अपभ्रंशः भाषिक वैविध्य, सम्पर्क भाषा एवं भाषिक विशेषताएँ प्रोफेसर महावीर सरन जैन अपभ्रंश शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम महाभाष्य में मिलता है। जो ...
अपभ्रंशः भाषिक वैविध्य, सम्पर्क भाषा एवं भाषिक विशेषताएँ
प्रोफेसर महावीर सरन जैन
अपभ्रंश शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम महाभाष्य में मिलता है। जो विद्वान 600 ईस्वी पूर्व से 1000 ईस्वी तक के भाषा-काल के लिए सामान्य नाम “प्राकृत” का प्रयोग करते हैं वे अपभ्रंश-काल को तृतीय प्राकृत काल के नाम से पुकारते हैं तथा इसका काल 500 ईस्वी से लेकर 1000 ईस्वी तक मानते हैं। 1000 ईस्वी के बाद से आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं का उद्भव होने लगता है।
भामह, दण्डी आदि ने काव्य भाषाओं की चर्चा के प्रसंग में अपभ्रंश का उल्लेख किया है। मार्कण्डेय ने नागर, ब्राचड और उपनागर- तीन अपभ्रंशों की चर्चा की है। इनमें नागर की गुजरात में, ब्राचड की सिन्ध में और उपनागर की दोनों के बीच में स्थिति बतायी गयी है। इससे यह स्पष्ट है कि मार्कण्डेय ने केवल पश्चिम के सीमित भू-भाग के अपभ्रंशों की ही चर्चा की है। इसमें सन्देह नहीं कि उनके समानान्तर भारत के अन्य भागों में भी किसी न किसी अपभ्रंश का व्यवहार होता होगा । इस काल में भी हमें दोनों स्थितियाँ मिलती हैं। सम्पर्क भाषा के रूप में शौरसेनी अपभ्रंश का व्यवहार मिलता है। विभिन्न देश भाषाओं की स्थिति भी मिलती है।
ईसा की दसवीं शताब्दी तक अपभ्रंश लोक-भाषा न रहकर साहित्य में प्रयुक्त होने वाली रूढ़ भाषा बन गई थी। ग्यारहवीं शताब्दी से आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं के प्राचीन रूपों में लिखित साहित्यिक ग्रंथ मिलने आरम्भ हो जाते हैं। इसका अर्थ है कि बोलचाल की भाषा वाले अपभ्रंश के विविध रूपों का 900 ईस्वी तक अथवा अधिक से अधिक 1000 ईस्वी तक ही व्यवहार होता होगा।
आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं के जितने भेद मिलते हैं उससे कई गुने भेद अपभ्रंश काल मे रहे होंगे। अपभ्रंश के इन विभिन्न भाषिक रूपों से ही आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं का जन्म हुआ है। मगर हमारे पास अपभ्रंश के इन बोले जाने वाले विविध भाषिक रूपों की सामग्री उपलब्ध नहीं है। केवल भाषा-भेदों की सूचना प्राप्त है।
अपभ्रंश-काल में भाषा-भेदः
अपभ्रंश के भेदों की दृष्टि से मार्कण्डेय ने ‘प्राकृत सर्वस्व’में सूक्ष्म भेद व्यवस्थित प्रकरण के अन्तर्गत अपभ्रंश के 27 भेदों का नामोल्लेख किया है।उनसे अपभ्रंश के भेदों के सम्बन्ध में संकेत मिलता है। ये नाम हैं :
(1)ब्राचड (2) लाट (3) वैदर्भ (4) उपनागर (5) नागर (6) वर्वर (7) आवन्त्य (8) पंचाल (9) टक्क (10) मालव (11) कैकय (12) गौड़ (13) औड्र (14) हैव (15) पाश्चात्थ (16) पाण्डय (17) कुन्तल (18) सेंहली (19) कलिंग (20) प्राच्य (21) कार्णाट (22) कांच्य (23) द्रविड (24) गौर्जर (25) आभीर (26) मध्यदेशीय (27) वैताल ।
इन 27 नामों का उल्लेख करने के बाद भी मार्कण्डेय को संतोष नहीं हुआ। उन्होंने आगे कहा कि विभाषा के भेदों की दृष्टि से तो अपभ्रंश के हज़ारों भेद किए जा सकते हैं।
इन विभिन्न अपभ्रंशों से ही आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं का उद्भव हुआ है। इस प्रकार से अपभ्रंश प्राकृतों और आधुनिक भारतीय भाषाओं के बीच की संयोजक कड़ी है। इस दृष्टि से विस्तृत विवेचन के लिए निम्न सामग्री का अध्ययन किया जा सकता हैः
( दे० 1.Dr. Mahavir Saran Jain : “The Influences of the `Prakrit` and `Apabhransha` Languages on the Modern Indo-Aryan Languages”In Jaina : Philosophy, Art and Science in Indian Culture (Set in 2 Volumes) edited by D.C.Jain and R.K. Sharma. - www. sundeepbooks.com/
2.डॉ. देवेन्द्र कुमार शास्त्री : अपभ्रंश भाषा साहित्य की शोध प्रवृत्तियाँ, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, (1966))
अपभ्रंश-काल की सम्पर्क भाषाः
आचार्य भरतमुनि ने उकारबहुला कहकर जिस शौरसेनी का परिचय दिया है वह हिमालय से लेकर सिन्ध तक प्रचलित थी।
हिमवत् सिन्धु सौ वीरान् ये जनाः समुपाश्रिताः
उकारबहुलातञ्ञस्तेषु भाषाप्रयोजयेत्।
(नाट्यशास्त्र, 17/62)
शौरसेनी की अन्तरराजीय व्यवहार की स्थिति के बारे में डॉ० बाबूराम सक्सेना के विचार हैं:
‘यही (शौरसेनी अपभ्रंश) भारतवर्ष भर में -क्या मध्यदेश, क्या मगध और मिथिला और क्या गुजरात और महाराष्ट्र सब कहीं - साहित्य का माध्यम बना हुआ था और जनता के परस्पर अंतः प्रान्तीय व्यवहार का साधन था ’
(मध्यदेश का भाषा विकास, पृ० 25 - नागरी प्रचारिणी पत्रिका, वर्ष 50, अंक 1 - 2 सं० 2002 (सन् 1945))।
इसी मत की पुष्टि करते हुए डॉ० सुनीति कुमार चाटुर्ज्या ने अभिव्यक्त किया है कि अपभ्रंश काल में पूर्व के कवियों ने शौरसेनी अपभ्रंश का प्रयोग किया है और अपनी विभाषा का बहिष्कार किया है। इसी अपभ्रंश में साहित्य सृजन की परम्परा बहुत बाद तक चलती रही तथा आधुनिक भारतीय भाषाओं के आदि एवं मध्यकाल के आरम्भ तक सम्पूर्ण उत्तर भारत की साहित्यिक भाषा मूल रूप से शौरसेनी का वह परवर्ती रूप रहा जो गुजरात और राजस्थान में बोली जाने वाली बोलियों से मिश्रित हो गया था।
(Chatterji, S.K. : TheOrigin and Development of the Bengali Language, Calcutta Univ. Press. P.161,(1926))
राजशेखर के समय (दसवीं शती) तक शौरसेनी अपभ्रंश पंजाब, राजस्थान और गुजरात अर्थात समूचे पश्चिमी भारत की भाषा हो गई थी। स्वयंभू, पुष्पदंत, धनपाल, कनकामर, सरहपा, कन्हपा आदि की अपभ्रंश रचनाओं से प्रमाणित होता है कि यह उस समय तक समस्त उत्तर भारत की साहित्यिक भाषा थी।
अपभ्रंश की भाषिक विशेषताएँ :
(1)अपभ्रंश तक पहुँचते पहुँचते संस्कृत की योगात्मकता के नियमों के टूटने के निशान दिखाई देने लगते हैं। डॉ० हीरालाल जैन ने संस्कृत की योगात्मकता से हिन्दी की अयोगात्मकता की विकास यात्रा को एक उदाहरण द्वारा इस प्रकार स्पष्ट किया है: ‘इस प्रकार ‘रामः गतः वन्’( संस्कृत ) से‘रामो गओ वणं’( प्राकृत ) बनकर अपभ्रंश में‘रामु गयउ वणु’और हिन्दी में ‘राम गया वन’हो गया।
(डॉ० हीरालाल जैन: रचना और पुनर्रचना, पृ० 40 - 41, डॉ० भीमराव अम्बेदकर विश्वविद्यालय, आगरा, (नवम्बर,2002))
(2)प्राकृत की ध्वनियाँ अपभ्रंश में भी सुरक्षित हैं।
(3)द्वित्व व्यंजनों में से एक का लोप और पूर्ववर्ती अक्षर में क्षतिपूरक दीर्घीकरण हो जाता है।सं0 तस्य >प्रा0 तस्स > अ0 तासु
(4) अपभ्रंश में केवल तीन कारक-समूह रह गए। ( 1 ) कर्ता - कर्म - सम्बोधन (2 ) करण - अधिकरण ( 3 ) सम्प्रदान एवं सम्बंध में पहले एकरूपता आई। बाद में अपादान का भी इसमें समावेश हो गया। इस प्रकारक्रिया के काल-रूपों में जो विविधता थी, वह बहुत कम हो गयी।
(5) कारकीय अर्थ को स्पष्ट करने के लिए विभक्तियुक्त पद के बाद परसर्ग जैसे शब्दों का प्रयोग होने लगा। सम्बंध कारक के लिए- केर, केरअ, केरी, तणिउ ; अधिकरण कारक के लिए - मांझ, मज्झि, उप्परि ; सम्प्रदान कारक के लिए - केहिं, तण तथा अपादान कारक के लिए - होन्तउ का प्रयोग होने लगा।
(6) क्रिया की रचनाकृदन्त रूपों से भी होने लगी। काल रचना की जटिलता कम हो गयी ।
(7) सर्वनामों के रूपों में परिवर्तन हो गया। उदाहरण के लिए उत्तम पु० ए० व०कर्ता का० के लिए - हउं का प्रयोग अधिक हुआ है।
(8) अपभ्रंश में देशी धातुओं एवं शब्दानुकरण मूलक धातुओं का प्रयोग भी मिलता है।
(9) अपभ्रंश में देशी शब्दावली के साथ साथ आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं के उद्गम सूचक शब्दों एवं मुहावरों का भी प्रयोग मिलता है।
(10) वर्तमान कालिक कृदन्तों के उदाहरणों में पुल्लिंग - डज्झंत, सिंचंत, करंत तथा स्त्रीलिंग - उत्तारंति द्रष्टव्य हैं।
(11) भूतकालिक रचना कृदन्तों से ही अधिक होती है। उदाहरण - अक्खिय, लइय, धूमाविय, अवलोइय,कहिय,गालिअ, भक्खिअ।
(12) क्रियाओं में आत्मनेपद, परस्मैपद एवं भ्वादि आदि का कोई भेद नहीं रहा। द्विवचन का तो पालि में ही लोप हो गया था। द्विवचन का बोध कराने के लिए ‘वे’ , ‘वि’शब्दों का प्रयोग मिलता है।
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प्रोफेसर महावीर सरन जैन
(सेवा-निवृत्त निदेशक, केन्द्रीय हिन्दी संस्थान)
123, हरि एन्कलेव, चाँदपुर रोड
बुलन्द शहर – 203 001
mahavirsaranjain@gmail.com
प्रोफेसर महावीर सरन जैन
अपभ्रंश शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम महाभाष्य में मिलता है। जो विद्वान 600 ईस्वी पूर्व से 1000 ईस्वी तक के भाषा-काल के लिए सामान्य नाम “प्राकृत” का प्रयोग करते हैं वे अपभ्रंश-काल को तृतीय प्राकृत काल के नाम से पुकारते हैं तथा इसका काल 500 ईस्वी से लेकर 1000 ईस्वी तक मानते हैं। 1000 ईस्वी के बाद से आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं का उद्भव होने लगता है।
भामह, दण्डी आदि ने काव्य भाषाओं की चर्चा के प्रसंग में अपभ्रंश का उल्लेख किया है। मार्कण्डेय ने नागर, ब्राचड और उपनागर- तीन अपभ्रंशों की चर्चा की है। इनमें नागर की गुजरात में, ब्राचड की सिन्ध में और उपनागर की दोनों के बीच में स्थिति बतायी गयी है। इससे यह स्पष्ट है कि मार्कण्डेय ने केवल पश्चिम के सीमित भू-भाग के अपभ्रंशों की ही चर्चा की है। इसमें सन्देह नहीं कि उनके समानान्तर भारत के अन्य भागों में भी किसी न किसी अपभ्रंश का व्यवहार होता होगा । इस काल में भी हमें दोनों स्थितियाँ मिलती हैं। सम्पर्क भाषा के रूप में शौरसेनी अपभ्रंश का व्यवहार मिलता है। विभिन्न देश भाषाओं की स्थिति भी मिलती है।
ईसा की दसवीं शताब्दी तक अपभ्रंश लोक-भाषा न रहकर साहित्य में प्रयुक्त होने वाली रूढ़ भाषा बन गई थी। ग्यारहवीं शताब्दी से आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं के प्राचीन रूपों में लिखित साहित्यिक ग्रंथ मिलने आरम्भ हो जाते हैं। इसका अर्थ है कि बोलचाल की भाषा वाले अपभ्रंश के विविध रूपों का 900 ईस्वी तक अथवा अधिक से अधिक 1000 ईस्वी तक ही व्यवहार होता होगा।
आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं के जितने भेद मिलते हैं उससे कई गुने भेद अपभ्रंश काल मे रहे होंगे। अपभ्रंश के इन विभिन्न भाषिक रूपों से ही आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं का जन्म हुआ है। मगर हमारे पास अपभ्रंश के इन बोले जाने वाले विविध भाषिक रूपों की सामग्री उपलब्ध नहीं है। केवल भाषा-भेदों की सूचना प्राप्त है।
अपभ्रंश-काल में भाषा-भेदः
अपभ्रंश के भेदों की दृष्टि से मार्कण्डेय ने ‘प्राकृत सर्वस्व’में सूक्ष्म भेद व्यवस्थित प्रकरण के अन्तर्गत अपभ्रंश के 27 भेदों का नामोल्लेख किया है।उनसे अपभ्रंश के भेदों के सम्बन्ध में संकेत मिलता है। ये नाम हैं :
(1)ब्राचड (2) लाट (3) वैदर्भ (4) उपनागर (5) नागर (6) वर्वर (7) आवन्त्य (8) पंचाल (9) टक्क (10) मालव (11) कैकय (12) गौड़ (13) औड्र (14) हैव (15) पाश्चात्थ (16) पाण्डय (17) कुन्तल (18) सेंहली (19) कलिंग (20) प्राच्य (21) कार्णाट (22) कांच्य (23) द्रविड (24) गौर्जर (25) आभीर (26) मध्यदेशीय (27) वैताल ।
इन 27 नामों का उल्लेख करने के बाद भी मार्कण्डेय को संतोष नहीं हुआ। उन्होंने आगे कहा कि विभाषा के भेदों की दृष्टि से तो अपभ्रंश के हज़ारों भेद किए जा सकते हैं।
इन विभिन्न अपभ्रंशों से ही आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं का उद्भव हुआ है। इस प्रकार से अपभ्रंश प्राकृतों और आधुनिक भारतीय भाषाओं के बीच की संयोजक कड़ी है। इस दृष्टि से विस्तृत विवेचन के लिए निम्न सामग्री का अध्ययन किया जा सकता हैः
( दे० 1.Dr. Mahavir Saran Jain : “The Influences of the `Prakrit` and `Apabhransha` Languages on the Modern Indo-Aryan Languages”In Jaina : Philosophy, Art and Science in Indian Culture (Set in 2 Volumes) edited by D.C.Jain and R.K. Sharma. - www. sundeepbooks.com/
2.डॉ. देवेन्द्र कुमार शास्त्री : अपभ्रंश भाषा साहित्य की शोध प्रवृत्तियाँ, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, (1966))
अपभ्रंश-काल की सम्पर्क भाषाः
आचार्य भरतमुनि ने उकारबहुला कहकर जिस शौरसेनी का परिचय दिया है वह हिमालय से लेकर सिन्ध तक प्रचलित थी।
हिमवत् सिन्धु सौ वीरान् ये जनाः समुपाश्रिताः
उकारबहुलातञ्ञस्तेषु भाषाप्रयोजयेत्।
(नाट्यशास्त्र, 17/62)
शौरसेनी की अन्तरराजीय व्यवहार की स्थिति के बारे में डॉ० बाबूराम सक्सेना के विचार हैं:
‘यही (शौरसेनी अपभ्रंश) भारतवर्ष भर में -क्या मध्यदेश, क्या मगध और मिथिला और क्या गुजरात और महाराष्ट्र सब कहीं - साहित्य का माध्यम बना हुआ था और जनता के परस्पर अंतः प्रान्तीय व्यवहार का साधन था ’
(मध्यदेश का भाषा विकास, पृ० 25 - नागरी प्रचारिणी पत्रिका, वर्ष 50, अंक 1 - 2 सं० 2002 (सन् 1945))।
इसी मत की पुष्टि करते हुए डॉ० सुनीति कुमार चाटुर्ज्या ने अभिव्यक्त किया है कि अपभ्रंश काल में पूर्व के कवियों ने शौरसेनी अपभ्रंश का प्रयोग किया है और अपनी विभाषा का बहिष्कार किया है। इसी अपभ्रंश में साहित्य सृजन की परम्परा बहुत बाद तक चलती रही तथा आधुनिक भारतीय भाषाओं के आदि एवं मध्यकाल के आरम्भ तक सम्पूर्ण उत्तर भारत की साहित्यिक भाषा मूल रूप से शौरसेनी का वह परवर्ती रूप रहा जो गुजरात और राजस्थान में बोली जाने वाली बोलियों से मिश्रित हो गया था।
(Chatterji, S.K. : TheOrigin and Development of the Bengali Language, Calcutta Univ. Press. P.161,(1926))
राजशेखर के समय (दसवीं शती) तक शौरसेनी अपभ्रंश पंजाब, राजस्थान और गुजरात अर्थात समूचे पश्चिमी भारत की भाषा हो गई थी। स्वयंभू, पुष्पदंत, धनपाल, कनकामर, सरहपा, कन्हपा आदि की अपभ्रंश रचनाओं से प्रमाणित होता है कि यह उस समय तक समस्त उत्तर भारत की साहित्यिक भाषा थी।
अपभ्रंश की भाषिक विशेषताएँ :
(1)अपभ्रंश तक पहुँचते पहुँचते संस्कृत की योगात्मकता के नियमों के टूटने के निशान दिखाई देने लगते हैं। डॉ० हीरालाल जैन ने संस्कृत की योगात्मकता से हिन्दी की अयोगात्मकता की विकास यात्रा को एक उदाहरण द्वारा इस प्रकार स्पष्ट किया है: ‘इस प्रकार ‘रामः गतः वन्’( संस्कृत ) से‘रामो गओ वणं’( प्राकृत ) बनकर अपभ्रंश में‘रामु गयउ वणु’और हिन्दी में ‘राम गया वन’हो गया।
(डॉ० हीरालाल जैन: रचना और पुनर्रचना, पृ० 40 - 41, डॉ० भीमराव अम्बेदकर विश्वविद्यालय, आगरा, (नवम्बर,2002))
(2)प्राकृत की ध्वनियाँ अपभ्रंश में भी सुरक्षित हैं।
(3)द्वित्व व्यंजनों में से एक का लोप और पूर्ववर्ती अक्षर में क्षतिपूरक दीर्घीकरण हो जाता है।सं0 तस्य >प्रा0 तस्स > अ0 तासु
(4) अपभ्रंश में केवल तीन कारक-समूह रह गए। ( 1 ) कर्ता - कर्म - सम्बोधन (2 ) करण - अधिकरण ( 3 ) सम्प्रदान एवं सम्बंध में पहले एकरूपता आई। बाद में अपादान का भी इसमें समावेश हो गया। इस प्रकारक्रिया के काल-रूपों में जो विविधता थी, वह बहुत कम हो गयी।
(5) कारकीय अर्थ को स्पष्ट करने के लिए विभक्तियुक्त पद के बाद परसर्ग जैसे शब्दों का प्रयोग होने लगा। सम्बंध कारक के लिए- केर, केरअ, केरी, तणिउ ; अधिकरण कारक के लिए - मांझ, मज्झि, उप्परि ; सम्प्रदान कारक के लिए - केहिं, तण तथा अपादान कारक के लिए - होन्तउ का प्रयोग होने लगा।
(6) क्रिया की रचनाकृदन्त रूपों से भी होने लगी। काल रचना की जटिलता कम हो गयी ।
(7) सर्वनामों के रूपों में परिवर्तन हो गया। उदाहरण के लिए उत्तम पु० ए० व०कर्ता का० के लिए - हउं का प्रयोग अधिक हुआ है।
(8) अपभ्रंश में देशी धातुओं एवं शब्दानुकरण मूलक धातुओं का प्रयोग भी मिलता है।
(9) अपभ्रंश में देशी शब्दावली के साथ साथ आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं के उद्गम सूचक शब्दों एवं मुहावरों का भी प्रयोग मिलता है।
(10) वर्तमान कालिक कृदन्तों के उदाहरणों में पुल्लिंग - डज्झंत, सिंचंत, करंत तथा स्त्रीलिंग - उत्तारंति द्रष्टव्य हैं।
(11) भूतकालिक रचना कृदन्तों से ही अधिक होती है। उदाहरण - अक्खिय, लइय, धूमाविय, अवलोइय,कहिय,गालिअ, भक्खिअ।
(12) क्रियाओं में आत्मनेपद, परस्मैपद एवं भ्वादि आदि का कोई भेद नहीं रहा। द्विवचन का तो पालि में ही लोप हो गया था। द्विवचन का बोध कराने के लिए ‘वे’ , ‘वि’शब्दों का प्रयोग मिलता है।
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प्रोफेसर महावीर सरन जैन
(सेवा-निवृत्त निदेशक, केन्द्रीय हिन्दी संस्थान)
123, हरि एन्कलेव, चाँदपुर रोड
बुलन्द शहर – 203 001
mahavirsaranjain@gmail.com
main jara mast kisam ka aadmi hoon bahut gambhir aur vidvano wali baat se ghabra jata hoon ho sakta jo professor sahab ne jo likha hai voh sahi ho ya nahi bhi ho phir bhi itna sara likne ke liye badhaee
जवाब देंहटाएंयह लेख ज्ञानवर्धक है .
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत धन्यवाद आदरणीय प्रोफ़ेसर साहब,आपका आभार सादर नमन।
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