चाँद , मेरे प्यार! [प्रणय-सौन्दर्य की कविताएँ] . [महेंद्रभटनागर] . अनुक्रम . राग-संवेदन 1 राग-संवेदन /1 2 ममत्व 3 जिजीविषु /1 4 राग-संवेदन...
चाँद, मेरे प्यार!
[प्रणय-सौन्दर्य की कविताएँ]
.
[महेंद्रभटनागर]
.
अनुक्रम
.
राग-संवेदन
1 राग-संवेदन /1
2 ममत्व
3 जिजीविषु /1
4 राग-संवेदन /2
5 वरदान
6 स्मृति
7 बहाना
8 दूरवर्ती से
9 बोध
.
अनुभूत-क्षण
10 निष्कर्ष
11 तुम
12 प्रतीक
13 तुम
.
आहत युग
14 अकारथ
15 एक रात
16 सहसा
.
जूझते हुए
17 संसर्ग
18 संस्पर्श
19 आमने-सामने
20 सहपंथा
.
संकल्प
21 बस, एक बार
22 निकष
.
संवर्त
23 समवेत
24 सुलक्षण
25 पुनरपि
26 तिघिरा की एक शाम /1
27 तिघिरा की एक शाम /2
28 जिजीविषु /2
.
संतरण
29 प्रधूपिता से
30 निवेदन
31 दोपहरी
32 अंगीकृत
33 कौन हो तुम
34 याचना
35 स्वीकार लो
36 युगों के बाद फिर
37 अभिरमण
38 कौन तुम
39 गीत में तुमने सजाया
40 मुसकुराए तुम
41 हे विधना
42 रूपासक्ति
43 मोह-माया
44 रात बीती
45 व्यथा की बोझिल रात
46 अगहन की रात
47 दूर तुम
48 प्रिया से
49 बिरहिन
50 प्रतीक्षा
51 साध
52 स्नेह भर दो
53 रतजगा
54 वंचना
55 अब नहीं
.
जिजीविषा
56 दीया जलाओ
57 जिजीविषा
.
मधुरिमा
58 आदमी
59 कौन हो तुम
60 तुम
61 दर्शन
62 मत बनो कठोर
63 किरण
64 चाँद से
65 चाँद सोता है
66 कौन कहता है
67 छा गये बादल
68 निवेदन
69 चाँदनी में
70 चाँद और तुम
71 बुरा क्या किया था
72 कल रात
73 जओ नहीं
74 विश्वास
75 प्रतीक्षा
76 कोई शिकायत नहीं
77 विरह का गान
78 दीप जला दो
79 धन्यवाद
80 नींद
81 आकुल-अन्तर
82 मेरा चाँद
83 मिल गये थे हम
84 ग्रहण
85 विवशता
86 आकर्षण
87 मृग-तृष्णा
88 चाँद और पत्थर - 1
89 चाँद और पत्थर - 2
90 न जाने क्यों
91 स्मृति की रेखाएँ
92 साथ
93 चाँद, मेरे प्यार!
94 दुराव
95 यह न समझो
96 तुमसे मिलना तो ...
97 आत्म-स्वीकृति
98 प्रेय
.
अंतराल
99 दीपक
100 तुम्हारी माँग का कुंकुम
101 प्रतिदान
102 तुम्हारी याद
103 याद
104 साथ न दोगी
105 प्रतीक्षा में
106 परिणाम
.
विहान
107 तुम
108 उत्सर्ग
.
परिशिष्ट (वात्सल्य)
आहत युग
109 स्वागत
कविताएँ
.
(1) राग-संवेदन /1
.
सब भूल जाते हैं ...
केवल
याद रहते हैं
आत्मीयता से सिक्त
कुछ क्षण राग के,
संवेदना अनुभूत
रिश्तों की दहकती आग के!
.
आदमी के आदमी से
प्रीति के सम्बन्ध
जीती-भोगती सह-राह के
अनुबन्ध!
केवल याद आते हैं!
सदा।
जब-तब
बरस जाते
व्यथा-बोझिल
निशा के
जागते एकान्त क्षण में,
डूबते निस्संग भारी
क्लान्त मन में!
अश्रु बन
पावन!
.
(2) ममत्व
.
न दुर्लभ हैं
न हैं अनमोल
मिलते ही नहीं
इहलोक में, परलोक में
आँसू .... अनूठे प्यार के,
आत्मा के
अपार-अगाध अति-विस्तार के!
.
हृदय के घन-गहनतम तीर्थ से
इनकी उमड़ती है घटा,
और फिर ....
जिस क्षण
उभरती चेहरे पर
सत्त्व भावों की छटा —
हो उठते सजल
दोनों नयन के कोर,
पोंछ लेता अंचरा का छोर!
.
(3) जिजीविषु
.
अचानक
आज जब देखा तुम्हें —
कुछ और जीना चाहता हूँ!
.
गुज़र कर
बहुत लम्बी कठिन सुनसान
जीवन-राह से,
प्रतिपल झुलस कर
ज़िन्दगी के सत्य से
उसके दहकते दाह से,
अचानक
आज जब देखा तुम्हें —
कड़वाहट भरी इस ज़िन्दगी में
विष और पीना चाहता हूँ!
कुछ और जीना चाहता हूँ!
.
अभी तक
प्रेय!
कहाँ थीं तुम?
नील-कुसुम!
.
(4) राग-संवेदन / 2
.
तुम —
बजाओ साज़
दिल का,
ज़िन्दगी का गीत
मैं —
गाऊँ!
.
उम्र यों
ढलती रहे,
उर में
धड़कती साँस यह
चलती रहे!
दोनों हृदय में
स्नेह की बाती लहर
बलती रहे!
जीवन्त प्राणों में
परस्पर
भावना - संवेदना
पलती रहे!
.
तुम —
सुनाओ
इक कहानी प्यार की
मोहक,
सुन जिसे
मैं —
चैन से
कुछ क्षण
कि सो जाऊँ!
दर्द सारा भूल कर
मधु-स्वप्न में
बेफ़िक्र खो जाऊँ!
.
तुम —
बहाओ प्यार-जल की
छलछलाती धार,
चरणों पर तुम्हारे
स्वर्ग - वैभव
मैं —
झुका लाऊँ!
.
(5) वरदान
.
याद आता है
तुम्हारा प्यार!
.
तुमने ही दिया था
एक दिन
मुझको
रुपहले रूप का संसार!
.
सज गये थे
द्वार-द्वार सुदर्श
बन्दनवार!
.
याद आता है
तुम्हारा प्यार!
प्राणप्रद उपहार!
.
(6) स्मृति
.
याद आते हैं
तुम्हारे सांत्वना के बोल!
आया
टूट कर
दुर्भाग्य के घातक प्रहारों से
तुम्हारे अंक में
पाने शरण!
.
समवेदना अनुभूति से भर
ओ, मधु बाल!
भाव-विभोर हो
तत्क्षण
तुम्हीं ने प्यार से
मुझको
सहर्ष किया वरण!
.
दी विष भरे आहत हृदय में
शान्ति मधुजा घोल!
खड़ीं
अब पास में मेरे,
निरखतीं
द्वार हिय का खोल!
.
याद आते हैं
प्रिया!
मोहन तुम्हारे
सांत्वना के बोल!
.
(7) बहाना
.
याद आता है
तुम्हारा रूठना!
.
मनुहार-सुख
अनुभूत करने के लिए,
एकरसता-भार से
ऊबे क्षणों में
रंग जीवन का
नवीन अपूर्व
भरने के लिए!
याद आता है
तुम्हारा रूठना!
.
जन्म-जन्मान्तर पुरानी
प्रीति को
फिर-फिर निखरने के लिए,
इस बहाने
मन-मिलन शुभ दीप
आँगन-द्वार
धरने के लिए!
याद आता है
तुम्हारा रूठना!
.
अपार-अपार भाता है
तुम्हारा रागमय
बीते दिनों का रूठना!
.
(8) दूरवर्ती से
.
शेष जीवन
जी सकूँ सुख से
तुम्हारी याद
काफ़ी है!
.
कभी
कम हो नहीं
एहसास जीवन में
तुम्हारा
यह बिछोह-विषाद
काफ़ी है!
.
तुम्हारी भावनाओं की
धरोहर को
सहेजा आज-तक
मन में,
अमरता के लिए
केवल उन्हीं का
सरस गीतों में
सहज अनुवाद
काफ़ी है!
.
(9) बोध
.
भूल जाओ —
मिले थे हम
कभी!
चित्र जो अंकित हुए
सपने थे
सभी!
.
भूल जाओ —
रंगों को
बहारों को,
देह से: मन से
गुज़रती
कामना-अनुभूत धारों को!
.
भूल जाओ —
हर व्यतीत-अतीत को,
गाये-सुनाये
गीत को : संगीत को!
.
(10) निष्कर्ष
.
ज़िन्दगी में प्यार से सुन्दर
कहीं
कुछ भी भी नहीं !
कुछ भी नहीं !
.
जन्म यदि वरदान है तो
इसलिए ही, इसलिए !
मोह से मोहक सुगंधित
प्राण हैं तो इसलिए !
.
ज़िन्दगी में प्यार से सुखकर
कहीं
कुछ भी नहीं !
कुछ भी नहीं !
.
प्यार है तो ज़िन्दगी महका
हुआ इक फूल है !
अन्यथा; हर क्षण, हृदय में
तीव्र चुभता शूल है !
.
ज़िन्दगी में प्यार से दुष्कर
कहीं
कुछ भी नहीं !
कुछ भी नहीं !
.
(11) तुम....
.
जब - जब
मुसकुराती हो
बहुत भाती हो !
तुम
हर बात पर क्यों
मुसकुराती हो !
.
जब - जब
सामने जा स्वच्छ दर्पण के
सुमुखि !
शृंगार करती हो,
धनुषाकार भौंहों - मध्य
केशों से अनावृत भाल पर
नव चाँद की
बिन्दी लगाती हो,
स्वयं में भूल
फूली ना समाती हो
बहुत भाती हो !
.
नगर से दूर जा कर
फिर
नदी की धार में
मोहक किसी की याद में
दीपक बहाती हो
बहुत भाती हो !
मुग्धा लाजवंती तुम
बहुत भाती हो !
.
जब बार - बार
मधुर स्वरों से
मर्म-भेदी
चिर-सनातन प्यार का
मधु - गीत गाती हो —
पूजा - गीत गाती हो
बहुत भाती हो !
.
(12) प्रतीक
.
अर्द्ध-खिले फूलों का
सह-बंधन
तुम
मेरे कमरे में रख
जाने कब
चली गयीं !
.
जैसे
चमकाता किरणें
कई-कई
अन-अनुभूत अछूते
भावों का दर्पण
तुम
मेरे कमरे में रख
जाने कब,
अपने हाथों
छली गयीं !
.
जीवन का अर्थ
अरे
सहसा बदल गया,
गहरे-गहरे गिरता
जैसे कोई सँभल गया
.
भर राग उमंगें
नयी-नयी !
भर तीव्र तरंगें
नयी-नयी !
.
(13) तुम...
.
गौरैया हो
मेरे आँगन की
उड़ जाओगी !
आज
मधुर कलरव से
गूँज रहा घर,
बरस रहा
दिशि - दिशि
प्यार - भरा
रस - गागर,
डर है
जाने कब
जा दूर बिछुड़ जाओगी !
.
जब - तक
रहना है साथ
रहे हाथों में हाथ,
सुख - दुख के
साथी बन कर
जी लें
दिन दो - चार,
परस्पर भर - भर प्यार,
मेरे जीवन - पथ की
पगडंडी हो
जाने कब और कहाँ
मुड़ जाओगी !
.
(14) अकारथ
.
दिन रात भटका हर जगह
सुख-स्वर्ग का संसार पाने के
.
कलिका खिली या अधखिली
झूमी मधुप को जब रिझाने के लिए !
.
सुनसान में तरसा किया
तन-गंध रस-उपहार पाने के लिए !
.
क्या-क्या न जीवन में किया
कुछ पल तुम्हारा प्यार पाने के लिए !
.
डूबा व उतराया सतत
विश्वास का आधार पाने के लिए !
.
रख ज़िन्दगी को दाँव पर
खेला किया, बस हार जाने के लिए !
.
(15) एक रात
.
अँधियारे जीवन-नभ में
बिजुरी-सी चमक गयीं तुम !
.
सावन झूला झूला जब
बाँहों में रमक गयीं तुम !
.
कजली बाहर गूँजी जब
श्रुति-स्वर-सी गमक गयीं तुम !
.
महकी गंध त्रियामा जब
पायल-सी झमक गयीं तुम !
.
तुलसी-चौरे पर आ कर
अलबेली छमक गयीं तुम !
.
सूने घर-आँगन में आ
दीपक-सी दमक गयीं तुम !
.
(16) सहसा
.
आज तुम्हारी आयी याद,
मन में गूँजा अनहद नाद !
बरसों बाद
बरसों बाद !
साथ तुम्हारा केवल सच था,
हाथ तुम्हारा सहज कवच था,
सब-कुछ पीछे छूट गया, पर
जीवित पल-पल का उन्माद !
आज तुम्हारी आयी याद !
.
बीत गये युग होते-होते,
रातों-रातों सपने बोते,
लेकिन उन मधु चल-चित्रों से
जीवन रहा सदा आबाद !
आज तुम्हारी आयी याद !
.
(17) संसर्ग
.
जब से
हुई पहचान
मूक अधरों पर
अयास
बिछल रहे
कल गान !
.
देखा
एकाग्र पहली बार —
बढ़ गया विश्वास,
मन
पंख पसार
छूना चाहता आकाश !
.
(18) संस्पर्श
.
ओ पवित्रा !
मृदुल शीतल
उँगलियों से
छू दिया
तुमने
माथ मेरा —
मुश्किलें
उस क्षण
गया सब भूल !
.
खिल गये
उर में
हज़ार-हज़ार
टटके
फूल !
खो गये
पथ के
अनेकानेक
शूल-बबूल !
.
(19) आमने-सामने
.
जी भर
आज बोलेंगे,
परस्पर अंक में आबद्ध
सारी रात बोलेंगे,
जी भर
बात बालेंगे !
.
विश्वास की
सम-भूमि पर हम
एक-धर्मा
हीनता की ग्रंथियाँ
संदेह के निर्मोक खोलेंगे,
सहज निव्र्याज खोलेंगे !
.
जी भर
आज जी लेंगे,
सुधा के पात्र
पी लेंगे !
.
(20) सहपंथा
.
पार कर आये
बीहड़
ज़िन्दगी की राह
लम्बी राह
साथ-साथ।
.
पगडंडियाँ
या
राज-मार्ग प्रशस्त
खाइयाँ
या पर्वतों की
घूमती ऊँचाइयाँ,
पार कर आये
साथ-साथ!
ज़िन्दगी की राह!
.
एक पल भी
की न आह-कराह!
दीनता से दूर,
हीनता से दूर,
कितने ही रहे मजबूर!
नहीं कोई
शिकन आयी माथ!
पार कर आये
भयानक राह,
ज़िन्दगी की राह
साथ-साथ!
.
आँधियों की
धूल से
या
चरण चुभते
शूल से —
रुके नहीं !
तपती धूप से,
गहरे उतरते
घन अँधेरे कूप से
थके नहीं !
.
तर-बतर
करते रहे
तय सफ़र,
थामे हाथ
बाँधे हाथ
साथ-साथ।
पार कर आये
अजन-बी
ज़िन्दगी की राह
लम्बी राह !
.
(21) बस, एक बार!
.
स्नेह-तरलित दो नयन
मुझको देख लें —
बस,
एक बार !
.
दो
प्रणय-कम्पित हाथ
मुझको थाम लें —
बस,
एक बार !
.
सर्पिल भुजाएँ दो
मुझको बाँध लें—
बस,
एक बार,
.
दो
अग्निवाही होंठ
मुझको चूम लें—
बस,
एक बार !
.
(22) निकष
.
किसी मधु-गन्धिका के
प्यार की ऊष्मा-किरण
मुझको
छुए तो —
मोम हूँ !
.
किसी मुग्धा
चकोरी के
अबोध
अधीर
भटके
दो नयन
मुझ पर
पड़ें तो —
सोम हूँ !
.
(23) समवेत
.
संगीत-सहायिनी
सुकण्ठी
आ
जीवन की तृष्णा को
गा !
.
सप्त-सुरों से
स्पन्दित हो
अग-जग,
संगीतक बन जाये
सूना मग !
.
ला —
सुरबहार-वीणा-मृदंग
विविध वाद्य ला
बजा,
सुकण्ठी गा !
जीवन की तृष्णा को
गा !
.
(24) सुलक्षण
.
सुबह से आज
किस अव्यक्त से
उर उल्लसित !
.
सहसा
सुभाषित राग,
दायीं आँख
रह-रह कर
विवश स्पन्दित !
.
दूर कलगी पर
बिखरती
अजनबी गहरी सुनहरी आब,
पहली बार
गमले में खिला है
एक लाल गुलाब !
.
न जाने किस
अजाने
आत्म-शुभ सम्भाव्य की
यह भूमिका !
रोमांच पुष्पों से
लदी तन-यूथिका !
.
शायद,
आज तुमसे भेंट हो !
.
(25) पुनरपि
.
मानस में
अप्रत्याशित अतिथि से तुम
अचानक आ गये !
माना —
नहीं था पूर्व-प्रस्तुत
आर्द्र अगवानी सजाये,
हार कलियों का लिए,
हर द्वार बन्दनवार बाँधे,
प्रति पलक
उत्सुक प्रतीक्षा में !
.
तुम्हीं प्रिय पात्र,
अभ्यागत !
बताओ —
नहीं हूँ क्या
सदा से स्वागतिक मैं तुम्हारा ?
.
हर्ष-पुलकित हूँ,
अकृत्रिम भूमि पर मेरी
सहज बन
अवतरित हो तुम !
सुपर्वा
धन्य हूँ,
कृत-कृत्य हूँ !
.
पर,
यह सकुच कैसी ?
रुको कुछ देर
अनुभूत होने दो
अमित अनमोल क्षण ये !
.
जानता हूँ —
तुम प्रवासी हो,
अतिथि हो
चाहकर भी
मानवी आसक्ति के
सुकुमार बन्धन में
बँधोगे कब ?
अरे फिर भी....
तनिक... अनुरोध
फिर भी ....!
.
(26) तिघिरा की एक शाम
(चित्र : एक)
.
तिघिरा के शान्त जल में
तुम्हारा गोरा मुखड़ा
रहस्य भरे
निर्निमेष मुझे देखता
तैर रहा है !
सुडौल मांसल गोरी बाँह उठा
अरुणिम करतल पर हिलती
चक्रोंवाली अंगुलियाँ
दूर तिघिरा के वक्षस्थल से
मुझे बुलातीं !
.
मैं —
जो तट पर।
देख रहा छबि
बाइनाक्युलर लगाये
वासना बोझिल आँखों पर !
.
(27) तिघिरा की एक शाम
(चित्र : दो)
.
तिघिरा के सँकरे पुल पर
नमित नयन
सहमी-सहमी
तुम !
.
तेज़ हवा में लहराते केश,
सुगठित अंगों को
अंकित करता
फर-फर उड़ता
कांजीवरम् की साड़ी का फैलाव,
दो फ़ुर्तीले हाथों का
कितना असफल दुराव !
.
हौले-हौले
चलते
नंगे गदराए गोरे पैर,
सपने जैसी
अद्भुत रँगरेली रोमांचक सैर !
.
(28) जिजीविषु
.
गहरा अँधेरा
साँय....साँय पवन,
भवावह शाप-सा
छाया गगन,
अति शीत के क्षण !
पर,
जियो इस आस पर —
शायद कि कोई
एक दिन
बाले रवि-किरण-सा
राग-रंजित
हेम मंगल-दीप !
.
सुनसान पथ पर
मूक एकाकी हृदय तुम,
भारवत् तन
व्यर्थ जीवन !
पर,
चलो इस आस पर—
शायद किसी क्षण
चिर-प्रतीक्षित
अजनबी के
चरण निःसृत कर उठें संगीत !
.
खो गया मधुमास,
पतझर मात्र पतझर ;
फूल बदले शूल में
सपने गये सन धूल में !
.
ओ आत्महंता !
द्वार-वातायन करो मत बंद,
शायद —
समदुखी कोई
भटकती ज़िन्दगी आ
कक्ष को रँग दे
सुना स्वर्गिक सुधाधर गीत !
.
(29) प्रधूपिता से
.
ओ विपथगे !
जग-तिरस्कृत,
आ
माँग को
सिन्दूर से भर दूँ !
.
सहचरी ओ !
मूक रोदन की —
कंठ को
नाना नये स्वर दूँ !
.
ओ धनी !
अभिशप्त जीवन की —
आ
तुझे उल्लास का वर दूँ !
.
ओ नमित निर्वासिता !
आ
आ
नील कमलों से
घिरा घर दूँ !
.
वंचिता ओ !
उपहसित नारी —
अरे आ
रुक्ष केशों पर
विकंपित
स्नेह-पूरित
उँगलियाँ धर दूँ !
.
(30) निवेदन
.
फूल जो मुरझा रहे
जग-वल्लरी पर
अधखिले
कारण उसी का खोजता हूँ !
.
हे प्राण !
मुझको माफ़ करना
यदि तुम्हारे गीत कुछ दिन
मैं न गाऊँ !
स्वर्ण आभा-सा
सुवासित तन तुम्हारा देख
अनदेखा करूँ,
छवि पर न मोहित हो
तनिक भी मुसकराऊँ !
.
फूल जब मुरझा रहे
वसुधा बनी विधवा
सुमुखि !
फिर अर्थ क्या शृंगार का,
पग-नूपुरों की गूँजती झंकार का ?
.
हर फूल खिलने दो ज़रा,
डालियों पर प्यार हिलने दो ज़रा !
.
(31) दोपहरी
.
दोपहरी का समय
अनमना...... उदास,
मैं नहीं तुम्हारे पास !
एकाकी
तंद्रिल स्वप्निल
जोह रहा अविरल बाट
खोल कक्ष-कपाट !
.
चिलचिलाती धूप
बोझिल बनाती और आँखों को !
साँय-साँय करती
लम्बे-लम्बे डग भरती
हवा-दूतिका
संदेश तुम्हारा कहती !
मौन !
.
तभी मैं उठ
भर लेता बाँहों में
कर लेता स्वीकार
सरल शीतल आलिंगन
आगमन आभास तुम्हारा पाकर !
ढलती जाती दोपहरी
होती जाती अन्तर-व्यथा
गहरी....गहरी....गहरी !
.
(32) अंगीकृत
.
ओ विशालाक्षी
नील कंठाक्षी
शुभांगी !
शाप
जो तुमने दिया
अंगीकृत !
.
ओ पयस्विनी
कल्याणी !
विषज उपहार
जो तुमने दिया
स्वीकृत !
.
(33) कौन हो तुम?
.
अँधेरी रात के एकांत में
अनजान
दूरागत.....
किसी संगीत से मोहक
मधुर सद्-सांत्वना के बोल
विषधर तिक्त अंतर में
अरे ! किसने दिये हैं घोल ?
.
कौन ?
कौन हो तुम ?
अवसन्न जीवन-मेघ में
नीलांजना-सी झाँकतीं
आबंध वातायन हृदय का खोल !
.
सृष्टि की गहरी घुटन में,
दाह से झुलसे गगन में,
कौन तुम जातीं
सजल पुरवा सरीखी डोल ?
.
कौन हो तुम ?
कौन हो ?
संवेद्य मानस-चेतना को,
शांत करती वेदना को !
.
(34) याचना
.
शैल हो तुम
हैं कसे सब अंग,
विकसित-वय भरे नव-रंग !
.
प्रत्यूष ने
जब स्वर्ण किरणों से छुए
सुगठित कड़े उन्नत शिखर
प्रति रोम रजताचल
गया सहसा सिहर,
द्रुत स्वेद-मंडित तन
द्रवित मन,
शीर्ष चरणों तक
हुई सद्-संचरित रति-रस लहर !
.
शैल हो तुम
नेह-निर्झर-धार धारित,
प्राण हरिमा भाव वासित !
.
एक कण प्रिय नेह का
एक क्षण सुख देह का
मन-कामना
वर दो !
अनावृत पात्र अन्तस्
भावना भर दो !
.
(35) स्वीकार लो
.
मेरी कामनाएँ :
गगन के वक्ष पर झिलमिल
सितारों की तरह !
.
मेरी वासनाएँ :
हिमालय से प्रवाहित
वेगगा भागीरथी की
शुभ्र धारों की तरह !
.
मेरी भावनाएँ
महकते-सौंधते
उत्फुल्ल पाटल से विनिर्मित
रूपधर सद्यस्क हारों की तरह !
.
तुम्हारी अर्चना आराधना में
समर्पित हैं।
अलौकिक शोभिनी !
रमनी सुनहरी दीपकलिका से
हृदय का कक्ष ज्योतित है !
.
इस जन्म में
स्वीकार लो
स्वीकार लो
मेरा अछूता प्यार लो !
.
(36) युगों के बाद फिर...
.
युगों के बाद
सहसा आज तुम !
स्वप्न की नगरी बसाये
हाथ सिरहाने रखे सोयी हुई हो
बर्थ पर !
क्या न जागोगी ?
हुआ ही चाहता पूरा सफ़र....!
.
आँख खोलो
आँख खोलो
शब्द चाहे
एक भी मुझसे न बोलो !
देख,
फिर चाहे
बहाना नींद का भर लो ;
युगों के बाद फिर
पा रंग नव रस
खिल उठेगा
धूप मुरझाया कुसुम !
कितने दिनों के बाद
सहसा आज तुम !
.
(37) अभिरमण
.
कल सुबह से रात तक
कुछ कर न पाया
कल्पना के सिन्धु में
युग-युग सहेजी आस के दीपक
बहाने के सिवा !
हृदय की भित्ति पर
जीवित अजन्ता-चित्र... रेखाएँ
बनाने के सिवा !
किस क़दर
भरमाया
तुम्हारे रूप ने !
.
कल सुबह से रात तक
कुछ कर न पाया;
सिर्फ़
कल्पना के स्वर्ग में
स्वच्छंद सैलानी-सरीखा
घूमा किया !
नशीली-झूमती
मकरंद-वेष्टित
शुभ्र कलियों के कपोलों को
मधुप के प्यार से
चूमा किया !
किस क़दर
मुझको सताया है
तुम्हारे रूप ने !
.
कल सुबह से रात तक
कुछ कर न पाया
भावना के व्योम में
भोले कपोतों के उड़ाने के सिवा !
अभावों की धधकती आग से
मन को जुड़ाने के सिवा !
.
भटका किया,
हर पल
तुम्हारी याद में अटका किया !
.
किस क़दर
यह कस दिया तन मन
तुम्हारे रूप ने !
.
(38) कौन तुम
.
कौन तुम अरुणिम उषा-सी मन-गगन पर छा गयी हो ?
.
लोक-धूमिल रँग दिया अनुराग से,
मौन जीवन भर दिया मधु राग से,
दे दिया संसार सोने का सहज
जो मिला करता बड़े ही भाग से,
कौन तुम मधुमास-सी अमराइयाँ महका गयी हो ?
.
वीथियाँ सूने हृदय की घूम कर,
नव-किरन-सी डाल बाहें झूम कर,
स्वप्न छलना से प्रवंचित प्राण की
चेतना मेरी जगायी चूम कर,
कौन तुम नभ-अप्सरा-सी इस तरह बहका गयी हो ?
.
रिक्त उन्मन उर-सरोवर भर दिया,
भावना संवेदना को स्वर दिया,
कामनाओं के चमकते नव शिखर
प्यार मेरा सत्य शिव सुन्दर किया,
कौन तुम अवदात री ! इतनी अधिक जो भा गयी हो ?
.
(39) गीत में तुमने सजाया
.
गीत में तुमने सजाया रूप मेरा
मैं तुम्हें अनुराग से उर में सजाऊँ !
.
रंग कोमल भावनाओं का भरा
है लहरती देखकर धानी धरा
नेह दो इतना नहीं, सँभलो ज़रा
गीत में तुमने बसाया है मुझे जब
मैं सदा को ध्यान में तुमको बसाऊँ !
.
बेसहारे प्राण को निज बाँह दी
तप्त तन को वारिदों-सी छाँह दी
और जीने की नयी भर चाह दी
गीत में तुमने जतायी प्रीत अपनी
मैं तुम्हें अपना हृदय गा-गा बताऊँ !
.
(40) मुसकराये तुम....
.
मुसकराये तुम, हृदय-अरविन्द मेरा खिल गया,
देख तुमको हर्ष-गदगद, प्राप्य मेरा मिल गया !
.
चाँद मेरे ! क्यों उठाया
इस तरह जीवन-जलधि में ज्वार रे ?
पा गया तुममें सहारा
कामिनी ! युग-युग भटकता प्यार रे !
आज आँखों में गया बस, प्रीत का सपना नया !
.
रे सलोने मेघ सावन के
मुझे क्यों इस तरह नहला दिया ?
क्यों तड़प नीलांजने !
निज बाहुओं में नेह से भर-भर लिया ?
साथ छूटे यह कभी ना, हे नियति ! करना दया !
.
(41) हे विधना!
.
हे विधना ! मोरे आँगन का बिरवा सूखे ना !
.
यह पहली पहचान मिठास भरा,
रे झूमे लहराये रहे हरा,
हे विधना ! मोरे साजन का हियरा दूखे ना !
हे विधना ! मोरे आँगन का बिरवा सूखे ना !
.
लम्बी बीहड़ सुनसान डगरिया,
रे हँसते जाए बीत उमरिया,
हे विधना ! मोरे मन-बसिया का मन रूखे ना !
हे विधना ! मोरे आँगन का बिरवा सूखे ना !
.
कभी न जग की खोटी आँख लगे,
साँसत की अँधियारी दूर भगे,
हे विधना ! मोरे जोबन पर बिरहा ऊखे ना !
हे विधना ! मोरे आँगन का बिरवा सूखे ना !
.
(42) रूपासक्ति
.
सोने न देती सुछवि झलमलाती किसी की !
.
जादू भरी रात, पिछला पहर
ओढ़े हुआ जग अँधेरा गहर
भर प्रीत की लोल शीतल लहर
सूरत सुहानी सरल मुसकराती किसी को !
सोने न देती सुछवि झलमलाती किसी की !
.
गहरी बड़ी जो मिली पीर है
निर्धन हृदय के लिए हीर है
अंजन सुखद नेह का नीर है
अल्हड़ अजानी उमर जगमगाती किसी की !
सोने न देती सुछवि झलमलाती किसी की !
.
रीझा हुआ मोर-सा मन मगन
बाहें विकल, काश भर लूँ गगन
कैसी लगी यह विरह की अगन
मधु गन्ध-सी याद रह-रह सताती किसी की !
सोने न देती सुछवि झलमलाती किसी की !
.
(43) मोह-माया
.
सोनचंपा-सी तुम्हारी याद साँसों में समायी है !
.
हो किधर तुम मल्लिका-सी रम्य तन्वंगी,
रे कहाँ अब झलमलाता रूप सतरंगी,
मधुमती-मद-सी तुम्हारी मोहनी रमनीय छायी है !
सोनचंपा-सी तुम्हारी याद साँसों में समायी है !
.
मानवी प्रति-कल्पना की कल्प-लतिका बन
कर गयीं जीवन जवा-कुसुमों भरा उपवन,
खो सभी, बस, मौन मन-मंदाकिनी हमने बहायी है !
सोनचंपा-सी तुम्हारी याद साँसों में समायी है !
.
हो किधर तुम, सत्य मेरी मोह-माया री
प्राण की आसावरी, सुख धूप-छाया री
राह जीवन की तुम्हारी चित्रसारी से सजायी है !
सोनचंपा-सी तुम्हारी याद साँसों में समायी है !
.
(44) रात बीती
.
याद रह-रह आ रही है,
रात बीती जा रही है !
.
ज़िन्दगी के आज इस सुनसान में
जागता हूँ मैं तुम्हारे ध्यान में
सृष्टि सारी सो गयी है,
भूमि लोरी गा रही है !
.
झूमते हैं चित्रा नयनों में कई
गत तुम्हारी बात हर लगती नयी
आज तो गुज़रे दिनों की
बेरुख़ी भी भा रही है !
.
बह रहे हैं हम समय की धार में
प्राण ! रखना पर भरोसा प्यार में
कल खिलेगी उर-लता जो
किस क़दर मुरझा रही है !
.
(45) व्यथा-बोझिल रात
.
किसी तरह दिन तो काट लिया करता हूँ
पर, मौन व्यथा-बोझिल रात नहीं कटती,
मन को सौ-सौ बातों से बहलाता हूँ
पर, पल भूल तुम्हारी मूर्ति नहीं हटती !
.
(46) अगहन की रात
.
तुम नहीं ; और अगहन की ठण्डी रात !
.
संध्या से ही सूना-सूना, मन बेहद भारी है,
मुरझाया-सा जीवन-शतदल, कैसी लाचारी है !
है जाने कितनी दूर सुनहरा प्रात !
तुम नहीं; और अगहन की ठंडी रात !
.
खोकर सपनों का धन, आँखें बेबस बोझिल निर्धन
देख रही हैं भावी का पथ, भर-भर आँसू के कन,
डोल रहा अन्तर पीपल का-सा पात !
तुम नहीं ; और अगहन की ठंडी रात !
.
है दूर रोहिणी का आँचल, रोता मूक कलाधर
खोज रहा हर कोना, बिखरा जुन्हाई का सागर
किसको रे आज बताएँ मन की बात !
तुम नहीं ; और अगहन की ठंडी रात !
.
(47) दूर तुम
दूर तुम प्रिय, मन बहुत बेचैन !
.
अजनबी कुछ आज का वातावरण,
कर गया जैसे कि कोई धन हरण,
और हम निर्धन बने
वेदना कारण बने
मूक बन पछता रहे, जीवन अँधेरी रैन !
दूर तुम प्रिय, मन बहुत बेचैन !
.
खो कहीं नीलांजना का हार रे,
अनमना सावन बरसता द्वार रे,
और हम एकान्त में
रात के सीमांत में
जागते खोये हुए-से, पल न लगते नैन !
दूर तुम प्रिय, मन बहुत बेचैन!
.
(48) प्रिया से
.
इस तरह यदि दूर रहना था,
तो बसे क्यों प्राण में ?
.
है अपरिचित राह जीवन की
साथ में संबल नहीं ;
व्योम में, मन में घिरी झंझा
एक पल को कल नहीं,
यदि अकेले भार सहना था ;
तो बसे क्यों ध्यान में ?
.
जल रही जीवन-अभावों की
आग चारों ओर रे,
घिर रहा अवसाद अन्तर में
है थका मन-मोर रे,
इस तरह यदि मूक दहना था
तो बसे क्यों गान में ?
.
(49) बिरहिन
.
कब सरल मुसकान पाटल-सी बिखेरोगे सजन !
.
अनमना सूना बहुत बोझिल हृदय
धड़कनों के पास आओ, हे सदय !
कर रही बिरहिन प्रतीक्षा, उर भरे जीवन-जलन !
.
धूप में मुरझा रही यौवन-लता
मधु-बसंती प्यार इसको दो बता
मोरनी-सी नाच लूँ जी भर, रजत पायल पहन !
.
साथ ले चितचोर सोयी है निशा
भाविनी-सी राग-रंजित हर दिशा
रे अजाना दर्द प्राणों का, करूँ कैसे सहन !
.
(50) प्रतीक्षा
.
कितने दिन बीत गये
सपन न आये !
.
जागे सारी-सारी रात
डोला अंतर पीपर-पात
मन में घुमड़ी मन की बात
सजन न आये !
.
मेघ मचाते नभ में शोर
जंगल-जंगल नाचे मोर
हमको भूले री चितचोर
सदन न आये !
.
भर-भर आँचल कलियाँ फूल
दीप बहाये सरिता कूल
रह-रह तरसे पाने धूल
चरन न आये !
.
(51) साध
.
कितने मीठे सपने तुमने दे डाले
पर, धरती पर प्यार सँजोया एक नहीं !
.
युग-युग से जग में खोज रहा एकाकी
पर, नहीं मिला रे मनचाहा मीत कहीं,
कोलाहल में मूक उमरिया बीत गयी
सुन पाया पल भर भी मधु-संगीत नहीं,
.
भर-भर डाले क्षीर-सिन्धु मुसकानों के
संवेदन से हृदय भिगोया एक नहीं !
कितने मीठे सपने तुमने दे डाले
पर, धरती पर प्यार सँजोया एक नहीं !
.
एक तरफ़ तो बिखरा दीं सुषमा-पूरित
सौ-सौ मधुमासों की रंगीन बहारें,
और सहज दे डाले दोनों हाथों से
गहने रवि-शशि, तो गजरे फूल-सितारे,
.
पर, मेरे उर्वर जीवन-पथ पर तुमने
बीज मधुरिमा का बोया एक नहीं !
कितने मीठे सपने तुमने दे डाले
पर, धरती पर प्यार सँजोया एक नहीं !
.
(52) स्नेह भर दो
.
आज मेरे मौन बुझते दीप में प्रिय, स्नेह भर दो !
.
जगमगाए वर्तिका आलोक फैले
लोक मेरा नव सुनहरा रूप ले ले
आर्द्र आनन पर अमर मुसकान खेले
मूक हत अभिशप्त जीवन, राग रंजित प्रेय वर दो !
.
बन्द युग-युग से हृदय का द्वार मेरा
राह भूला, तम भटकता प्यार मेरा
भग्न जीवन-बीन का हर तार मेरा
जग-जलधि में डूबते को बाँह दो, विश्वास-स्वर दो !
.
(53) रतजगा
.
रह-रह कहीं दूर, मधु बज रही बीन !
.
आयी नशीली निशा
मदमस्त है हर दिशा
घिर-घिर रही याद, सुधबुध पिया-लीन !
.
मधु-स्वप्न खोया हुआ
जग शांत सोया हुआ
प्रिय-रूप-जल-हीन, अँखियाँ बनी मीन !
.
आशा-निराशा भरे
जीवन-पिपासा भरे
दिल आज बेचैन, खामोश, ग़मगीन !
.
रोती हुई हर घड़ी
कैसी मुसीबत पड़ी
जैसे कि सर्वस्व मेरा लिया छीन !
.
(54) वंचना
.
जिसको समझा था वरदान
वही अभिशाप बन गया !
.
चमका ही था अभिनव चाँद
गगन में मेघ छा गये,
महका ही था मेरा बाग
कि सिर पर वज्र आ गये,
जिसको समझा था शुभ पुण्य
वही कटु पाप बन गया !
.
जिसको पा जीवन में स्वप्न
सँजोये ; व्यंग्य अब बने,
जगमग करता जिन पर स्वर्ण
वही अब क्षार से सने,
जिसको समझा था सुख-सार
वही संताप बन गया !
.
(55) अब नहीं...
.
अब नहीं मेरे गगन पर
चाँद निकलेगा !
.
बीत जाएगी तुम्हारी याद में सारी उमर
पार करनी है अँधेरी और एकाकी डगर ;
किस तरह अवसन्न जीवन
बोझ सँभलेगा !
.
शांत, बेबस, मूक, निष्फल खो उमंगों को हृदय
चिर उदासी मग्न, निर्धन, खो तरंगों को हृदय
अब नहीं जीवन-जलधि में
ज्वार मचलेगा !
.
नेह रंजित, हर्ष पूरित, इंद्रधनुषी फाग को
उपवनों में गूँजते रस-सिक्त पंचम-राग को
क्या पता था, इस तरह
प्रारब्ध निगलेगा !
.
(56) दीया जलाओ
.
यह गुज़रता जा रहा तूफ़ान
अब तो तुम
नये घर में नया दीया जलाओ !
.
मिट गया है
स्वप्न का वह नीड़
जिसमें चाँद-तारे जगमगाते थे,
बीन के वे तार सारे भग्न
जिनमें स्वर किसी दिन झनझनाते थे !
भूल जाऊँ —
इसलिए तुम अब
नये स्वर में नया मधु-गीत गाओ !
यह गुज़रता जा रहा तूफ़ान
अब तो तुम
नये घर में नया दीया जलाओ !
.
यह न पूछो
किस तरह मैं ज़िन्दगी की धार पर
उठता रहा, गिरता रहा,
भावनाएँ धूल पर सोती रहीं
या व्योम में उड़ती रहीं;
पर, जानता हूँ —
घूँट विष की ले चुका कितनी,
असर विष का नहीं जाता
मुझे मालूम है यह भी !
पर, ज़रा तुम
घट-सुधा का तो पिलाओ !
यह गुज़रता जा रहा तूफ़ान
अब तो तुम
नये घर में नया दीया जलाओ !
.
है अभी तो चाह बाक़ी,
और उर के द्वार पर देखो
मचलता ज्वार हँसने का
शुभे! बाक़ी,
अभी तो प्यार के अरमान बाक़ी,
फूल-से मधुमास में खोयी
अनेकों मुग्ध पागल चाँद की रातें अभी बाक़ी,
वफ़ा की, बेवफ़ाई की
हज़ारों व्यर्थ की बातें अभी बाक़ी !
तुम तनिक तो मुसकराती
साथ में मेरे चली आओ !
यह गुज़रता जा रहा तूफ़ान
अब तो तुम
नये घर में नया दीया जलाओ !
.
(57) जिजिविषा
.
जी रहा है आदमी
प्यार ही की चाह में !
.
पास उसके गिर रही हैं बिजलियाँ,
घोर गहगह कर घहरतीं आँधियाँ,
पर, अजब विश्वास ले
सो रहा है आदमी
कल्पना की छाँह में !
जी रहा है आदमी
प्यार ही की चाह में !
.
पर्वतों की सामने ऊँचाइयाँ,
खाइयों की घूमती गहराइयाँ,
पर, अजब विश्वास ले
चल रहा है आदमी
साथ पाने राह में!
जी रहा है आदमी
प्यार ही की चाह में !
.
बज रही हैं मौत की शहनाइयाँ,
कूकती वीरान हैं अमराइयाँ,
पर, अजब विश्वास ले
हँस रहा है आदमी
आँसुओं में, आह में!
जी रहा है आदमी
प्यार ही की चाह में!
.
(58) आदमी
.
गोद पाकर, कौन जो सोया नहीं ?
होश किसने प्यार में खोया नहीं ?
आदमी, पर है वही जो दर्द को
प्राण में रख, एक पल रोया नहीं !
.
(59) कौन हो तुम
.
कौन हो तुम, चिर-प्रतीक्षा-रत
सजग, आधी अँधेरी रात में ?
.
उड़ रहे हैं घन तिमिर के
सृष्टि के इस छोर से उस छोर तक,
मूक इस वातावरण को
देखते नभ के सितारे एकटक,
कौन हो तुम, जागतीं जो इन
सितारों के घने संघात में ?
कौन हो तुम, चिर-प्रतीक्षा-रत
सजग, आधी अँधेरी रात में ?
.
जल रहा यह दीप किसका,
ज्योति अभिनव ले कुटी के द्वार पर,
पंथ पर आलोक अपना
दूर तक बिखरा रहा विस्तार भर,
कौन है यह दीप ? जलता जो
अकेला, तीव्र गतिमय वात में ?
कौन हो तुम, चिर-प्रतीक्षा-रत
सजग, आधी अँधेरी रात में ?
.
कर रहा है आज कोई
बार-बार प्रहार मन की बीन पर,
स्नेह काले लोचनों से
युग-कपोलों पर रहा रह-रह बिखर,
कौन-सी ऐसी व्यथा है,
रात में जगते हुए जलजात में ?
कौन हो तुम, चिर-प्रतीक्षा-रत
सजग, आधी-अँधेरी रात में ?
.
(60) तुम
.
सचमुच, तुम कितनी भोली हो !
.
संकेत तुम्हारे नहीं समझ में आते,
मधु-भाव हृदय के ज्ञात नहीं हो पाते,
तुम तो अपने में ही डूबी
नभ-परियों की हमजोली हो !
सचमुच, तुम कितनी भोली हो !
.
तुम एक घड़ी भी ठहर नहीं पाती हो,
फिर भी जाने क्यों मन में बस जाती हो,
वायु बसंती बन, मंथर-गति
से जंगल-जंगल डोली हो !
सचमुच, तुम कितनी भोली हो !
.
(61) दर्शन
.
मन, दर्शन करने से बंधन में बँध जाता है !
.
यह दर्शन सपनों में भी कर
देता सोये उर को चंचल,
लखकर शीशे-सी नव आभा
आँखें पड़ती हैं फिसल-फिसल,
नयनों का घूँघट गिर जाता, मन भर आता है !
मन, दर्शन करने से बंधन में बँध जाता है !
.
यह दर्शन केवल क्षण भर का
बिखरा देता भोली शबनम,
बन जाता है त्योहार सजल
पीड़ामय सिसकी का मातम,
इसका वेग प्रखर आँधी से होड़ लगाता है !
मन दर्शन करने से बंधन में बँध जाता है !
.
यह दर्शन उज्वल स्मृति में ही
देता अंतर के तार हिला,
नीरस जीवन के उपवन में
देता है अनगिन फूल खिला,
इसका कंपन मीठा-मीठा गीत सुनाता है !
मन, दर्शन करने से बंधन में बँध जाता है।
.
यह दर्शन प्रतिदिन-प्रतिक्षण का
लगता न कभी उर को भारी,
दिन में सोने, निशि में चाँदी
की सजती रहती फुलवारी,
यह नयनों का जीवन सार्थक पूर्ण बनाता है ।
मन, दर्शन करने से बंधन में बँध जाता है !
.
यह दर्शन मूक लकीरों का
बरसा देता सावन के घन,
गहरे काले तम के पट पर
खिंच जाती बिजली की तड़पन,
इसका आना उर-घाटी में ज्योति जगाता है !
मन, दर्शन करने से बंधन में बँध जाता है !
.
(62) मत बनो कठोर
.
इन बड़री-बड़री अँखियों से
मत देखो प्रिय ! यों मेरी ओर !
.
इतने आकर्षण की छाया
जल-से अंतर पर मत डालो,
मैं पैरों पड़ता हूँ, अपनी
रूप-प्रभा को दूर हटालो,
अथवा युग नयनों में भर लो
फेंक रेशमी किरनों की डोर !
इन बड़री-बड़री अँखियों से
मत देखो प्रिय ! यों मेरी ओर !
.
और न मेरे मन की धरती
पर सुख-स्नेह-सुधा बरसाओ,
यह ठीक नहीं, वश में करके
प्राणों को ऐसे तरसाओ,
छू लेने भर दो, कुसुमों से
अंकित जगमग आँचल का छोर !
इन बड़री-बड़री अँखियों से
मत देखो प्रिय ! यों मेरी ओर !
.
इस सुषमा की बरखा में तो
पथ भूल रहा है भीगा मन,
तुम उत्तरदायी, यदि सीमा
तोड़े यह उमड़ा नद-यौवन,
आ जाओ ना कुछ और निकट
यों इतनी तो मत बनो कठोर !
इन बड़री-बड़री अँखियों से
मत देखो प्रिय ! यों मेरी ओर !
.
(63) किरण
.
उतरी रही प्रमोद से
अबोध चंद्र की किरण !
.
समस्त सृष्टि सुप्त देखकर,
रजत अरोक व्योम-मार्ग पर
समेट अंग-अंग
वेगवान रख रही चरण !
उतर रही प्रमोद से
अबोध चंद्र की किरण !
.
विमुक्त खूँदती रही निडर
हरेक गाँव, घर, गली, नगर,
न शांत रह सकी ज़रा
न कर सकी निशा-शयन !
उतर रही प्रमोद से
अबोध चंद्र की किरण !
.
(64) चाँद से
.
कपोलों को तुम्हारे चूम लूंगा,
मुसकराओ ना !
.
तुम्हारे पास माना रूप का आगार है,
सुनयनों में बसा सुख-स्वप्न का संसार है,
अनावृत अप्सराएँ नृत्य करती हैं जहाँ,
नवेली तारिकाएँ ज्योति भरती हैं जहाँ,
.
उन्हीं के सामने जाओ ; यहाँ पर,
झलमलाओ ना !
कपोलों को तुम्हारे चूम लूंगा,
मुसकराओ ना !
.
बड़ी खामोश आहट है तुम्हारे पैर की
तभी तो चोर बनकर आसमाँ की सैर की,
खुली ज्यों ही पड़ी चादर सुनहली धूप की
न छिप पायी किरन कोई तुम्हारे रूप की,
.
बहाना अंग ढकने का लचर इतना
बनाओ ना !
कपोलों को तुम्हारे चूम लूंगा
मुसकराओ ना !
.
युगों से देखता हूँ तुम बड़े ही मौन हो
बताओ तो ज़रा, मैं पूछता हूँ कौन हो ?
न पाओगे कभी जा दृष्टि से यों भाग कर
तुम्हारा धन गया है आज आँगन में बिखर,
.
रुको पथ बीच, चुपके से मुझे उर में
बसाओ ना !
कपोलों को तुम्हारे चूम लूंगा
मुसकराओ ना !
.
(65) चाँद सोता है !
.
सितारों से सजी चादर बिछाए चाँद सोता है !
.
बड़ा निश्चिन्त है तन से,
बड़ा निश्चिन्त है मन से,
बड़ा निश्चिन्त जीवन से,
.
किसी के प्यार का आँचल दबाए चाँद सोता है !
सितारों से सजी चादर बिछाए चाँद सोता है !
.
नयी सब भावनाएँ हैं,
नयी सब कल्पनाएँ हैं,
नयी सब वासनाएँ हैं,
.
हृदय में स्वप्न की दुनिया बसाए चाँद सोता है !
सितारों से सजी चाँद बिछाए चाँद सोता है !
.
सुखद हर साँस है जिसकी,
मधुर हर आस है जिसकी,
सनातन प्यास है जिसकी,
.
विभा को वक्ष पर अपने लिटाए चाँद सोता है !
सितारों से सजी चादर बिछाए चाँद सोता है !
.
(66) कौन कहता है ...
.
कौन कहता है कि मेरे चाँद में जीवन नहीं है ?
.
चाँद मेरा खूब हँसता, मुसकराता है,
खेलता है और फिर छिप दूर जाता है,
कौन कहता है कि मेरे चाँद में धड़कन नहीं है ?
कौन कहता है कि मेरे चाँद में जीवन नहीं है ?
.
रात भर यह भी किसी की याद करता है,
देखना, अक्सर विरह में आह भरता है,
कौन कहता है कि मेरे चाँद में यौवन नहीं है ?
कौन कहता है कि मेरे चाँद में जीवन नहीं है ?
.
है सदा करता रहा संसार को शीतल,
है सदा करता रहा वर्षा-सुधा अविरल,
कौन कहता है कि मेरे चाँद में चन्दन नहीं है ?
कौन कहता है कि मेरे चाँद में जीवन नहीं है ?
.
(67) छा गये बादल
.
तुम्हारी मद भरी मुसकान लख कर आ गये बादल !
तुम्हारे नैन प्यासे देखकर, ये छा गये बादल !
.
नवेली ! पायलों से बज रही झंकार है झन-झन,
सदा यह झूमता प्रतिपल सुघड़ सुन्दर सुकोमल तन,
असह है यह तुम्हारे रूप का अब और आकर्षण,
नयन बंदी हुए जिसको निमिष भर देखकर केवल !
तुम्हारे नैन प्यासे देखकर, ये छा गये बादल !
तुम्हारी मद भरी मुसकान लख कर आ गये बादल !
.
चमकता शुभ्र गोरे-लाल फैले भाल पर झूमर,
तुम्हारे केश घुँघराले हवा में उड़ रहे फर-फर,
झुके जाते स्वयं के भार से प्रति अंग नव-सुन्दर,
फिसलता जा रहा है वक्ष पर से फूल-सा आँचल !
तुम्हारे नैन प्यासे देखकर, ये छा गये बादल !
तुम्हारी मद भरी मुसकान लखकर आ गये बादल !
.
तुम्हारा गान सुन संसार सब बेहोश हो जाता,
बड़े सुख की नयी दुनिया बसा निश्चिन्त सो जाता,
तुम्हारी रागिनी में डूब मन-जलयान खो जाता,
बहाती हो अजानी स्नेह की धारा सरल छल-छल !
तुम्हारे नैन प्यासे देखकर, ये छा गये बादल !
तुम्हारी मद भरी मुसकान लखकर आ गये बादल !
.
अमिट है याद से मेरी तुम्हारा वह मिलन-पनघट,
विकल होकर सुमुखि ! मैंने कहा जब, ‘हो बड़ी नटखट !’
उसी पल खुल गया था यह तुम्हारी लाज का घूँघट,
बड़े मनहर व मादक थे तुम्हारे बोल वे निश्छल !
तुम्हारे नैन प्यासे देखकर, ये छा गये बादल !
तुम्हारे मद भरी मुसकान लखकर आ गये बादल !
.
(68) निवेदन
.
सुप्त उर के तार फिर से
प्राण ! आकर झनझना दो !
.
नभ-अवनि में शुभ्र फैली चाँदनी,
मूक है खोयी हुई-सी यामिनी ;
और कितनी तुम मनोहर कामिनी !
आज तो बन्दी बनाकर
क्षणिक उन्मादी बनादो !
सुप्त उर के तार फिर से
प्राण ! आकर झनझना दो !
.
मद भरे अरुणाभ हैं सुन्दर अधर,
नैन हिरनी से कहीं निश्छल सरल,
देह ‘विद्युत, काँच, जल-सी’ श्वेत है,
डालियों-सी बाहु मांसल तव नवल,
आज जीवन से भरा नव
गीत मीठा गुनगुना दो !
सुप्त उर के तार फिर से
प्राण ! आकर झनझना दो !
.
स्वर्ग से सुन्दर कहीं संसार है,
हर दिशा से हो रही झंकार है,
विश्व को यह प्रेम री स्वीकार है,
चिर-प्रतीक्षित-मधु-मिलन
त्योहार संगिनि ! अब मना लो !
सुप्त उर के तार फिर से
प्राण ! आकर झनझना दो !
.
(69) चाँदनी में
.
नयी चाँदनी में नहालो, नहालो !
.
नयन बंद कर आज सोये सितारे,
भगे जा रहे कुछ किनारे-किनारे,
खुले बंध मन के हमारे-तुम्हारे,
किरण-सेज पर प्रिय ! प्रणय-निशि मनालो !
नयी चाँदनी में नहालो, नहालो !
.
झकोरे मिलन-गीत गाने लगे हैं,
मधुर-स्वर हृदय को हिलाने लगे हैं,
नये स्वप्न फिर आज छाने लगे हैं,
हँसो और संकोच-परदा हटालो !
नयी चाँदनी में नहालो, नहालो !
.
जवानी लहर कर जगी मुसकरायी,
सिमटती बिखरती चली पास आयी,
बड़े मान-मनुहार भी साथ लायी
सुमुखि ! अब स्वयं को न बरबस सँभालो !
नयी चाँदनी में नहालो, नहालो !
.
भ्रमर को किसी ने गले से लगाया,
सरस-गंध मय अंक में भर सुलाया,
बड़े प्यार से चूम झूले झुलाया,
लजीली ! मुझे भी न बन्दी बना लो !
नयी चाँदनी में नहालो, नहालो !
.
(70) चाँद और तुम
.
अपनी छत पर खड़ी-खड़ी तुम
भी देख रही होगी चाँद !
.
शीतल किरनों की बरखा में
तुम भी आज नहाती होगी,
बड़री अँखियों से देख-देख
आकुल मन बहलाती होगी,
और अनायास कभी कुछ-कुछ
अस्फुट-स्वर में गाती होगी,
तुमको भी रह-रह कर आती
होगी आज किसी की याद !
अपनी छत पर खड़ी-खड़ी तुम
भी देख रही होगी चाँद !
.
अपने से ही मधु-बातें तुम
भी करने लग जाती होगी,
बाहें फैला अनजान किसी
को भरने लग जाती होगी,
फिर अपने इस पागलपन पर
अधरों में मुसकाती होगी,
तुममें भी उन मिलन-पलों का
छाया होगा री उन्माद !
अपनी छत पर खड़ी-खड़ी तुम
भी देख रही होगी चाँद !
.
तुम भी हलका करती होगी
यह भारी-भारी-सा जीवन,
तुम भी मुखरित करती होगी
यह सूना-सूना-सा यौवन,
खोयी-खोयी-सी व्याकुल बन
तुम चाह रही होगी बंधन,
तुमने भी इस पल सपनों की
दुनिया की होगी आबाद !
अपनी छत पर खड़ी-खड़ी तुम
भी देख रही होगी चाँद !
.
(71) बुरा क्या किया था ?
.
मैंने, बताओ, तुम्हारा बुरा क्या किया था ?
.
कोमल कली-सी अधूरी खिली थीं,
जब तुम प्रथम भूल मुझसे मिली थीं,
अनुभव मुझे भी नया ही नया था,
अपना, तभी तो, सदा को तुम्हें कर लिया था !
मैंने, बताओ, तुम्हारा बुरा क्या किया था ?
.
जीवन-गगन में अँधेरी निशा थी,
दोनों भ्रमित थे कि खोयी दिशा थी,
जब मैं अकेला खड़ा था विकल बन
पाया तुम्हें प्राण करते समर्पण,
उस क्षण युगों का जुड़ा प्यार सारा दिया था !
मैंने, बताओ, तुम्हारा बुरा क्या किया था ?
.
तुमने उठा हाथ रोका नहीं था,
निश्चिन्त थीं ; क्योंकि धोखा नहीं था,
बंदी गयीं बन बिना कुछ कहे ही
वरदान मानों मिला हो सदेही,
कितना सरल मूक अनजान पागल हिया था !
मैंने, बताओ, तुम्हारा बुरा क्या किया था ?
.
(72) कल रात
.
कल रात ज़रा भी तो नींद नहीं आयी !
.
सूनी कुटिया थी मेरी सूना था नभ का आँगन,
केवल जगता था मैं, या जगता विधु का भावुक मन ;
प्रतिपल बढ़ती थीं ज्यों ही जिसकी किरणें बाहें बन,
बढ़ती जाती थी रह-रह जाग्रत अन्तर की धड़कन ;
ना मद से बोझिल ये अँखियाँ अलसायीं !
कल रात ज़रा भी तो नींद नहीं आयी !
.
स्वयं निकल कर स्वप्न-कथा की बढ़ती थीं घटनाएँ,
उड़ जाती थीं शैया पर नव-परिमल-अन्ध-हवाएँ,
लहर-लहर कर अँगड़ा कर जागीं सुप्त भावनाएँ,
निशि भर पड़ी रहीं चुपचु मन को अपने बहलाए,
उन्मादी-सी बन न क्षणिक भी शरमायीं !
कल रात ज़रा भी तो नींद नहीं आयी !
.
बिखर कभी कच वक्षस्थल पर उड़-उड़ लहराते थे,
या कि कभी सज-गुँथ कर दो वेणी लट बन जाते थे,
कमल-वृंत पर कभी भ्रमर अस्फुट राग सुनाते थे,
कोमल पत्ते बार-बार फूलों को सहलाते थे,
बनती मिटती रही अजानी परछाईं !
सच, कल रात ज़रा भी नींद नहीं आयी !
.
(73) जाओ नहीं
.
बीतते जाते पहर पर आ पहर
पर, रात ! तुम जाओ नहीं,
जाओ नहीं !
.
प्यार करता हूँ तुम्हें
तुम पूछ लो झिलमिल सितारों से
कि जागा हूँ
उनींदे नींद से बोझिल पलक ले ;
क्योंकि मेरी भावना
तव रूप में लय हो गयी है !
.
मैं वही हूँ
एक दिन जिसको समर्पित था
किसी के रूप का धन
सामने तेरे !
तभी तो प्यार करता हूँ तुझे जी भर,
कि तूने ज़िन्दगी के साथ मेरे
वह पिया है रूप का आसव
कि जिसका ही नशा
चहुँ और छाया दीखता है !
.
इसलिए —
ठहरो अभी, ओ रात !
तुम जाओ नहीं
जाओ नहीं !
.
(74) विश्वास
.
यह विश्वास मुझे है —
एक दिवस तुम
मेरी प्यासी आँखों के सम्मुख
मधु-घट लेकर आओगी !
बदली बनकर छाओगी !
.
दरवाज़े को
गोरे-गोरे दर्पन-से हाथों से
खोल खड़ी हो जाओगी !
भोले लाल कपोलों पर
लज्जा के रँग भर-भर लाओगी !
नयनों की अनबोली भाषा में
जाने क्या-क्या कह जाओगी !
.
ज्यों चंदा को देख
चकोर विहँसने लगता है,
ज्यों ऊषा के आने पर
कमलों का दल खिलने लगता है,
वैसे ही देख तुम्हें कोई
चंचल हो जाएगा !
बीते मीठे सपनों की
दुनिया में खो जाएगा !
.
फिर इंगित से पास बुलाएगा,
धीरे से पूछेगा —
‘कैसी हो,
कब आयीं ?’
.
तुम क्या उत्तर दोगी ?
शायद, दो लम्बी आहें भर लोगी
आँखों पर आँचल धर लोगी !
.
(75) प्रतीक्षा
.
आज तक मैंने तुम्हारी
चाहना का गीत गाया,
और रह-रह कर तड़पती
याद में जीवन बिताया,
क्या प्रतीक्षा में सदा ही
मैं व्यथा सहता रहूंगा ?
.
स्वप्न में देखा कभी यदि,
कह उठा, ‘बस आज आये’ !
दिवस बीता, रात बीती
पर, न सुख के मेघ छाये,
कल्पना में ही सदा क्या
मैं विकल बहता रहूंगा ?
.
प्राण उन्मन, भग्न जीवन,
मूक मेरी आज वाणी,
याद आती है विगत युग
की वही मीठी कहानी,
क्या अभावों की कथा ही
मैं सदा कहता रहूंगा ?
.
(76) कोई शिकायत नहीं
.
तुमसे मुझे आज कोई शिकायत नहीं है !
.
विवश बन, नयन भेद सारा छिपाये हुए हैं,
मिलन-चित्र मोहक हृदय में समाये हुए हैं,
बहुत सोचता हूँ, बहुत सोचता हूँ,
कहीं दूर का पथ नया खोजता हूँ,
पर, भूलने की शुभे ! एक आदत नहीं है !
तुमसे मुझे आज कोई शिकायत नहीं है !
.
कभी देख लेता मधुर स्वप्न जाने-अजाने,
उसी के नशे में तुम्हें पास लगता बुलाने,
बुरा क्या अगर मुसकराता रहूँ मैं,
नयी एक दुनिया बसाता रहूँ मैं ?
सच, यह किसी भी तरह की शरारत नहीं है !
तुमसे मुझे आज कोई शिकायत नहीं है !
.
अकेली लता को कभी वृक्ष लेता लगा उर,
कमलिनी थकी-सी भ्रमर को सुखद अंक में भर,
सिमटती गयी, चुप लजाती रही जब,
बड़ी याद मुझको सताती रही तब,
सौन्दर्य जग का किसी की अमानत नहीं है !
तुमसे मुझे आज कोई शिकायत नहीं है !
.
(77) विरह का गान
.
मिल गया तुमको, तुम्हारा प्यार !
.
ज़िन्दगी मेरी अमा की रात है,
एक पश्चाताप की ही बात है,
आज मेरा घर हुआ वीरान है,
मूक होठों पर विरह का गान है ;
पर, खुशी है —
मिल गया तुमको मधुर संसार !
मिल गया तुमको, तुम्हारा प्यार !
.
भाग्य में मेरे बदा था शून्य-जल
मधु-सुधा भी बन गया तीखा गरल,
पास की पहचान अब कड़ियाँ बनीं,
वेदनामय गत मिलन-घड़ियाँ बनीं,
पर, खुशी है —
मिल गया तुमको नया शृंगार !
मिल गया तुमको, तुम्हारा प्यार !
.
ज़िन्दगी में आँधियाँ ही आँधियाँ,
स्नेह बिन कब तक जलेगा यह दिया !
आ रहा बढ़ता भयावह ज्वार है,
हाथ में आकर छिना पतवार है,
पर, खुशी है —
मिल गया तुमको सबल आधार !
मिल गया तुमको, तुम्हारा प्यार !
.
(78) दीप जला दो !
.
मेरे सूने घर में —
युग-युग का अँधियारा छाया है
जीवन-ज्योति जली थी — सपना है;
तुममें जितना स्नेह समाया है
तब समझंूगाµमेरा अपना है
यदि ऊने अन्तर में तुम दीप जला दो !
मेरे सूने घर में तुम दीप जला दो !
.
कल्पों से यह जीवन क्या ? मरुथल
बना हुआ है जग का ऊष्मा-घर,
एकाकी पथ, फिर उस पर मृग-जल
तब मानूंगा तुममें रस-सागर
यदि मेरे ऊसर-मन को नहला दो !
मेरे सूने घर में तुम दीप जला दो !
.
पल-पल पर आना-जाना रहता
केवल रेतीले तूफ़ानों का,
बनता क्या ? जो है वह भी ढहता ;
समझूंगा मूल्य तुम्हारे गानों का
यदि सूखे सर-से मन को बहला दो !
मेरे सूने घर में तुम दीप जला दो !
.
सम्भव हो न सकेगा जीवित रहना
पल भर भी तन-मन मोम-लता का
है बस मूक प्रहारों को सहना ;
समझूंगा जादू कोमलता का
यदि पाहन-उर के व्रण सहला दो !
मेरे सूने घर में तुम दीप जला दो !
.
(79) धन्यवाद
.
दो क्षण सम्पुट अधरों को जो
तुमने दी खिलते शतदल-सी मुसकान ;
कृपा तुम्हारी, धन्यवाद !
.
जग की डाल-डाल पर छाया
था मधु-ऋतु का वैभव,
वसुधा के कन-कन ने खेली
थी जब होली अभिनव,
मेरे उर के मूक गगन को
गुंजित कर जो तुमने गाया मधु-गान ;
कृपा तुम्हारी, धन्यवाद !
दो क्षण सम्पुट अधरों को जो
तुमने दी खिलते शतदल-सी मुसकान ;
कृपा तुम्हारी, धन्यवाद !
.
पूनम की शीतल किरनों में
वन-प्रांतर डूब गये,
जब जन-जन मन में सपनों के
जलते थे दीप नये,
युग-युग के अंधकार में तुम
मेरे लाये जो जगमग स्वर्ण-विहान ;
कृपा तुम्हारी, धन्यवाद !
दो क्षण सम्पुट अधरों को जो
तुमने दी खिलते शतदल-सी मुसकान ;
कृपा तुम्हारी, धन्यवाद !
.
जब प्रणयोन्माद लिए बजती
मुरली मनुहारों की,
घर-घर से प्रतिध्वनियाँ आतीं
गीतों-झनकारों की,
दो क्षण को ही जो तुमने आ
बसा दिया मेरा अंतर-घर वीरान ;
कृपा तुम्हारी, धन्यवाद !
दो क्षण सम्पुट अधरों को जो
तुमने दी खिलते शतदल-सी मुसकान ;
कृपा तुम्हारी धन्यवाद !
.
आ जाती जीवन-प्यार लिए
जब संध्या की बेला,
हर चैराहे पर लग जाता
अभिसारों का मेला,
दुनिया के लांछन से सोया
जगा दिया खंडित फिर मेरा अभिमान ;
कृपा तुम्हारी धन्यवाद !
दो क्षण सम्पुट अधरों को जो
तुमने दी खिलते शतदल-सी मुसकान ;
कृपा तुम्हारी धन्यवाद !
.
(80) नींद
.
आज मेरे लोचनों में
नींद घिरती आ रही है !
.
व्योम से आती हुई रजनी
मृदुल माँ-वत् करों से थपकियाँ देती,
नव-सितारों से जड़ित आँचल
बिछा है, आँख सुख की झपकियाँ लेतीं,
चन्द्र-मुख से सित-सुधा की
धार झरती आ रही है !
आज मेरे लोचनों में
नींद घिरती आ रही है !
.
सुन रहा हूँ स्नेह का मधुमय
तुम्हारा गीत कुसुमों और डालों से,
प्रति-ध्वनित है आज पत्थर से
वही संगीत सरिता और नालों से
रागिनी उर में सुखद मद
भाव भरती जा रही है !
आज मेरे लोचनों में
नींद घिरती आ रही है !
.
बन्द पलकों के हुए पट, पर
दिखायी दे रहा यह, पी रहा हूँ मैं,
नव पयोधर से किसी का दूध
शीतल, भान भी है यह, कहाँ हूँ मैं,
स्वस्थ मांसल देह-छाया
झूम गिरती आ रही है !
आज मेरे लोचनों में
नींद घिरती आ रही है !
.
(81) आकुल-अन्तर
.
आज है बेचैन मन
कुछ बात करने को प्रिये !
.
एकरस इतनी विलंबित
मौनता अब हो रही है भार,
जब सतत लहरा रहा शीतल
रुपहला स्निग्ध पारावार,
हो रहा बेचैन मन
उन्मुक्त मिलने को प्रिये !
आज है बेचैन मन
कुछ बात करने को प्रिये !
.
शुष्क नीरस सृष्टि में जब
छा गये चारों तरफ़ नव बौर,
भाग्य में मेरे अरे केवल
लिखा है क्या अकेला ठौर ?
हो रहा बेचैन मन
कुछ भेद कहने को प्रिये !
आज है बेचैन मन
कुछ बात करने को प्रिये !
.
(82) मेरा चाँद...
.
मेरा चाँद मुझसे दूर है !
सूने व्योम में
रोती अकेली रात है,
चारों ओर से
तम की लगी बरसात है,
इसलिए ही आज
निष्प्रभ हर कुमुद का नूर है !
मेरा चाँद मुझसे दूर है !
.
किस एकांत में
जाकर तड़पता है सरल,
भय है प्राण को
भारी, न पीले रे गरल,
क्योंकि ऊँचे भव्य
घर में क़ैद है, मजबूर है !
मेरा चाँद मुझसे दूर है !
.
ये आँखें क्षितिज
पर आश से, विश्वास से
निश्छल देखतीं
हर रश्मि को उल्लास से,
क्योंकि यह है सत्य —
उसमें चाह मिलन ज़रूर है !
मेरा चाँद मुझसे दूर है !
.
(83) मिल गये थे हम
.
ज़िन्दगी की राह पर जब दो-क्षणों को
मिल गये थे हम,
एकरसता मौनता का बोझ भारी
हो गया था कम !
.
उड़ गया छाया थकावट का, उदासी
का धुआँ गहरा,
पा तुम्हें मन-प्राण मरुथल पर उठी थी
रस-लहर लहरा !
.
पर, बनी मंज़िल मनुज की क्या कभी भीµ
राह जीवन की ?
क्या सदा को छा सकीं नभ में घटाएँ
सुखद सावन की ?
.
आज जाना है विरल बहुमूल्य कितनी
प्यार की घड़ियाँ,
गूँजती हैं आज भी रह-रह तुम्हारे
गीत की कड़ियाँ !
.
(84) ग्रहण
.
आज मेरे सरल चाँद को किस
ग्रहण ने ग्रसा है ?
आज कैसी विपद में विहंगम
गगन का फँसा है ?
.
मौन वातावरण में बिखरतीं
उदासीन किरणें,
रंग बदला कि मानों उठी हो
घटा घोर घिरने !
.
दूर का यह अँधेरा सघन अब
निकट आ रहा है,
गीत दुख का, बड़ी वेदना का
पवन गा रहा है !
.
अश्रु से भर खड़े मूक बनकर
सभी तो सितारे,
हो व्यथित यह सतत सोचते हैं
कि किसको पुकारें ?
.
साथ हूँ मैं सुधाधर तुम्हारे
मुझे दुख बताओ,
हूँ तुम्हारा, रहूँगा तुम्हारा
न कुछ भी छिपाओ !
.
(85) विवशता
.
दूर गगन से देख रहा शशि !
.
जगते-जगते बीत गयी है
आधी रात,
पर, पूरी हो न सकी अस्फुट
मन की बात,
भरे नयन से देख रहा शशि !
दूर गगन से देख रहा शशि !
.
ऊपर से तो शांत दिखायी
देते प्राण,
पर, भीतर क़ैद बड़ा यौवन
का तूफ़ान,
विरह-जलन से देख रहा शशि !
दूर गगन से देख रहा शशि !
.
सारे नभ में बिखरी पड़ती
है मुसकान,
पर, कितना लाचार अधूरा
है अरमान,
बोझिल तन से देख रहा शशि !
दूर गगन से देख रहा शशि !
.
(86) आकर्षण
.
जितने पास आता हूँ तुम्हारे इंदु
उतने ही सँभल तुम दूर जाते हो !
.
पहले ही बता दो ना
पहुँचने क्या नहीं दोगे ?
पहले ही अरे कह दो
कि मेरा प्यार ना लोगे !
जितना चाहता हूँ ओ ! तुम्हें राकेश
उतने ही बदल तुम दूर जाते हो !
जितने पास आता हूँ तुम्हारे इंदु
उतने ही सँभल तुम दूर जाते हो !
.
आओगे न क्या मेरे
कभी एकांत जीवन में ?
क्या अच्छा नहीं लगता
विहँसना स्नेह-बंधन में ?
जितना चाहता हूँ बाँधना ओ सोम !
उतने बन विकल तुम दूर जाते हो !
जितने पास आता हूँ तुम्हारे इंदु
उतने ही सँभल तुम दूर जाते हो !
.
ऊपर से खड़े होकर
निरंतर देखते क्यों हो ?
किरणें रेशमी अपनी
सँजो कर फेंकते क्यों हो ?
जैसे ही अकिंचन मैं उलझता भूल
वैसे ही सरल ! तुम दूर जाते हो !
जितने पास आता हूँ तुम्हारे इंदु
उतने ही सँभल तुम दूर जाते हो !
.
(87) मृग-तृष्णा
चाँद से जो प्यार करता है —
वह अकेला ज़िन्दगी भर आह भरता है !
.
ऐसा नहीं होता अगर,
तो क्यों कहा जाता कलंकित रे ?
मधुकर सरीखा उर, तभी
तो कर न सकता स्नेह सीमित रे !
.
चाँद से जो प्यार करता है —
नष्ट वह अपना मधुर संसार करता है !
वह अकेला ज़िन्दगी भर आह भरता है !
.
ऐसा नहीं होता अगर,
तो दूर क्यों इंसान से रहता ?
नीरस हृदय है ; इसलिए
ना बात मीठी भूलकर कहता,
.
चाँद से जो प्यार करता है —
कंटकों को जानकर गलहार करता है !
वह अकेला ज़िन्दगी भर आह भरता है !
.
(88) चाँद और पत्थर (1)
.
चाँद तुम पत्थर-हृदय हो !
.
व्यर्थ तुमसे प्यार करना,
व्यर्थ है मनुहार करना,
व्यर्थ जीवन की सुकोमल भावनाओं को जगाना,
जब न तुम किंचित सदय हो !
चाँद तुम पत्थर हृदय हो !
.
व्यर्थ तुमसे बात करना,
और काली रात करना,
प्राणघाती, छल भरा, झूठा तुम्हारा स्नेह बंधन ;
चाहते अपनी विजय हो !
चाँद तुम पत्थर हृदय हो !
.
फेंक कर सित डोर गुमसुम,
देखते इस ओर क्या तुम ?
स्वर्ग के सम्राट, नभ-स्वच्छन्द-वासी ! रे तुम्हें क्या ?
सृष्टि हो चाहे प्रलय हो !
चाँद तुम पत्थर हृदय हो !
.
सत्य आकर्षण नहीं है,
सत्य मधु-वर्षण नहीं है,
सत्य शीतल रुपहली मुसकान अधरों की नहीं है !
तुम स्वयं में आज लय हो !
चाँद तुम पत्थर हृदय हो !
.
(89) चाँद और पत्थर (2)
.
चाँद तुम पत्थर नहीं हो !
.
है तुम्हारा भी हृदय कोमल,
स्नेह उमड़ा जा रहा छल-छल
हो बड़े भावुक, बड़े चंचल,
इसलिए, मेरे निकट हो,
प्राण से बाहर नहीं हो !
चाँद तुम पत्थर नहीं हो !
.
राह अपनी चल रहे हो तुम,
आँधियों में पल रहे हो तुम,
शीत में हँस गल रहे हो तुम
इसलिए कहना ग़लत है —
‘तुम मनुज-सहचर नहीं हो !’
चाँद तुम पत्थर नहीं हो !
.
हो किसी के प्यार बन्धन में,
हो किसी की आश जीवन में,
गीत के स्वर हो किसी मन में,
सोच इतना ही मुझे है —
हाय, धरती पर नहीं हो !
चाँद तुम पत्थर नहीं हो !
.
(90) न जाने क्यों...
.
मुझे मालूम है यह चाँद मुझको मिल नहीं सकता,
कभी भी भूलकर स्वर्गिक-महल से हिल नहीं सकता,
चरण इसके सदा आकाशगामी हैं,
रुपहले-लोक का यह मात्रा हामी है,
न जाने क्यों उसे फिर भी हृदय से प्यार करता हूँ !
न जाने क्यों उसी की याद बारंबार करता हूँ !
.
मुझे मालूम है यह चाँद बाहों में न आएगा,
कभी भी भूलकर मुझको न प्राणों में समाएगा,
अमर है कल्पना का लोक रे इसका,
नहीं पाना किसी के हाथ के बस का,
न जाने क्यों उसी पर व्यर्थ का अधिकार करता हूँ !
न जाने क्यों उसे फिर भी हृदय से प्यार करता हूँ !
.
मुझे मालूम है यह चाँद कैसे भी न बोलेगा,
कभी भी भूलकर अपने न मन की गाँठ खोलेगा,
सरल इसके सुनयनों की न भाषा है,
समझने में निराशा ही निराशा है,
न जाने क्यों उसी से भावना-व्यापार करता हूँ !
न जाने क्यों उसे फिर भी हृदय से प्यार करता हूँ !
.
मुझे मालूम है यह चाँद वैभव का पुजारी है,
बड़ी मनहर गुलाबी स्वप्न दुनिया का विहारी है,
वे मेरे पंथ पर काँटे बिछे अगणित,
अभावों की हवाएँ आ गरजती नित,
न जाने क्यों उसी से राह का शृंगार करता हूँ !
न जाने क्यों उसे फिर भी हृदय से प्यार करता हूँ !
.
(91) स्मृति की रेखाएँ
.
प्राणों में प्रिय ! आज समाया
अभिराम तुम्हारा आकर्षण !
.
जो कभी न मिटने पाएगा,
जो कभी न घटने पाएगा,
तीव्र प्रलोभन के भी सम्मुख
जो कभी न हटने पाएगा,
शाश्वत केवल यह, जगती में
मनहर प्राण ! तुम्हारा बंधन !
प्राणों में प्रिय ! आज समाया
अभिराम तुम्हारा आकर्षण !
.
यदि भरलूँ मुसकान तुम्हारी,
और चुरा लूँ आभा प्यारी,
तो निश्चय ही बन जाएगी
मेरी दुनिया जग से न्यारी,
तुमने ही आज किया मेरा
जगमग सूना जीवन-आँगन !
प्राणों में प्रिय ! आज समाया
अभिराम तुम्हारा आकर्षण !
.
अनुराग तुम्हारा झर-झर कर
जाए न कभी मुझसे बाहर,
साथ तुम्हारे रहने के दिन
सच, याद रहेंगे जीवन भर,
स्नेह भरे उर से करता हूँ
मैं सतत तुम्हारा अभिनन्दन !
प्राणों में प्रिय ! आज समाया
अभिराम तुम्हारा आकर्षण !
.
(92) साथ
.
कभी क्या चाँद का भी साथ छूटा है ?
.
रहेंगे हम जहाँ जाकर
वहाँ यह चाँद भी होगा,
हमारे प्राण का जीवित
वहाँ उन्माद भी होगा,
बताओ तो किसी ने आज तक क्या
चाँदनी का रूप लूटा है ?
कभी क्या चाँद का भी साथ छूटा है ?
.
हमारे साथ यह सुख के
दिनों में मुसकराएगा,
दुखी यह देखकर हमको
पिघल आँसू बहाएगा,
बिछुड़कर दूर रहने से कभी भी
प्यार का बंधन न टूटा है !
कभी क्या चाँद का भी साथ छूटा है ?
.
हमारी नींद में आ यह
मधुर सपने सजाएगा,
थके तन पर बड़े शीतल
पवन से थपथपाएगा,
निरंतर एक गति से ही बहेगा
स्नेह का जब स्रोत फूटा है !
कभी क्या चाँद का भी साथ छूटा है ?
.
(93) चाँद, मेरे प्यार!
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ओ चाँद !
तुमको देखकर
बरबस न जाने क्यों
किसी मासूम मुखड़े की
बड़ी ही याद आती है !
फिर यह बात मन में बैठ जाती है
कि शायद तुम वही हो
चाँद, मेरे प्यार !
.
यह वही मुख है
जिसे मैंने हज़ारों बार चूमा है
कभी हलके,
कभी मदहोश ‘आदम’ की तरह !
यह वही मुख है
हज़ारों बार मेरे सामने जो मुसकराया है,
कभी बेहद लजाया है !
.
हुआ क्या आज यदि
मेरी पहुँच से दूर हो,
मुख पर तुम्हारे अजनबी छाया
चिढ़ाने का नवीन सरूर हो ;
.
जैसे कि फिर तो पास आना ही नहीं !
.
क्या कह रहे हो ?
ज़ोर से बोलो —
‘कि पहचाना नहीं !’
हुश !
प्यार के नखरे
न ये अच्छे तुम्हारे,
अब पकड़ना ही पड़ेगा
पहुँच किरणों की सहारे,
देखता हूँ और कितनी दूर भागोगे,
मुझे मालूम है जी,
तुम बिना इसके न मानोगे !
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(94) दुराव
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चाँद को छिप-छिप झरोखों से सदा देखा किया
और अपनी इस तरह आँखें चुरायीं चाँद से !
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चाँद को झूठे सँदेसे लिख सदा भेजा किया
और दिल की इस तरह बातें छिपायीं चाँद से !
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चाँद को देखा तभी मैं मुसकराया जानकर
और उर का यों दबाया दर्द अपना चाँद से !
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लाख कोशिश की मगर मैं चाँद को समझा नहीं
और पल भर कह न पाया स्वर्ण-सपना चाँद से !
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भूल करता ही गया अच्छा-बुरा सोचा नहीं
प्यार कर बैठा किसी के, चिर-धरोहर, चाँद से !
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युग गुज़रते जा रहे खामोश, मैं भी मौन हूँ ;
क्योंकि अब बातें करूँ किस आसरे पर चाँद से !
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(95) यह न समझो
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यह न समझो कूल मुझको मिल गया
आज भी जीवन-सरित मझधार में हूँ !
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प्यार मुझको धार से
धार के हर वार से,
प्यार है बजते हुए
हर लहर के तार से,
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यह न समझो घर सुरक्षित मिल गया
आज भी उघरे हुए संसार में हूँ !
यह न समझो कूल मुझको मिल गया
आज भी जीवन-सरित मझधार में हूँ !
.
प्यार भूले गान से,
प्यार हत अरमान से,
ज़िन्दगी में हर क़दम
हर नये तूफ़ान से,
.
यह न समझो इंद्र-उपवन मिल गया
आज भी वीरान में, पतझार में हूँ !
यह न समझो कूल मुझको मिल गया
आज भी जीवन-सरित मँझधार में हूँ !
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खोजता हूँ नव-किरन
रुपहला जगमग गगन,
चाहता हूँ देखना
एक प्यारा-सा सपन,
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यह न समझो चाँद मुझको मिल गया
आज भी चारों तरफ़ अँधियार में हूँ !
यह न समझो कूल मुझको मिल गया
आज भी जीवन-सरित मझधार में हूँ !
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(96) तुमसे मिलना तो...
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तुमने मिलना तो अब दूभर !
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मूक प्रतीक्षा में कितने युग बीत गये,
चिर प्यासी आँखों के बादल रीत गये,
एकाकी जीवन के निर्जन
पथ पर केवल पतझर-पतझर !
तुमसे मिलना तो अब दूभर !
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देख रहा हूँ, सभी अपरिचित और नये,
वे जाने-पहचाने सपने कहाँ गये ?
ढूँढ़ चुका अविराम सजग
कोना-कोना, जल-थल-अम्बर !
तुमसे मिलना तो अब दूभर !
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(97) आत्म-स्वीकृति
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तुम इतनी पागल नहीं बनो !
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जिसको समझ रही हो प्रतिपल
सरल-तरल भावों का निर्झर,
वह बोझिल दर्द भरा वंचित
चिर एकाकी सूना ऊसर,
अपने मन को वश में रक्खो
यों इतनी दुर्बल नहीं बनो !
तुम इतनी पागल नहीं बनो !
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क्यों बड़ी लगन से देख रहीं —
यह पत्थर है, मोम नहीं है,
अरी चकोरी ! सुबह-सुबह का
सूरज है, यह सोम नहीं है,
यों किसी अपरिचित के सम्मुख
तुम इतनी निश्छल नहीं बनो !
तुम इतनी पागल नहीं बनो !
.
यह मेघ नहीं सुखकर शीतल
केवल उष्ण धुएँ का बादल,
इसमें नादान अरे ! रह-रह
खोजो मत जीवन का संबल,
सब मृग-जल है, इसके पीछे
तुम इतनी चंचल नहीं बनो !
तुम इतनी पागल नहीं बनो !
.
बड़े जतन से सजा रही हो
तुम जिस उजड़ी फुलवारी को,
कैसे लहराये वह, समझो
तनिक हृदय की लाचारी को,
अश्रु-भरी आँखों में बसकर
शोभा का काजल नहीं बनो !
तुम इतनी पागल नहीं बनो !
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(98) प्रेय
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प्यार की जिसको मिली सौगात है
ज़िन्दगी उसकी सजी बारात है !
भाग्यशाली वह ; उसी के ही लिए
सृष्टि में मधुमास है, बरसात है !
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(99) दीपक
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मूक जीवन के अँधेरे में, प्रखर अपलक
जल रहा है यह तुम्हारी आश का दीपक !
.
ज्योति में जिसके नयी ही आज लाली है
स्नेह में डूबी हुई मानों दिवाली है !
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दीखता कोमल सुगन्धित फूल-सा नव-तन,
चूम जाता है जिसे आ बार-बार पवन !
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याद-सा जलता रहे नूतन सबेरे तक,
यह तुम्हारे प्यार के विश्वास का दीपक !
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(100) तुम्हारी माँग का कुंकुम !
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उड़ रहा है आज यह कैसे
तुम्हारी माँग का कुंकुम !
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बहुत ही पास से मैंने तुम्हें देखा
न थी मुख पर कहीं उल्लास की रेखा,
न जाने क्यों रहीं केवल खड़ीं तुम पद-जड़ित गुमसुम!
उड़ रहा है आज यह कैसे
तुम्हारी माँग का कुंकुम !
.
मिला है जब तुम्हें यह गीतमय जीवन
बताओ क्यों हुआ विक्षुब्ध फिर तन-मन ?
न जाने किस भविष्यत् के विचारों से व्यथित हो तुम !
उड़ रहा है आज यह कैसे
तुम्हारी माँग का कुंकुम !
.
बुझा-सा हो रहा मुख-चंद्र चमकीला,
कि है प्रतिश्वास भारी, रंग-तन पीला,
न जाने आज क्यों हर वाटिका में जीर्ण-शीर्ण कुसुम !
उड़ रहा है आज यह कैसे
तुम्हारी माँग का कुंकुम !
.
(101) प्रतिदान
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तुम्हारे मूक निश्छल प्यार का
प्रतिदान कैसे दूँ !
अनोखे इस सरल मधु-प्यार का
प्रतिदान कैसे दूँ !
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विश्वास था इतना —
न दुर्बल हो सकूंगा मैं,
विश्वास था इतना
न मन-बल खो थकूंगा मैं !
पर, रुका हूँ,
सोचता हूँ
एक मंज़िल पर —
कि कैसे बन सकूँ मैं अंग, साथी
इस तुम्हारे मोह के संसार का !
प्रतिदान कैसे दूँ
तुम्हारे मूक निश्छल प्यार का !
.
स्नेह पाया था ;
कहानी बन गयी !
अवश निशानी बन गयी !
अफ़सोस है गहरा
कि उसका गीत ही अब गा रहा हूँ,
और अपने को
विवश-निरुपाय कितना पा रहा हूँ !
और ही पथ आज मेरे सामने
जिस पर निरंतर जा रहा हूँ !
सोचता हूँ —
साथ कैसे दूँ तुम्हारे राग में
जो बज रहा है ज़िन्दगी के तार का !
प्रतिदान कैसे दूँ
तुम्हारे मूक निश्छल प्यार का !
.
उन्माद भावुकता सभी तो
आज मुझसे दूर हैं,
स्वर्णिम-सुबह की रश्मियाँ सब
श्याम-घन के आवरण में
बद्ध हो मजबूर हैं !
औ’ युग-विरोधी आँधियाँ हैं;
पर, तुम्हारी याद कर
इन आँधियों के बीच भी
पुरज़ोर रह-रह सोचता हूँ —
किस तरह दूंगा तुम्हें
वह अंश जीवन का
मिला है जो तुम्हें
सच्चे हृदय के स्नेह के अधिकार का !
प्रतिदान कैसे दूँ
तुम्हारे मूक निश्छल प्यार का !
.
(102) तुम्हारी याद
.
बस, तुम्हारी याद मेरे साथ है !
.
आज यह बेहद पुरानी बात की
ध्यान में फिर बन रही तसवीर क्यों ?
आज फिर से उस विदा की रात-सा
आ रहा है नयन में यह नीर क्यों ?
सिर्फ़ जब उन्माद मेरे साथ है !
बस, तुम्हारी याद मेरे साथ है !
.
कह रही है हूक भर यह चातकी
‘प्रेम का यह पंथ है कितना कठिन,
विश्व बाधक देख पाता है नहीं
शेष रहती भूल जाने की जलन !’
बस, यही फ़रियाद मेरे साथ है !
बस, तुम्हारी याद मेरे साथ है !
.
पर, तुम्हारी याद जीवन-साध की
वह अमिट रेखा बनी सिन्दूर की ;
आज जिसके सामने किंचित् नहीं
प्राण को चिंता तुम्हारे दूर की,
देखने को चाँद मेरे साथ है !
बस, तुम्हारी याद मेरे साथ है !
.
(103) याद
.
आज बरसों की पुरानी आ रही है याद !
.
सामने जितना पुराना पेड़ है
उतनी पुरानी बात,
हो रही थी जिस दिवस आकाश से
रिमझिम सतत बरसात,
छिप गया था श्यामवर्णी बादलों में चाँद !
आज बरसों की पुरानी आ रही है याद !
.
तुम खड़ी छत पर, अँधेरे में सिहर
कर गा रही थीं गीत,
पास आया था तभी मैं भी ;
मिले थे स्नेह से दो मीत ;
आज नयनों में उसी का शेष है उन्माद !
आज बरसों की पुरानी आ रही है याद !
.
(104) साथ न दोगी ?
.
जब जगती में कंटक-पथ पर
प्रतिक्षण-प्रतिपल चलना होगा,
स्नेह न होगा जीवन में जब ;
फिर भी तिल-तिल जलना होगा,
घोर निराशा की बदली में
बंदी बनकर पलना होगा,
जीवन की मूक पराजय में
घुट-घुट कर जब घुलना होगा,
क्या उस धुँधले क्षण में तुम
भी बोलो, मेरा साथ न दोगी ?
.
जब नभ में आँधी-पानी के
आएंगे तूफ़ान भयंकर,
महाप्रलय का गर्जन लेकर
डोल उठेगा पागल सागर,
विचलित होंगे सभी चराचर,
हिल जाएंगे जल-थल-अम्बर,
कोलाहल में खो जाएंगे
मेरे प्राणों के सारे स्वर,
जीवन और मरण की सीमा
पर, क्या बढ़कर हाथ न दोगी ?
.
(105) प्रतीक्षा में
.
प्रतीक्षा में सितारे खो गये !
.
बितायी थी अकेली रात जिनको गिन,
बने थे धड़कनों के जो सबल संबल,
किरन पूरब दिशा से ला रही अब दिन ;
निराशा और आशा का उड़ा आँचल,
निरंतर आँसुओं की धार से
छायी गगन की कालिमा को धो गये !
प्रतीक्षा में सितारे खो गये !
.
नयन पथ पर बिछे, निशि भर रहे जगते
सरल उर-स्नेह से जलता रहा दीपक,
जलन पूरित सभी भावी निमिष लगते ;
युगों से कर रहा मन साधना अपलक,
हृदय में आ प्रिये ! उठते सतत
अच्छे-बुरे ये भाव रह-रह कर नये !
प्रतीक्षा में सितारे खो गये !
.
क्षितिज की ओर फैले पंथ से चल कर
कभी हँसते हुए तुम पास आओगे,
बना विश्वास, जीवन के अरे सहचर !
नहीं तुम इस तरह मुझको भुलाओगे,
पपीहे ! कह वियोगी के सभी
अब तो अभागे कल्प पूरे हो गये !
प्रतीक्षा में सितारे खो गये !
.
(106) परिणाम
.
यह युगों की साधना का
आज क्या परिणाम है ?
.
मैं तुम्हारे रूप का साधक
जोहता शोभा सदा अपलक,
पर, गया मिट सुख-सबेरा
ज़िन्दगी की शाम है !
यह युगों की साधना का
आज क्या परिणाम है ?
.
स्वप्न में तुमको बुलाया था,
कक्ष अंतर का सजाया था
पर, युगों से स्नेह-निर्झर
बह रहा अविराम है !
यह युगों की साधना का
आज क्या परिणाम है ?
.
श्रवण आहट पर टिके मेरे,
नयन-युग पथ पर झुके मेरे,
पर, नहीं आभास तक का
आज किंचित नाम है !
यह युगों की साधना का
आज क्या परिणाम है ?
.
(107) तुम
.
तुम सहसा आ आलोक-शिखा-सी चमकीं !
.
जब तम में जीवन डूब गया था सारा,
सोया था दूर कहीं पर भाग्य-सितारा,
.
तब तुम आश्वासन दे, विद्युत-सी दमकीं !
तुम सहसा आ आलोक-शिखा-सी चमकीं !
.
सूखे तरुवर पतझर से प्रतिपल लड़कर
सर्वस्व गवाँ मिटने वाले थे भू पर,
.
तब तुम नव-बसंत-सी उर में आ धमकीं !
तुम सहसा आ आलोक-शिखा-सी चमकीं !
.
जब पीड़ित अंतर ने आह भरी दुख की,
जब सूख गयी थीं सारी लहरें सुख की,
.
तब घन बनकर तुमने नीरसता कम की !
तुम सहसा आ आलोक-शिखा-सी चमकीं !
.
(108) उत्सर्ग
.
तुमने क्यों काँटे बीन लिए ?
.
जब हम-तुम दोनों साथ चले
सुख-दुख लेकर जीवन-पथ पर,
कुश-काँटों से आहत उर को
आपस में सहला-सहला कर,
पर, अनजाने में, तुमने क्यों
मेरे सारे दुख छीन लिए ?
तुमने क्यों काँटे बीन लिए ?
.
आधे पथ तुम ले जाओगी
क्या तुमने सोचा था मन में ?
अंतिम मंज़िल मैं, ले जाता
निर्जन वन के सूनेपन में !
पर, हाय! कहाँ वह मध्य मिला ?
पग सह न सके, गति हीन किये !
तुमने क्यों काँटे बीन लिए ?
.
(109) स्वागत
[वत्सल भाव]
.
जूही मेरे आँगन में महकी,
रंग-बिरंगी आभा से लहकी !
*
चमकीले झबरीले कितने
इसके कोमल-कोमल किसलय,
है इसकी बाँहों में मृदुता
है इसकी आँखों में परिचय,
*
भोली-भोली गौरैया चहकी
लटपट मीठे बोलों में बहकी !
*
लम्बी लचकीली हरिआई
डालों डगमग-डगमग झूली,
पाया हो जैसे धन स्वर्गिक
कुछ-कुछ ऐसी हूली-फूली,
*
लगती है कितनी छकी-छकी
गह-गह गहनों-गहनों गहकी !
*
महकी, मेरे आँगन में महकी
जूही मेरे आँगन में महकी !
(पौत्री इरा के प्रति।)
*
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