सुशील यादव का व्यंग्य - काजल की कोठरी...

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काजल की कोठरी... कोयले के बारे में तब मेरी जानकारी उतनी नहीं थी। रलवे कालोनी में सुबह -शाम लोग कोयले की बड़ी- बड़ी सिगड़ी खुले में रख छोड़त...

काजल की कोठरी...

कोयले के बारे में तब मेरी जानकारी उतनी नहीं थी।

रलवे कालोनी में सुबह -शाम लोग कोयले की बड़ी- बड़ी सिगड़ी खुले में रख छोड़ते थे|खाना बनाने की पूर्व प्रक्रिया में पूरे का पूरा मोहल्ला धुंए से बेदम हो जाता था। आँखों में कोयले का धुआं रुलाने तक ला छोड़ता था। तब इन्हीं सिगड़ियो के मार्फत घरो के अंदर का हाल मालूम हो जाता।जिसने बड़ी सिगड़ी लगाई है उसके यहाँ कोई मेहमान जरूर आया होगा तीज त्यौहार के दिनों में तो मुहल्ला पूरा ‘धुंध’ फ़िल्म का शूटिंग स्पाट लगता।

तब औरतों में दूसरो की सिगड़ी देख कभी नहीं लगता था कि उसकी बड़ी क्यों ?

तब यूं भी नहीं होता था कि मारे आलस के कोई पड़ोसन दूसरे की भट्टी में रोटी सेक लेने के लिए पेड़े लिए आ जाये या थोड़ी -बहुत छोक-बघार कर ले।

सब को अपने-अपने कोयले और सुलगाई हुई भट्टी का गुमान रहता था।

सभी सुविधा सम्पन्न कोयलाधारी हुआ करते थे। सस्ता भी उन दिनों बहुत था।

एक-आध रुपया किलो बस|
किसी -किसी को मुफ्त में भी मिल जाता था ,बशर्ते , रेलवे में अच्छी धाक हो।

कोई अपने लिए गिरवा लेता।

उन दिनों कोयले के ‘रेक’ आने की खबर हाथो-हाथ फैल जाती थी। रेक आया नहीं कि सब के सब चढ़ जाते थे। कोयला नीचे गिराते ,ड्राइवर -गार्ड की कमाई हो जाती थी। अच्छा जमाना था।

भाप की इंजन बंद क्या हुई , मुहल्ले का धुँआ जैसे हवा में हमेशा के लिए उड़ गया।

कुछ दिनों बाद कोयले के लड्डू भी लोकल- फार्मूले पर, मसलन गोबर -चूरा मिला के बनने लगे मगर वो मजे नहीं मिले ।

हमे तब बड़ी धांधली लगती थी। इच्छा होती थी  ,देश को बताये , मगर देश कहाँ होता था उन दिनों ये भी खबर नहीं थी हमको ?

हम इस बात पे तसल्ली किए रहते थे कि कोई स्विस बैंक लायक खा-कमा के मोटा नहीं हो पा रहा है। क्या खाक अपनी इज्जत दांव पर लगाये, सो चुप रहे।

कोयले पर हमारी जानकारी में इजाफा ,हमारी बुनियाद या हमारी पकड़ , शास्त्री मास्टर जी की वजह से मजबूत हुई।

वो बकायदा केमेस्ट्री में एम्. एस सी. थे , उन्हें सर कहते किसी एंगल से नहीं जमता था। तेल से चिपचिपे बाल , पीछे चुटिया ,मुड़े -तुड़े बिना प्रेस किए सदा कपड़े , चन्दन का टीका, माथा ,गला , बाजू में चन्दन, रोज एक ही मार्का में छपे हुए। सो थोड़ा सा डीग्रेड होके   मास्टर जी के नाम से जाने जाते थे । वो पढ़ने में जितने तेज रहे होगे , उससे ज्यादा पढ़ाने में लगते थे।

कार्बन -डाइ -आक्साइड , कार्बन मोनोआक्साईड नाम के ‘गैस’, जो कोयला जनित थे ,पढने में आया।

मास्टर जी फायदा नुक्सान की अलग फेहरिस्त बनवा लेते , कहते रट लो इक्जाम में फायदा होगा।

अगली क्लास में कार्बन का विकराल रूप इथेन -मीथेन -बेंजीनर ,ग्लूकोज, फ्रुक्टोज और न जाने कितने बड़े-बड़े फार्मूले दार कार्बन के रूप मास्टर जी ने बताए। कार्बन फर्मूला ,पढ़ते -पढ़ते कार्बन को लानत भेजने का जी करता। जरा सी चुक पर बड़ा गर्क। अर्थ का अनर्थ। फार्मूला गलत तो मार्क गोल।

बहुत आफत भरे आपातकाल जैसे वो दिन हुआ करते थे।हर समय कार्बन ही कार्बन आखो में फार्मूला बन के नाचता था।

मस्स्टर जी पढ़ाते खूब थे। वो दूर- दृष्टि वाले लोगो में से थे। अभी जो पढ़ा रहा हूँ , इंपोर्टेंट हैं , कह-कह के पूरे क्लास का ध्यान खींचे रहते थे।

उन्होंने हीरा  (डायमंड ) के बारे में बातों -बातों में य़ूं खुलासा किया , हुआ यूँ कि , अटेंडेंस लेते समय 'हीरालाल ' की प्राक्सी किसी ने जड़ दी। वे चौकन्ने थे , समझ गए गलत ‘हीरा’ है ,चाक हवा में उछाल के सारे क्लास पर बरसने लगे। पूरे क्लास की खबर ले डाली। गुस्से में वो जब भी तनतनाते , अकेले ही संसद के बिफरे विपक्ष की तरह फनफना जाते।

मैं से हम पर अगर आ गए तो हजामत समझो। वे ज्ञान की बात से समझौता कदापि नहीं करते थे कहते ,हम लोग तुम्हें तराश कर 'हीरा 'बनाना चाहते हैं , और तुम लोगों को मस्ती सूझी रहती है। तुम लोगों के मालूम , 'हीरा' बनने में सालों लग जाते हैं। जमीन में दबे हुए कोयले में दबाव और तापमान को सह कर कोयला ‘हीरा’ बनता है। ये कोयले का रीफाइंड रूप है ,जो ठोस कार्बन है। हम लोगो को विश्वास नहीं होता कि कोयले का चमकदार पहलू 'हीरा' है। वो कहते ,वैसे तो हीरा मामूली चमक लिए रहता है , मगर इसे तराश दो तो और चमक पैदा हो जाती है।

वे हीरा तराशने के चक्कर में रहते, और पूरा क्लास जुम्हाइयो में चल देता।

मास्टर जी की बातों का ‘दम’ परीक्षा हाल में पता चलता , जिस -जिस को जोर देकर कहे होते , वही पूछा जाता। कोयले और कार्बन पर उनकी सोच आज भी अपनी इम्पोर्टेंट चमक लिए है। बच्चों को जब केमिस्ट्री की पुस्तक दिलवानी होती है तो मास्टर जी ‘कार्बन और हीरे ‘ जैसे यादों में बरबस चमक जाते हैं।
जब हम कालिज में पहुचे तो नया शगल बन गया ,ट्रेनों में बिना टिकिट लिए सफर करना। तब टी.टी.ई की गिरफ्त में कभी आ जाते तो जैसे -तैसे छूटने की जुगाड़ में लग जाते। वो खुर्राट होते। बिना किसी एक्स रे के हमारी जेब में कितना है पता लगा लेते। वो बड़े इत्मीनान से भाषण पिलाते –पिलाते, टिकट बुक में जब कार्बन फंसाते, तब हमारी जेब ढीली हो जाती। हम आख़री मौक़ा ताड़ कर कुछ ले दे की बात करते। उन्हें तो राजी होना ही रहता था। वे राजी हो जाते। तब लगता था कि कार्बन फंसा कर कैसे लूटा जा सकता है।

भ्रष्टाचार का, उन दिनों का ये ट्रेलर दो तरफा हुआ करता था। एक तो हम आधे -अधूरे पैसे देकर सफर कर लेते, दुसरे टी.टी.ई अपने घर की बुनियाद ,मजबूत किए जैसा फील करता। कार्बन फंसा के माल निकलवाने में उस्ताद, ‘आर. टी. ओ.’ भी कम नहीं। भय को बढ़ाऔ , आदमी की जेब ढीली होते जाएगी।
कार्बन -कोयले की इन दलालियों में तब कोई स्विस -बैंक जैसा नहीं था। छोटी  -मोटी, दाल -रोटी के ‘तर’ करने की लोकल व्यवस्था जैसी बात थी।

मेरे पडौसी गुप्ता जी को बिहार , झारखंड , छत्तीसगढ़ के कोयल माफियाओं से शिकायत रहती है| ससुरों ने सारी जमीन को खोखला कर दिया है। माल निकाल के खदान में भरते कुछ नहीं , कब पूरे का पूरा शहर ‘चासनाला’ बन के बैठ जाए कहा नहीं जा सकता। बस दादागिरी है।

एक खदान बरसों से सुलगा हुआ है। अरबों का कोयला जल रहा है कोई रोकने वाला नहीं। रोकने वाला तो तब हो जब सोचने वाला हो। यहाँ व्यवस्था ये है , जहाँ दाम नहीं वहां काम नहीं, और दूसरी व्यवस्था ये भी है जहाँ दाम ही दाम है वहां कम में सब अटपटा जायज है।

मैंने कहा गुप्ता जी छोडिये , ये सब आपके सोचने की उम्र नहीं| वे फनफनाते चले गए। बाबा -अन्ना बोले तो जायज ?

मुझे लगा, किसी शामियाने वाले को बुला कर उनका अनशन फिक्स कर दूं ,होश तो ठिकाने में आए।
मेरी ‘कोयला -परख आँख’ बहुत देर बाद खुली|

वजह ये ,कि जब कभी माँ काजल का डिठौना लगाने कज्रौटी लिए आती  , मैं मिचमिचा कर आँख बंद किए भाग खड़ा होता।
अब तो लगता है पूरा देश, कज्रौटी लिए ‘माँ’ को देखने का साहस नहीं जुटा पा रहा है।

आँख मिचमिचाए ,बंद किए , काजल न लगाने का बहाना ढूंढ रहा है ?
वैसे काजल लगाए आँख की सुन्दरता के क्या कहने ?


सुशील यादव

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जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi 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रचनाकार: सुशील यादव का व्यंग्य - काजल की कोठरी...
सुशील यादव का व्यंग्य - काजल की कोठरी...
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रचनाकार
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