उमेश मौर्य रात की सेज रात थी चुपचाप, राह सूनी पड़ी थी, खून से लथपथ बदन, नंगी पड़ी थी, आह न थी, आब भी, राहें नहीं थी, मौत फैलाए हुए बाहें खड...
उमेश मौर्य
रात की सेज
रात थी चुपचाप, राह सूनी पड़ी थी,
खून से लथपथ बदन, नंगी पड़ी थी,
आह न थी, आब भी, राहें नहीं थी,
मौत फैलाए हुए बाहें खड़ी थी
फिर भी वो संसार जीना चाहती थी
इस बदन का भार ढोना चाहती थी
न्याय की काली पोशाकों के जहाँ से
जीते जी इंसाफ पाना चाहती थी
चीख न थी, सुबकियाँ, आँखें जमीं थी
साँस पे अब मौत की आँखें गड़ी थी,
हॅस पड़ी फिर मौत उसकी कल्पना पे
किसको है मतलब तुम्हारी वेदना से
आ गले से लग समझ के माँ के जैसे
इस वतन में क्या है झूठी साँन्त्वना के
आस न थी, साँस भी, हवाऐं नहीं थी
लाश में तबदील वो बच्ची पड़ी थी
फिर हुआ संसार का अद्भुत सवेरा
सभ्य इंसानों का ये स्वर्णिम सवेरा
बुद्धि की धारा से एक धारा बनीं
फिर भी हर दिन खून पीता है अंधेरा
बात न थी, रात भी, राहें नहीं थी
इस हवस की सेज पे नारी मरी थी।।
-
राकेश शर्मा
है चिता पर खुद ही जलना
है चिता पर खुद ही जलना
प्रिय जनों का नेह भंवर है
प्रेम तेरा मधु गरल है
अंत क्षण में तू स्वयं ही
तोड़ देगा भाव भ्रम की
निपट कल्पित मोह छलना
है चिता पर खुद ही जलना .....................
सुख की तृष्णा धूमिल छाया
तृप्ति को ही तृषित पाया
उस पार तक प्रेम प्रिये
पर चार क्षण भी टिक ना पाया
अनुभूति ये हो रही ज्यों
नींद टूटी और आंख मलना
है चिता पर खुद ही जलना ........................
पलकों की चादर ये झीनी
किस भाव से इतनी है भीनी
जान पड़ती है हृदय की
तृप्ति चिर गई है छीनी
फांस सा खलता है मन में
फिर से कोई ख्वाब पलना
है चिता पर खुद ही जलना ........................
डॉ. राकेश शर्मा
गोवा
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डॉ बच्चन पाठक ''सलिल''
---रचना का जन्म----
वर्षों से सूखी पड़ी डाली में ,
सहसा बौर आ जाती है .
अमां की कालिमावृत रजनी में ,
अम्बर की छाती को चीर -
सहसा मुस्कराने लगता है चाँद ,!..
पर्वत केनिभृत अंचल से ,
फूट पड़ती है चुप चुप निर्झरिणी ..!.
तब अवाक हो जाते हैं वे ..-
जो हर घटना के पीछे तलाश करते हैं --
कार्य और कारण को .
वैसे ही ..वर्षों से गम सुम
किसी भावुक के अंतर से--
फूट पड़ता है कोई गीत ! ..
और वह कह उठता है ----
''मा निषाद प्रतिष्ठा त्वमगम -''
ऐसे ही होती है गीत की रचना ,
बन्धु मेरे !...रचना --रचना है ,
वह नहीं है उत्पादन ...
उसका सृजन कैलेंडर देख कर
युद्ध स्तर पर नहीं किया जा सकता .
जब कोई कवि पाता है माँ का हृदय,
सहन करता है प्रसव --वेदना
--मासों ..वर्षों ..युगों तक ..
तब जन्म होता है --
किसी कालजयी रचना का , .
रचना में होते हैं --सत्यम -शिवम -सुन्दरम
रचनाकार मनीषी होता है ,
यांत्रिक उत्पादक नहीं ...
डॉ बच्चन पाठक ''सलिल''
अवकाश प्राप्त -पूर्व प्राचार्य -रांची विश्वविद्यालय
सम्प्रति --पंचमुखी हनुमान मन्दिर के सामने
आदित्यपुर- 2 ,जमशेदपुर -1 3 ---0657/2370892
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अखिलेश चन्द्र श्रीवास्तव
लड़की पर एसिड अटैक
लड़के का एकतरफा प्यार ...
लड़की के घर के .....चक्कर हजार
मनुहार ...प्यार का इज़हार
लड़की का ....इन्कार ....
लड़के का फिर ..फिर इज़हार ...
एकतरफा प्यार का बढ़ता बुखार ..
लड़की की बेरुखी ..और फिर इन्कार
लड़के के पागलपन ..दीवानापन ...
एकतरफा प्यार में इज़ाफा ...बेशुमार ..
लड़की का किसी और से प्यार ....
लड़के पर गुस्से का ..बुखार ..
फिर से ...मनुहार ...न मानी ..तो
धमकाना और तकरार ...
फिर भी न मानी ...तो ..
एसिड से प्रहार .........
लड़की का चेहरा और शरीर बेकार ..
ये तमाम स्टेज ज् हैं ..........
आज के .... एकतरफा प्यार के ..
वे बेधड़क .....बेख़ौफ़ ...
अक्सर बड़े बाप की आवारा औलाद ...
ताकत के ..पैसे के ..बाप के रसूख ..के
मद में मस्त ....दुनिया अपनी जूती पर ..
क्योंकि उन्हें लगता है कि कानून .....
उनके सामने बौना है ..और पुलिस लाचार ..
वे खेल समझते है ..कर के ये अत्याचार .
पर बेचारी लड़की असह्य दर्द सहती है ..
उसके चेहरे और शरीर के साथ साथ ...
उसका पूरा अस्तित्व ...उसका मन .......
घायल हो जाता है जीवन तथा भविष्य तक
जल जाता है नष्ट हो जाता है ...
असह्य दर्द सहती ..छट पटाती ..
चेहरे और शरीर के घाव छिपाती ..
वोह सोचती है क्या था कुसूर उसका ....?
उसे सजा मिली .किस बात की ..?.
फिर होता है पुलिस थाना ..
कोर्ट कचेहरी ...गवाहियाँ ..
धमकियाँ ...टूटते गवाह ...
बिखरते सबूत बहस मुबाहसा ..
बरसों बरस चलते मुक़दमे ..
बहुत सारे केसेस में कुछ नहीं ..होता
क्योंकि सबूत गवाह कम पड़ जाते हैं ..
अपराधी अपने रसूख पैसे या ताकत के
बल पर साफ़ छूट जाते है ..और सब के
पास इतने पैसे ..संसाधन नहीं होते ..
कि हमारी अदालतों में जिन्दगी भर लड़ें ..
निचली अदालत से किसी प्रकार जीत भी गये ..
तो और भी स्टेज ज् है अपराध और सजा के बीच ..
ऊबकर या दबाव में या हिम्मत हारकर चुप ..
बैठने को मजबूर होते हैं और किस्मत पर रोते हैं ..
लड़की कोसती है अपनी जिन्दगी ....
घरवाले उसको और उसकी जिन्दगी ..
रोते बिसूरते .कटती है उसकी जिन्दगी .
एक अनिश्चित भविष्य के साथ ..
और लड़का वैसे ही मस्त शाही ..अंदाज़ मैं
जिन्दगी जीता है . .अपने कारनामे का ...
शान से बखान करता .. शान के साथ ..
पर प्रश्न है क्या यह सही है ...?
क्या हमारा तटस्थ रहना सही है ?
क्या सामाजिक स्तर पर हम
कुछ कर सकतें हैं ...?
क्या जनमत बन सकता है ?
उस अपराधी के विरुद्ध ...
क्योंकि वोह लड़की आपकी
बेटी भी हो सकती है बहन भी
नातिन भी और पोती भी ...अतः
अ संलिप्त मत रहिये ..जागिये .
कुछ करिये वर्ना आप इन्हें
केवल एसिड से ही नहीं ...
अन्य अपराधों जैसे बलात्कार ..
दहेज़ हत्या .....छेड़ छाड़ से भी ..
नहीं बचा पायेगें ...नहीं बचा पायेंगे
नहीं बचा पायेंगे ...
Sabhi kavitayen achchi hain
जवाब देंहटाएंबहुत ही खुबसूरत और प्यारी रचना..... भावो का सुन्दर समायोजन......
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