उनके पंख क्यों नहीं बनाये? कितना मजा आता, यदि उनके भी पंख होते।' और राजकुमारियों की कहानियाँ, जिनके शरीर फूलों की तरह होते; बेहद कोमल, बेहद नाजुक और बेहद सुदर; जिनके बाल सोने के, और दांत मोतियों के होते; और जब वे हँसती तो जैसे वीणा के तारों की झन्कार से उठने वाली सुमधुर संगीत चारों और बिखर जाती। पर हाय! बेचारियाँ! राक्षस उनका पीछा करना कभी नहीं छोड़ते। राक्षस; जिनके बड़े-बड़े गंदे बाल होते, पीले-पीले नुकीले बड़े-बड़े बेडौल दांत होते, और जिनके बड़े-बड़े नुकीले नाखूनों में ढेर सारे मैल भरे होते। देखने में भयंकर डरावने, काले-कलूटे। परियों और राजकुमारियों पर बेबी को काफी गुस्सा आता। आखिर वे इन राक्षसों का मुकाबला क्यों नहीं करती? इसलिए कि राक्षस मायावी और जादूगर होते हैं? चाहे जो हों, उनकी जगह यदि वे होती तो सबको डैडी के पिस्तौल से सूट कर देती - 'ढिसिम, ढिसिम, ठाँय, ठाँय।' पर वे बेचारी ऐसा भी तो नहीं कर सकतीं। उन्हें पिस्तौल चलाना कहाँ आता होगा? अरे वह देखो, सरपट घोड़े पर आता हुआ राजकुमार। एक हाथ में घोड़े का लगाम और दूसरे हाथ में चमकता हुआ तलवार। चौंड़ी छाती मजबूत कंधा, ऊँचा कद, कसी हुई पेशियाँ; तलवार ऐसे चले जैसे कि बिजलियाँ चमक रही हों। और एक ही वार में राक्षसों का सिर धड़ से अलग। उसने राजकुमारी को बचा लिया। 'पर छी!' बेबी सोचती - 'राजकुमारियाँ कितनी नाजुक होती हैं। वह उनके समान नाजुक नहीं है। उसे अपनी रक्षा करना खुद आता है। उसे किसी राजकुमार की जरूरत नहीं है।'
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पर बेबी अब समझने लगी है। वह जान चुकी है कि परियों वाली सारी कहानियाँ मनगढंत होती हैं। न अब उसे ऐसी कहानियों में मजा आता है और न अब वह ऐसी कहानियों के लिए मम्मी से जिद ही करती है। स्वप्नलोक की जादूभरी, कल्पना भरी रातों का सिलसिला अब खत्म हो चुका है। रातों की यथार्थता के बारे में अब वह कुछ-कुछ जानने लगी हैं।
उस रात मम्मी को बिस्तर पर न पाकर बेबी चीख उठी थी। घुप अंधेरा और रहस्यमयी खुसुर-फुसुर की आवाजों से वह डर के मारे कांप गई थी। पर तभी न जाने कहाँ से आकर मम्मी ने उसे संभाल लिया था। फिर तो ऐसा रोज होने लगा था। कुछ दिनों की पुनरावृत्ति के बाद बेबी इस घटना का अभ्यस्त हो गई थी। अब वह चीखती नहीं थी, सांस थामकर मम्मी के आने की प्रतीक्षा किया करती थी। वह समझ चुकी थी कि रहस्यमयी खुसुर-फुसुर की ये आवाजें मम्मी और डैडी की ही आवाजें हुआ करती हैं। उन्होंने सोचा, 'पर मम्मी रात में डैडी के बिस्तर पर जाती ही क्यों हैं? ऐसी विचित्र आवाजें वे क्यों निकाला करते हैं? बेबी के लिए ये सारे प्रश्न पहेली बने हुए थे। इस पहेली को बूझना अब जरूरी है। अब तो सोने का स्वांग बनाकर वह इस घटना की प्रतीक्षा किया करती। और अंततः एक दिन उसने निष्कर्ष निकाला - 'मम्मी और डैडी रात में प्यार करते हैं।'
बेबी की रातें अब तो अनगिनत जिज्ञासाओं से भरी रहने लगीं। ऐसी कई रातें एक के बाद एक बीतती चली गईं।
एक दिन अचानक मम्मी की तबीयत खराब हो गई। उनके लाख मना करने पर भी डैडी उन्हें अस्पताल में भर्ती करा आये। उस दिन वह बहुत उदास हुई, बहुत रोई। मम्मी और डैडी के बीच हुई तीखी विवाद का उसे स्मरण होने लगा। मम्मी कह रही थी कि उसे कुछ नहीं हुआ है, हल्का सा बुखार ही तो हुआ है। पर डैडी नहीं माने।
शाम को रोते-रोते बेबी ने डैडी से पूछा - ''डैडी
! डैडी! मम्मी ठीक होकर जल्दी आ जायेगी न?''
''हाँ! और ये कैसी सूरत बना रखी है। गिव अप द डलनेस। बंद करो रोना। दूध पीती बच्ची है?'' डैडी के जवाब में रूखापन ही नहीं निर्दयता का भाव भी था। उस समय तो वह चुप हो गई थी, पर डैडी के जाने के बाद वह घंटों रोती रही थी। पर दुलारो! दुलारो थी, माँ नहीं थी। उसके पास वह ममता कहाँ?
बेबी को उस दिन मालूम हुआ कि दिन कितना लंबा खिंच जाया करता है, रबर की तरह। रात वह डायनिंग टेबल पर बैठी जरूर थी, पर सारा ध्यान हॉस्पिटल की ओर लगा रहा, एक कौर भी खाया न गया।
डैडी ने दुलारो को आदेश देते हुए कहा - ''दुलारो! बेबी को खाना खिलाओ। और हाँ! आज रात तुम घर नहीं जाओगी। बेबी के साथ ही रहोगी।''
''लेकिन साहब .....'' दुलारो ने सहमते हुए कुछ कहना चाहा, परंतु डैडी की धमकी से उसकी आवाज हलक से बाहर नहीं आ पाया। डैडी ने कहा - ''लेकिन की बच्ची, देखती नहीं बेबी की हालत। तुम्हारे घर खबर भेज दी गई है। तुम आज रात घर नहीं जाओगी।'' डैडी की आखें जल रही थी और चेहरा जैसे पत्थर का हो रहा था। आवाज में कठोरता भी था और क्रूरता भी। वे बाहर चले गये। ''क्या यह रूप डैडी का हो सकता है?'' बेबी मन ही मन कुढ़ती रही। जी में आया, कह दे, उसे दुलारो की जरूरत नहीं है; मम्मी और डैडी की जरूरत है। पर उसका सहमा हुआ बाल-मन कुछ न कह सका। उस रात दुलारो घर न जा सकी। बंगले के सभी दरवाजे लॉक कर दिये गये थे। आज गेट पर रायफलधारी संतरी अधिक मुस्तैदी से ड्यूटी कर रहा था।
बेबी बिस्तर पर लेटे-लेटे सोचती रही; क्या दुलारो के बच्चे भी इसी तरह माँ के न लौटने पर उदास हो रहे होंगे? और सोचते-सोचते न जाने कब उसकी नींद लग गई।
रात अचानक बेबी सोते से चौक कर उठ बैठी। 'यह शोर कैसी? रोने गिड़गिड़ाने की आवाजें कैसी? कमरे के सामानों का एक-एककर गिरने की आवाजें कैसी?'
उफ् दुलारो .........?
''डैडी क्या दुलारो से प्यार कर रहे हैं? क्या वे ऐसा भी कर सकते हैं? छी, छी! डैडी क्या इतने गंदे हैं?''
बेबी की इच्छा हुई; उठकर जोर-जोर से चीखे, चिल्लाये, दरवाजों को पीटे। चौकीदार न जाने कहाँ मर गया था। लेकिन दूसरे ही क्षण सामने डैडी का दिन वाला वह डरावना-क्रूर चेहरा आ खड़ा हुआ। उसने स्वीच की ओर बढ़ रहे हाथ को खींच लिया। दोनों कानों को ऊंगलियों से बंद कर लिया।
उस रात उसनें कई बार डरावने सपने देखे। शरीर डर से कांपने लगता और पसीने से तर हो जाता। उसे आज यह भी पता चला कि रात न सिफ खिंचकर बड़ा हो जाया करता है, निविड़ अंधकार में गुम पहाड़ की भयानक गुफाओं में भी रूपान्तरित हो जाया करता है। गुफाएँ, जिनमें केवल भयंकर राक्षस और हिंस्र पशु ही रहा करते हैं। प्रातः दुलारो कहीं दिखाई नही दी। 'हाय! वह कितना बदनसीब है। दुलारो को सांत्वना भी नहीं दे पाई। किसी तरह दिन बीता। फिर रात आई। कल वाली घटना फिर दुहराई गई। और आने वाली कई रातों तक वही घटना दुहराई जाती रही।
जैसे वर्षों बाद मम्मी अस्पताल से वापस आई। दुलारो मम्मी के पैरों को पकड़कर रो रही थी। याचना कर रही थी कि वह उन्हें साहब से मुक्ति दिला दे। अब वह इस बंगले में काम करना नहीं चाहती।
रात मम्मी-डैडी में देर तक विवाद होता रहा। अंत में क्रूर डैडी ने मम्मी को बुरी तरह पीटना शुरू कर दिया। ओह! कितना भयानक दृश्य था।
और तभी से बेबी के अंदर की सारी कोमल भावनाओं का अंत हो गया था। परियों का स्वप्न लाने वाली, और ढेर सारी भोली कल्पनाएँ लेकर आने वाली सुंदर रातों का तिरोहन हो गया था। 'आने वाली रातें न जाने कैसी होगी?'
परिणाम हुआ, तलाक। मम्मी अलग हो गईं। यह पाँच साल पहले की बात है।
बेबी डैडी के साथ साल दर साल न जाने कितने शहरों में स्थानांतरित होती रही। न जाने कितने बंगले बदले, कितने जवान बदले, कितने संतरी बदले, कितनी दुलारो बदलीं। वह स्वयं भी बदल चुकी थी। नहीं बदली थी तो बस रातों का वह वीभत्स सूरत और बेबसी और अंतर्व्यथा से भरी हुई दुलारो। इस तरह की रातों के प्रति बेबी की सारी जिज्ञासाएँ अब शांत हो चुकी थी और इस तरह के रातों की वह अभ्यस्त हो चुकी थी।
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डैडी उस रात नहीं लौटे थे। किसी उच्चस्तरीय गोपनीय मिटिंग अटेन करने राजधानी गये हुए थे। घर में थे ढेर सारे जवानों का पहरा और थी एक दुलारो। गेट पर हमेशा की तरह था बिल्ली की सी घूरती आँखों वाला रायफलधारी जवान जिसके गेहुएँ चेहरे पर छायी घनी-काली मूछें उसे और भी अधिक खूँखार बना रहा था। नियत समयान्तराल के बाद दूसरा जवान उसकी जगह ले लेता। भूरी-भूरी आँखों वाला, हमेशा सहमा-सहमा रहने वाला वह जवान भी था जो बाजार से सब्जी आदि दैनिक जरूरत के सामान लाने के लिए तैनात किया गया था। और सुबह-शाम दूध दूहने के लिए तैनात वह जवान भी था जिसकी छवि न जाने क्यों रात-दिन बेबी की आँखों में समाया रहता। उफ्फ! कितना लंबा-तगड़ा है वह। गठा हुआ बदन, मचलती हुई पेशियाँ और गज भर चौड़ी छाती। वर्दी शरीर से चिपका हुआ। सांवले चेहरे पर भरे हुए गाल, चपटी नाक, यदाकदा मुहासे की कीलें, छोटे-छोटे घुँघराले बाल और काली-काली नशीली आँखें। वाह! किस फुर्ती से दूध निकालता है; एड़ियों के बल बैठकर और मुड़े हुए पैरों के घुटनों के बीच डेगची को दबाकर बड़ी चतुराई से संतुलन साधकर। थन से निकलने वाली दूध की पहली धार पड़ती है, छन...न और फिर दूसरी; और देखते ही देखते डेगची लबालब भर जाता है। दूध दूहने की आवाज सुनकर बेबी रोज बिस्तर से उठकर खिड़की पर आ जाती है। खिड़की पर का परदा हटाकर वह अपलक उस जवान को दूध दूहते हुए देखती खड़ी रहती है; बस खड़ी रहती है।
आज की रात डैडी के कमरे से न तो सिसकारियों की आवाजें आ रही थी और न ही चीखों की। आडियो सिस्टम का वाल्यूम तेज करने की आवश्यकता नहीं थी। पूरे बंगले पर शांतिमय खामोशी छाई हुई थी, लेकिन बेबी की आँखों में छाई हुई थी दूध दूहने वाले उस जवान की सूरत। बेबी की आँखों में नीद आ जाये, भला कैसे संभव था।
आखिर रात बीत ही गई। सुबह हुई। चिड़ियों के चहचहाने की आवाजें आने लगीं। सोने की सी किरणें खिड़कियों से छनकर कमरे के फर्स पर चमकने लगी। बेबी को इन सब बातों से कोई मतलब न था। उठकर वह बिस्तर पर बैठ गई। बदन में हल्का-हल्का दर्द हो रहा था। आखें जल रही थीं। सिर चकरा रहा था। शीशे के सामने खड़े होकर उसने खुद को निहारा। लंबे काले-काले केश कमर तक लहरा रहे थे। सिर को छटका देकर उसने बालों को व्यवस्थित करने का प्रयास किया। जूड़ा बनाया और फिर जोरों की अंगड़ाई ली। चेहरे का मेकअप जगह-जगह से बदरंग हो गया था जहाँ से झांकता हुआ उसका नैसर्गिक यौवन अपनी छटा बिखेरने को लालायित नजर आ रहा था। गाऊन खुला हुआ था। बेबी की निगाहे सीने पर अटक गई। अपने ही यौवन की मादकता को निहारकर उसके होठों पर लज्जाजनित स्मिति फैल गई। शरीर का सारा रक्त मानों चेहरे पर दौड़ने लगी थी और चेहरे पर प्राची की सी लालिमा फैल गई थी। वह शरामती हुई टॉयलेट की तरफ चली गई।
नौकरानी का कमरा भीतर से बंद था। वह किचन के सामने गैलरी में में आकर दीवार से टिककर खड़ी हो गई। वहाँ से वह बाहर का पूरा दृश्य देख सकती थी। चारदीवारी के बाहर दुनिया अपने ढर्रे पर दौड़ने लगी थी। खूँटे से बंधी गाय रह रहकर रंभा रही थी। दूध दूहने वाला जवान डेगची लेकर उसी ओर जा रहा था। बेबी की आँखों में सपने थे। सपने में वह जवान को दूध निकालते हुए देख रही थी। वह सपने लाने वाली रातों के रहस्य के बारे में सोच रही थी।
जवान दूध से भरी हुई डेगची लिए बेबी के सामने खडा़ था। वह किचन में जाने के लिए बेबी से रास्ता मांग रहा था। बेबी न कुछ सुन हरी थी, और न कुछ समझ ही रही थी। वह सिर्फ देख रही थी, अपलक, जवान की आँखों में। गाउन सीने से सरककर पीछे की ओर लटक रहा था और सीना धौंकनी के समान चल रहा था। लड़खड़ाती हुई वह जवान के कंधे पर झूल गई।
आग की तेज लपटों से घी कब तक न पिघलता?
बेबी के बेडरूम से काफी देर तक वैसी ही आवाजें आती रहीं जैसी आवाजें डैडी के बेडरूम से रातों को आया करती हैं। धीरे-धीरे आवाजों का आना बंद हुआ। इन आवाजों का और इस तरह की रातों का रहस्य और रातों को आने वाले सपनों का रहस्य बेबी अब पूरी तरह समझ चुकी थी। उसकी सारी जिज्ञासाएँ अब शांत हो चुकी थी।
बेबी के मन में अब रह-रहकर केवल एक ही प्रश्न मचल रहा था - ''क्या उसने कोई गलती की है?'' फिर दूसरे ही पल दृढ़ता के साथ उसने इस प्रश्न को अपने मन से रद्दी की तरह बाहर उछाला और बाथरूम की ओर चली गई।
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6 विकी का पत्र
विकी पिछले सत्र से स्कूल जाना शुरू कया है। वह अन्य बच्चों की तरह शरारती है। बड़ी खूबसूरत शरारतें करता है, पर वह शैतान नहीं है। वह अपने घर के सामने छोटी सी लॉन में खूब खेलता है। कभी रबर की बाल से कभी अपने लकड़ी वाले घोड़े के साथ। क्रिक्रेट खेलना उसे बहुत अच्छा लगता है। पर वह अकेला ही बॉलिंग, बैटिंग और फील्डिंग तो नहीं कर सकता न। पापा को उसके साथ खेलने के लिए समय ही नहीं मिलता। सुबह से शाम तक बस अॉफिस ही अॉफिस। और मम्मी! वह तो रसोई में ही दिन भर न जाने क्या-क्या करती रहती हैं। पिछले रविवार को जब वह मम्मी-पापा के साथ पिकनिक मनाने गया था, बड़ा मजा आया था। पाप बॉलिंग करते करते और मम्मी फील्डिंग करते करते थक गई थी। वह नाट आऊट ही रहा था। जाने कितनेे चौके लगाया था, और हाँ, तीन बड़े छक्के भी तो जड़ा था। बड़ा मजा आया था। टी.व्ही. पर सचिन को खेलता देख उसे बड़ा मजा आता है। उस दिन मानो वह सचिन की बरारबरी कर रहा था। उसने पक्का निश्चय किया है कि बड़ा होकर वह भी सचिन जैसा ही बनेगा।
पड़ोस के राजू, मोनू और बंटी खेलने अक्सर उसके लॉन में आ जाया करते हैं। पर वे अच्छे नहीं हैं। खेलते कम हैं और पौधों को नुकसान अधिक पहुँचाते हैं। विकी पौधों से बहुत प्यार करता है। पौधों का तोड़ा-मरोड़ा जाना उसे बिलकुल भी अच्छा नहीं लगता। मम्मी कहती हैं - पौधों में भी हम लोगों की तरह जीवन होता है। अगर पौधे न हों तो हम लोगों का जीवन खतरे में पड़ जाएगा।
विकी टी.व्ही पर रोज कार्यक्रम देखता है, पर वह पढ़ने से जी नहीं चुराता । अपना होमवर्क वह रोज ही पूरा कर लेता है। जरूरत पड़ने पर मम्मी से भी पूछ लेता है। मम्मी बड़े प्यार से उसे हर सवाल समझाती हैं।
टी.व्ही. पर आने वाले समाचार उसे बिलकुल भी अच्छे नहीं लगते। समाचार पढ़ने वाले न जाने क्यों रोज राज्य, सरकार, प्रधानमंत्री, आतंकवादी जैसे भारी-भरकम शब्दों का प्रयोग करते रहते हैं। ये शब्द न तो उसकी समझ में आते हैं और न ही अच्छे लगते हैं। मास्टर जी की भी बहुत सी बातें उसे समझ में नहीं आते, सिर के ऊपर से ही गुजर जाते हैं, पर वे बुरे तो नहीं लगते हैं।
पापा अॉफिस जा चुके हैं। मम्मी किचन में काम कर रही हैं। वह सोफे पर अकेला बैठा है, न जाने कहाँ-कहाँ की बातें उसके मन में आ रहे हैं। होमवर्क तो वह पहले ही कर चुका है। स्कूल बस के आने में अभी कुछ समय है।
अकेला बैठा हुआ विकी कुछ सोच रहा है। क्या सोच रहा है वह? सुबह टी.व्ही. पर समाचार सुनकर पापा काफी बौखलाये हुए से लग रहे थे। यही, आतंकवाद और लोगों को गोलियों से भून डालने के समाचार आ रहे थे; शायद इसीलिए। 'क्या है यह आतंकवाद और कौन हैं ये आतंकवादी?' जरूर ये अच्छे शब्द नहीं हैं, वरना पापा दुखी क्यों होते? हाँ शायद बहुत सारे लोगों को गोलियों से भून डाला गया था, इसीलिए पाप दुखी हो रहे होंगे। मरने वाले लोग क्या हमारे रिस्तेदार थे?
ओफ हो! मैं भी कितना बुद्धू हूँ, मरने वाले लोग जरूर हमारे ही परिवार के रहे होंगे। मारने वाले लोग कौन हैं? आतंकवादी ही होंगे शायद। पर ये लोगों को मरते क्यों हैं? जरूर ये अच्छे लोग नहीं हैं। कभी अगर ये मुझे मिल जायें तो मैं इनसे कुट्टी कर लुँगा, हाँ।
पर ये ऐसा करते क्यों हैं? ऐसी घटनाएँ होती क्यों हैं? समझ में नहीं आता।
विकी आगे सोचने लगा - आइडिया! मास्टर जी की जो बातें समझ में नहीं आती उसका मतलब मम्मी से पूछ लिया करता हूँ; क्यों न इन सब के बारे में भी मम्मी से ही पूछ लूँ। पापाजी तो अॉफिस चले गए हैं। और वैसे भी पाप से पूछने का काई फायदा नहीं। कुछ बताते तो हैं नहीं, उल्टा डाट लगा देते हैं। छीः। और मम्मी, वह भी कभी-कभी डाटती तो जरूर हैं, पर पापा जैसा तो नहीं। उनका डाटना भी तो अच्छा लगता है। डाटने के बाद तो वह और भी प्यार से जो समझाती हैं। पाप मुझे कभी प्यार नहीं करते, हमेशा झुंझलाये से रहते हैं। मम्मी बड़ी भली हैं, हमेशा ही वह मुझे प्यार करती रहती हैं। मैं उनका राजा बेटा जो हूँ।
किचन से स्टोव्ह की आवाजें आ रही हैं। मम्मी शायद कुछ,...दूध ही उबाल रही होंगी। बर्तनों के टकराने से पैदा हुई झनझनाहट की आवाज से विकी के सोचने का क्रम टूटता है। पर कुछ ही देर में राज्य, सरकार, प्रधानमंत्री, आतंकवाद, आतंकवादी जैसे शब्द फिर उसके मस्तिष्क में हावी हो जाते हैं। वह पुनः सोचने लगता हैं। इन सबके बारे में मम्मी से आज वह पूछ कर ही रहेगा।
कभी-कभी पापा जब हमें घुमाने ले जाते हैं, तब वह भी मुझे प्यार करते हैं, खूब प्यार करते हैंं। हमेशा गोद में ही लिये रहते हैं। मम्मी के मना करने पर भी मेरे लिए वे खूब खिलौने खरीदते हैं, गोद से उतारते भी नहीं हैं। मम्मी का खिलौने के लिए मना करना, हमेशा गोद में लिये रहने के लिए मना करना, तब मुझे जरा भी अच्छा नहीं लगता। मम्मी भी तब मुझे अच्छी नहीं लगती, जरा भी नहीं। हाँ ! अब समझा, घर में मुझे मम्मी प्यार करती हैं और बाहर जाने पर पापाजी। कितने अच्छे हैं मेरे मम्मी-पापा।
''आई लव यू मम्मी।'' अपनी बेखयाली में विकी एकाएक चहक उठा। दूसरे ही पल अपनी इस बेखयाली पर वह झेंप गया। सोचने लगा - ओहो! यह क्या हो गया?
''विकी, वहाँ क्या कर रहे हो बेटे? देखो, शैतानी नहीं करना। मैं अभी आती हूँ, तूम्हारा दूध लेकर।'' किचन से माँ का प्यार भरा आश्वासन आया।
विकी को लगा, वह सोफे पर नहीं माँ की गोद में बैठा है। टी. व्ही. के वे शब्द एक बार फिर विकी के मस्तिष्क में गडमड होने लगे। राज्य, सरकार, प्रधानमंत्री, आतंकवाद, आतंकवादी लोगों को गोलियों से भूनना। ओहो ! किस शब्द को कहाँ से पकड़ूँ, समझ में नहीं आता। विकी फिर विचारों में उलझ गया। चाहे जो हो, आज मम्मी से इसका हल पूछ ही लेना चाहिए। आ....तं....क, यह शब्द तो कुछ जाना पहचाना लगता है। पर कैसे? हाँ! पापा ने मुझे एक बार कहानी सुनाई थी, शेर और खरगोश की। जंगल के छोटे-छोटे कई जानवरों को मारकर शेर रोज ही खा जाता था। जंगल में शेर का आतंक छाया हुआ था। अब समझाा, आतंक याने डर, भय। शेर जब छोटे-छोटे निर्दोश जीवों को मारता है तब उसे आतंक कहते हैं। और आतंकवाद? आतंकवादी? कुछ भी हो छोटा सा एक खरगोश उस ताकतवर शेर को किस चतुराई से ठिकाने लगाता है। वाह, वाह! चतुर खरगोश जिन्दाबाद। काश मैं भी खरगोश होता, चतुर तो हूँ ही, हाँ।
तभी दूध का गिलास लेकर मम्मी आ पहुँचीं। विकी हड़बड़ा कर खुद को सहज बनाने का प्रयास करने लगा। विकी को इस हालत में देखकर मम्मी घबरा गईं। ''बेटे! तबीयत तो ठीक है? कैसे लग रहा है? अच्छा नहीं लग रहा है क्या?'' एक ही सांस में वह कई सवाल कर गई।
विकी को कुछ जवाब नहीं सूझा। हड़बड़ी में उसके मुँह से निकल गया - ''मम्मी, भूख लगी है।'' पर दूसरे ही पल उसे अपने इस बेखयाली पर गुस्सा आया। भूख लगी है? मम्मी जब जबरदस्ती उसके मुँह में रोटी ठूँसेंगी तब पता चलेगा।
''भूख लगी है? मैं सब समझती हूँ। जरूर कोई होम वर्क रह गया होगा।'' मम्मी बोली, उसका कान उमेंठती हुई।
''़मम्मी! मेरी प्यारी मम्मी, तुम तो सब समझती हो। मुझे कब भूख लगती है, कब नाश्ता करना है, कब नहाना है, कब सोना है, कब स्कूल जाना है और टीचर ने कौन सा होमवर्क दिया है; तुम सब समझ जाती हो।'' विकी मम्मी की खुशामद करने लगा।
''हाँ, हाँ! सब समझ जाती हूँ। यह भी कि टॉफी चुराने के लिए तुम कब स्टूल को सरका कर अलमिरा के पास ले आओगे।'' माँ ने चुटकी ली।
विकी ने शरमाकर अपना मुंँह माँ की आँचल में छिपा लिया।
माँ विकी को दूध पीने के लिए मनाने लगी। विकी ने एक ही सांस में गिलास खाली कर दी, गट, गट, गट। दूध ज्यादा गरम न था। विकी को जल्दी थी। माँ से उसे अभी बहुत सारे शब्दों के अर्थ जो पूछने हैं।
''शाबास! हमारा विकी राजा बेटा है।'' माँ प्यार से उसके सिर पर हाथ फेरने लगी - ''अब चलो, स्कूल के लिए तैयार हो जाओ। मैं तुम्हारा युनीफॉर्म लेकर आती हूँ।'' मम्मी अलमिरा की ओर चली गई।
विकी फिर उदास हो गया। वह अपनी बातें कहाँ से शुरू करे। सरकार? नहीं, नहीं। हूँ .... आतंकवाद? ऊ हूँ। तो फिर? आतंकवादी?
तभी युनीफॅर्म लेकर माँ सामने आ गई। ''विकी, चलो कपड़े बदल लो। स्कूल के लिए देर हो जायेगी।
विकी कुछ न बोला
''तुम्हारी तबीयत तो ठीक है न? आज इतने गुमसुम क्यों बैठे हो? स्कूल नहीं जाना है?'' ढेर सारे प्रश्न करती हुई माँ विकी के मस्तक पर हथेली रख कर ताप मापने का उपक्रम करने लगी। ''मैं सब समझती हूँ। बहाना-वहाना कुछ नहीं चलेगा। चलो, युनीफॉर्म पहनो। चलो, चलो।''
विकी के मन में संघर्ष छिड़ा हुआ था। अपनी बात भला कहाँ से शुरू करे वह? आखिर उसने पूछ ही लिया - ''मम्मी! मम्मी, एक बात पूछूँ?''
''पूछो, इसीलिए उल्लू बने बैठे हो।''
''मरने वाले वे सारे लोग हमारे रिश्तेदार हैं?''
''कौन लोग? मरने वाले कौन? हाँ?''
''ओ, हो! मम्मी वही लोग,'' विकी को मम्मी की अज्ञानता पर झुँझलाहट हुई, ''सुबह जिसकी खबर सुनकर पापा काफी बौखला से गए थे।''
''कहाँ-कहाँ की बातें लिए बैठे हो, शैतान कही के। किसने खबर लाई थी। चलो शर्ट पहनो।'' विकी की बातों को अनसुना करके मम्मी उसका शर्ट बदलने लगी।
''बताइये न मम्मी?''
''किस खबर की बात कर रहे हो?''
''वही, सुबह समाचार वाली, जिसमें आतंकवादियों ने कई लोगों को गोलियों से भून डाला है। बताइये न मम्मी, क्या वे हमारे रिश्तेदार थे?''
मम्मी एकबारगी चौक गई। मामला संजीदा है। उन्हें कोई जवाब नहीं सूझ रहा था। तो क्या वह इस बात को टाल दे? नहीं, ऐसी-वैसी बातों से विकी आज मानने वाला नहीं है। उसके तेवर बता रहे हैं कि उसे जवाब चाहिए ही।
''बेटे, तुम्हें इससे क्या? चलो, स्कूल के लिए तैयार हो जाओ।''
''नहीं! पहले आप मुझे बताइये कि आतंकवाद, आतंकवादी, राज्य, सरकार, ये सब क्या हैं?'' विकी अड़ गया।
बेटे अभी तुम ठीक से समझ नहीं पाओगे। पढ़ लिख लो। बड़े होने पर खुद ही समझ जाओगे।'' मम्मी ने समझाने का प्रयास किया।
पर विकी भी कमर कसकर मैदान में उतरा था, मचलने लगा - ''बताइये न मम्मी।''
''अच्छा, सुनो।'' मम्मी ने समझाना शुरू किया। ''मरने वाले वे लोग चाहे हमारे रिश्तेदार न हों, पर उनके भी तो परिवार होंगे न। तुम्हारे जैसे उनके भी प्यारे-प्यारे बच्चे होंगे, है न? अब उन बच्चों को कौन प्यार करेगा? इसीलिए तुम्हारे पापा दुखी हो रहे होंगे। आखिर वे हैं तो अपने ही देशवासी न। इस नाते वे हमारे रिश्तेदार भी तो हुए। है न?''
''क्या इन लोगों ने कोई गलती की थी?''
''नहीं! वे सब निर्दोष थे। आतंकवादी बिना किसी कारण लोगों को मारते हैं।''
''पर क्यों मम्मी?''
सरकार को परेशान करने के लिए, अपनी बातें मनवाने के लिए।''
''तो क्या आतंकवादी लोग अच्छे नहीं होते? इतने बुरे होते हैं?'' विकी के मन में अब डर समाने लगा था। अ्रगर आतंकवादी उसके भी मम्मी-पापा को मार देंगे तो कौन उसे प्यार करेगा? नहीं, नहीं। ये आतंकवादी जरूर बुरे लोग होते हैं; हम जैसे बच्चों के मम्मी-पापा को मार जो डालते हैं। विकी भय से काँपने लगा। उसे लगा, आतंकवादी उसके मम्मी-पापा को मारने आ रहे हैं।
विकी की हालत देखकर मम्मी घबरा गईं। वह उसे गोद में लेकर चूमते हुए बोली - ''नहीं बेटे, आतंकवादी लोग बुरे नहीं होते। ये तो बस शरारती होते हैं। दूसरों के बहकावे में आकर वे ऐसा करते हैं। जिस दिन वे इस बात को समझ जायेंगे, सब ठीक हो जायेगा। अब चलो तैयार हो जाओ। देखो! बस आ गई।''
पीठ पर बस्ता लादकर विकी बस में जा बैठा, बिलकुल बेमन।
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स्कूल में सारा समय वह उन्हीं बातों से संघर्ष करता रहा। पढ़ाई में जरा भी मन न लगा। टीचर के किसी भी सवाल का जवाब नहीं दे पाया, और इस बात पर उसे डांट भी खानी पड़ी।
घर लौटने के बाद भी उसकी यही हालत बनी रही। होमवर्क में जरा भी मन नहीं लग रहा था। रह-रहकर वह कॉपी में कुछ लिखता और फिर फाड़कर फेंक देता। न जाने किस प्रेरणा से फिर नये सिरे से लिखना शुरू कर देता। पापा अॉफिस से लौटे नहीं थे। मम्मी किचन में रात का भोजन तैयार कर रही थी। अब की बार कॉपी के पन्नों पर उसका अंतर्द्वन्द्व इस प्रकार उतरने लगा-
प्रिय आतंकी अंकलों,
नमस्ते।
मैं आप लोगों के बारे में सही-सही कुछ भी नहीं जानता। टी. व्ही. पर आने वाले समाचारों से ही मैं आप लोगों के बारे में कुछ जानने लगा हूँ। मम्मी कहती हैं कि आप लोग बुरे नहीं हैं। मेरी मम्मी मुझे बहुत प्यार करती हैं। वह मुझसे कभी झूठ नहीं बोलती। आप लोग अच्छे आदमी ही हैं न? तो फिर मुझ जैसे बच्चों के मम्मी-पापा को आप लोग मारते क्यों हैं? ऐसे समाचार सुनकर मेरे पापा काफी दुखी हो जाया करते हैं। आप लोग क्या मेरे भी मम्मी-पापा को मार डालोगे? नहीं, नहीं। मम्मी कहती हैं कि आप लोग दूसरों के बहकावे में आकर ऐसा करते हैं। आप लोग ऐसा क्यों करते हैं? कभी मुलाकात होने पर मैं आप लोगों से विनती करूँगा कि मुझ जैसे बच्चों के मम्मी-पापा को आप लोग न मारा करें। क्या आप लोग मेरी विनती नही मानेंगे?
आपका.... विकी।
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7 स्वर्ग-सुख
सवाल समानता का है। वे स्वर्ग में स्वार्गिक सुख भोगें और यहाँ हम दुख; लानत है ऐसी व्यवस्था पर। इस अन्याय के खिलाफ आवाज तो उठाना ही पड़ेगा। परोठे जी का मन विद्रोह के मूड में आ गया। उसने हॉट लाइन से स्वर्गाधिपति से संपर्क किया - ''हेलो! हेलो।''
''हेलो।''
''कौन, प्रभुजी आप? नमस्कार। मैं ए. जी परोठे बोल रहा हूँ।''
''अच्छा, अच्छा। नमस्कार। सुनाइये आलू गोभी परोठे जी, कैसे हैं?''
''भाई वाह, आपको तो हमारा फूल नेम भी मालूम है।''
''भई परोठे जी, हम ऐसे ही स्वर्गाधिपति नहीं न बन गये होंगे? एक-एक की खबर रखना पड़ती है। हमें तो यह भी मालूम है कि आप अराजधानी वाले एरिया के सबसे उपजाऊ इलाके में रहते हैं।''
''वाह प्रभुजी, आपके कमाण्ड की तो दाद देना पड़ेगी। लेकिन ये अराजधानी और उपजाऊ के क्या मतलब?''
''अरे इसी भेलेपन की वजह से तो आप अभी तक स्वर्ग-सुख से वंचित हैं। जरा कॉमन नॉलेज बढ़ाओ भाई, परोठे जी। अब तुम्हीं बताओ, क्या तुम्हारे इलाके में राजधानी का कानून चलता है?''
''समझ गया प्रभुजी, समझ गया।''
'' अब यह भी बताओ, तुम्हारे इलाके में रोज कितने फूल खिलते हैं? कितने घर बसते हैं?
''समझ गया प्रभुजी, समझ गया।''
''क्या खाक समझ गये? झोपड़पट्टी के गरीब, भले और निरक्षर लोगों के बीच, जिसे हम बेवकूफ समझते है; रहकर भी तुम्हें सुखी जीवन जीने की कला नहीं आई। लानत है तुम पर। स्वर्ग का सुख भोगना चाहते हो, तो परिस्थितियों का नगदीकरण करना सीखो भाई। कहो किस लिए फोन किये हो?''
''प्रभुजी! आप तो वहाँ पर स्वर्ग-सुख भोग रहे हैं, और हम यहाँ नारकीय जीवन जीने के लिये मजबूर हैं। हमें भी तो चांस मिलना चाहिये न।'' परोठे जी ने चिरोरी की।
''देखिये परोठे जी, स्वर्ग का सुख भोगने के लिये कुछ कीमत चुकानी पड़ती है।'' स्वर्गाधिपति ने खुराक पिलाई।
''सो तो ठीक है प्रभुजी, और हम तो तैयार भी हैं; लेकिन हमारी घरवाली का बेड़ा गर्क हो। ऐसे घोर कलियुग में भी सती सावित्री सी पत्नी आपने हमें क्यो दिया? साली, मरने भी नहीं देती।''
''अरे, अरे! परोठेजी, मरने की भला क्या जरूरत है? हमने कब कहा मरने के लिये। बात पूरी सुन लिया करो भाई। मरने की जरूरत नहीं है, मुक्त होने की जरूरत है।''
''मुक्त होने की?''
''अरे भाई, तुम्हारे यहाँ जो फूल खिलते हैं, उसमें फल भी तो लगते होंगे? हमारे यहाँ ऐसी मुसीबत नहीं है। समझ गये न? फल लगने से मुसीबत ही मुसीबत है। रिश्तों और संबंधों की मुसीबत, माँ-बाप, काका-काकी, भाई-बहन, दादा-दादी मुसीबत ही मुसीबत है। यहाँ आराम ही आराम है। नहीं है यहाँ कोई किसी का माँ-बाप, काका-काकी, भई-बहन, दादा-दादी। मुक्ति ही मुक्ति है।''
''समझ गया प्रभुजी, रिश्तों-नातों और मानवीय भावनाओं से मुक्त होना पड़ेगा। फिर मरने की क्या जरूरत है। आदमी को मरा-मराया ही समझो।''
''हाँ! लगता है अब तुम कुछ-कुछ समझ रहे हो परोठे जी।''
''प्रभुजी, आपकी जय होे।'' अपनी तारीफ सुनकर परोठे जी कृतज्ञ हुआ।
''और सुनो, भाई परोठे जी! अभी यहाँ पर कोई जगह खाली नहीं है। वहाँ पर तुम अपनी तैयारी पूरी करो। यहाँ की सारी सुविधाएँ तुम्हें हम वहीं पर उपलब्ध करा देंगे।'' सवर्गाधिपति ने खुशखबरी सुनाई।
''जय हो प्रभुजी, आप तो महान् हैं। आपकी उदारता महान् है। अब फोन रखता हूँ। प्रणाम।''
''फूलो, लेकिन फलो मत। खूब ऐश करो। मुसीबत पड़े तो फिर याद कर लेना।''
कुछ ही दिनों में परोठे जी अपने इलाके के जाने-माने नेता बन गये।
अब वे सरकार में हैं।
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8 मुखौटों वाली संस्कृति
मनुष्य स्वभाव से स्वतंत्रताप्रिय होता है, लेकिन समाज के सारे बंधन उसे स्वीकारने पड़ते हैं। अरस्तु ने कहा है - मनुष्य स्वभाव से सामाजिक प्राणी है, वह समाज के बगैर नहीं रह सकता।
मनुष्य समाज के बाहर रहकर जी भी ले, पर यह निश्चित है कि समाज स्वयं से अलग रहकर जीने की इच्छा रखने वाले मनुष्य को जीने नहीं देती। मुझे डार्विन के जीवन संघर्ष वाला सिद्धांत ही सर्वथा उचित जान पड़ता है। सबल प्राणी जो प्रकृति के सापेक्ष अनुकूलित होने की क्षमता रखता है, वही जीवित रह सकता है; अन्यथा दुश्मन उन्हें जीवित नहीं छोड़ते। हरे पौधों में रहने वाले छोटे जीवजन्तु हरे रंग के होते है और फूलों में पलने वाली तितलियाँ रंगबिरंगी; ताकि प्रकृति के रंगों में स्वयं को छिपाकर दुश्मन की नजरों से बच सके।
मनुष्य भी स्वयं को समाज के रंग में रंगकर अनुकूलित होने का प्रयास करता है, ताकि वह भी दुश्मन की निगाहों से बचा रह सके। रंग बदलने में जो जितना अधिक निपुण होता है, वह उतना ही अधिक सफल होता है। मैंने सोचा था कि मैं बहुरूपियों वाला यह खेल अपने जीवन में नहीं खेलूँगा, पर अपनी इस निष्ठा पर मैं अटल नहीं रह सका हूँ। समाज में जीने के लिये रंग बदलना शायद अनिवार्य होता है।
तो क्या समाज में रंग बदल कर रहना मनुष्य का स्वभाव है, या उसकी मजबूरी?
अन्य लोग अपने-अपने चेहरे के अनुकूलित रंगों को कितने ढंग से देखते-परखते हैं, मैं नहीं जानता; पर मैं स्वयं अपने चेहरे का अक्स तीन तरीके से देखता हूँ; देखता ही नहीं पढ़ता भी हूँ।
कुछ वर्ष पूर्व तक मुझे आइना देखने का बेहद शौक था। घर की कच्ची दीवार की खूँटी पर टंगी टीने की फ्रेम वाली एकमात्र छोटे से दर्पण के सामने खड़े होकर मैं घंटों अपने चेहरे की रंगत का परीक्षण किया करता था। तब मुझे अपनी चिकनी, गोरी और मासूम सूरत पर बड़ा गर्व होता था। कभी हँसकर कभी मुस्कुराकर, आँखों को, भौंहों को और होठों को विशेष आकार दे-देकर अपने रूप-दर्प को मैं अभिव्यक्त किया करता और खुश हुआ करता। कंघी लिये घंटों बाल सँवारा करता। मेरा चेहरा न सिर्फ गोरा, चिकना और मासूम लगता; स्वच्छ निष्कलंक और निश्छल भी लगता। फिर वह दिन भी आया, जिस दिन से दर्पण मेरे लिये आह्लादकारी नहीं अपितु विषादकारी प्रतीत होने लगा। यह सब अचानक नहीं, क्रमशः हुआ; जीव विज्ञान वाले अनुकूलन के सिद्धांत की तरह।
पड़ोसी चाचा की एक लड़की है, कल्पना। हमारा बचपन साथ-साथ बीता। साथ-साथ जवान हुए। शादी उसकी पहले हुई मरी बाद में। कल्पना तब भी मुझे राखी बाँधती थी और आज भी डाक से भेज दिया करती है। वह मायके आई हुई थी। चाचा को अपने काम से छुट्टी नहीं मिल रही थी। चाची फिल्म देखना पसंद नहीं करती थी और घर में कोई अन्य बालिग सदस्य नहीं था जिसके साथ कल्पना को फिल्म देखने भेजा जा सके। परिणामतः यह जिम्मेदारी हमेशा की तरह मुझे सौपी गई। मैं खुश था, परिणाम से बेखबर।
उस रात और दूसरे दिन भर, पत्नी ने मुझसे बात नहीं की और रात में जब उसके फूले हुए गालों की प्रत्यास्थता, सीमा लांघ गई तो वह अचानक फट पड़ी। उस रात उसने मेरी जैसी गत बनाई वह लिखने लायक नहीं है।
दूसरे दिन मैंने अपनी सूरत आइने में देखी। अरे! यह क्या? मेरे माथे पर काला धब्बा। घबराहट में मैं उस धब्बे को तौलिये से जल्दी-जल्दी पोंछने लगा। लाख कोशिशों के बाद भी वह साफ नहीं हुआ। मेरी घबराहट और बढ़ गई। मैंने उसे पानी से, फिर बाद में साबुन से धोकर साफ करना चाहा। परिणाम शून्य रहा। चेहरा खराब हो जाने के कारण मैं बड़ा दुखी हुआ। पता नहीं वह कैसा दाग था, लाख कोशिशों के बाद भी साफ नहीं हुआ। मुझे अपनी वह मासूम सूरत अब डरावनी प्रतीत होने लगी थी।
मैंने अब आइना देखना कम कर दिया। मेरे एक अत्यन्त करीबी मित्र हैं, आत्माराम। आत्माराम की दोस्ती पर मुझे भरोसा भी है और गर्व भी, क्योंकि हमारी यह दोस्ती ऐतिहासिक है और इतिहास साक्षी है, मेरे इस जिगरी दोस्त ने मुझे कभी धोखा नहीं दिया। उसने मुझे बताया, 'मित्र! यह कलंक का टीका है, कभी मिटता नहीं है।'
मैंने अपने परिचितों और परिजनों की संख्या में भारी कटौती कर दी। पान ठेले के सामने खड़े होकर बकबक करना भी मैंने छोड़ दिया। मेरे घर के दरवाजे और अॉफिस की इमारत के बीच के रास्ते भर मुझे केवल छोटे-बड़े मकानों के जंगल ही नज़र आते, जिनकी काई लगी दीवारों पर से अनेक उल्लू नजरें जैसे हमेशा मुझे घूरती रहती।
अॉफिस से छुट्ठी लेकर मैं कहीं बाहर चला गया। सोचा था हवा-पानी में बदलाव आने से चेहरा भी कुछ निखर जाएगा, पर हुआ कुछ नहीं। निराश हो वापस लौट आया। पुरानी जीवनचर्या पुनः आवर्तित होने लगी।
सुबह टहलता हुआ मैं ठेलू पान ठेले की ओर चला गया, जहाँ इस समय मित्र-मंडली के उपस्थित हाने की पूरी संभावना रहती है। ढेलूराम को शायद मेरी ही प्रतीक्षा थी। पहुँचते ही उन्होंने मुझे महीने भर की पान का बिल थमा दिया। बिल में लगभग उतने ही रूपयों का योग था, जितना हमेशा हुआ करता। असहमति प्रगट करते हुए खाते की कॉपी मांगकर मैं उसका निरीक्षण करने लगा, वैसे ही जैसे होमवर्क की जांच करने वाला शिक्षक छात्रों की कॉपी जांचता है। ढेलू राम को मेरा यह कृत्य शायद अप्रिय लग रहा था। पहला कॉलम दिनांक का था, जिसमें पहली तारीख से लेकर महीने की आखिरी तारीख तक का ब्यौरा था। दूसरा कॉलम खरीदी गई वस्तुओं का और तीसरा कॉलम रकम दर्शित करने वाला था। नीचे था पूरे माह भर की उधारी का योग। बिल को छेड़ने की अथवा उस पर किसी भी प्रकार की टिप्पणी करने की मेरी हिम्मत नहीं हो रही थी; लेकिन महीने की उन दिनों में जब मैं बाहर गया हुआ था, मेरे नाम पर किसने उधारी लिखाई होगी? मेरी जानकारी में ऐसा कोई व्यक्ति नहीं था जिससे मेरी अदावत हो। निश्चित ही, यह सरासर बेईमानी थी। ढेलू राम से बिल सही करने के लिये कहकर मैं घर चला आया।
दूसरे दिन हवा में कुछ विशेष प्रकार की तरंगें तैर रही थी, जिसकी आवृत्ति सामान्य ध्वनि तरंगों अथवा रेडियो तरंगों की आवृत्ति से सर्वथा भिन्न और बड़ी शक्तिशाली थी। इसका मज़मून इस प्रकार था - ''खाते समय लोगों को अच्छा लगता है, देते समय हवा निकल आती है, बेईमान कहीं के।'' इस तरंग ने मेरे मस्तिष्क के एक-एक कोश को बुरी तरह रौंद कर निर्बल और असहाय कर दिया। मेरे दुख की कोई सीमा न रही।
मुझे दुखी देखकर मेरे परम मित्र आत्माराम ने मुझे सांत्वना देते हुए कहा - ''मित्र ये बदनामी की शक्तिशाली तरंगें हैं। इनका वेग रेडियों तरंगों के वेग से भी अधिक तेज होती हैं, फैलने में समय नहीं लगता।''
उस दिन दर्पण में मैं अपना अक्स देख न सका। दर्पण से अब मुझे भय होने लगा था। जब भी मैं दर्पण के सामने खड़ा होता, दर्पण में मेरी डरावनी और वीभत्स आकृति उभर आती, जिसका चेहरा बदनामी के गहरे दागों से भरा होता, और माथे पर कलंक का भद्दा टीका लगा होता। मित्र की सलाह पर मैंने दर्पण देखना ही छोड़ दिया। अब मैं हर क्षण सतर्क रहने लगा कि मेरे चेहरे पर और कोई दाग न लगे, मेरा चेहरा और न बिगड़े। जो होना था, हो चुका था, बाकी रह क्या गया था?
लाख सावधानियों के बाद भी मेरे चेहरे पर न जाने और कितने, कैसे-कैसे कालिख पुतते रहे। मैं बाहर निकलने में भय खाने लगा। समाज, परिवार और पत्नी के साथ मेरे संबंध तनावपूर्ण हो चुके थे। इस तनावपूर्ण संबंधों के कारण चेहरे पर उभर आये रेखाओं से निर्मित तनावजालिकाओं को मैं स्पष्ट अनुभव करने लगा था।
लोगों से दुआ-सलाम पूर्ववत ही होता, पर उसमें पहले-सी अपनत्व की भाव-ऊर्जा का प्रवाह न होता। संभवतः लोग मेरे प्रति अब सामान्य हो चुके थे, अथवा सामान्य दिखने का अभिनय करने लगे थे, पर मैं अपना इतना वीभत्स चेहरा लेकर कभी सामान्य नहीं हो सकता था; सामान्य होने का केवल अभिनय ही कर सकता था ओैर करता भी था।
समाज रूपी दर्पण में अब मुझे अवसाद के धुँधलके से घिरा अपना तरह-तरह का चेहरा नजर आने लगा जिसके मूल में मेरे मन की वह ग्रंथि होती, जिसका उत्स भी समाज ही था। वह अक्स कब का गायब हो चुका था, जिसके मूल में निश्छल और निःस्वार्थ मानवीय भावनाओं-जनित बहुरंगी खुशियों का उमड़ता-छलकता रेला हुआ करता था। इसका तिरोहन हो चुका था। मैं सामान्य होकर जीना चाहता था और इस चाहत में मेरी गति विपरीत दिशा की ओर हो गई थी। मैं चाहे दर्पण देखना बंद कर सकता था, सोचना नहीं। सोचने की प्रक्रिया मेरे अस्तित्वबोध और जिन्दा रहने की अनुभूति के लिये आवश्यक थी।
मेरे परम मित्र आत्माराम भी मेरी इस दयनीय हालत से खिन्न मन रहा करते थे। मैं पुनः पहले-सा सामान्य रहने लगूँ , इस बाबत उनके द्वारा सुझाई गई सारी तरकीबें असफल हो चुकी थी। वे अधिकतर अब मौन रहने लगे थे।
ऐसे में मुझे अपने दूसरे मित्र मनमोहन की शरण लेनी पड़ी। वे बड़े चंचल प्रवृत्ति के हैं। इनकी प्रतिभा बड़ी विलक्षण है। इनकी सलाह अचूक थी। चूँकि इनकी पैठ समाज के सूक्ष्मतम स्तर तक है, अतः इन्हें समाज के जाने-अनजाने सभी रहस्यों के बारे में पता है। इनकी सलाह पर अब मैं अपने वीभत्स हो चुके चेहरे के ऊपर बड़ा सुंदर, मासूम और भोला-सा मुखौटा लगाने लगा हूँ।
परिस्थिति, परिवेश और मौसम के हिसाब से मैंने कई मुखौटों की व्यवस्था कर रखी है। इसमें एक मुखौटा बिलकुल वैसा ही है, जैसा बचपन के दिनों में मेरा चेहरा हुआ करता था। आवश्यकता अनुसार दिन में कई बार मैं अपना मुखौटा बदल लिया करता हूँ, पर सर्वाधिक उपयोग इसी मुखौटे का करता हूँ।
मैं अपने मित्र मनमोहन का आभारी हूँ जिसने मुझे दर्पण के सामने खड़ा होने का हौसला फिर से दिलाया। अब मैं अपने तरह-तरह के मुखौटों के साथ सदा खुश रहता हूँ। मेरी पत्नी मुझे अब पहले से ज्यादा प्यार करने लगी है। समाज के वे सारे लोग जो मुझे देखकर अपना रास्त बदल लिया करते थे, अब मेरे आजू-बाजू मंडराते रहते हैं। मैं जानता हूँ कि ये भी, सारे के सारे, मुखौटा लगाये हुए हैं। सब एक दूसरे की इस राज को जानते हैं, पर सभी इस गलतफहमी में और इस बात का दिखावा करते हुए जी रहे हैं कि उनके इस राज को कोई नहीं जानता।
कोई किसी के मुखौटे वाले इस चेहरे का कतई बुरा नहीं मानता। मेरे मुखौटे वाले चेहरे से भी किसी को कोई आपत्ति नहीं है। मेरे आस-पास के सभी लोग, जिनसे मैं संबंधित हूँ, जिन्हें मुझसे संबंधित होना पड़ता है; सब अपने-अपने मुखौटों के साथ खुश हैं।
मेरा मुखौटा मुझे दुख देने लगा है। मैं अपने असली चेहरे के साथ जीना चाहता हूँ, पर मेरा यह दुःसाहस लोगों को पसंद नहीं है।
समाज में जीने के लिए अनुकूलन आवश्यक है। मुखौटों वाली इस संस्कृति में जीना मेरी मजबूरी है।
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9 प्यार की जीत
आखों की नीयत भांपने का औरतों में ईश्वर प्रदत्त गुण होता है। अतः देवीजी की नजरों में मैं एक सद्चरित्र व्यक्ति हूँ, ऐसा दावा करने की मुझमें हिम्मत नहीं। यह अलग बात है कि सामाजिक तौर पर मेरा चरित्र कभी लांक्षित नहीं हुआ है।
देवीजी का चारित्रिक पहलू मेरे लिये सदैव रहस्यमय रहा है। अनेक अवसरों पर उनके व्यवहार की असामान्यता और उनकी आँखों से छलकता प्यार मुझे अभिसार हेतु आमंत्रित करता प्रतीत होता है। मेरा यह आकलन मेरा वहम भी हो सकता है।
मेरी एक स्थापित दुनिया है, जिसके प्रति निष्ठावान होना न सिर्फ मेरा कर्तव्य है, अपितु मेरा सामाजिक दायित्व भी है। सामाजिक मान्यताओं और विश्वासों का उलंघन मेरे लिये आत्महत्या के प्रयास जैसा है। यही परिस्थितियाँ शायद देवीजी के भी समक्ष आती होंगी। यही वजह है कि हम दोनों के लिये एक दूसरे के चाक्ष्विक आमंत्रण का अभिप्रेत समझने का प्रयास करना भी शिष्टता का उलंघन करने जैसा है।
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उस दिन देवी जी काफी प्रसन्न दिख रही थी। व्यवहार सहज और सरल था। प्रसन्नता प्रकृति का दिया हुआ वह अनुपम श्रृँगार है जिससे, अंग-अंग निखरकर, अलौकिक सौंदर्य की सृष्टि होता है। चेहरे पर उषाकाल में सद्यविकसित शीतसिक्त गुलाब की ताजगी और उसके परागकोशों से निकलने वाली मीठी-मीठी महक की प्रतीति हो रही थी। मुस्कुराते हुए उसने कहा - ''कविजी, आज तो आप काफी खुश नजर आ रहे हैं।''
शायद वह मेरी नहीं, अपनी खुशी की बात कर रही थी। सुख या दुख की स्थिति में व्यक्ति संसार रूपी दर्पण में अपने ही मनःस्थिति की प्रतिच्छाया देखता है। उसके रूप सौंदर्य की मायाजाल में उलझा मैं, इस प्रश्न से बौखला सा गया। मैंने सोचा, देवी जी को छेड़ने का इससे बेहतर अवसर फिर नहीं मिलेगा। स्वयं को संयत करते हुए मैंने कहा - ''हाँ, रात में सुंदर सपना जो देखा है।''
''सपना और आप?'' उसने हँसकर कहा - ''किसी नई कहानी का प्लाट तो नहीं सोचा।''
''सचमुच का सपना। क्या मुझसे सपनों को अदावत है?''
''सपने आते हों तो ठीक है, लेकिन देखें जाय, यह ठीक नहीं है। खैर सुनाइये अपनी खुशी का राज।'' उसने कहा।
''तो सुनिये,'' मैंने कहा - ''मैं रेल में सफर कर रहा था, किसी अज्ञात मंजिल की ओर। सब कुछ वैसा ही था जैसा भारतीय रेलों में होने चाहिए। मसलन भीड़, धक्कम-धक्का, तू-तू मैं-मैं, सीट के लिये मारामारी, भिखारी, गंदगी आदि। रेल अपनी पूरी गति से दौड़ रही थी। मेरे हाथों में पुश्किन की कहानियों की एक अनूदित रचना थी। परन्तु काफी प्रयास करने पर भी ध्यान किताब में केन्द्रित नहीं हो पा रहा था।
रात काफी हो चुकी थी। बगल वाली सीट पर अंत्याक्षरी खेलने वाला परिवार और दूर वाली सीट पर राजनीति से धर्मनीति तक वाद-विवाद करने वाले बुद्धिजीवी सज्जनों की मंडली बिखर चुकी थी। सभी लोग सो चुके थे। सिर्फ अकेली उस महिला के जो दूर वाली सीट पर बैठी थी और न जाने कब से मुझे घूर रही थी। कुछ देर सब कुछ सामान्य रहा। चोर निगाहों से यदाकदा मैं भी उसकी ओर देख लेता। परंतु काफी समय बीत जाने के बाद भी जब उसका मुझे घूरना उसी तरह जारी रहा तो मुझे दहशत होने लगी। उनकी बेधती हुई निगाहों से बचने के लियेे मैं सोने का प्रयास करने लगा, परन्तु आँखों से नींद गायब थी।
वह अभी भी मुझे अपलक घूरे जा रही थी। हिम्मत बटोरकर मैं भी उसे घूरने का प्रयास करने लगा। उसके चेहरे पर न तो कुँआरेपन की ताजगी थी, न माथे पर सुहाग की निशानी और न ही व्यक्तित्व पर वैधव्य की नीरसता। उसका चेहरा भाव शून्य था। परन्तु वह अत्यंत रूपवती थी। उसके व्यक्तित्व में अजब सा आकर्षण था।''
सपने की विस्मृत कड़ियों को मिलाने का मिथ्या अभिनय करते हुए थोड़ी देर के लिये मैं चुप हो गया। मेरे सपनों की इस कहानी को देवी जी शायद पूर्ण मनोयोग और तन्मयतापूर्वक सुन रही थी। मेरा एकाएक इस तरह चुप हो जाना उसे अच्छा नहीं लगा होगा। उसने अपनी जिज्ञासा को छिपाते हुए कहा - ''फिर क्या हुआ?''
मैंने कहा - ''शायद उसके मायावी आकर्षण के खिंचाव का प्रतिरोध मैं नहीं कर पा रहा था। मैं स्वयं को असहज और असहाय महसूस कर रहा था और उसकी ओर खिंचता चला गया। मुझे अपने पास पाकर उसने हँस कर कहा - ''आखिर आपने मुझे पहचान ही लिया।''
उसकी वाणी में मधु की मधुरता, मय की मादकता और फूलों की कोमलता थी। वह मुझसे प्रश्न कर रही थी अथवा अपने कथन की पुष्टि चाह रही थी, मैं समझ न सका। हड़बड़ाहट में मैंने कहा - ''आपको गलतफहमी हुई है। अब से पहले हम कभी नहीं मिले हैं।''
''गलतफहमी और मुझे? नहीं, नहीं .....।'' उसके चेहरे पर अवसाद की रेखाएँ उभर आई। लेकिन उसने पहले से भी दृढ़ परन्तु कातर स्वर में कहा - ''क्या सब कुछ भूल गये।''
''सब कुछ? बकवास बंद करो और सो जाओ। रात काफी हो चुकी है।'' मैंने बौखलाकर कहा।
परंतु जैसे उसने मेरी बातें सुनी ही नहीं। बोलते-बोलते वह शून्य में कहीं खोती चली गई। अब उसकी आवाज जैसे दूर, बहुत दूर, क्षितिज पार से आ रही हो। वह बोल रही थी - ''दोष आपका नहीं, समय का है, समय का। याद करो, मैं हूँ तुम्हारी पत्नी परिणीता और तुम हो मेरे पति, परेश। याद करो, याद करो।''
जिस विश्वास और दृढ़ता से वह अपनी बातें मुझ पर प्रक्षेपित कर रही थी, मेरा मन उनकी बातों को शायद स्वीकार कर भी लेता। परंतु मैं जानता था कि हकीकत से इन बातों का कोई वास्ता नहीं है, हो ही नहीं सकता था। दृढ़तापूर्वक मैं अपने उस विचार को झटक कर दूर फेंकने का प्रयास करने लगा और बड़ी मुश्किल से ही सही, अंततः अपने प्रयास में सफल भी हुआ। मैंने कहा - ''आप होश में तो हैं? न मैं आपका पति हूँ और न ही आप मेरी पत्नी।''
परंतु न जाने वह किस दुनिया में खोई हुई थी, कुछ भी नहीं सुन रही थी। और ''याद करो, याद करो, पिछले जन्म में आप मेरे पति थे और मैं आपकी पत्नी। अपने कदमों में मुझे थोड़ी सी जगह दे दो, बस थोड़ी सी।'' कहते हुए वह मेरे कदमों में गिर पड़ी।
''.............?''
''फिर क्या हुआ?''
''फिर, क्या होना था, सपना ही तो था, टूट गया।''
''हाऊ ट्रैजिक। पर इसमें ऐसी तो कोई बात नहीं कि खुश हुआ जाय।''
''है देवी जी, खुश होने का पूरा कारण यहाँ है।''
''बट व्हाट?''
''यह कि उस औरत की सूरत, आपकी सूरत से हू-ब-हू मिलती थी।''
मेरी इस अप्रत्याशित टिप्पणी को सुनकर वहाँ उपस्थित सभी लोग खिलखिलाकर हँस पड़े। देवी जी का चेहरा तमतमा उठा। गुस्से से अथवा लाज से, पता नहीं।
किसी को अपमानित करने वाली टिप्पणी करना अपराध ही है। अपना अपराध स्वीकार करते हुए मैंने कहा - ''माफ करना देवी जी, लेकिन वह आप नहीं हो सकती। इसके लिए चाहें तो आप मुझे सजा दे सकती हैं।''
उस दिन के बाद देवी जी ने जैसे हँसना ही छोड़ दिया था। उसने मुझसे बातें करना बंद कर दिया था। शायद मेरे लिये उसने यही सजा तय किया हो।
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काफी दिन बीत गए। मुझे दुख हुआ। देवी जी के साथ ऐसा अपमान जनक मजाक मुझे नही करना चाहिये था। देवी जी को फिर से किसी बात पर छेड़ सकूँ, इतनी हिम्मत अब मुुझमें नही थी। फिर भी, अॉफिस में काम करते वक्त कभी-कभी हम लोग एक दूसरे को चोर निगाहों से देख ही लेते थे, और अपनी चोरी पकड़े जाने पर झेंप भी जाते थे। स्थिति शायद सामान्य होने लगी थी।
अॉफिस का समय समाप्त हो चुका था। सब लोग जा चुके थें वह अभी भी फाइलों में डूबी हुई थी। चपरासी अपने काम में व्यस्त था। अपने उस मजाक के लिये क्षमा मांगने का यह मुझे अच्छा अवसर लगा। उसके करीब आकर क्षमा मांगते हुए मैंने कातर स्वर में कहा - ''उस मजाक के लिये क्या आप मुझे माफ नहीं करेंगी? यकीन मानिए, मैं आपका दिल दुखाना नहीं चाहता था। मुझे मालूम होता कि मेरा वह मजाक आपकी हँसी छीन लेगा तो ऐसा बेहूदा मजाक मैं हरगिज नहीं करता।''
''कविजी, एक बात पूछेँ?'' चुप्पी तोड़ते हुए और दृढ़तापूर्वक मुझे घूरते हुए उसने कहा। उसका यह घूरना सपने वाली उस औरत के घूरने जैसा ही था।
''पूछिये।''
''वह मैं क्यों नहीं हो सकती?'' उस दिन आपने क्यों कहा कि वह मैं नहीं हो सकती। बताइये?''
''...........।''
''बताइये मैं परिण्ीता और आप परेश क्यों नहीं हो सकते?'' उनकी निगाहें शून्य में न जाने क्या तलाश कर रही थी। वह बोल रही थी - ''वह सपना उस दिन केवल आपने ही नहीं, मैंने भी देखी थी। बिलकुल वही सपना। वही सपना। कवि जी, निःसंदेह आप परेश ही हैं और मैं परिणीता ही हूँ।''
''..............।''
''लेकिन इस जन्म में नहीं, पूर्व जन्म में। कविजी, आइये ईश्वर से दुआ मांगें कि अगले जन्म में मैं फिर परिणीता होऊँ और आप परेश।''
''....................।''
''पर भगवान के लिये इस जन्म में मैं देवी हूँ, मुझे देवी ही रहने दीजिये; और आप कवि हैं, आप कवि ही रहिये। इसी में हमारे प्यार की जीत है और पवित्रता भी। इसी में मुक्ति है, मेरी भी और आपकी भी।''
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10 अन्न से अनेक
मोर्चा ठंड के विरूद्ध है। अगहन-पूस का महीना है और योद्धा है, सुरजा।
सुरजा आश्वस्त था, अंततः जीत उसी की होगी। अब तक वह चालीस मोर्चों पर जीत हासिल कर चुका है। इस वर्ष भी, चाहे जैसे हो, वह ठंड को पराजित करके ही रहेगा। उसने अपने निश्चय को टटोला। अपनी तैयारी का जायजा लिया, इस काम के लिये उसके पास मात्र दो हथियार हैं, पहला - पुराना उधड़ता हुआ कंबल और दूसरा - अंगीठी।
ठंड पूरे शबाब पर है। उसने कंबल को अपने शरीर पर अच्छी तरह लपेट लिया। कंबल जगह-जगह से फट चुका था। उसके शरीर के कई हस्से, कंबल पर अनचाहे खुल आये, इन झरोखों से झांक रहे थे। फिर भी उसने हिम्मत कम नहीं होने दिया। अपनी ताकत को तौला। शरीर में अब पहले सी ताकत कहाँ? उसने जी कड़ा किया, अपने संकल्प को मजबूत किया, दीवार पर कोने में टिका कर रखे हुए सटका-लउठी को मजबूती से थामा और जमीन में पटकता हुआ घुप काली-अंधियारी, हड्डी तक को कंपकंपाने वाली, ठंडी रात में घर से निकल पड़ा।
निकलते वक्त रधिया ने ताकीद किया - ''देख के जाहू।''
अंधियारी रात में रास्ता चलते समय सटका बड़े काम की चीज होती है। जमीन पर उसे पटकने से फटर-फटर की होने वाली आवाज से कीड़े-मकोड़े, साँप-बिच्छू सब, रास्ता छोड़कर भग जाते है। सुरजा कान और सिर को गमछे से अच्छी तरह बांधा हुआ है। फटे हुए कंबल से शरीर को लपेटा हुआ है, फिर भी वह ठंड से कांप रहा है। रास्ते में मिलने वाले संगी-जहुँरिया को राम-रमउआ कहते हुए वह अपने बियारा की ओर बढ़ रहा है। अंधेरे की वजह से कभी- कभी पहचानने में गलती हो जाती है। फिर तो मजाक करने का बहाना ही मिल जाता है। अभी-अभी उसने जिसे राम-राम किसन भैया कहा था, वह मुसुवा कका निकला। कब चूकने वाला था मुसुवा कका, कहने लगा - ''वाह रे ननजतिया, मोसा ल नइ पहिचानस?''
सूरजा भी कहाँ चूकने वाला था, नहले पर दहला मारते हुए कहा - ''अरे! कका हरस गा। आज कइसे संझकेरहा पहुँच गे हस? काकी ह बिना खवाय-पियाय खेदार दिस तइसे लगथे।''
मुसुवा ह कहिथे - ''घोर कलजुग आ गे। बाप सन दिल्लगी करथे ननजतिया मन ह।''
सुरजा ने कुछ नहीं कहा, कुलकते हुए आगे बढ़ गया। सुरजा जब भी खुश होता है, गाने लगता है। अब वह गला खोलकर, पूरे सुर में, रेडियो में रायपुर टेसन पर बजने वाला एक गीत (डॉ. जीवन यदु की कालजयी रचना) गाने लगा -
मोर छत्तीसगढ़ ल कहिथे भइया,
घान के कटोरा
भइया, धान के कटोरा।
मोर लक्ष्मी दाई के कोरा
भइया, धान के कटोरा।
इस गीत को गाते-गाते सुरजा इतना मगन हो जाता है कि, राह चलते भी उसके पैर थिरकने लगते है। सचमुच, लक्ष्मी जइसे छत्तीसगढ़ महतारी के कोरा के समान दुनिया में और कहीं ठौर होगा? गीत में आगे क्या कहा गया है -
चमरू, चैतू, कचरू, केजू माटी के नाव जगाथें।
फुलबतिया, सुखिया, फुलबासन गाँवे ल सरग बनाथें।
जांगर के करमा मेहनत के, हो.....
जांगर के करमा मेहनत के, सुवा-ददरिया गाथें।
मोर राम अस हे खोरबाहरा, सीता अस मनटोरा -
भइया, धान के कटोरा ...।
मनटोरा का नाम आते ही सुरजा का मुँह लाज के मारे ललिया जाता है। क्या कहा है, 'सीता अस मनटोरा'? उसकी घरवाली रधिया भी तो मनटोरा ही है, बिलकुल, सीता जैसी।
धान की सोने जैसी फसल कट चुकी है। अब वह ध्यानमग्न किसी तपस्वी-योगिनी की तरह, बियारा में खरही के रूप में स्थापित है। खरही के नीचे बैठने पर सुरजा के मन को बड़ी शांति मिलती है, लगता है, माँ की गोद में बैठा हो। सुरजा का बियारा बस्ती से बाहर है, जहाँ उसके जैसे और भी बहुतों के बियारे हैं। घर बस्ती के बीचों-बीच पड़ता है। अन्नमाता को बाहर, बियारा में छोड़कर वह घर में कैसे सो सकता है, नींद आयेगी क्या उसे? जेवन करके रोज वह फसल की रखवारी करने बियारा में चला आता है। यहीं सोता है। दो खरही के बीच खाली जगह में उसने झाला बना रखा है। सोते समय झाला के मुँह को वह खरिपा से बंद कर देता है, मजाल हैं फिर, कतरा भर भी ठंडी हवा भीतर आ सके। फिर तो खूब गरमता है। नन्हा शिशु इसी तरह ही तो अपनी माँ की गोद से लिपटकर ऊष्णता पाता होगा।
बियारा के राचर के पास पहुँचकर सुरजा ठहर गया। बियारा के आसपास का जायजा लिया। कहीं कोई हरहा गाय-गोरू तो नहीं होगा? अँधेरे में कुछ दिखता है क्या? पर आवाज से, आरो लेकर तो पता किया ही जा सकता है। वाह! भगवान ने भी क्या रचना रचा है? आश्वस्त हो जाने पर उसने राचर उठाकर अंदर प्रवेश किया। बियारा में नीम अंधेरा पसरा हुआ था। एक ओर से दाऊ के बियारा में जल रहे सौ पावर के बल्ब की और दूसरी ओर से गली के बिजली खंभें के बल्ब की रोशनी आ रही थी। हाथ सुन्न हए जा रहे थे; सोचा, अलाव में थोड़ा सेंक लिया जाय। अलाव में झोंके गये बबूल के मोटे-मोटे तने लगभग बुझ से गये थे। उसने अंगारे पर से राख की परतों को झड़ा कर अलाव को फिर से जलाने का प्रयास किया। मोटी लकड़िया आसानी से जलती कहाँ है? पास ही रखे पैरे की ढेर से उसने एक मुट्ठी पैरा उठाकर अलाव में झोंक दिया। कुछ देर धुँए का गुबार उठने के बाद पैरा भभक उठा। बियारा में रक्ताभ रौशनी फैल गई। सुरजा ने देखा, बीचोंबीच गोबर से लिपा, साफ-चिकना बियारा है और उसके चारों ओर खड़े हैं खरही। सब खैरियत से हैं।
अन्न माता जब तक घर की कोठी में न आ जाय, किसान की नहीं होती। सुरजा को रजवा पर रह-रहकर क्रोध आ रहा था। मिंजाई में सपरिहा बनने के लिए हामी भरा था, परन्तु अब तक वह आजकल में टरकाते आ रहा है। अब वह उसकी और अधिक प्रतीक्षा नहीं करेगा। उजला पाख आते ही, जब चंदा की भरपूर रोशनी मिलने लगेगी, मिंजाई शुरू कर देगा, रजवा चाहे साथ दे या न दे, रधिया तो है ही।
अंगीठी में पैरा झोंकर उसने फिर भुर्री जलाया। भुर्री के अंजोर में झाला के अंदर जाकर अपना बिस्तर ठीक किया। नींद नहीं आ रही थी, आकर फिर अंगीठी के पास बैठ गया। दाऊ के बियारा मेें ठेला-बेलन चल रहा है। हाँकने वालों में मन्ना भी तो है। हाकने वालों की ओ..हो......त...त.. की आवाजें आ रही थी। कभी-कभी कोर्रा-तुतारी भी चल जाता था और ठेला-बेलन जब अपने सही लय पर आ जाता, मन्ना के गले से ददरिया का झरना फूट पड़ता।
बिरबिट करिया रात हे, दिखत नइ हे रस्ता।
गरीब के जिनगी भइया, भैंसा-बइला ले सस्ता।
अलबेला रे, बेलबेलहा रे।
अलबेला रे, बेलबेलहा रे, इतरावत रहिबे न।
चारेच दिन के जिनगी संगी, हाँसत-गोठियावत रहिबे न।
अलबेला रे, बेलबेलहा रे।
दाऊ के घर चरवाही करते-करते मन्ना अब बूढ़ हो गया है। बचपन के संगी-साथी जब बस्ता लेकर स्कूल जाते, वह दाऊ के खेतों पर मजदूरी कर रहा होता। दाऊ की मजदूरी में पूरी उमर गुजारकर क्या पाया उसने? सिर छिपाने के लिये झोपड़ी भी तो नहीं बना पाया। तन ढंकने के लिये ढंग के कपड़े भी तो नहीं है उसके पास। पर उसने कभी इसका हिसाब नहीं लगाया। बस इतना ही काफी है कि बेईमानी का दाग उस पर कभी नहीं लगा। छोटी-मोटी गलतियों पर माँ-बहिन की इज्जत के चिथड़े उड़ाने वाले दाऊ लोग भी अब उससे सम्मानपूर्वक बात करते हैं, ये क्या कम है? पढा़-लिखा नहीं है तो क्या हुआ, रामायण तो बाँच लेता है। गाँव की रामायण मंडली का मुखिया भी तो वही है। क्या हुआ, पंडितों के समान वह रामायण की चौपाइयों का टीका नहीं कर सकता, पर जब वह टीका करने बैठता है तो वाहवाही तो खूब मिलती है, श्रोता मुग्ध हो जाते है। गाँव ही नहीं आसपास के लोग भी इसी कारण उसकी इज्जत करते हैं।
सुरजा भी उनकी खूब इज्जत करता है। सोचता है, मन्ना दादा पिछले जनम में जरूर कोई संत-महात्मा रहा होगा, तभी तो इस जनम में उसके पास ज्ञान का इतना भंडार है। फिर सोचता है, पिछले जनम में अच्छा आदमी रहा होगा, इस जनम में भी अच्छा आदमी है, तब भगवान ने उसे धन दौलत क्यों नहीं दिया? क्यों इतना गरीब है वह? सुरजा ने यही बात एक बार एक बड़े पंडित से पूछा था। पंडित जी ने जवाब में कहा था - ''घर-द्वार, महल-अटारी, जमीन-जायदाद तो माया है सुरजा, असली धन तो ज्ञान है, चरित्र है, जिसे कोई छीन नहीं सकता, जो कभी समाप्त नहीं होता, भगवान ने मन्ना को यही धन दिया है।'' सुरजा को पंडित जी की इस बात में गुलाझांझरी जैसा कुछ लगता है। सोच-सोचकर सुरजा का दिमाग चकराने लगता है। यही बात उसने एक बार मन्ना से भी पूछा था। मन्ना ने कहा था - ''बइहा हो जी तुम, हमारा काम है करम करना, देना नहीं देना उसके हाथ में है। ज्यादा क्यों सोचते हो?''
लेकिन अब बात सुरजा की समझ में आ गई है। नहीं सोचते हैं, इसीलिए हम लोग गरीब हैं। उसने धान की खरही की ओर देखा, जैसे उनकी सम्मति जानना चाहता हो। लगा कि लक्ष्मी माता साक्षात प्रगट होकर आशीष दे रही है। उसका मन आनंद से भर उठा।
मन्ना की बातें फिर उसके मन को मथने लगी। मन्ना कहता है - ''सुरजा, अन्न से अनेक होथे बाबू रे। अन्न हे तब जन हें। दुनिया हे।''
मन्ना की यह ऊक्ति वह बचपन से सुनता आ रहा है। खूब सोचता है वह, कैसे होता होगा अन्न से अनेक? तब उसे इसका यह अर्थ समझ में आया था। अन्न से अनेक होता है मतलब अन्न से अनेक प्रकार के भोजन बनते हैं, जैसे - भात, बासी, अंगाकर रोटी, मुठिया रोटी, चिलारोटी, फरा रोटी, ठेठरी, खुरमी, और न जाने क्या, क्या। सच ही तो है, अन्न से अनेक होता है।
समय बीता, इस कथन का उसे एक और अर्थ समझ में आया। अन्न तो एक है, पर खाने वाले अनेक हैं। पशु-पक्षी भी तो खूब मौज करते हैं, अनाज जब खेतों में होता है। और दुनिया के करोड़ों आदमी तो हैं ही। मन्ना बाबा सच ही कहते हैं - ''अन्न से अनेक होता है।''
पर आज उसने इस ऊक्ति का एक और अर्थ समझा है। उसकी अन्तआर्त्मा कराह उठी। किसान के पास एक अन्न ही तो होता है जिसके बूते वह रोटी, कपडा़, मकान, दवाई, तीज-त्यौहार, लेन-देन करता है। पहले किसान गर्व से फूला न समाता होगा, जब अन्न के बदले वह दुनिया की अनेक वस्तुएँ मोल ले सकता होगा। अब तो इस एक अन्न से एक का ही पेट भरना मुश्किल हो रहा है। रोटी, कपड़ा अैेर मकान का जुगाड़ कैसे हो?
अचानक सुरजा का मन अवसाद से भर गया। कल ही सेठ का तकादा आया है। ''उधार की रकम जल्दी पटा दे, वरना ब्याज पर ब्याज शुरू हो जायेगा। ज्यादा देर किया तो घर की नीलामी हो जायेगी।'' महीना भर भी तो नहीं हुआ है, और अब तकादा? सामान बेचते वक्त कितनी मीठी-मीठी बातें करतें हैं सेठ लोग, और अब जहर बुझे तीर के समान घुड़की।
वह स्वयं को कोसने लगा, उधार की ओखली में सिर ही क्यों दिया उसने? पुराने कपड़ों में दीवाली क्यों नहीं मना लिया? उस क्षण का दृश्य उनकी आँखों के सामने नृत्य करने लगा।
इस साल भरपूर बरसात हुई थी। खेतों में माड़ी-माड़ी इतना पानी भरा था। धान के पौधे भी सिर ढंक जाय, इतना बढ़े थे। सुरजा के पैर जमीन पर नहीं पड़ रहे थे, अरमान पूरे होने दिन जो आ रहे थे। पत्नी कब से रट लगाये बैठी है कि कलाई राड़ी-रेठवा जैसे लगता है, एैंठी बनवा दे। करधनी घिसकर टूट गया है, बदली करवा दे। और न जाने क्या-क्या।
सुरजा ने तब पत्नी को भरोसा दिलाया था कि इस साल वह उनकी कम से कम एक फरमाइश जरूर पूरा करेगा। बैल बूढ़े हो गए हैं, उसे भी बदल देगा। पर अभी तो सामने दीपावली है, कपडा़-लत्ता और तेल-फूल तो पहले चाहिए। सबके बच्चे नये कपड़े पहनेंगे, फटाका चलायेंगे, सबके घर बरा-सोहारी चुरेगा तो बच्चे रेंध नहीं मतायेंगे? बड़ों को समझाया जा सकता है, पर बच्चों को भुरियाना आसान नहीं है। चाहे जो हो, इस साल वह बच्चों के लिये, उसकी माँ के लिये, मनपसंद कपड़े खरीदेगा, गहने भी खरीदेगा।
और वह गाँव के बड़े सेठ का कर्जदार हो गया।
सुरजा को अब स्वयं पर गुस्सा आ रहा है। क्यों देखा उसने सपना? सपने बस उसे देखने चाहिए, जो सुख की नींद सोते हैं। उसे तो सपने में भी जांगर तोड़ना पड़ता है। दिन भर खटने के बाद रात भर दुखती रगों को सहलाते, कराहते ठंड से अकड़ जाना पड़ता है।
कोशिश करने पर भी उसे नींद नहीं आ रही है। मन्ना बाबा ने उसे दुखी देखकर कल ही समझाया था, ''धीरज रख बेटा, रात कतरो लंबा हो जाय, पर पहाथे जरूर।''
सुरजा को पूरा विश्वस है कि मन्ना बाबा का कहा कभी झूठ नहीं होता। पर कहने भर से क्या होगा? सोचे हुए को पूरा करने के लिए कुछ उदिम भी तो करना पड़ता है।
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11 दूसरा सिन्दूर
पश्चिमी क्षितिज में शाम की लालिमा छाने लगी थी। सूरज अस्ताचल में छिप चुका था। दिनभर की तपन प्राणियों को बेचैन कर देती है। ऊपर से बरसता हुआ लू और नीचे से तवे के समान तपती धरती। मई-जून की तपन कष्टदायी तो होता ही है, ऊमस भरा भी होता है। इसी वजह से मीनू आज एक पृष्ठ भी नहीं पढ़ पाया था। शोध कार्य अंतिम चरण में था। संध्या का आगमन कुछ राहत लेकर हुआ था।
मीनू को आज शांत वातावरण मिला था। पिताजी किसी काम से बाहर गए हुए थे। माँ, गुड्डी और पप्पू छः बजे की फिल्म देखने चले गये थे। मीनू घर में अकेला था। वातावरण में कुछ शीतलता आने से मीनू ने राहत की सांस ली। छत के एक कोने में कुर्सी डालकर वह अपने अध्ययन में व्यस्त हो गया। पता नहीं क्यों; काफी प्रयास करने पर भी वह आज अपना ध्यान किताब में एकाग्र नहीं कर पा रहा था। मन बेचैन हो रहा था। किताब बंदकर वह प्रकृति की छटा को निहारने लगा। लालिमा छटने लगी थी। सूरज अस्त होते-होते जैसे धरती को सिन्दूरी चादर से ढक देना चाहता था। नीचे सड़क पर भीड़ बढ़ने लगी थी।
पैरों की आहट से मीनू का ध्यान टूटा। पड़ोस की छत समान ऊँचाई की थी और दोनों घरों की दीवारें लगी हुई थी। श्वेत परिधान में लिपटी मृणालिनी एड़ियों के बल खड़ी होकर और दानों हाथों को ऊपर की ओर तानकर अंगड़ाई ले रही थी। मीनू की उपस्थिति से शायद वह अनभिज्ञ थी। अंग-अंग से फूटता यौवन, यौवन का सौन्दर्य और सौन्दर्य की महक, सब कुछ था पर श्रृंगारहीन, श्रीहीन और सुस्मिति रेखाओं से भी हीन। मीनू ने जैसे उसे पहली बार देखा हो। शायद पहली बार ही देखा था, कम से कम इस नजर से। उसका मन उसके सौन्दर्य के इन्द्रजाल के सम्मोहन से बंध सा गया। यही है बाल-विधवा मिनी। वह अतीत की गहराइयों में डूबता चला गया।
मृणालिनी को परिवार के सभी लोग मिनी कहकर ही पुकारते थे। दोनों परिवारों के संबंध काफी मधुर थे। मिनी मीनू से छोटी थी। दानों एक ही स्कूल में पढ़ते थे। स्कूल से लेकर घर आँगन तक दोनों साथ-साथ रहते, खेलते और बचपन की मासूम शरारतें करते। शरारत करने में मिनी अव्वल थी। मीनू गंभीर प्रकृति का था। मिनी का मन पढ़ाई में कम औार शरारत करने में ज्यादा लगता था। अपनी शरारतों से वह सबको पेशान करती और इन्हीं शरारतों के कारण वह सबकी दुलारी भी थी।
अब उनकी सारी शरारतें पता नहीं कहाँ तिरोहित हो गई हैं।
मीनू चोर दृष्टि से मिनी को लगातार निहारे जा रहा था। पल भर के लिए तो वह सकपकाया। कहीं चोरी पकड़ ली गई तो? मिनी बाल-विधवा थी। अनेक प्रश्न मीनू को उद्वेलित करने लगे। बाल-विधवा होना अपराध है क्या? बाल-विधवा की उपाधि देकर दुनिया किसी जीती-जागती युवती को मुर्दानी जिंदगी जीने के लिए विवश क्यों करती है? यौवन का सुख, जिंदगी की सरसता, होठों की हँसी और चेहरे की लालिमा से वंचित करने वाली सजा समाज उसे किस अपराध के बिना पर दे रही है? निरपराध को ऐसी कठोर सजा क्यों? क्या इसलिए कि वह एक औरत है? यही नियम मर्दों पर क्यों लागू नहीं होता?
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मीनू पुनः अतीत में खो गया। मिनी कक्षा पाँच में पढ़ती थी, जब उसकी शादी समवय की एक सजातीय बालक से कर दी गई थी। कितनी खुश थी मिनी। बड़ी चपलता से उसने सात फेरे घूम लिए थे। वह भी तो कितना खुश था? पिछले साल ही तो उन दोनों ने अपने गुड्डे-गुड्डी की शादी रचाई थी। दोनों के पांव जमीन पर पड़ते न थे। मुहल्ले के सारे हमजोली इस शादी में शामिल हुए थे। बहुत ही उल्लास का वतावरण था। मीनू को अब भी याद है, मिनी की गुड़िया की मांग भरते-भरते उसने डिबिया का सारा सिन्दूर मिनी की मांग में उड़ेल दिया था। मिनी जोर-जारे से तालियाँ बजाकर नाचने लगी थी। पर बाद में उन दोनों को खूब सजा मिली थी। माँ ने डाटते हुए समझाया था, लड़कियों की मांग में उसका दूल्हा ही सिन्दूर भर सकता है। मिनी की मांग में सिन्दूर उड़ेलने के कारण मीनू को भी मां ने खूब डाट लगाई थी, पिटाई भी हुई थी। मीनू को पिटता देख मिनी को बहुत दुख हुआ था।
और इस वर्ष मिनी की शादी हो रही थी। जैसे गुड्डे-गुड्डी की ही शादी रचाई जा थी। मीनू तो उस झण की प्रतिक्षा कर रहा था जब मिनी की मांग भरने की सजा उसके दूल्हे को मिलने वाली है; और उसकी भी वैसे ही पिटाई होेगी, जैसे उसकी हुई थी। पर यह क्या, उसे डाटने की बात तो दूर, लोग उस पर फूल बरसा रहे थे? मीनू को आश्चर्य हुआ। फिर भी मिनी और मीनू दोनों ही खुश थे, गुड्डे-गुड्डी की शादी जो हुई थी।
और साल भर बाद मिनी के घर खूब रोना-धोना हुआ। लोग मिनी को गले लगा-लगा कर रो रहे थे; कह रहे थे, उसका तो भाग फूट गया है। वह विधवा हो गई है। मिनी स्तब्ध थी। लोग छाती पीट-पीट कर इतना प्रलाप क्यों कर रहे हैं? मिनी ने ऐसा कौन सा अपराध कर लिया है कि सब उसे अभागन, कुलक्षणी, पापन और न जाने क्या-क्या कहकर धिक्कारे जा रहे हैं? जलीकटी सुना रहे हैं?
मां-बाप लोगों की उलाहना और बेटी के दुख को सहन नहीं कर पाए; उसे ननिहाल भेज दिया गया। निःसंतान मामा-मामी ने उसे अपनी संतान की तरह प्यार दिया। मिनी ने पूरी पड़ाई-लिखाई वहीं रहकर पूरी की। शादी-ब्याह और फिर विधवा होने का मतलब अब वह अच्छी तरह समझ चुकी है। मीनू को भी पढ़ाई के सिलसिले में बाहर ही रहना पड़ा। विधवा होने का मतलब अब वह भी अच्छी तरह से समझ चुका है।
दस वर्ष ऐसे ही गुजर गए। गर्मी की छुट्टियों में दोनों की कभी-कभी भेट हो जाया करती थी। मिनी अब वह मिनी नहीं रह गई थी जिसके साथ कभी उसने गुड्डे-गुड्डी की शादी रचाई थी। सामना होने पर आँखें चुराकर चुपचाप वह आगे बढ़ जाया करती थी। मीनू को भी पढ़-लिखकर कुछ बनना था। वह अपनी पढ़ाई में ही व्यस्त रहने लगा था।
समय के साथ अब वे समाज की रूढ़ियों और बाल-वैधव्य की दारूणता को और भी गहराई से समझने लगे थे।
इस वर्ष मीनू की पढ़ई पूरी होने वाली थी। परीक्षाओं की अंतिम तैयारियाँ वह घर पर रहकर ही पूरी करना चाहता था। स्नातक की परीक्षा समाप्त कर मिनी भी मां-बाप के पास आई हुई थी। माह भर का समय बीत चुका था। वह रोज ही मीनू के घर आती। चाचा-चाची, गुड्डी और पप्पू से वह खुलकर बातें करती; पर मीनू से सामना होने पर वह कतरा कर बाहर चली जाती। वैधव्य के अभिशप्त दामन में आवृत्त, दारूण-दुख की आँसुओं से भीगी चुप्पी इतनी सहजता से कैसे मुखरित होती? रूढ़ियों की तंग कोठरियों से झांक रहा समाज उसके वैधव्य की कोरी दामन पर चरित्रहीनता का आरोप लगाने में देरी करेगा क्या?
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आज काफी समय से वह मिनी को एकटक देखे जा रहा थां। पहले इस रूप में उसने मीनू को कभी नहीं देखा था। कितनी सुंदर थी वह, तन से भी और मन से भी। कितना मोहक था उसका यौवन। क्या उसके मन में अरमान नहीं होंगे? क्या अब शरारत करने के लिए उसका मन नहीं मचलता होगा? क्या इस सफेद परिधान ने उसका सब कुछ आवृत्त कर रखा है? क्या पूर्णमासी के चांद को समाज की रूढ़ियों ने ग्रस लिया है?
मिनी सिंदूरी आकाश को अपलक निहारे जा रही थी और मीनू उसके सूने निरभ्र मांग को। काश, आकाश अपने विशाल सिन्दूरी फलक से चुटकी भर सिन्दूर लेकर उसकी सूनी मांग को सजा देता। मीनू के मन में आया कि वह मिनी से कुछ बातें करे। पर शब्द होठों पर आकर विलन हो जाते थे। अचानक किताब हाथों से फिसलकर फर्स पर जा गिंरी। फर्स पर किताब के टकराने की आवज से मिनी सचेत हुई। आँचल को संभालते हुए उसने देखा, मीनू झुककर अपनी किताब उठा रहा है। कुछ देर वह यूँ ही खड़ी रही। इधर चोरी पकड़े जाने का अहसास हाने पर मीनू की हालत बुरी हो रही थी। मिनी से रहा नहीं गया। समीप आकर बोली - ''घर में अकेली बोर हो रही थी। समय कट नहीं रहा था। ढलते हुए सूरज को देखना अच्छा लगता है, इसीलिए छत पर आ गई थी। चाची, पप्पू वगैरह तो होंगे न घर पर? ठहरो मैं अभी आती हूँ।'' और वह तेजी से पलटकर गायब हो गई। मीनू ने बताना चाहा कि अभी घर पर कोई नहीं है, पर उसने इसके लिए अवकाश ही नहीं दिया।
आते ही उसने पूछा - ''चाची, पप्पू, कोई नहीं है घर पर?''
मीनू ने सिर हिलाकर कहा - ''नहीं।'' मिनी के इस अप्रत्याशित आगमन से वह असहज हो गया था। थोड़ी देर के लिए चुप्पी छा गई। चुप्पी को तोड़ते हुए मीनू ने ही कहा - ''सिर में दर्द हो रहा है। नीचे हॉटल से चाय पीकर आता हूँ, तुम बैठो।''
''जरूरत क्या है हॉटल जाने की। तुम बैठो, मैं चाय बनाकर लाती हूँ।''
''तकलीफ न उठाओ।''
''तकलीफ कैसी? पराई हूँ इसलिए?''
मीनू निरूत्तर हो गया। उसके मन ने कहा, 'पराई तुम कब हुई थी जो अब होने लगी।' पर कह न सका।
मिनी जब आई तो चाय के साथ एक दर्दनिवारक गोली भी लेती आई। बोली - ''लो! चाय के साथ यह गोली भी ले लो। दर्द जाता रहेगा।''
मीनू ने कहा - ''रख दो, ले लूँगा।''
''नहीं! ऐसे नहीं, तुम मुँह खोलो, मैं खिलाती हूँ। तुम्हारा क्या, किताबों में फिर खो जाओगे, ऐसे कि चाय का ध्यान ही नहीं रहेगा।''
''ऊँगलियाँ दाँतों में आ गया तो?''
''तो क्या? ऐसा पहली बार तो नहीं होगा?''
''पहले की बातें और थी। .... तुम्हें याद है, बचपन के गुड्डे-गुड्डी का खेल, और .....।''
''और क्या?''
''और ..... फिर पिटाई।''
''इसे कैसे भूल सकती हूँ मैं। इसके सिवा मेरे जीवन में और कुछ हआ भी है क्या? मिनी की आवाजें सिसकियों में डूब गई। जो बातें वह कह नहीं पाई उसे सिसकियाँ कह रही थी। थोड़ी देर बाद खुद को संयमित करती हुई मिनी ने कहा - ''जाते वक्त चाची ने ही कहा था, तुम्हारे लिए चाय बनाने के लिए।''
''चाची ने? अच्छा जी! तुम्हें पता था कि घर पर मैं अकेला हूँ।''
''हाँ।'' मिनी ने कहा, चेहरे पर उभर आये लाज की लालिमा को आँचल के कोरों से ढंकते हुए।
''फिर यह अभिनय क्यों किया?''
मिनी बुरी तरह झेंप गई । शर्म के कारण उसके कपोलों पर लालिमा फैल गई।
''मिनी।''
''अ.....हाँ।''
याद है बचपन की वह घटना, जिसके कारण मेरी खूब पिटाई हुई थी।''
''कैसे भूल सकती हूँ। पिट तुम रहे थे और दर्द मुझे हो रहा था। ... और इसी दर्द में तो मेरे प्राण अटके हुए हैं। यही तो वह सहरा है, चाहे तिनके के समान ही सही, जिसके सहारे मैं जी रही हूँ।''
''आज फिर पिटवाने का इरादा है?''
मिनी की आँखें नम थी। गला रूँधा हुआ था, होंठ कांप रहे थे। शब्द मौन थे। क्या जवाब देती?
''जवाब दो मिनी।''
मिनी का सिर अनायास ही स्वीकृति में हिल गया. - हाँ! आज फिर पिटवाने का इरादा है। और मीनू के सीने पर सिर रखकर वह फफककर रो पड़ी।
''पगली रोती क्यों है। माँ की पिटाई की परवाह ही किसे है? अब तो सारी दुनिया से टकरा जाऊँगा। तुम्हारी आँखों में आँसू अच्छे नही लगते। अब तो हँस दो। दस साल से तुम्हारी एक हँसी के लिए तरस रहा हूँ।''
मिनी ने संयत होकर कहा - ''बेफिक्र रहो। अब की बार पिटाई नहीं होगी।''
''सो क्यो?''
''अब सभी राजी हैं।''
''अच्छा जी! तुम्हें कैसे पता?''
''कल ही चाची और माँ इस विषय पर बातें कर रही थी। चाचा और पिताजी की स्वीकृति की भी चर्चा कर रही थी।''
''और छिपकर तुम सारी बातें सुन रही थी।''
''धत्! सुनाने के लिए ही तो ये बातें कही जा रही थी। शायद सीधे-सीधे कहने की वे हिम्मत नहीं जुटा पा रही थीं।''
''और इसीलिए यह नाटक रचा गया है।'' कहते हुए मीनू ने मिनी को अपने आलिंगन में बांधना चाहा।
पर मिनी भी सतर्क थी। ''न! अभी इंतिजार कीजिए।'' कहते हुए वह वह बच निकली और तेजी से सिढ़िया उतरती हुई अपने घर की ओर सरपट दौड़ पड़ी।
सिन्दूरी आकाश ने मानो अपना सारा सिन्दूर मिनी के अस्तित्व पर न्योछावर कर दिया था।
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12 भगवान विष्णु का अज्ञातवास
यह पौराणिक कथा भ्रष्टपुराण से लिया गया है। भ्रष्टपुराण देश का उन्नीसवाँ पुराण है। इस पुराण में देश की संसद और विधान सभाओं के माननीय सदस्यों और सचिवालयों तथा विभिन्न दफ्तरों में कार्यरत अफसरों, बाबुओं और चपरासियों के पवित्र भ्रष्टाचरणों और अत्यंत गौरवशाली दुष्कृत्यों की महिमा का वर्णन किया गया है। इस कथा के चरित्रों का अनुशरण करने वालों को पृथ्वी लोक में स्वर्ग के समान सुखों की प्राप्ति होती है।
धरती नामक ग्रह में भारत वर्ष नामक एक देश है। पहले यह भू-भाग आर्यावर्त्त कहलाता था और देवतागण यहाँ जन्म लेने के लिये तरसते थे। परन्तु आजकल वे सब बिदके हुए हैं। आजकल इस आर्यावर्त्त में घोटालेबाज, और भ्रष्टाचारी लोग जन्म लेने के लिये कतार लगाए हुए हैं। देवताओं के बिदकने और घोटालेबाजों और भ्रष्टाचारियों के लपकने के पीछे छिपे कारण इस प्रकार हैं।
उस जमाने में, जब इस आर्यावर्त्त पर जन्म लेने के लिये देवता लोग तरसा करते थे, यहाँ पर सत्यवंशी राजाओं का राज हुआ करता था। इस वंश के राजा परमप्रतापी और प्रजापालक हुआ करते थे। राजाओं के आचरण और शासन धर्मानुकूल हुआ करते थे। प्रजा प्रसन्न और संतुष्ट हुआ करती थी। किसी के मन में लालच, छल, कपट, ईर्ष्या-द्वेश, घृणा, क्रूरता आदि अमानवीय स्वभावों की छाया भी नहीं हुआ करती थी। सभी आपसी भाईचारे के साथ परस्पर सुख-दुःख बाटते हुए जीवनयापन किया करते थे।
इसी राज्य में भ्रष्टवंशियों का भी एक छोटा सा परिवार निवास करती थी। इस परिवार में लोभमती माता का महाभ्रष्टशाली नामक एक महाबलशाली पुत्र हुआ। इस महाबलशाली पुत्र कोे अपने भ्रष्टाचरण, अधर्मनीति, लालच, छल, कपट, ईर्ष्या-द्वेश, घृणा, क्रूरता आदि अमानवीय स्वभावों और इनसे अर्जित शक्तियों पर बड़ा घमण्ड था। वह इन शक्तियों के बल पर राज्य के परमप्रतापी सत्यवंशी राजाओं को अपदस्थ करके अपना साम्राज्य स्थापित करना चाहता था। लेकिन उसका साथ देने वाला वहाँ पर कोई नहीं था। अपने लिये समर्थन जुटाने के लिये वह नाना प्रकार का छद्म वेश धारण करके लोगों के बीच जाता। लोगों पर अपनी अधर्मनीति, लालच, छल, कपट, ईर्ष्या-द्वेश, घृणा, क्रूरता आदि अमानवीय स्वभावों और इनसे अर्जित शक्तियों को आजमाता। उनसे समर्थन लेने का प्रयास करता। परन्तु राज्य की धर्मप्राण जनता के मन-मस्तिष्क पर इन शक्तियों का कोई असर नही होता था। इन शक्तियों के निष्प्रभावी होने पर लोग उन्हें पहचान लेते थे। पहचान लिये जाने पर उसकी शक्तियाँ क्षीण होने लगती थी। सत्य और धर्म की शक्तियों से वह तपने लगता और अपनी जान बचाने के लिये घने जंगलों और पहाड़ों की गुफाओं में जाकर छिप जाता।
एक समय की बात है। महाबलशाली महाभ्रष्टशाली अपनी प्राण रक्षा हेतु पहाड़ों की गुफाओं में मारे-मारे भटक रहा था। संयोगवश उसकी भेंट महाभ्रष्टवंशियों के महागुरू महामहत्वाकांक्षाचार्य से हो गई। दोनों में परिचय हुआ। महामहत्वाकांक्षाचार्य जैसा महागुरू पाकर महाभ्रष्टशाली और महाभ्रष्टशाली जैसा शिष्य पाकर महागुरू महामहत्वाकांक्षाचार्य, दोनों ही बड़े प्रसन्न हुए क्योंकि दोनों के उद्देश्य समान थे।
महाभ्रष्टवंशियों के महागुरू महामहत्वाकांक्षाचार्य ने महाबलशाली महाभ्रष्टशाली से कहा - ''वत्स, तुम मुझे यूँ आश्चर्य और अविश्वास भरी निगाहों से न देखो। तुम शायद मुझे नहीं जानते हो और मेरी सिद्ध शक्तियों को भी नहीं पहचानते हो; लेकिन मैं तुम्हें अच्छी तरह जानता हूँ। मैं अपनी दिव्य दृष्टि से देख रहा हूँ कि तुम वही हो जिसकी मुझे सदियों से प्रतिक्षा थी। तुम ही हो, भविष्य के महान् महाभ्रष्टवंशियों के महानायक। तुम ही हो जो मेरी महामहत्वाकांक्षाओं को पूर्ण करोगे। आर्यों के इस महादेश आर्यावर्त्त में महाभ्रष्टवंशियों का साम्राज्य स्थापित होने से अब कोई नहीं रोक सकेगा। सत्यवंशी राजाओं के दिन अब समाप्त हुए ही समझो। हे महाभ्रष्टशाली! तुम ही तो महाभ्रष्टवंशियों के महानायक हो। समस्त भू-लोक पर अब तुम्हारा ही साम्राज्य स्थापित होने वाला है। मैं हूँ महाभ्रष्टवंशियों के महागुरू महामहत्वाकांक्षाचार्य।''
महाभ्रष्टशाली ने भी महागुरू महामहत्वाकांक्षाचार्य के बारे में सुन रखा था। उनको लगा, महागुरू महामहत्वाकांक्षाचार्य का प्रश्रय, प्रेरणा और मार्गदर्शन में उनकी महत्वकांक्षा अब पूरी होकर ही रहेगी। उन्होंने महागुरू महामहत्वाकांक्षाचार्य को साष्टांग दण्डवत किया। दोनों मिलकर अब सत्यवंशी राजाओं को पराजित करने के लिये योजनाएँ बनाने लगे।
कई दिन और कई रातें जागकर उन दोनों ने परिस्थितियों का विश्लेषण किया। दैत्यों के इतिहास का गहन अध्ययन किया। अब तक देवताओं के साथ हुए संग्रामों में दैत्यों को मिले पराजय के कारणों का पता लगाया। देवताओं के युद्धनीति के अनिवार्य तत्व कूटनीति को बारीकी से समझा और जो अंतिम निष्कर्ष निकाला गया उसका सार इस प्रकार था।
निष्कर्ष को समझाते हुए महागुरू महामहत्वाकांक्षाचार्य ने कहा - ''वत्स! देवों और दानवों के इतिहास का; दोनों के बीच होने वालेे युद्धों का गहन और सूक्ष्म विश्लेषण करने के बाद मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि हमें अपनी पराजयों से सीख और देवताओं की विजयों से प्रेरणा लेनी चाहिए। हमें अब देवताओं की नीति को अपनान पड़ेगा। आज यहाँ सत्यवंशी राजाओं का राज्य है इसलिये यहाँ पर जन्म लेने के लिये देवता लोग तरस रहे हैं। लेकिन वत्स! वह दिन दूर नहीं है जब इस धरती पर तुम्हारा और तुम्हारे वंशजों का राज्य होगा। तब देवता लोग इस धरती की तरफ पलट कर देखना भी पसंद नहीं करेंगे। केवल दैत्य ही यहाँ जन्म लेना चाहेंगे। तब दैत्य ही यहाँ के देवता कहलायेंगे।''
महाबलशाली महाभ्रष्टशाली ने कहा - ''गुरूदेव! सो तो ठीक है। पर यह कब होगा? इसके लिये मुझे क्या करना होगा?''
''तप, घोर तप। वत्स! तुमने ध्यान नहीं दिया; शक्तियाँ प्राप्त करने के लिये हमारे महानायकों द्वारा किये गये अनेक महान् और घोर तपों की ओर। दैत्यों का इतिहास साक्षी है, हमने घोर तप करके ब्रह्मा, विष्णु और महेश से वर प्राप्त किये हैं। तुम्हें भी अपने पूर्वजों की तरह तप करना होगा।'' महागुरू महामहत्वाकांक्षाचार्य ने कहा।
''गुरूदेव! आज्ञा दीजिये। तप करने मैं अभी प्रस्थान करता हूँ।'' महाबलशाली महाभ्रष्टशाली ने अपने लंबे और घने मूँछों पर ताव देते हुए कहा।
''लेकिन किस देवता का आह्वान करोगे और कौन-कौन से वर मांगोगे?''
''इस पर तो मैंने विचार ही नहीं किया।''
''वत्स! इसीलिए, बस इसीलिए दैत्य हमेशा मात खाते रहे हैं।'' महागुरू महामहत्वाकांक्षाचार्य ने समझाया, ''पहले यह तय करना होगा कि ब्रह्मा, विष्णु और महेश, तीनों में से किसका तप किया जाय। फिर उसके स्वभाव, प्रकृति और योग्यता के अनुसार उनसे किस प्रकार का वर मांगा जाय।''
महाबलशाली महाभ्रष्टशाली ने कहा - ''इसमें सोचने की क्या बात है गुरूदेव, मैं तो अवगढ़दानी भोले शंकर का ही तप करूँगा और उनसे अमरत्व का ही वरदान प्राप्त करूँगा।''
''मूर्खतापूर्ण बातें न करो वत्स।'' महागुरू महामहत्वाकांक्षाचार्य ने थोड़ा झिड़कते हुए कहा, ''दैत्यों ने अब तक जो गलतियाँ की है, तुम भी वही दुहराओगे?'' महागुरू महामहत्वाकांक्षाचार्य ने आगे कहा - ''वर देने वाले सारे देवता बड़े चालाक होते हैं। स्वयं तो अमर होते हैं पर अमरत्व का वरदान किसी को देते नहीं हैं। अमर होने की स्थिति में छल करके हमें हमेशा इससे वंचित कर देते हैं। कहते हैं, कोई दूसरा वर मांगो जो अमरत्व के समान हों। और यहीं हम दैत्यों की बुद्धि चकरा जाती है। इधर हम ब्रह्मा से अमरत्व सदृश्य कोई दूसरा वर मांगते हैं और उधर कुटिल विष्णु फौरन इसकी तोड़ खोज लेता है।''
''तो फिर आप ही कुछ तरकीब सुझाएँ गुरूदेव; जल्द आदेश दें, मेरा तो धैर्य ही समाप्त हुआ जा रहा है।'' महाबलशाली महाभ्रष्टशाली ने अत्यंत अधीर होते हुए कहा।
''शांत, वत्स! शांत। इतना अधीर मत बनो। इसका उपाय मैंने ढूँढ़ लिया है।'' महागुरू महामहत्वाकांक्षाचार्य ने कहा - ''वत्स, हमें भी तनिक कुटिलता से काम लेना होगा।''
''सो कैसे गुरूदेव।''
''वत्स! तुम तपस्या में विष्णु का आह्वान करोगे और उन्हीं की कूटनीति से उन्हें पराजित करोगे।''
''आदेश दे गुरूदेव, मुझे कौन सा वर मांगना होगा।'' महाबलशाली महाभ्रष्टशाली का उत्साह छलका जा रहा था। उन्होंने अतिउत्साह दिखाते हुए कहा।
''वत्स दीवारों के भी कान होते हैं। अपना कान मेरे मुँह के निकट लाओ। कोई अन्य सुनने न पाये। क्या पता, छलिया विष्णु यहीं कहीं पर तोता, मैना, शेर, भालू या अन्य किसी रूप में मौजूद हो? गोपनीयता जरूरी है।'' महागुरू महामहत्वाकांक्षाचार्य ने कहा और फिर विष्णु के प्रगट होने पर उनसे क्या वर माँगना है, यह बात महाबलशाली महाभ्रष्टशाली को अच्छी तरह से समझा दिया।
महाबलशाली महाभ्रष्टशाली की प्रसन्न्ता का कोई ठिकाना न रहा। वह फौरन उठा, गुरू से आशीर्वाद लिया और तप करने चल पड़ा।
उधर भौंरे का रूप धारण कर जासूसी करते, वही आस-पास मंडरा रहे भगवान विष्णु के होश फाख्ता हो गये। यद्यपि महागुरू महामहत्वाकांक्षाचार्य ने पूरी सावधानियाँ बरतते हुए महाबलशाली महाभ्रष्टशाली के कानों में बातें कहीं थी, फिर भी उसने सब कुछ सुन लिया था। उन्होंने फौरन अपने दिमाग के टाईम मशीन के भविष्य की यात्रा पर ले जाने वाली स्विच को अॉन किया। भविष्य की एक-एक घटनाएँ टाईम मशीन के परदे पर उभरने लगी। देखकर भगवान विष्णु के चेहरे का रंग बदलने लगा। आँखें भय के कारण फैलने लगी। पीतांबर पसीने से भींगने लगा। शंख, चक्र और गदा हाथ से छूटने लगे। शरीर शिथिल पड़ने लगा। शोक और चिंता के कारण शरीर बलहीन होने लगा। अंत में लस्त-पस्त होकर वे शेष-शैय्या पर गिर गये।
देवी लक्ष्मी ने इससे पहले कभी भी, अपने स्वामी की ऐसी हालत नहीं देखी थी। उसके मस्तिष्क में ऐसा आघात लगा कि वे कोमा में चली गई। शेष नाग बदहवास होकर जोर-जोर से फुँफकारने लगा। दुनिया में अफरातफरी मच गई। ब्रह्मा और शिव, इन्द्र आदि समस्त देवताओं के साथ फौरन नंगे पांव क्षीर-सागर की ओर दौड़े। देवताओं को सहायतार्थ उपस्थित देख शेष नाग को कुछ घीरज बंधा। उसका फुँफकारना बंद हुआ, पर उसके हाँफने और कांपने का क्रम अब भी चल रहा था। हाँफते और काँपते हुए बड़ी मुश्किल से उसने देवताओं को अपने स्वामी और स्वामिनी की दशा का बोध कराया।
देवताओं के अथक और समवेत प्रयास से स्थिति काबू में आई। विष्णु की ऐसी दशा देवताओं ने भी पहले कभी नहीं देखी थी। भविष्य में किसी घोर विपत्ति की आशंका ने उनके मन में दहशत पैदा कर दिया। अत्यंत दीन स्वर में उन्होंने श्री विष्णु से पूछा - ''हे दुनिया के पालनहार, आपकी ऐसी दशा पहले तों कभी नहीं हुई। आखिर बात क्या है?''
श्री विष्णु ने स्वयं को संयमित करते हुए कहा - ''हे परमपिता ब्रह्मा, हे शिव शंकर, ......'' श्री विष्णु का गला सूख रहा था। आवाज अटक रही थी। होश संभाल चुकी देवी लक्ष्मी जी फौरन सोमपात्र ले आई। सोमपान से गला तर करने के बाद श्री विष्णु ने फिर कहना शुरू किया - ''देवताओं, भविष्य में महा संकट उपस्थित होने वाला है। पृथ्वी पर भ्रष्टवंश में इस समय महाबलशाली महाभ्रष्टशाली नामक परम भ्रष्ट व्यक्ति का जन्म हो चुका है। वह तपस्या करने के लिये तपोवन की ओर जा रहा है। महागुरू महामहत्वाकांक्षाचार्य का उन्हें संरक्षण प्राप्त है।''
''हे भगवन! पृथ्वी पर यह कोई नई बात नहीं हैं पूर्व में भी कई दैत्यों ने तपस्या की है।'' देवताओं ने समवेत स्वर में कहा।
श्री विष्णु ने कहा - ''परंतु हे देवताओं, उन दैत्यों के वरदान प्राप्त करने से जो समस्याएँ उत्पन्न हुई थी, वे सब बहुत मामूली थे। अब की बार बड़ी विकट समस्या पैदा होने वाली है, सावधान!'' इतना कहकर भगवान विष्णु क्षीर-सागर, शेष-शैय्या और देवी लक्ष्मी जी को वहीं छोड़कर अदृश्य हो गए।
देवगण भी अपने-अपने लोक चले गए।
महाबलशाली महाभ्रष्टशाली ने तप करना प्रारंभ किया। तप क्रिया को सरल, संक्षिप्त परंतु अधिक प्रभावोत्पादक बनाने के लिये उन्होंने आधुनिक तकनीक का इस्तेमाल किया। हाई-टेक प्रणाली से तप करने पर न तो उसे हजारों साल का समय लगा और न ही उसके शरीर पर दीमकों ने घर ही बनाया। अतिशीघ्र उसके तप की अग्नि से सारी पृथ्वी झुलसने लगी। ''ओम विष्णुवायः नमः'' की जाप से धरती का कोना-कोना गूँजने लगा। इधर श्री विष्णु महाबलशाली महाभ्रष्टशाली के समक्ष वरदान देने किसी भी हालत में प्रगट होने से बचना चाहते थे, परन्तु उसकी कोई भी चालाकी काम न आई। महाबलशाली महाभ्रष्टशाली अब तक ब्रह्मा और शिव को कई बार रिफ्यूज कर चुके थे। महाबलशाली महाभ्रष्टशाली की तपोबल से प्रगट अग्नि से झुलसती धरती को बचाने के लिये अंततः श्री विष्णु को प्रगट होना ही पड़ा।
श्री विष्णु को अपने सम्मुख उपस्थित देख महाबलशाली महाभ्रष्टशाली के मुख पर विजयी आभा चमकने लगी। उन्होंने पहले उनके असली हाने की, अर्थात देवताओं के द्वारा उसके साथ कोई छल तो नहीं किया जा रहा है, इस बात की जांच की। संतुष्ट हो जाने पर उन्होंने श्री विष्णु को दण्डवत् प्रणाम किया।
श्री विष्णु ने बड़े बुझे मन से उसे आशीर्वाद दिया और तब वरदान मांगने के लिये कहा।
महाबलशाली महाभ्रष्टशाली ने कहा - ''हे श्री विष्णु! यदि आप मेरे तप से प्रसन्न हैं तो मुझे यह वरदान दीजिये कि ''यदि कोई मेरे विषय में सोचे या मुझे मारने या मिटाने का विचार भी अपने मन में लाये तो मैं उसके ही अंदर जीवित हो उठूँ।''
श्री विष्णु को दैत्य गुरू के इस योजना के विषय में तो पहले से ही पता था लेकिन वरदान देने के लिये वे विवश थे। अंततः बड़े बुझे मन से उन्होंने महाबलशाली महाभ्रष्टशाली को वरदान दिया।
वरदान पाकर महाबलशाली महाभ्रष्टशाली बड़ा प्रसन्न हुआ। घर आकर उन्होंने अपना राजपाठ संभाल लिया। दिन दूनी और रात चौगुनी की गति से उसका प्रभाव अब चारों ओर फैलने लगा। सत्यवंशी लोग पहले महाबलशाली महाभ्रष्टशाली को आसानी से पहचान कर परास्त कर देते थे, परंतु अब, श्री विष्णु के वरदान के प्रभाव के कारण महाबलशाली महाभ्रष्टशाली को पराजित करने या समाप्त करने का विचार जैसे ही उनके मन में आता, वे भी भ्रष्टवंशियों की तरह व्यवहार करने लगते। देखते ही देखते धरती के सारे लोग भ्रष्टाचार में लिप्त रहने लगे। धरती में पूरी तरह महाबलशाली महाभ्रष्टशाली का प्रभुत्व हो गया।
धरती पर पाँव पसार रहे भ्रष्टाचार को देख कर इन्द्र, वरुण, अग्नि आदि देवता बड़े चिंतित हुए। भ्रष्टाचार का सारा जड़ महाबलशाली महाभ्रष्टशाली ही था। महाबलशाली महाभ्रष्टशाली को मिटाने का संकल्प लेकर वे अपनी दिव्य शक्तियों के साथ निकले लेकिन इस संकल्प के साथ ही महाबलशाली महाभ्रष्टशाली उनके अंदर जीवित हो गया और वे भी भ्रष्टाचारियों के समान व्यवहार करने लगे।
इस तरह देखते ही देखते, धरती ही नहीं स्वर्ग में भी, महाबलशाली महाभ्रष्टशाली का साम्राज्य स्थापित हो गया।
श्री विष्णु को डर था कि परंपरा अनुसार, देवगण महाबलशाली महाभ्रष्टशाली के अत्याचार से त्रस्त होकर यदि उसे मारने की प्रार्थना लेकर उसके पास आये तो वे बड़ी मुसीबत में पड़ जायेंगे। परंतु उसे बड़ी हैरानी हुई। कोई भी देवता, यहाँ तक कि इन्द्र भी, ब्रह्मा, शिव और अन्य देवताओं के साथ उसके सामने त्राहिमाम्! त्राहिमाम्! कहते हुए अब तक उपस्थित नहीं हुआ। श्री विष्णु ने देखा, इन्द्र आदि सभी देवगण भ्रष्टाचार में लिप्त होकर बड़े एशो आराम की जिंदगी जी रहे हैं। गरीब और मजदूर लोग भी मौका मिलते ही छोटा-मोटा भ्रष्टाचार करने से नहीं चूकते। साधु महात्माओं का भी यही हाल है। गिनती के कुछ ऋषि-मुनि टाइप लोग जो इस पचड़े से बचना चाहते थे, हिमालय की निर्जन गुफाओं में समाधिस्थ होकर हरिनाम का जाप कर रहे हैं।
हमारे ऋषि-मुनि तो मोहमाया से निर्लिप्त सिद्ध पुरूष होते हैं; इन्हें समाज से, मनुष्य से या किसी से क्या लेना-देना?
संपूर्ण धरती और स्वर्ग में भ्रष्टाचार फैला देख श्री विष्णु को आत्मग्लानि हुई। आखिर यह सब उन्हीं के वरदान का दुष्परिणाम जो है। बहुत सोच विचारकर उन्होंने निर्णय लिया कि धरती और स्वर्ग से भ्रष्टाचार को मिटाने के लिये अब महाबलशाली महाभ्रष्टशाली का वध अनिवार्य हो गया है। लेकिन यह क्या; मन में ऐसा विचार आते ही श्री विष्णु के भी हृदय में तरह-तरह के भ्रष्टाचारी विचार आने लगे। उन्हें विश्वास था कि उनका दिया हुआ वरदान उन्हीं पर लागू नहीं होगा; लेकिन वरदान कभी झूठे होते हैं?
श्री विष्णु ने भ्रष्टाचार को मिटाने का विचार छण भर में ही निकाल बाहर किया। उन्होंने देखा कि सारे जिम्मेदार लोग महाबलशाली महाभ्रष्टशाली की व्यवस्था से अत्यंत खुश हैं, किसी को कोई शिकायत नहीं है। उन्हें सत्यवंशियों की ओर से शिकायत का सबसे अधिक डर था; पर आश्चर्य, भ्रष्टाचार में ये ही सबसे अधिक लिप्त थे। ऋषि-मुनि लोग तो जीते जी मोक्ष पाकर बैठे हुए हैं। उन्होंने सोचा - ''सारे लोग तो इस व्यवस्था से प्रसन्न हैं, संतुष्ट हैं, फिर जबरन बखेड़ा मोल लेने से क्या फायदा?'' फिर उसकी अंतरआत्मा ने कहा - ''नहीं, कुछ गरीब और लाचार लोग शिकायत लेकर मेरे सामने पहुँच ही गए तो क्या होगा? ऐसी स्थिति में मैं उन लोगों की कोई सहायता नहीं कर पाऊँगा और तब तो लोग मुझे दीनबंधु ही कहना छोड़ देगें। मेरी प्रतिष्ठा धूल में मिल जायेगी।''
श्री विष्णु को अपनी विवशता पर रोना आया। बदनामी और आत्महीनता से बचने के लिये उन्हें एक ही उपाय सूझा कि वे भी ऋषि-मुनियों की तरह हिमालय की निर्जन गुफाओं में समाधि लगाकर बैठ जाये।
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उन्हें समाधिस्थ हुए सदियों बीत गये हैं लेकिन किसी को कुछ भी पता नहीं है कि वे किस जगह पर, किस हाल में हैं। धरती के प्रभावशाली, साधन-संपन्न और पुजारी-पंडे लोग, जो श्री विष्णु को ढूँढ सकते थे, जो श्री विष्णु के बिना पहले पल भर भी नहीं रह सकते थे, अब उन्हें पूरी तरह भूल चुके हैं। अब तो वे बड़ी लगन और भक्ति भाव से महाबलशाली महाभ्रष्टशाली की चापलूसी में लगे हुए हैं।
गरीब और दीन-दुखियों की आवाजें न तो पहले ही उन तक पहुँच पाती थी और न ही अब उन तक पहुँच पा रही है। पहुँचती भी होगी तो श्री विष्णु जी उसे अनसुना कर जाते होंगे। महाबलशाली महाभ्रष्टशाली को दिये वरदान का उन्हें आज भी स्मरण है। गरीबों और निर्बलों की करुण-क्रन्दन सुनकर उसकी समाधि और भी गहरी हो जाती होगी।
परन्तु लोगों में यहाँ अफवाह फैली हुई है कि भगवान श्री विष्णु अपनी निराशा, हताशा, कुण्ठा और लाचारी के कारण आत्महत्या कर चुके हैं।
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13 भगत जी पर भगवद्कृपा
हमारे भगत जी बड़े सज्जन पुरूष हैं। सरल इतने, जैसे दो और दो का जोड़ और सीधा ऐसे जैसे मृतात्माओं के लिये स्वर्ग जाने का रास्ता। अपने-अपने विश्वास की बात है, दो और दो का जोड़ पाँच भी हो सकता है। इसी प्रकार अपनी-अपनी रूचियाँ हैं, मरने वाले की आत्मा चाहे जिस रास्ते पर जाती होंगी, हमें तो सीधा रास्ता ही पसंद है। अगर सीधे और सरल शब्दों में कहूँ तो हमारे भगत जी हिन्तुस्तान की सौ करोड़ की जनसंख्या में से वह हैं जिसे हम आम आदमी या जनता कहते हैं। जनता वह जो सब जानती है, पर चुप रहती है।
धार्मिक लोग दो तरह के होते हैं। प्रथम वे, जो धर्म के नाम पर लोगों को डराते हैं ओर दूसरे वे जो धर्म के नाम पर डराने वालों के धौंस से सदा डरे-सहमे रहते हैं। दूसरे शब्दों में; प्रथम वे जो लोगों को भगवान के अस्तित्व का विश्वास दिलाते हैं और दूसरे वे जो उनके विश्वासों पर आँख मूँदकर विश्वास करते चले जाते हैं।
भगत जी दूसरे श्रेणी के जीव हैं।
पूजा दो प्रकार के लोगों की होती है। एक उनका, जो गण या गणनायक होते हैं। दूसरे में उनकी जो जन या जननायक होते हैं। भगत जी न तो गणों की श्रेणी में आते हैं और न ही जनों की। वे तो जनता नामक अनंत समुच्चय का एक अनजाना और उपेक्षित अवयव मात्र हैं। जनता का समुच्चय ही हो सकता है, श्रेणी नहीं।
कबीर दास ने कहा है - 'दुख में सुमिरन सब करे।' यह जन भाषा है। अगर अर्थशास्त्र की भाषा में कहें तो मुसीबत के समय लोगों की आस्तिकता दर में अभूतपूर्व तेजी आ जाती है। आस्तिकता और मुसीबत में समानुपात का संबंध है। मंदिरों में एकत्रित भीड़ आस्तिकों की नहीं, मुसीबत के मारों की हुआ करती है। आस्तिकता का जन्म मुसीबत की कोख से हुआ करती है।
भगत जी यूँ तो जन्मजात आस्तिक हैं, परन्तु आजकल वे आस्तिकता की चरम स्थिति में पहुँच चुके हैं अर्थात अब वे कट्टर आस्तिक बन गये हैं।
हमारा देश तैंतीस करोड़ देवताओं का अनूठा संग्रहालय है। अपनी सुविधा, अपनी क्षमता, और अपनी रूचि के अनुसार (अधिकांश लोग इन शब्दों की जगह आस्था और विश्वास जैसे संरक्षित शब्दों का इस्तेमाल करते हैं।) हम किसी भी देवता को अपनी आस्तिकता प्रदर्शित करने के लिये चुन सकते हैं। भगत जी ने भगवान वक्रतुण्ड महाकाय एकदन्त लम्बोदर स्वामी को अपना ईष्ट देव मान लिया हैं।
गणेश जी की आस्तिकता के अनेक लाभ हैं। प्रथम यह कि ये सवामी महराज रास्ते का सस्ता, अॉल इन वन भगवान हैं। रास्तें में चंदा उगाही, रास्ते में स्थापना और रास्ते में ही सिरोना। चाहो तो मोदक का भोग लगाओ अन्यथा ककड़ी-खीरा से भी काम चल जाता है। इन्हें चाहे तो सोने की आसन पर बठा दो, चाहे तो टूटी हुई कुर्सी पर। बुद्धि, बल, यश, धन, पुत्र आदि अनेक महत्वपूर्ण मांगों के लिये अलग-अलग देवताओं की शरण में जाने की जरूरत नहीं है। लम्बोदर स्वामी जी अकेले ही इन सारी मांगों और समस्याओं को हल करने की क्षमता रखते हैं। इसीलिये ये अॉल इन वन भगवान हैं। इनकी महिमा निराली है, सर्वविघ्ननाशक हैं ये।
गणेश पूजन का पक्ष चल रहा था। भगत जी के मन में अपने घर की बैठक के एक कोने में भगवान गणेश को प्रतिस्थापित करने का विचार आया। यह उनका प्रथम वर्ष था। मूर्ति की पूजा और प्राण प्रतिष्ठा हेतु भगत जी ने गाँव के पंडित जी से विनती की। पण्डित जी पहले ही कई जगह वचनबद्ध हो चुके थे, और फिर इस फटीचर के घर से मिलेगा ही कितना? फलतः वे इन्कार कर गए। भगत जी ने पण्डित जी के पाँव पकड़ लिये। पण्डित जी फिर भी नहीं पसीजे। तभी पण्डित जी की विप्र-क्षिप्र बुद्धि में एक कहावत कौंध गई - 'ददा मरे दाऊ के, बेटा सीखे नाऊ के।' छोटे महराज आखिर कब सीखेंगे। उन्होंने कहा - ''अरे भगत, तुम चिंता मत करो। हम छोटे महराज को भेज देंगे। चार बजे स्कूल से छूटते ही चला जायेगा।''
भगत जी ने कहा - ''महाराज! हमें छोटे और बड़े से क्या लेना-देना, मतलब तो पण्डित से है।'' यह भगत जी की आस्तिकता की चरम अभिव्यक्ति थी।
शुभ घड़ी-मुहूर्त पर भगवान जी की प्राण प्रतिष्ठा कर दी गई। भगत जी पूर्ण तन-मन-धन और प्रण से भगवान की सेवा-सुश्रुषा में जुट गए।
भगत जी की ऐसी निश्छल और विकट भक्ति से प्रसन्न होकर एक दिन भगवान प्रगट हो गये। शाम का वक्त था। अभी-अभी आरती संपन्न हुआ था।
कमरा रोशनी से जगमगा उठा। भगत जी को आश्चर्य हुआ कि बिजली इतनी जल्दी कैसे लौट आई; अभी तो कटौती का समय चल रहा है। उन्होंने गली की ओर देखा; वहाँ अभी भी घुप्प अंधेरा था। अब तो भगत जी घबराये। यह कैसी गड़बड़ी है? मदद के लिये उन्होंने इधर-उधर देखा। आस-पास कोई नहीं था। भगत जी और घबराये। उसने किंवाड़ बंद कर दी; रोशनी देख कोई आ न जाय। बात का बतंगड़ बनने में कितना समया लगता है?
तभी भगवान की कर्णप्रिय आवाज आई - ''भगत जी, तुम घबराओ मत। तुम्हारी भक्ति से प्रसन्न होकर हमने तुम्हें साक्षात दर्शन देने का फैसला किया है। आँखें खोलो और हमारा दर्शन करो।''
भगत जी - ''कौन? प्रभु आप? क्या सचमुच आप ही बोल रहे हैं?
भगवान - ''कोई संदेह?''
भगत जी - ''नहीं, नहीं। नहीं प्रभु, कैसा संदेह। यह तो मेरा सौभाग्य है। लेकिन भगवान, आपको मेरे कुछ सवालों के जवाब देने होंगे, ताकि मुझे विश्वास हो सके कि आप सचमुच बुद्धि के दाता और चतुराई के आदिदेव ही बोल रहे हैं।''
भगवान - ''हमारी परीक्षा लोगे भगत?''
भगत जी - ''क्षमा भगवन, क्षमा। भगवन बुरा न माने। आजकल मिलावट, धोखाधड़ी और जालसाजी इतना बढ़ गया है कि बिना परीक्षा लिये बाप को भी बाप कहने से डर लगता है।''
भगवान - ''हाँ भगत जी, हमने भी सुना ह कि इस देश में मिलावट, धोखाधड़ी, जालसाजी और दलाली काफी बढ़ गये हैंं सो तुम निःसंदेह हमारी परीक्षा ले सकते हो। हमें बुरा नहीं लगेगा।''
भगत जी - ''भगवन पहले आप यह बताएँ कि प्रजातंत्र की श्रेष्ठ परिभाषा क्या है?''
भगवान - ''यह तो बड़ा सरल सवाल है; सभी जानते हैं कि - 'जनता के लिये, जनता के द्वारा, जनता का शासन'।''
भगत जी - ''गलत, बिलकुल गलत। भगवन, जवाब में यह आयातित परिभाषा देकर आपने अपने पूरे अंक खो दिये। मेड इन इण्डिया परिभाषा इस प्रकार है, सुनिये - 'अपने लिये, अपनों के द्वारा अपनों का शोषण'। अब चलिये, दूसरे प्रश्न का जवाब देने के लिये तैयार हो जाइये। बताइये, प्रजातंत्र की सफलता के लिये सबसे जरूरी तत्व क्या है?''
भगवान - ''सारी जनता शिक्षित हो ताकि अपने अधिकारों और कर्तव्यों को भलीभांति समझ सकेे।''
भगत जी - ''आपका यह जवाब भी गलत है। पता नही, आज आपकी बुद्धि कैसे मंद पड़ गई है? भगवन इस देश में तो प्रजातंत्र की सफलता का राज ही है, कि यहाँ की अधिकांश जनता अशिक्षित है। यही दशा प्रजातंत्र के लिये उकृष्ट होता है।''
भगत जी का तर्क सुनकर भगवान जी निरूत्तर हो गये। भगत जी को अपनी चतुराई पर अभिमान हुआ और भगवान जी के असली होने पर शंका। उन्हें शोले फिल्म की धर्मेन्द्र-हेमामालिनी के मंदिर वाले संवाद का स्मरण हो आया। उसने कहा - ''भगवन, आप जरा अपने आसन पर ही रहें। पहले मैं परीक्षण कर लूँ, कहीं कोई माईक वगैरह तो किसी ने आपके आसन के पीछे नहीं छिपाई है।''
भगवान - ''भगत जी, तुमको विश्वास क्यों नहीं होता? मैं असली गणेश जी ही हूँ। देखो यह मेरा सूँड हैं, जिसे अभी-अभी दूध पीते सारी दुनिया ने देखा है, अभी हिलाकर दिखाता हूँ। यह मेरा विश्व प्रसिद्ध उदर है, देखो, मैं इस पर हाथ फेरकर दिखाता हूँ। और ये देखो मेरे चारों हाथ। अब विश्वास हुआ?''
भगत जी - ''बिल्कुल नहीं, क्योंकि साक्षातकार में आप पहले ही फेल हो चुके हैं। मुझे अपने हाथों से स्वयं आपकी शारीरिक परीक्षण करनी होगी।''
भगवान - ''हाँ, हाँ, क्यों नहीं।''
भगत जी ने भगवान की मूर्ति जहाँ स्थापित की थी, पहले वहाँ का परीक्षण किया। मूर्ति गायब थी और उसकी जगह पर भगवान साक्षात विराजमान थे। भगवान के सुकोमल शरीर पर भगत जी ने अच्छी तरह, और मन भरकर हाथ फेरकर देखा। अन्त में उन्हें विश्वास करना ही पड़ा कि यह नकली नहीं बल्कि, असली भगवान ही हैं। उसके आनंद का पारावार नहीं रहा। परन्तु दूसरे ही क्षण वे अचानक उदास हो गये। भगवान ने पूछा - ''क्यों भगत जी, हमसे मिलकर आपको प्रसन्नता नहीं हुई। यह उदासी कैसी?''
भगत जी - ''भगवान जी, अब उदास न होऊँ तो क्या गली-गली नाचूँ और ढिंढोरा पीटूँ? आपने तो मुझ पर मुसीबतों का पहाड़ लाद दिया।''
भगवान को आश्चर्य हुआ। उसने पूछा - ''वह कैसे?''
भगत जी - अब इतने भोले मत बनो भगवान जी। तुम्हारे भोग के लिये ले देकर तो ककड़ी की व्यवस्था कर पाता हॅूँ। अब तुम्हारे इतने बड़े उदर के लिये रोज दोनों टाईम क्विंटल-क्विंटल मोदक कहाँ से लाऊँगा? यहाँ तो घर का चूल्हा ही मुश्किल से जल पाता है।''
भगवान - ''भगत जी, तुम चिंता मत करो। मेरा यह उदर तुम्हारे नेताओं के उदर की तरह नहीं है, जो सारा देश हजम कर जाने के बाद भी अतृप्त ही रहता है। अभी तक मुझे जैसा भोग लगाते आये हो, आगे भी वैसा ही लगाते रहना। मेरा काम उससे ही चल जायेगा।''
भगत जी की उदासी कुछ कम हुई; लेकिन मन में कुछ उलझने अभी भी बाँकी थी। उन्होंने कहा - ''भगवान, सो तो ठीक है, पर आपके प्रगट होने का समाचार सुनकर पहले तो लोग मुझे ढोंगी और धोखेबाज कहेंगे। हो सकता है, धोखेबाजी और लोगों की धार्मिक भावना को भड़काने और उनकी आस्था को आहत करने के आरोप में पुलिस मुझे हवालात में डाल दे। और यदि लोगों को विश्वास हो गया तो और भी मुसीबत है। भक्तों का यहाँ हुजूम लग जायेगा। फिर तो मेरा घर मेरा नहीं रह जायेगा। राजनीति भी हो सकती है। विरोधी दल द्वारा आंदोलन होने की संभावना भी बनती है। लिहाजा हमारी सरकार मेरे इस छोटे से घर को राष्ट्रीय सम्पत्ति घोषित करके मुझे बेघर कर देगी। फिर मैं अपने बाल-बच्चों को लेकर कहाँ-कहाँ भटकता फिरूँगा?''
भगवान - ''भगत जी ऐसा कुछ नहीं होगा। भला यहाँ और कोई मौजूद है, जो हमारी बातें लोगों में फैलाएगा?''
भगत जी - ''भगवान जी, यहाँ लोगों के कान भले ही आपके कान से बहुत छोटे-छोटे होते हैं, परन्तु उनकी श्रवण शक्ति अपार होती है। और फिर यहाँ तो दीवारों के भी कान होते हैं। क्षमा करें भगवन, रामायण मंडली वाले लड़को का दल इधर ही आ रहा है। अब तो आप अपना यह मनमोहक शरीर अंतर्ध्यान कर लीजिये।''
भगवान जी मंद-मंद मुसकाए, बोले - ''भगत जी, तुम कहते हो तो चला जाता हूँ। वैसे इतनी जल्दी जाने का मेरा कोई मूड नहींं है। फिर आऊँगा।''
भगवान के अन्तर्ध्यान होने पर भगत जी ने चैन की साँस ली।
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14 तिरोहन
माह की पहली तारीख थी। मस्तिष्क में गृहस्थ की सामग्रियों की सूची पुनः प्रक्षेपित होने लगी। माह भर का बजट बनाने वाली मेरी पत्नी गंभीर मुद्रा में मेरे सामने खड़ी थी। भरतीय दंपत्ति के समस्त प्रेम दृश्य जो एकांत के क्षणों में ही सुलभ हो सकते हैं, साकार हो उठे थे। चेहरे पर वही सौम्य-स्निग्ध मुस्कुराहट थी, जैसा आफिस जाते समय, बिदाई के क्षणों में हुआ करती है, निर्विकार पर स्नेहयुक्त। वह भाव, जिसे एक दक्ष अभिनेत्री के समान हमेश वह अपने अंतर्मन में छिपा लिया करती थी, और जिसकी हल्की-हल्की झलक उनकी आँखों में भी होती जिसे मैं अनदेख कर दिया करता था, ताकि उन्हें अपनी अभिनय क्षमता पर शक न हो, आज भी उनकी आँखों में दृश्यमान थी। उनकी शांत गहरी आँखों में देखते हुए मुझे पिछले महीने की पहली तारीख का स्मरण का आया।
एक मासिक, साहित्यिक पत्रिका, जिसे पढ़ने के लिये मैं किसी मित्र से मंगकर लाया था, के पत्ते उलटते हुए मैं बिस्तर पर लेटा था। न जाने कब आकर वह सिरहाने बैठ गई थी। उनकी स्नेहयुक्त ऊँगलियों के स्पर्ष से मेरा ध्यान भंग हुआ। वह कह रही थी - ''तुम्हारी कमीजें और पेंट काफी पुराने और बदरंग हो चुके हैं, अब की वेतन में एक जोड़ी बनवा लेना, हाँ।''
उनकी मनुहार भरी आदेश की प्रतिक्रिया में मैं कुछ भी कह न सका, और शायद कुछ कहने की मेरी स्थिति भी नहीं थी। मुझे स्त्रियोचित आभूषणप्रियता और सौंदर्यचेतना का बोध था, जिसे मेरी पत्नी आज तक मेरी गरीबी पर न्योछावर करती आ रही थी। शायद इसीलिये वह अपनी सारी इच्छाओं का दमन करके भी मेरे कम वेतन में उतना ही प्रसन्न रहती थी, जितना मिसेज शर्मा अपने पति की ऊपरी कमाई की सेज पर सो कर रहा करती होगी? और इसी कारण मेरा मन उसके प्रति हमेशा कृतज्ञता के भाव से आहत रहता था। बिना कुछ कहे मैंने उसके कपोल चूम लिये। अपना सिर उसकी गोद में रखकर मैं शून्य में ताकने लगा। उनकी दो साड़ियों को छोड़कर बाकी सब में पैबंद लग चुके थे जो मेरी आँखों के सामने मकड़ी के जालों के समान दृष्यमान हो रहे थे।
''क्या सोच रहे हो?''
''क्या?''
''कुछ तो, मुझसे भी छिपाओगे?''
''तुमसे छिपाने को है ही क्या?''
''इतना परेशान मत हुआ करो। तनाव का सेहत पर बुरा असर पड़ता है।''
''मुझे बहुत प्यार करती हो?''
उत्तर में वह लज्जा से लाल अपने चेहरे को मेरे वक्ष में छिपाकर मुझसे आलिंगनबद्ध हो गई।
''सच तो यह है सरोज कि तुमने मुझे क्या कुछ नहीं दिया है। और मैं तुम्हें क्या दे सका हूँ? तुम्हेंं फिर भी मुझसे कोई शिकायत नहीं है।''
''कैसी श्किायत? तुम मेरे हो; मुझे और क्या चाहिये।''
मेरे ह्रदय की निराशा और दुख रूपी रात का गहन तिमिर भी उसके इस उत्तर के प्रेमालोक से जगमगा उठा।
आज आवश्यक सामग्रियों की सूची में सबसे ऊपर मैंने लिख दिया - एक साड़ी और ब्लाऊज।
वेतन लेकर सबसे पहले मैंने कपड़े की एक मामूली दुकान से एक साड़ी, मैच करता हुआ एक पेटीकोट और एक ब्लाऊज खरीदा। इसे खरीदकर जैसे मैंने दुनिया की सारी खुशियाँ खरीद ली हो। खरीदी गई अपनी खुशियाँ मैंने हाथ में रखे मटमैले थैले में रख लिया।
आज पहली बार अपनी पत्नी को मैं कुछ देने जा रहा था। मन में एक भय घर किये जा रहा था कि कहीं सरोज इसे नापसंद न कर दे। मिसेज शर्मा और मिसेज वर्मा की कहाँ बनारसी साड़ियाँ और पॉलिएस्टर की कहाँ यह साधारण साड़ी?
रास्ते में शर्मा जी से भेट हो गई। शर्माजी वन विभाग के कर्मचारी हैं। अपनी अभावजनय हीनता के कारण मैं हमेशा उनसे कतराया करता था। उसके सहज संबोधन भी मुझे व्यंग्य बाणों की तरह चुभा करते थे। अपनी नई बाइक रोक कर शर्माजी ने अभिवादन करते हुए कहा - ''ओ हो, क्या बात है गुरूजी, आज तो आप बड़े प्रसन्न नजर आ रहे हैं?''
''क्यों नहीं, आज पहली तारीख जो है। महीने के बाकी दिन तो राते-धोते ही कटती है।''
''अरे, थैले में क्या रखा है। साड़ी? ब्यूटिफूल, बहुत फबेगी भाभी पर। आपकी पसंद का भी कोई जवाब नहीं।''
शर्मा जी की यह प्रशंसा मुझे निहायत ही बनावटी और चिढ़ाने वाली लगी और अंदर तक घायल कर गई। शर्माजी ने शायद यह प्रशंसा निःश्छल मन से किया हो; और अपनी अभावजनय हीनता के कारण मुझे ऐसा लगा हो, पर इस विषय में सोच-सोचकर मुझे दुख के सिवा ओर कुछ नहीं मिल रहा था। मेरी यह ग्रंथि हर बार मेरी खुशी के आड़े आने से नहीं चूकती थी। पिछले महीने भी इसी तरह मुलाकात हुई थी। शादी की वर्षगाठ पर शर्माजी अपनी पत्नी के लिये एक कीमती साड़ी और अन्य उपहार खरीदकर ले जा रहे थे। उन्होंने मुझसे पूछा था। - ''कैसी है?''
''बहुत सुंदर।'' मैंने कृत्रिम मुस्कुरहट के साथ कहा था। फिर हम दोनों अपने-अपने रास्ते चल दिये थे।
आज शर्माजी की वही कीमती साड़ी बार-बार मुझे चिढ़ रही थी। मेरी यह साड़ी उसक सामने चिंदी जान पड़ रही थी। अब मेरा सारा उत्साह जाता रहा। शर्माजी की उन प्रशंसात्मक बातों का भी मेरे मेरे हीन विचारों ने भिन्न अर्थ ही लगाया था। - ''मास्टर की आखिर औकात ही क्या?''
थके मन से मैंने घर में प्रवेश किया। थैला पत्नी की हाथों में दे दिया। यह क्या? साड़ी देखते ही सरोज चहक उठी। उसके चेहरे पर ख्ुशी की एक अप्रतिम आभा चमक उठी। इतना खुश शायद उसे मैंने पहली बार देखा था।
मेरे चेेहरे पर भी मुस्कान की एक हल्की रेखा खिंच आई। अब मेरे मन की हीनता तिरोहित हो चुकी थी। सरोज की उस प्रसन्नचित्त मुखमुद्रा मेरे मस्तिष्क पर स्थिर हो गई।
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15 गुरूजी का सच
हमारे गाँव की प्राथमिक शाला में शेर सिंह खातू नामक एक गुरूजी पदस्थ हैं। वे हमारे गाँव में ही नहीं अपितु पूरे शिक्षा विभाग में कुख्यात हैं। उनकी कुख्याति से जुड़ी अनेक किंवदंतियाँ प्रचलित हैं। आपके मनोरंजनार्थ उनमें से एक प्रस्तुत है।
शेर सिंह खातू गुरूजी जिसे आगे सिर्फ ''खातू गुरूजी'' नाम से संबोधित किया जायेगा, सप्ताह में अथवा कभी-कभी महीने में दो-एक दिन सकूल आते हैं, बच्चों को पढ़ाने के लिये नहीं, केवल उपस्थिति पंजी में हस्ताक्षर करने के लिये। खातू गुरूजी जिस दिन सप्ताह मध्य सही समय पर स्कूल पहुँच जाते हैं, उस दिन अन्य गुरूजन, और गाँव वाले भी समझ जाते हैं कि कोई बड़ा अधिकारी दौरे पर आने वाला है। उनके मुखबिर विभाग में हर जगह तैनात हैं। खातू गुरूजी एक कुशल खिलाड़ी भी हैं। उनके खेल के दांव-पेच बड़े निराले हैं। वे अक्सर कहा करते हैं, ''भई! जीवन तो एक खेल है, हम सब खिलाड़ी हैं, जीत उसी की होती है जो सारे दांव-पेच जानता है।''
चाहे राजनीति के दंगल में हों, चाहे सरकारी तंत्र के रंगमंच के, सारे दांव-पेच खातू गुरूजी के पास हैं।
विद्यार्थियों की विद्या की अर्थियाँ काफी पहले ही मरघट पहुँच चुके हैं। अंतिम संस्कार भी हो चुके हैं। बच्चे अपने माँ-बाप का नाम क्या खाक लिख पायेंगे, जब अपना ही नाम नहीं लिख पाते हैं। जाहिर है, पालकों के मन में असंतोष का धुआँ छाने से बेचैनी फैली हुई है। असंतोष के इस धुएँ को पीने की कोशिश के कारण गाँव में घुटन की स्थिति बनी हुई है। परंतु खातू गुरूजी के राजनीतिक पहुँच के चलते किसी की हिम्मत नहीं होती कि कोई उसे टोके। बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधे?
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बिसंभर यादव पंद्रह साल की अवस्था से दूध बेचने का धंधा कर रहा है। रोज सुबह छः बजे वह अपने सायकिल के कैरियर के दोनों ओर दो-दो डिब्बे बड़े-बड़े और सामने, हैंडिल के दोनों ओर फिर एक-एक डिब्बा छोटे वाले लटकाए राजनांदगाँव की ओर जाने वाली सड़क पर आ जाता है। दूध के इतने सारे छोटे-बडे डिब्बे का राज उनके सिवा और कोई नहीं जानता। बहुत कुरेंदने के बाद एक दिन उसी ने मुझे बताया था - ''भइया, एमा गाय के खालिस दूध हे, ए डब्बा मन म भंइस के खालिस दूध हे; बड़े-बड़े साहब मन घर जाथे। ये डब्बा के दूध मन ह बाबू-भइया मन घर जाथे; एमा थेड़ा बहुत चल जाथे। जइसे-जइसे भाव, वइसे-वइसे माल।''
गाँव से शहर लाकर दूध बेचने का काम करते हुए बिसंभर यादव को पच्चीस साल हो चुके हैंं। इसी बहाने शहर के तमाम नेताओं, बाबुओं और अधिकारियों से उनकी अच्छी जान पहचान हो हो गई है, लिहाजा गाँव में उनका बड़ा रौब है। उसका लड़का खातू गुरूजी की ही पाठशाला में कक्षा पाँच में पढ़ता है। एक दिन उसने लड़के को दूध के हिसाब-किताब के कुछ आंकड़े जोड़ने के लिये दिया। ये तो खाातू गुरूजी के चेले थे, आंकड़े क्या खाक जुड़ते। बिसंभर यादव को बड़ा गुस्सा आया। बच्चे को चांटा रसीद कर वह चौपाल की ओर निकल गया।
संयोगवश खातू गुरूजी पान ठेले पर अखबार पढ़ते हुए मिल गए। देखकर बिसंभर यादव को ताव आ गया। बहुत मुश्किल से अपने गुस्से को काबू में करते हुए उसने खातू गुरूजी से कहा - ''गुरूजी साहेब, परीक्षा के दिन नजीक हे, लइका मन के पढ़ाई म थोरिक धियान देतेव जी; अतकेच बिनती हे आप मन से।''
खातू गुरूजी बिसंभर यादव के तमतमाये हुए चेहरे से भांप गये कि वे गुस्से में हैं। बात बढ़ाने से क्या फायदा। व्यंग्य करते हुए उसने कहा - ''आप कह रहे हैं यादव जी तो ध्यान तो देना ही पड़ेगा।''
खातू गुरूजी बिसंभर यादव को कनखियों से देखते हुए स्कूल की ओर चले गये, जैसे कह रहे हों - ''चींटियों के भी पर निकल आये हैं, कतरना तो पड़ेगा ही।''
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दूसरे दिन बिसंभर यादव अपनी सायकिल पर दूध के डिब्बे लटकाये जैसे ही नगर निगम की सीमा में पहुँचा, यमराज सा दिखने वाला एक तोंदियल आदमी एकाएक न जाने कहाँ से प्रगट हो गया। उसने बिसंभर की सवारी रोक ली। उसके साथ यमदूत सा दिखने वाले दो चपरासी भी थे। बिसंभर के होश उड़ गये, सोचा - ''यह तो अब जान लेकर ही छोड़ेगा।''
ये सज्जन दूध की शुद्धता जाँचने वाले विभाग के जाँच अधिकारी थे। बिसंभर यादव थरथर काँपने लगा। आखिर बिना पानी दूध तो होता नहीं। जैसे-जैसे अधिकारी की सख्ती बढ़ता जा रहा था, बिसंभर यादव मुलायम पड़ता जा रहा था। मुलायम पड़ते-पड़ते अंततः बिसंभर यादव पिलपिले हो गये; माने अब रो ही पड़ेंगे। उनकी आँखों के आगे जेल की सींखचें नाचने लगी। तभी अचानक खातू गुरूजी प्रगट हो गये। बिसंभर यादव को लंबे हाथों का सलाम ठोकते हुए उसने कहा - ''राम, राम हो यादव जी। क्या बात है, घबराये से लगते हो?''
बिसंभर से कुछ कहते न बना। कातर भाव से उन्होंने हाथ जोड़कर खातू गुरूजी के अभिवादन का जवाब दिया।
बिसंभर यादव की रोनी सूरत देखकर खातू गुरूजी के मन में लड्डू फूट रहे थे, परंतु चेहरे पर अखबारी कागज का अवसादी मुखौटा लगाकर उन्होंने कहा - ''ओ हो ....हो। तो ये बात है। का हो मनभावे साहब, अपने लोगों को जरा पहचान लिया करो भाई।'' अधिकारी को संबोधित करते हुए उसने कहा।
''सर, सर ...... नमस्कार।'' कहते हुए मनभावे साहब ने खातू गुरूजी से बड़े अदब से हाथ मिलाया। कहा - ''गुरूदेव, क्षमा कीजियेगा, धोखा हो गया।'' फिर उसने बिसंभर को तनिक प्यार से झिड़कते-पुचकारते हुए कहा - ''भइ, यादव जी, बड़े मूरख हो तुम भी। गुरूजी के आदमी हो, क्यों नहीं बताया तुमने। चलो भागो यहाँ से। और हाँ, सुनो। अब से रोज गुरूजी के यहाँ सुबो-शाम आधा-आधा सेर दूध डाल दिया करो।''
बिसंभर यादव को समझते देर नहीं लगा कि यह सब खातू गुरूजी का ही नाटक था। अच्छा बदला लिया था उसने। पर क्या करे, जान बची लाखों पाय। मनभावे साहब और खातू गुरूजी को नमस्कार करके वह आगे बड़ गया।
उस दिन से बिसंभर यादव खातू गुरूजी के आदमी हो गये। खातू गुरूजी को छेड़ने की हिम्मत अब किसी में न रही।
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कुछ दिन यूँ ही चलता रहा। एक दिन खातू गुरूजी पकड़े गये। पोखरण में बम तो फूटा पर सी. आई. ए. वालों को खबर न हो पाई। पंद्रह दिन से गायब थे। ऊँट पहाड़ के नीचे आ चुका था।
खातू गुरूजी निलंबित किये गए। छः महीने निलंबित रहे। काफी दौड़-भाग और हाथ-पाँव मारने के बाद बहाल हुए।
बहाली के बाद वे स्कूल आये। सहकर्मियों और छात्र-छात्राओं द्वारा खातू गुरूजी के स्वागत के लिये स्कूल में विशेष सभा का आयोजन किया गया था। खातू गुरूजी का फूल मालाओं से स्वागत किया गया। स्वागत करने वालों में बिसंभर यादव सबसे आगे था।
खातू गुरूजी ने बड़े भावविह्वल होकर भाषण दिया। बच्चों को संबोधित करते हुए वे कह रहे थे - ''प्रिय बच्चों, हमेशा ईमानदारी और सत्य के रास्ते पर ही चलना चाहिये। सत्य और ईमान की ही जीत होती है। सत्य और ईमान की ही जीत हुई है और इसी वजह से मैं फिर आप लोगों के बीच हूँ।''
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