लक्ष्मीकांत त्रिपाठी ��� कहानी-नीलू बोल रही हूँ ��� मैं न्याय कक्ष में बैठ कर अपने केस में बहस करने के लिए प्रतीक्षा कर रहा था. एकाएक म...
लक्ष्मीकांत त्रिपाठी
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कहानी-नीलू बोल रही हूँ
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मैं न्याय कक्ष में बैठ कर अपने केस में बहस करने के लिए प्रतीक्षा कर रहा था. एकाएक मेरा मोबाइल घनघनाने लगा. किसी का फोन आ रहा था. मैंने फाइल की आड़ से देखा, अननोन नंबर था. न्याय कक्ष में मोबाइल को साइलेंट मोड पर अथवा बंद रखना होता है. मेरे केस का नंबर आने वाला था. मैं कक्ष से बाहर निकल कर फोन अटेंड करने की स्थिति में नहीं था. बहस करने के बाद मैं अपने चैंबर में चला गया. लंच करने लिए जैसे ही लंच बाक्स खोला, फिर वही फोन आने लगा. एस0टी0डी0 कोड से सिर्फ इतना पता चल रहा था कि फोन इलाहाबाद से किया गया है.
‘‘ हलो! '' मैंने धीरे-से कहा.
‘‘ अंकल जी नमस्ते! '' दूसरी तरफ से एक सुरीली आवाज आई.
‘‘ जी नमस्ते! कहिए! आप कौन बोल रही हैं ? ''
‘‘ लो! अब तो आप मुझे पहचान भी नहीं पा रहे हैं. लगता है आप मुझसे बात ही नहीं करना चाहते... ''
‘‘ देखिये! पहेलियाँ मत बुझाइए! साफ-साफ बताइए कि आप कौन बोल रही हैं और मुझसे क्या काम है ? '' मैंने झल्लाते हुए कहा.
फिर एक खनकती हुई हंसी मेरे कानों से टकराई.
‘‘ अंकल जी! नीलू बोल रही हूँ, इलाहाबाद से...''
नीलू! इलाहाबाद से...मैं चौंक गया और असहज महसूस करने लगा. नीलू की आवाज इतनी स्पष्ट!...मुझे घोर आश्चर्य हुआ. नहीं, असंभव! यह नीलू नहीं हो सकती. मैं अपने परिचितों और रिश्तेदारों के बारे में सोचने लगा. कहीं उनमें तो कोई नीलू नाम की लड़की नहीं है. लेकिन नीलू नाम की कोई और लड़की मुझे याद नहीं आई.
दूसरी तरफ से कई बार ‘हलो-हलो' की आवाज आई.
‘‘ तुम इलाहाबाद कब पहुँच गई ? '' मैंने अटकते हुए पूछा.
‘‘ अंकल जी! आप भी न!...अच्छा मजाक कर लेते हैं. मैं तो इलाहाबाद में ही रहती हूँ. अच्छा! अब मजाक छोड़िए! ये बताइए, आप कैसे हैं ? जब से गए हैं एक बार भी फोन नहीं किये. मैं आप से बहुत नाराज हूँ. ''
मेरा माथा ठनका.
‘‘ मैं तो ठीक हूँ. लेकिन आपने किसको और कहाँ फोन लगाया है ? '' मैंने शांत लहजे में पूछा.
‘‘ गाजीपुर! आप रमेश अंकल नहीं हैं क्या ? ''
‘‘ अरे नहीं! मैं तो सरोज अंकल हूँ. रांग नंबर!... '' मैंने मुस्कुराते हुए कहा.
‘‘ सारी अंकल! आई एम स्ट्रीमली सारी! मैं तो...''
‘‘ कोई बात नहीं. '' कहते हुए मैंने कॉल इण्ड कर दिया.
एकाएक मुझे नीलू याद आ गई. श्रीकांत की बड़ी बेटी नीलू!...
वकालत के शुरुआती दिनों में श्रीकांत मेरा मुंशी रहा. बहुत ही कर्मठ और वफादार! उन दिनों मैं माननीय उच्च न्यायालय, इलाहाबाद में वकालत कर रहा था. पुराना कटरा में एक किराये के मकान में रहता था. लगभग दो साल तक संघर्ष करता रहा. फिर हालात कुछ बदले. वकालत ढंग से चलने लगी. उन दिनों श्रीकांत का परिवार गाँव से इलाहाबाद आया हुआ था. एक दिन शाम के वक़्त श्रीकांत मुझे अपने घर ले गया. वह ममफोर्ड गंज में एक कमरे के किराये के मकान में रहता था. उसके परिवार से मेरा परिचय हुआ. एक घूँघट वाली औरत का परिचय उसने अपनी पत्नी के रूप में कराया. मैं उस औरत की ठुड्डी भर देख सकता था.
मेरी नज़र एक कोने में चुपचाप बैठी पाँच-छः साल की एक लड़की पर पड़ी.
‘‘ ये मेरी बड़ी बेटी है नीलू! बचपन से ही ऐसी है. इसके बाद दो बेटे हैं. '' श्रीकांत ने मुझे बताया.
मैं नीलू को एकटक देखने लगा. उसके ओंठों के कोरों से लार टपक रहा था. वह सामने की दीवार को ऐसे देख रही थी जैसे शून्य में कुछ टटोल रही हो.
‘‘ ये अंकल जी हैं. '' श्रीकांत ने नीलू से कहा. वह मेरी तरफ देखने लगी. हाव-भाव से मैं जान गया कि नीलू एक मंदबुद्धि लड़की है. उसका दिमाग सामान्य ढंग से विकसित नहीं हुआ है.
फिर श्रीकांत को व्यापार कर विभाग में लिपिक की नौकरी मिल गई. वह लखनऊ चला गया. मेरा श्रीकांत और उसके परिवार से संपर्क बहुत कम हो गया. कभी-कभी श्रीकांत मुझे फोन कर लेता था.
तीन साल के भीतर ही श्रीकांत ने लखनऊ में एक आलीशान मकान बनवा लिया था. उसी के गृह प्रवेश के अवसर पर उसने मुझे परिवार सहित आमंत्रित किया था. गृह प्रवेश रविवार को था. अवकाश होने के कारण मैं दोपहर में पत्नी और इकलौती बेटी के साथ श्रीकांत के घर पहुँच गया. नीलू से मिल कर मेरी पत्नी और बेटी बहुत खुश हुए.
उन दिनों जब भी मैं किसी काम से इलाहाबाद से लखनऊ जाता था, रुकता था श्रीकांत के घर पर ही. श्रीकांत की सबसे बड़ी ख़ासियत यह थी कि ब्राह्मण होते हुए भी वह छुआछूत की भावना से पूर्णतः मुक्त था. यह जानते हुए भी कि मैं अनुसूचित जाति का हूँ, उसने खाने-पीने और उठने-बैठने के मामले में कभी मेरे साथ कोई भेद-भाव नहीं किया. कभी-कभी तो ऐसा भी होता था कि श्रीकांत अपने गाँव गया रहता और मैं श्रीकांत के घर पर रुकने में झिझक महसूस करता था. तब श्रीकांत की पत्नी मुझसे कहती- ‘‘ ऊ नाहीं बाटें त का, आप एहीं रुकीं बकील साहब! '' मैंने श्रीकांत की पत्नी का पूरा चेहरा कभी नहीं देखा. वह हमेशा घूँघट की आड़ से ही मुझसे बातें करती थीे. मेरे लिए एक चौकी पर साफ बिस्तर बिछा दिया जाता. नीलू मुझसे खूब घुलमिल गई थी. मुझे देखते ही चहकने लगती. उसके चेहरे पर आह्लाद और पवित्रता की किरणें झिलमिलाने लगतीं. नीलू से बातें करना मुझे बहुत अच्छा लगता. वह तुतलाते हुए अपना नाम ‘‘ ईलू '' बताती और मुझे ‘‘ तरोज अंकल'' कहती.
कभी-कभी तो मैं उसे बाहों के सहारे उठा कर उसके फूले हुए गालों को चूम लेता था. श्रीकांत उसे मुहल्ले में ही स्थित एक मंदबुद्धि विद्यालय में भेजने लगा था.
दस साल तक माननीय उच्च न्यायालय में वकालत करने के बाद मैं स्थायी अधिवक्ता बन गया. मेरी नियुक्ति माननीय उच्च न्यायालय के लखनऊ बेंच में हो गई. मैंने फोन करके इस बारे में श्रीकांत को बताया तो वह बहुत खुश हुआ. जब तक लखनऊ में रहने के लिए मुझे किराये का मकान नहीं मिल गया, मैं श्रीकांत के घर पर ही रुका.
एक दिन श्रीकांत ने मुझसे कहा-‘‘ इतना बड़ा तो मकान है साहब, इसी में आप भी रहिए ! ये किराये वाला हिस्सा खाली करवा देता हूँ. ''
उसने अपने मकान के दो कमरों को किराये पर उठा रखा था. मैं अच्छी तरह जानता था कि श्रीकांत मुझसे किराया नहीं लेगा. मैंने उसके प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया.
‘‘ नहीं यार! यह ठीक नहीं रहेगा. वैसे भी अब सामान इतना अधिक हो गया है कि तीन कमरे से कम में काम नहीं चल पाएगा. '' मैंने श्रीकांत से कहा.
बाद में श्रीकांत की कोशिश से ही मुझे आलमबाग में तीन कमरे का एक फ्लैट किराये पर मिल गया.
नए सिरे से श्रीकांत और उसके परिवार से मेरे संबंध प्रगाढ़ होने लगे.
तब तक नीलू कुछ बड़ी हो चुकी थी. वह तो पहले जैसी उन्मुक्तता के साथ ही मुझसे मिलती थी, लेकिन मैंने अपने और उसके बीच एक पारदर्शी परदा टाँग दिया था. कई बार मन में आया कि नीलू के फूले हुए गालों को चूम लूँ. उसे अपने स्नेह से सींच दूँ. लेकिन मैं ठिठक जाता. मात्र नीलू के चलते ही मैं अक्सर श्रीकांत के घर जाने लगा था. जब एक-दो हफ़्ते तक मैं नीलू से मिलने नहीं जा पाता, श्रीकांत मुझे फोन कर अपने घर आने का आग्रह करने लगता.
‘‘ साहब! नीलू से बात कर लीजिए! आप से बात करने के लिए परेशान है...'' कहते हुए श्रीकांत कभी-कभी अपना मोबाइल नीलू को दे देता था. नीलू तुतलाते हुए कुछ वाक्य बोलने लगती.
‘‘ अंकल!...आप आए नही....''
‘‘ हाँ, आ नहीं पाया, लेकिन जल्दी ही आऊँगा...''
‘‘ मैं गुच्छा हूँ...कब आएगे ? ''
‘‘ अगले हफ़्ते में ज़रूर आऊँगा...'' मैं नीलू को तसल्ली देता. जबकि मैं जानता था कि नीलू को हफ़्ते-महीने आदि की समझ नहीं है.
‘‘ अत्था...'' नीलू खिलखिला कर हंसने लगती.
लेकिन जैसे-जैसे नीलू बड़ी होती जा रही थी. श्रीकांत के चेहरे पर चिन्ता की रेखाएँ सघन होती जा रही थीं.
उस दिन रविवार था. मैं पत्नी और बेटी के साथ दोपहर में कोई पिक्चर देखने के बाद किसी रेस्टोरेंट में लंच करने का कार्यक्रम बन चुका था. इसके लिए हमें ग्यारह बजे तक तैयार होकर निकलना था.
ठीक पौने ग्यारह बजे श्रीकांत की पत्नी ने मुझे फोन किया-‘‘ नीलू क तबीयत बहुत खराब बा... पांड़े जी गाँव गइल बाटें... आप गाड़ी लेके जल्दी से आ जाईं बकील साहब! डॉक्टर के देखावल बहुत जरूरी बा!...''
‘‘ ठीक है, मैं आधे घंटे में पहुँच रहा हूँ. '' मैंने धीरे से कहा.
जब मैंने इस संबंध में अपनी पत्नी और बेटी को बताया तो वे कुछ उदास-से हो गए.
श्रीकांत के घर जाने के लिए मैं ठीक ग्यारह बजे घर से बाहर निकला. रविवार का अवकाश होने के कारण सड़क पर बहुत कम ट्रैफिक था. काफी तेज रफ़्तर से कार चलाते हुए मैं बीस मिनट में श्रीकांत के घर पहुँच गया. नीलू बिस्तर पर लेटी हुई थी. उसका शरीर पीला पड़ चुका था.
‘‘ कब से बीमार है ? '' मैंने श्रीकांत की पत्नी से पूछा.
‘‘ एक हफ़्ता हो गइल...एकर पापा मेडिकल स्टोर से दवाई लाके देहले रहलें, बुखार उतर गइल रहल!...''
‘‘ किस डॉक्टर को दिखाना है ? '' मैंने गहरी सांस छोड़ते हुए पूछा.
‘‘ चावला डॉक्टर के...गोमती नगर में रहेलें. नीलू के पापा के जाने लें..''
श्रीकांत की पत्नी और नीलू को कार की पिछली सीट पर बिठा कर मैं चुपचाप कार चलाने लगा.
‘‘ उनकी कोई क्लीनिक है ? '' मैंने धीरे से पूछा.
‘‘ नाहीं, ऊ सरकारी डॉक्टर हवैं. घरवे पर मरीज देखेलेंे...''
सवा बारह बजे हम डॉक्टर चावला के आलीशान मकान के सामने पहुँच गए. श्रीकांत की पत्नी ने कालबेल का स्विच दबाया. पाँच मिनट तक कोई बाहर नहीं निकला. फिर मैंने जोर से कालबेल का स्विच दबा दिया.
कुछ देर बाद एक मोटा और अधेड़ आदमी घर से बाहर निकला.
‘‘ डॉक्टर साहब! हमार नीलू बहुत बीमार बा, वो के बचा लेईं डाकटर साहब!...'' श्रीकांत की पत्नी डॉक्टर चावला को बताने लगी.
‘‘ लेकिन मैं रविवार को मरीज नहीं देखता!...'' डॉक्टर चावला ने बुरा-सा मुंह बनाते हुए कहा.
‘‘ हम श्रीकांत पांडे के मेहरारू हईं. ऊहे जे सेल्टेक्स में काम करेलें. आप त उनके जानीले!...'' श्रीकांत की पत्नी गिड़गिड़ाने लगी.
‘‘ आप किसी और डॉक्टर को दिखा लीजिए!...'' कह कर घर के भीतर जाने के लिए जैसे ही डॉक्टर चावला मुड़े, मेरे मन में आया कि पीछे से उनका गिरेबान पकड़ कर उनके फूले हुए गालों पर कई तमाचे जड़ दूँ. लेकिन मैंने ऐसा नहीं किया.
‘‘ प्लीज डाक्टर साहब! देख लीजिए! ये बहुत उम्मीद लेकर आप के पास आई हैं...'' मैंने कुछ तेज स्वर में कहा.
‘‘ मरीज कहाँ है ? '' डॉक्टर चावला ने मुड़ते हुए पूछा.
‘‘ गाड़ी में है, मैं अभी लेकर आता हूँ...'' कह कर मैं कार से नीलू को उतार कर डॉक्टर चावला के सामने खड़ा कर दिया.
‘‘ इन्हें तत्काल ब्लड देना पड़ेगा. आप लोग तुरंत सिविल हॉस्पिटल चले जाइए!..'' डॉक्टर चावला ने जम्हाई लेते हुए कहा.
फिर हम लोग सिविल हॉस्पिटल के इमरजेंसी वार्ड में पहुँच गए. वहाँ बहुत भीड़ थी. लेकिन अपना परिचय देने के बाद वहाँ पर उपस्थित डॉक्टर ने बहुत सहयोग किया. नीलू भर्ती कर ली गई.
तत्काल खून का बंदोबस्त करना आवश्यक था. इसके लिए किसी को ब्लड डोनेट करना था.
‘‘ जितने खून की ज़रूरत हो, मेरे शरीर से निकाल सकते हैं. कितना मोटा-ताजा तो हूँ. '' मैंने मुस्कुराते हुए डॉक्टर से कहा.
‘‘ एक बार में एक बोतल से अधिक ब्लड नहीं लिया जाता. '' डॉक्टर ने मुझे बताया. फिर भी ज़िद करके मैंने दो बोतल ब्लड दे दिया. बाद में एक बोतल ब्लड श्रीकांत के एक पड़ोसी ने दिया. शाम सात बजे तक नीलू की तबीयत में काफी सुधार हो चुका था. आठ बजे तक श्रीकांत भी आ गया. उसकी आँखों मे मेरे प्रति कृतज्ञता का भाव भरा हुआ था. रात में पौने नौ बजे मैं अपने घर वापस आ गया.
एक हफ़्ते तक नीलू हॉस्पिटल में भर्ती रही. मैं रोज सुबह साढ़े नौ बजे नीलू को देखने के बाद ही हाईकोर्ट जाता था. फिर नीलू पूरी तरह से स्वस्थ होकर घर चली गई.
मैं लगभग एक महीने से श्रीकांत के घर नहीं गया था.
एक दिन शाम के वक़्त श्रीकांत मुझसे मिलने आया.
‘‘ आप तो हम लोगों को भूल ही गए साहब! नीलू आप को बहुत याद करती है. '' श्रीकांत ने शिकायती लहजे में कहा.
‘‘ हाँ यार! इधर व्यस्तता काफी बढ़ गई है...''
‘‘ अगले रविवार को आइए न! मुझे बहुत खुशी होगी. नीलू भी खुश हो जाएगी. '' श्रीकांत ने आग्रह किया.
‘‘ ठीक है, आने की पूरी कोशिश करूँगा. ''
अगले रविवार को मैं अपने पत्नी और बेटी के साथ श्रीकांत के घर पहुँच गया.
घर में उपस्थित एक अधेड़ व्यक्ति का परिचय श्रीकांत ने अपने बड़े भाई के तौर पर कराया. कुर्ता-धोती धारी श्रीकांत का बड़ा भाई माथे पर लाल रंग का टीका लगाए हुए था.
‘‘ आप सरकारी वकील हैं ? '' एकाएक श्रीकांत के बड़े भाई ने मुझे घूरते हुए पूछा.
‘‘ जी! ''
‘‘ फिर तो बहुत कमाई होती होगी. महीने में कितना मिल जाता है ? ''
‘‘ यही कोई पच्चीस-तीस हजार मिल जाते हैं. ''
‘‘ फिर क्या कमाई होती है ? इससे ज्यादे तो हमारा श्रीकांत कमा लेता है. '' श्रीकांत के बड़े भाई ने ठहाका लगाते हुए कहा.
‘‘ आप क्या करते हैं ? '' मैंने धीरे से पूछा.
‘‘ पंडिताई करता हूँ. प्रवचन करता हूँ. श्री मद् भागवत की कथा सुनाता हूँ. कभी ज़रूरत हो तो मुझे सेवा का अवसर दीजिएगा! ''
फिर श्रीकांत का बड़ा भाई मुझे वेद, गीता, रामायण आदि के प्रसंग सुनाने लगा. मैं ध्यान से सुनने लगा और सुनने के बाद जाना कि सचमुच वेद, गीता, रामायण आदि ज्ञान और मनोरंजन के भंडार हैं. मुझे वेद, गीता, रामायण आदि न पढ़ पाने का बहुत अफसोस हुआ.
‘‘ आप बहुत नेक काम करते हैं. '' मैंने गद्गद् हो कर कहा.
तब तक नीलू लगभग सत्रह-अट्ठारह साल की हो चुकी थी. उसका अंग-अंग विकसित हो चुका था. अक्सर श्रीकांत नीलू को लेकर चिंतित होने लगता.
‘‘ अच्छों-अच्छों की तो हो ही नहीं पाती है, इस पागल से कौन शादी करेगा साहब! '' एक दिन नीलू की शादी की चर्चा चलने पर श्रीकांत ने मायूसी भरे लहजे में कहा.
‘‘ नीलू कोई पागल-वागल नहीं है .'' मैंने श्रीकांत को तसल्ली दिया. ‘‘ बस सामान्य लोगों की तरह इसका मस्तिष्क विकसित नहीं हो पाया है, नीलू की भी शादी होगी एक दिन! जरूर होगी...'' मेरी उत्कट आशावादिता से श्रीकांत के चेहरे पर चमक आ गई.
उस शाम जब मैं नीलू से मिलने गया था, वह बहुत खुश हुई थी. शाम के वक़्त श्रीकांत की पत्नी ने मेरे लिए एक कुर्सी छत पर डलवा दिया था. छत पर ही मेरे लिए चाय आ गई. मेरे पास नीलू खड़ी थी. वह मेरे ऊपर झुकने लगी. मेरे दांए कंधे से उसके दोनों स्तन बार-बार टकराने लगे. मैंने उसके ओठों की लिजलिजाहट को अपने दाहिने गाल पर महसूस किया. मेरा मूड खराब हो गया.
‘‘ ठीक से खड़ी नहीं रह पाती हो क्या ? चलो! हटो यहाँ से!...'' मैंने नीलू को बुरी तरह से डाँट दिया. उसके चेहरे पर एक अंजान किस्म की बेचारगी पसर गई. मैं छत से उतर कर नीचे बैठक में आ गया. काफी देर तक सामान्य नहीं हो पाया. खाना खाकर वापस अपने घर आ गया. उस रोज़ के बाद मैं श्रीकांत के घर जाने में हिचकने लगा.
काफी समय से मैं श्रीकांत के घर नहीं गया था. उसने कई बार फोन भी किया कि नीलू मुझे बहुत याद करती है. नीलू से भी बात करवाने की कोशिश किया.लेकिन नीलू ने मुझसे बात नहीं किया. मैं अतिरिक्त व्यस्तता का बहाना बना कर टाल देता. मैं जान-बूझकर उसके घर नहीं जाना चाहता था. जैसे ही मैं नीलू से मिलने के बारे में सोचता, मुझे बेचैनी-सी होने लगती. मैं सिमटने लगता.
फिर लगभग एक महीने तक श्रीकांत का फोन नहीं आया. मुझे लगा, शायद श्रीकांत मेरी टालमटोल की नीति से नाराज हो गया है. उसे मनाने और नीलू से मिलने के लिए एक दिन मैंने श्रीकांत के घर जाने का निश्चय किया. लेकिन श्रीकांत को फोन करके बताया नहीं. मैं नीलू को ‘सरप्राइज' देना चाहता था. मैंने पत्नी को फोन करके बता दिया कि शाम को श्रीकांत के घर जाऊँगा और वहाँ से खाना खाकर घर लौटूँगा.
शाम साढ़े पाँच बजे मैं मुंशी पुलिया चौराहे पर पहुँच गया. वहाँ से नीलू की पसंद के समोसे और इमरती खरीदने के बाद मैं आगे बढ़ा.
पौने छः बजे मैं श्रीकांत के घर पहुँच गया. श्रीकांत अभी दफ़्तर से घर नहीं लौटा था. मेरी आँखें नीलू को खोजने लगीं. श्रीकांत की पत्नी सहमी-सहमी सी लग रही थी. कुछ देर बाद श्रीकांत भी आ गया. मुझे देखते ही वह कुछ चौंक-सा गया.
‘‘ आप कब आए साहब! '' श्रीकांत ने बुझे लहजे में पूछा.
‘‘ बस! थोड़ी देर पहले आया हूँ. ''
कुछ देर बाद श्रीकांत की पत्नी सामने पड़ी तिपाई पर बिस्कुट से भरी प्लेट और दो कप चाय रख कर चुपचाप चली गई. मैं चाय पीते हुए श्रीकांत से बातें करने लगा. श्रीकांत सामान्य नहीं लग रहा था. अटक-अटक कर बोल रहा था.
‘‘ नीलू नहीं दिखायी दे रही है ? '' एकाएक मैंने श्रीकांत से पूछा.
श्रीकांत मुझे एकटक देखने लगा.
‘‘ नीलू तो मर गयी साहब! '' कुछ देर तक मौन रह कर श्रीकांत ने निर्विकार भाव से कहा.
‘‘ मर गई! कब मरी ? '' मैंने चौंकते हुए श्रीकांत से पूछा.
‘‘ लगभग दो हफ़्ता पहले! '' कह कर श्रीकांत सुबकने लगा.
‘‘ क्या हुआ था उसे ? ''
‘‘ पिछली बार जब हम लोगों को वैष्णव देवी जाना था, नीलू को यह सोच कर नहीं ले जाना चाहता था कि उसे संभालना मुश्किल होगा. इसलिए उसे अपने बड़े भाई साहब के घर पहुँचा दिया था...लगभग पाँच महीने बाद पता चला. जब पेट फूलने लगा... पागल लड़की थी. कुछ बता तो पाती नहीं थी. एबार्सन में खतरा था. बड़ी मुश्किल से एक डॉक्टर तैयार हुआ. एबार्सन के दौरान उसकी मौत हो गई...'' श्रीकांत मुझे बताने लगा.
‘‘ तुमने मुझे पहले क्यों नहीं बताया ? '' मैं उत्त्ोजित होने लगा. मेरे नथुने फड़कने लगे. ‘‘ किसने यह कुकृत्य किया. कौन है वह पतित ? मुझे बताओ!...‘‘
‘‘ मैं आपको बताने की हिम्मत नहीं कर पा रहा हूँ साहब!...'' कह कर श्रीकांत मौन हो गया.
‘‘ तुम मुझे बताते क्यों नहीं कि किस पापी का बच्चा नीलू की कोख में पल रहा था ?.. मैं उसे छोड़ूँगा नहीं, सज़ा दिलवा के रहूँगा. '' मैंने रोष से भर कर कहा. मेरा खून खौलने लगा.
‘‘ मेरे बड़े भाई साहब का!...'' श्रीकांत ने बुक्का फाड़ कर रोते हुए कहा.
मैं एकटक श्रीकांत को देखने लगा.
‘‘ वह जीकर भी क्या करती साहब...? उसका मर जाना ही ठीक था. '' श्रीकांत ने बेहद मद्धम स्वर में कहा.
‘‘ तुम सब के सब हत्यारे हो! सब तुम लोगों की साज़िश है. तुम्हारे घर का पानी पीना भी हराम है. मैं आज ही पुलिस में रिपोर्ट करूँगा ? लखनऊ का एस0पी0 मेरा परिचित है. उससे मिल कर सब बताऊँगा. उस पापी की ख़ैर नहीं. मैं उसे छोड़ूंगा नहीं. मैं जा रहा हूँ. तुमसे अब मेरा कोई संबंध नहीं... '' मैं एक विक्षिप्त मनुष्य की तरह बड़बड़ाने लगा.
श्रीकांत मुझे रोकता रह गया, लेकिन मैं नहीं माना. झट से घर के बाहर आकर कार में बैठ गया.
मैं चुपचाप कार चलाने लगा. मस्तिष्क में विचारों की आंधी चलने लगी.
घटना लगभग दो सप्ताह पहले की है. नीलू का दाह-संस्कार भी हो चुका है. सबूत और गवाह कहाँ से लाऊँगा ? पता नहीं श्रीकांत इस मामले में मेरा साथ देगा भी या नहीं ? मुझे श्रीकांत पर संदेह होने लगा. फिर किसके भरोसे और किसके लिए लड़ूँ ?
‘‘ नीलू के लिए '' मेरे भीतर से आवाज़ आई. श्रीकांत मेरा साथ दे या न दे, मुझे तो अपनी तरफ से कोशिश करनी चाहिए...लेकिन केस काफी कमजोर है. एकाएक कार की गति काफी तेज हो गई. मैंने गति को नियंत्रित किया.
हजरत गंज चौराहे पर पहुँच कर मैं ठिठक गया. तब तक मेरी उत्तेजना काफी हद तक शांत हो चुकी थी. चौराहे से दांये मुड़ने के बाद मैं एस0पी0 के कैंप कार्यालय पहुँच जाता. सीधे जाकर अपने घर... मैं ठिठक गया.
‘‘ इससे क्या हासिल हो जाएगा ? क्या नीलू ज़िन्दा हो जाएगी ? मैं उससे दुबारा मिल सकूँगा! पुलिस केस होने पर आँच तो श्रीकांत पर भी आएगी. बेटी की मौत के चलते वह पहले से ही दुखी है, कोर्ट-कचहरी के चक्कर में पड़ कर और परेशान होगा. नहीं, मैं श्रीकांत के साथ ऐसा नहीं कर सकता...'' मैं तरह-तरह से स्वंय को समझाने लगा. एकाएक मैंने एक झटके के साथ कार को आगे बढ़ा दिया. मैं बिना लड़े ही एक मुकदमा हार चुका था.
मैं फिर कभी श्रीकांत के घर नहीं गया. मेरा उससे कोई संबंध नहीं रहा. फिर भी अक्सर मेरे कानों में एक खनकती हुई आवाज गूँजती रहती है- अंकल जी! नीलू बोल रही हूँ... (समाप्त)
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लक्ष्मीकांत त्रिपाठी
लेखक परिचयः
जन्म-01-03-1965
निवासी-सोहगौरा,गोरखपुर(उ0प्र0)
शिक्षा-एम0ए0,इलाहाबाद विश्वविद्यालय.
प्रकाशन-अनामिका प्रकाशन,इलाहाबाद से सन् 2008 में ‘शहर में अजनबी हूँ'(ग़ज़ल संग्रह) एवं सन् 2012 में ‘सुबह होने तक'(कहानी संग्रह) प्रकाशित.
संप्रति-निबंधक,उ0प्र0वाणिज्य कर अधिकरण,लखनऊ.
संपर्क-आर-167,नेहरू इन्क्लेव,गोमती नगर,लखनऊ.
मोबा0-9415570824.
ati utam-***
जवाब देंहटाएंshreeman tripathi ji, hariom. bahut achchhee kahani hai.sadhuvad
जवाब देंहटाएंdwivedi ds. indian school al seeb (muscat)
हार्दिक धन्यवाद !
हटाएंमर्म स्पर्शी कहानी...
जवाब देंहटाएंमार्मिक कहानी .....साधुवाद....
जवाब देंहटाएंमार्मिक कहानी ...बहुश: साधुवाद ....
जवाब देंहटाएंमर्म स्पर्शी, मार्मिक कहानी .... बहुत साधुवाद ....
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