मुरसलीन साकी (1) काश यूँ ही कभी मुड़ के तुम देख लो। जख्म दिल सारे इक पल में भर जायेंगे। जब नजर से नजर तेरी मिल जायेगी। सब अयां दिल के जज्...
मुरसलीन साकी
(1)
काश यूँ ही कभी मुड़ के तुम देख लो।
जख्म दिल सारे इक पल में भर जायेंगे।
जब नजर से नजर तेरी मिल जायेगी।
सब अयां दिल के जज्बात हो जायेंगे॥
देख कर मेरे हालात शायद कभी ।
पत्थरों के जिगर भी पिघल जायेंगे॥
जिस घड़ी छोड़ कर वो मुझे जायेंगे।
अश्क ही अश्क आंखों मे भर जायेंगे।
इक तमन्नाये दीदार थी बस मुझे।
तुम को देखे बिना कैसे मर जायेगें।
--
(2)
उसके दिये गमों को मै तहरीर क्या करूँ।
जब वो ही गई दूर तो तस्वीर क्या करूँ।
उल्फत है मुण्को उससे ये मालूम है उसे।
लेकिन बयान करने की तजवीज क्या करूँ।
जब से गये वो छोड़ के है तीरगी यहाँ।
मालूम है न आयेंगे तनवीर क्या करूँ।
वो रहबरे मंजिल थे मगर बीच राह में।
यूँ छोड़ कर गयें हैं कि मजकूर क्या करूँ।
वीरानियों पे अश्क बहाता रहा हूँ में।
ऐसी है मेरी दोस्तों तकदीर क्या करूँ।
मुरसलीन साकी
मो0 बेगम बाग लखीमपुर-खीरी
मो0 9044663196
पिन 262701
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पद्मा मिश्रा
-सागर तट पर ......
जब मुक्त हवाओं का मौसम लहराता है ,
सागर सा मन फिर झूम झूम कर गाता है
लहरों सा चंचल जीवन का गतिमय आनन् ,
मन- भावों की सरिता को छूता मुक्त गगन ,
उन्मुक्त तरंगों का नर्तन मन भाता है .
सागर सा मन फिर झूम झूम कर गाता है .
झुक रहा गगन देखो सागर की थाती पर ,
जल दर्पण में बिम्बित कितने ही तारागण ,
नयनो की गागर में सपनों के मेघ पलें
मन का वह कोमल भाव छलक ही आता है ,
सागर सा मन फिर झूम झूम कर गाता है
मैं उदधि,समाहित मुझमे,कितनी नदियों का मन,
कितनेतूफानो का साहिल ,मेरा यह अंतर्मन,
छू लो ,मेरी प्यार भरी गरिमा साथी !,
मन का हर कोमल गीत ,ह्रदय भरमाता है
सागर सा मन फिर झूम झूम कर गाता है।
जीवन तट सा ही है विशाल ,यह मुक्तांगन,
बालुकमयी धरती करती है अभिनन्दन ,
इस स्नेह सलिल के पावन तट पर हम दोनों ,
जैसे धरती का मन अम्बर अपनाता है ,
सागर सा मन फिर झूम झूम कर गाता है।
आरम्भ यहीं है ,अंत यहीं -आशाओं का ,
सतरंगीसपनो का मौसम -अभिलाषाओं का ,
उत्ताल तरंगों पर सोया मेरा सावन ,
सिहरा तन मन ,बूंदों का रिमझिम भाता है,....
सागर सा मन फिर झूम झूम कर गाता है।।।।।
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कविता
व्यर्थता
--------------
मनोज 'आजिज़'
निर्जन पथ
और बस सन्नाटा
उस काली रात में
मैं और मैं ही
प्रतीक्षारत था
प्रिये, तुम्हारी आस में
प्रेम वर्षा की आस में ।
मैं तत्पर था, उद्विग्न था
पद ध्वनि सुनने को
रूप-साज देखने को
आँखों में झपक कहाँ ?
श्वास में धीरता कहाँ ?
शुभ-कम्पन हो रहे थे
पर रात क्यों रूकती ?
अनिश्चित मिलन के लिए !
वो ढलती गयी
त्रस्त मैं होता गया
आशाएं धूमिल हुयीं
और क्या प्रिये --
मैं फिर जलने को विवश था
पास फिर एक दिवस था ।
--
व्यर्थता
--------------
निर्जन पथ
और बस सन्नाटा
उस काली रात में
मैं और मैं ही
प्रतीक्षारत था
प्रिये, तुम्हारी आस में
प्रेम वर्षा की आस में ।
मैं तत्पर था, उद्विग्न था
पद ध्वनि सुनने को
रूप-साज देखने को
आँखों में झपक कहाँ ?
श्वास में धीरता कहाँ ?
शुभ-कम्पन हो रहे थे
पर रात क्यों रूकती ?
अनिश्चित मिलन के लिए !
वो ढलती गयी
त्रस्त मैं होता गया
आशाएं धूमिल हुयीं
और क्या प्रिये --
मैं फिर जलने को विवश था
पास फिर एक दिवस था ।
जमशेदपुर
झारखण्ड
09973680146
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राजीव आनंद
आम आदमी दास है
आम आदमियों के बीच से बने नेता
आम आदमी का ही करते तिरस्कार है
लाल बत्तियों में घूमते मंत्रीगण
समझते आम आदमी को दास है
मंत्रीगण बन गए है राजा-महाराजा
लोकतंत्र को समझते राजतंत्र है
छब्बीस जनवरी को जो लागू हुआ
कहां वो आज देश का गणतंत्र है
समानता दर्ज है फकत संविधान के पन्नो में
मंत्री बन गए मालिक आम आदमी दास है
पानी देने के वजाए मुतने की बात करते मंत्री
सून कर ऐसा अनर्गल प्रलाप हमारा लोकतंत्र उदास है !
---
पिता
तिल-तिल मरते देख पिता को
हाय न मैं कुछ कर पाया
सका न उतार पृत ऋण को
व्यर्थ ही मैंने जीवन पाया
पिता के कंधे पर चढ़कर
उंचाई कुछ खास मैंने पाया
दिल हिल जाता है यह सोचकर
क्यों पिता को विस्तर से उठा न पाया
पिता के साथ गरीबी का न था एहसास
खाते-पीते दिन बिता दिया बदहवास
एक दिन भी न कोई पूछने आया
खोने लगे थे जब पिता होशोहवास
किस ब्रदरहुड़ की बात करते रहे पिता
आज तक तो समझ मैं नहीं पाया
क्या मदद करेगा ये आपका ब्रदरहुड
गर्मी में भी आज तक कोट जो उतार नहीं पाया
व्यर्थ गंवाया पिता ने
कचहरी में अपने पचास साल
कुछ और किया होता तो
न होता आज हाल बेहाल
कुलीन बन कर कमाते रहे
मोवक्किलों ने जो दिया खाते रहे
घर पर फूटी कौड़ी न रही
विस्तर क्या पकड़ा मोवक्किल जाते रहे
ह्दय कांप उठता है पिता की हालत देखकर
किस भूल की उन्हें ऐसी मिली सजा
ईमानदारी का क्या यही मिलता है सिला
कजा के पहले क्यों मिली मौत से बदतर सजा
मुझे भगवन एक प्रश्न आपसे है पूछना
मरने के पहले मारने की ये कैसी सजा
क्यों ईमानदारों को इतना कष्ट देते हो
बेईमानों को तो मिलती नहीं कोई सजा
घर पूरा अशंात हो गया
सांस बेगार सी लगती है
सभी के ह्दय में दुख समाया
कोई भी हंसने से डरती है
पिता जब करते है क्रंदन
दिल थामे हम सब सुनते है
ह्दय फटता जाता है
फिर चाक ह्दय को बुनते है
और कई दुखों ने आकर
बनाया हमारे ह्दय में बसेरा
घनीभूत होता दुख अंधियारा
इंतजार रहता हो जाए सबेरा
हंसू तो लगता जुल्म कर रहा
खाउं तो लगता हक नहीं है
रूआंसा हो हम सब ने निर्णय लिया
अब हंसना हमलोगों का ठीक नहीं है
रो-रो कर माँ अधमरी हो रही
क्रंदन माँ का मिल जाता जब पिता के क्रंदन में
जीवन व्यर्थ सा लगने लगता है
घर डूब जाता है आंसुओं के संमदर में
काम लेने के लिए आज भी
मोवक्किल-वकील अधीर है
पर व्यथा कथा पिता की सुनने को
प्राय सभी बघिर है
---
राजीव आनंद
प्रोफेसर कॉलोनी, न्यू बरगंड़ा, गिरिडीह
झारखंड़, 815301
मोबाइल 9471765417
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मोतीलाल
परदेश में
अक्सर कचोट जाती है
अपनी देहरी की कसक
अपनी माटी की महक ।
अक्सर
मन उड़ने लगता है
और जा बैठता है
आमों की फूनगी पर
तब तैर जाता है
दूर तक फैली
फसलों की हरियाली ।
अक्सर
मन ढूंढने लगता है
तुलसी के बिरवा में
जल ढालती माँ
आंगन में उधम मचाती
छोटी छबीली बहना
और अखाड़े का परम सुख ।
इस कंक्रीट के जंगल में
जब कभी बेचैन हो उठता है मन
और नहीँ बांध पाता हूँ उसे
अपनी गाँव की याद से
तब चुपके से
ढूंढने लगता हूँ
श्याम-श्वेत की वह मुड़ी-तुड़ी फोटो
जो गुदड़ी में कहीं दबी हुई है 1
* मोतीलाल/राउरकेला
* 9931346271
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डाक्टर चंद जैन "अंकुर"
मैं तरकश का तीर
मैं तरकश का तीर चलूँगा विश्व बंद जंजीरों में
मैं वसुधा की बात करूँगा भारत के प्राचीरों से
क्या कृष्ण का योग खो गया विश्व बाज़ारी नारों में
या गाँधी का बीज सो गया मातृभूमि फ़नकारों में
बन गंगा का नीर बहूँगा विश्व राशी जलधारों में
मैं माता का पुत्र बनूँगा विश्व नाभि गुरुद्वारों में
क्या मैया का कृष्ण खो गया पश्चिम के संस्कारों में
बन मैया का दूध बहूँगा विश्व सुरा व्यापारों में
मैं तरकश का तीर चलूँगा विश्व बंद जंजीरों में
मैं वसुधा की बात करूँगा भारत के प्राचीरों से
राजनीति का खेल चल रहा नीति बिक रहा पैसो में
झूठ तंत्र का मन्त्र पढ़ रहे हर अपने अधिकारों में
मंत्री ,अफसर नोंच रहें है गिद्ध ,लोमड़ी खालों में
मातृ भूमि को लूट रहें है संसद से हर ग्रामों में
मैं अग्नि पुञ्ज का अंश ,जलूँगा सत्ता के गलियारों में
मैं तरकश का तीर चलूँगा विश्व बंद जंजीरों में
मैं वसुधा की बात करूँगा भारत के प्राचीरों से
भ्रष्ट व्यवस्था बना देश का भ्रष्ट हुआ हर इक चेहरा
प्रधान देश का यंत्र बन गया ,यंत्री बनें विदेशों के
कण कण धरती का बिकता है ये रत्न गर्भ के सौदागर
कलदार रुपैय्या रोता है डॉलर से लज्जित होता है
क्या क्या बेचोगे माँ के बेटों तुमको भी इक दिन मरना है
मैं हीरों का हार फसुंगा हर गर्दन गद्दारों में
मैं तरकश का तीर चलूँगा विश्व बंद जंजीरों में
मैं वसुधा की बात करूँगा भारत के प्राचीरों से
भारत का दौलत भरतें है स्विस और विदेशी बैंकों में
भारत का सौदा करतें है नेता मंत्री उद्योगपती
वैधानिक और प्रशासन राजनीति से चलते है
जन जन का जागृत होंना अब सबको बहुत जरुरी है
भारत ही पहचान बने मातृ भूमि अब मजहब हो
चाणक्य की ललकार बनूँगा संसद से हर ग्रामों में
मैं तरकश का तीर चलूँगा विश्व बंद जंजीरों में
मैं वसुधा की बात करूँगा भारत के प्राचीरों से
उग्रवाद से ढका देश वसुधा भी इनसे जलती है
उग्रवाद अब मज़हब है तानाशाही इरादों के
वे मानवता को कुतर रहे दानवता के दांतों से
चाहे विकसित देश कहे, वे तो बहुत सुरक्षित है
तुम भी मारे जावोगे ग़र तुम सींचोगे उनको
मैं अर्जुन का तीर चलुँगा कौरव के हर चालों में
मैं तरकश का तीर चलूँगा विश्व बंद जंजीरों में
मैं वसुधा की बात करूँगा भारत के प्राचीरों से
अब नाभि परिक्षण बंद करों हथियारों के सौदेबाजों
नाभि सृजन का युग्म बनों ऐसा कुछ विज्ञानं रचो
धरती ही आदि सुरक्षित है ये मातृ भूमि ही वन्दित है
अन्य ग्रहों की आशा में इस पृथ्वी को न नष्ट करो
याद रखो न्यूटन की वाणी ग़र गीता पर विश्वास न हो
जैसा कर्म करोगे तुम वैसा ही फल पावोगे तुम
मैं भारत का आयाम बनूँगा विश्व ग्राम के नारों में
मैं तरकश का तीर चलूँगा विश्व बंद जंजीरों में
मैं वसुधा की बात करूँगा भारत के प्राचीरों से
डाक्टर चंद जैन "अंकुर"
रायपुर (छ .ग .)
मो .98261-16946
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भूपेन्द्र कुमार बाघेला
आसमान भी जमीं न बन जायें।
विकास की छोर पर विनाश का फल।
आज के विकास में तलाश का कल॥
पंछियों से छिना उनका घराना।
तितलियों से कह दिया घर न आना॥
बारिश की ओट में चोट न लग जाये।
बादलों में कही विष न भर जाये॥
देव स्वरूप, भगवान स्वरूप ये वृक्ष है हमारें।
आधुनिकता से इनकी देह न जल जाये।
मौसम भी अब बदला-बदला सा लगता है दोस्तों।
मौसम की बरसों की दोस्तों दुशमनी में न बदल जाये॥
दौड़ता रहा है मानव हर वक्त नयी खोंज में।
हर नयी खोंज में पुराने दोस्त न बिझड़ जाये॥
आसमान की बुलंदी पर पहुंचना तो बड़ी बात है।
पर ऐसा न हो कि आसमान भी जमीं बन जाये।
थोड़ा मुश्किल काम है।
बात बिगड़नी हो तो पल में बिगड़ जाती है दोस्तों।
पर बात बनाना थोड़ा मुश्किल का काम है।
दिन गुजरने को गुजर जाता है दोस्तों।
पर दिन के उजाले से रात को चमकाना।
थोड़ा मुश्किल का काम है।
कड़वे बोल, बोल जाना बड़ा आशा है दोस्तों।
बातों में मिस्त्री की मिठास लाना।
थोड़ा मुश्किल का काम है।
जहां हर आदमी देखता है फायदे को।
वहां अजनबी को गले लगाना।
थोड़ा मुश्किल का काम है।
वैसे से हर मां-बाप खुश करते हैं अपने बच्चे को
पर अपने इरादों से मां-बाप को खुश कर जाना बड़ी बात है।
- भूपेन्द्र कुमार बाघेला
जिला राजनांदगांव
मो.9770478496
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प्रेम मंगल
लालच बुरी बला
मनवा जा संसार में लालच बुरी बला,
पर बता तू कौन जग में इससे है टला
बीबी जताये प्यार पिया को,लालच पैसे का होय
मिया लाड लडाये बीबी को, एबों को अपने छुपाये
गर रुठ गई बीबी तो सोचो,हो जायेगी मिया की यूं छुट्रटी,
बीबी सोचे कैसे भी है,भरता तो है वो सदा ही मेरी मुट्रठी।
लालच के बागन में ही तो पलते हैं ये सारे आधुनिक बच्चे,
आदर सत्कार कभी बडों का दिल से है वे नहीं कर सकते।
पापा यदि दे देंवें रुपैया,तो ख्याल नहीं आती है कभी मैया,
लैपटॉप, मोबाइल गर लेना हो तो याद बहुत आता है भैया।
मनवा जा संसार में लालच बुरी बला,
पर बता तू कौन जग में इससे है टला
बनती के तो सब यार औ दोस्त हैं,
बिगडी में तो साया भी अपना नहीं है।
कारण क्या है कौन है यहां पर जानता,
विधि का विधान है शायद यहीं से बनता।
गर इस जग में लालच रुपी राक्षस न होता,
लूटपाट औ इतना घोर यूं अत्याचार न होता
भ्रष्टाचार क्यों इस भांति पनपता
रेपकाण्ड न फलता और फूलता।
लालच बुरी बला है जिसने सारी दुनिया है बिगाडी,
बच पाये न जिससे यहां पर कुशल बहुत खिलाडी ।
मैच फिक्सिंग कर ही डाला लालच में आ गये भाई,
लालच तो डायन है जिसने ं सभी को डसा है भाई।
लालच ने ही जग में सबको मारा
ईमान बेचारा बन गया बेसहारा।
मनवा जा संसार में लालच बुरी बला,
पर बता तू कौन जग में इससे है टला
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मिलन चौरसिया 'मिलन'
सबके सब मादा निकले
कोई उन्नीस,कोई बीस,कोई इनसे ज्यादा निकले।
जिस,जिस की भी पूँछ उठाई,सब के सब मादा निकले।।
हर पार्टी शरण दे रही,गुण्डों और बदमाशों को ,
निर्भय होकर तोड़ रहे सब,जनता के विश्वासों को,
लाठी,डण्डा खिला रहे ये,बूँद-बूँद के प्यासों को ,
राजनीति में बना रहे सीढ़ी, जनता की लाशों को,
वीर-जनी भारती-कोख से,जानें कैसे नाखादा निकले।
जिस,जिस की भी पूँछ उठाई,सब के सब मादा निकले।।
खुलेआम लुट रही बेटियाँ,सत्ता की राजधानी में,
अरमानो की चिता जल रही,लगी आग है पानी में,
जवानी लगे बीमार पड़ी है,खून बदल गया पानी में,
देशभक्ति का ढोंग रचाते,क्या दीमक लगा जवानी में,
मधुवन बना शैतान बसेरा, कैसे कोई राधा निकले।
।
जिस,जिस की भी पूँछ उठाई,सब के सब मादा निकले
पड़ोसी सीमाएं एक हड़प रहा,
एक बदला लेने को तड़प रहा,
एक विदेश-नीति से भड़क रहा,
एक मित्र ,शत्रु- सा फड़क रहा,
जिस,जिस को दी गयी मदद,वो सब के सब दादा निकले।
जिस,जिस की भी पूँछ उठाई,सब के सब मादा निकले।।
पड़ोसी देश के आतंकों से,दहशत सी भर जाती है,
शहर,सड़क और गली-गली तक, लाशों से पट जाती है,
सरकटी लाश सैनिक की अब, अपने घर में आती है,
बेटे का ऐसा हाल देख,माँ की छाती फट जाती है,
कैसे बँधे उम्मीद कोई जब, शासक ही प्यादा निकले।
जिस,जिस की भी पूँछ उठाई,सब के सब मादा निकले।।
खुलेआम नीलामी में तब,सब के सब मुस्काते थे,
जब बिका खिलाड़ी पैसे पर,तब ताली बहुत बजाते थे,
एक जमाना था बिकने के,नाम से सब घबराते थे,
किसी खेल में नहीं सुना कि,कभी नर्तकी नचाते थे,
सारे फैशन राजाओं के,सभी चोर शहजादा निकले।
जिस,जिस की भी पूँछ उठाई,सब के सब मादा निकले।।
दर्द तुम्हें क्या मालूम होगा,तुम सत्ता के भूखे हो,
पूछो आदिवासियों से जिनके,गाँव-गाँव तुम फूके हो,
पूछो दलित जातियों से जिनके हक,सदियों से लूटे हो,
पूछो कश्मीरी पंडितों से जिनकी,थाली तक में थूके हो,
आज पड़ा है थूक जो खुद पर,लड़ने को आमादा निकले।
जिस,जिस की भी पूँछ उठाई,सब के सब मादा निकले।।
कोई उन्नीस कोई बीस,कोई इनसे ज्यादा निकले।
जिस,जिस की भी पूँछ उठाई,सब के सब मादा निकले।।
(२)
लगता कुछ भी ठीक नहीं है.
आपस में ही टांग खिचाई,
ईर्ष्य़ा, निंदा , मार पीटाई,
मद में है ऐंठा हर कोई ,
न्यायी बन बैठा अन्यायी,
चलता कुछ भी ठीक नहीं है .
लगता कुछ भी ठीक नहीं है .
हर तरफ़ है भ्रष्टाचार,
शासक पंगु, जनता लाचार ,
बढ़ता आतंक, अत्याचार ,
उसपर मंहगाई की मार ,
कहना कुछ भी ठीक नहीं है .
लगता कुछ भी ठीक नहीं है .
नौनिहाल बीमार पड़े हैं ,
बुजुर्ग यहाँ लाचार पड़े हैं ,
नौजवान बेकार पड़े हैं ,
सहमे से बेगार खड़े हैं ,
बाक़ी भी उम्मीद नहीं है .
लगता कुछ भी ठीक नहीं है .
बिखरे बिखरे से हैं बाल ,
सिकुड़ चुकी सब उसकी खाल ,
मां की ममता है बेहाल ,
ना जाने कब लौटे लाल ,
हवा का रुख भी ठीक नहीं है .
लगता कुछ भी ठीक नहीं है .
पशु आचरण में इन्सान ,
श्वेत आवरण में हैवान ,
बहू बेटियाँ हैं परेशान ,
हक्की बक्की और हैरान ,
इतना दुःख भी ठीक नहीं है .
लगता कुछ भी ठीक नहीं है .
हर घर में ही रार बढ़ी है ,
निराशा अब द्वार खड़ी है ,
नैतिकता बाज़ार पड़ी है ,
चिंता ही हर बार बढ़ी है ,
रहना चुप भी ठीक नहीं है .
लगता कुछ भी ठीक नहीं है .
(३)
जी चाहता है
माहो अंजुम तेरी आगोश में,
सर छुपाने को जी चाहता है।
ऐ जमाल-ओ-परी तेरे आतिस-ए-हुस्न में,
जल जाने को जी चाहता है।
ऐ तकद्दुस माहेलका तुझसे,
वस्ले शीरीं को जी चाहता है।
छुप जाऊँ तेरी पलकों में काजल के जैसे,
ऐ मेरी सनम ऐसा जी चाहता है।
बनाऊँ तुझे अपने सपनों की मलिका,
ऐ जाने जहाँ मेरा जी चाहता है।
मैं थिरकता रहूँ ले तुझे उम्र भर,
ऐ जाने वफा ऐसा जी चाहता है।
उठाऊँ तेरे सारे नाज वो नखरे,
मैं सारी उमर ऐसा जी चाहता है।
'मिलन' हो तो सिर्फ हो साथ तेरा,
ऐ मेरी नजम ऐसी जी चाहता है।
--मिलन चौरसिया 'मिलन',मऊ —
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आत्माराम यादव पीव
खुदा को ज़मी पर उतारने का
कोई ठिकाना मिला होता
तुमने लाख सुने हो, भले ही ईश्क के चर्चे
मजा तो तब था जब दिल से, इश्क फरमाया होता।
दीवानों के परचम उड़ा करें, उन्हें क्या पड़ी
दुख तो तब था जब मोहब्बत से, वह ठुकराया होता।
इश्क में पड़कर अये दिल, हमने अब ये जाना,
जो दिल में है मेरे,वह न कोई मंदिर और काबा में होता।
क्यों ललकारते हो तुम औकात आदमी की,
दुनिया की बेहोशी से कभी, अब न उसका जागना होता।
तकलीफ सहते सहते मैं कभी का मर गया होता,
दिल में अगर एक तेरा सहारा न रहा होता।
नजरें आसमॉ से हरदम लगी थी मेरी,
खुदा को जमीं पर उतारने का कोई ठिकाना मिला होता।
दोहराती आयी है सदियों से जिन कर्म-काण्डों को दुनिया
तुम मिले होते तो सभी पागलपन से,पीव मैं भी बचा होता।
मेरी शान के कर दो तुम हजार टुकड़े
मेरी हस्ती को मिटाने का जुनून, सभी को छाया है।
रज्जे-रज्जे में तलाशेंगे खुदको, ख्याल ज़िगर में ये आया है।।
मैँ सोख लू सारे जहॉ के दर्द को, अपने सीने में,
इस कद़र जुल्म ढ़ाने का मुझपर, शबब तुमने ये आजमाया है।
मेरे दिल को बर्बाद होने के, काबिल जो तुमने समझा,
जिस्म तो क्या अब रूह को भी, कुर्बान होने का ख्याल आया है।
दिया करते हो हरदम, तुम टीस वफ़ा की
प्यार जताने का अच्छा यह, उसूल तुमने ये बनाया है।
ये रात की तन्हाईयॉ, मैनें जब भी याद की
दिल की हर धड़कन में, यार तू ही तू समाया है।
बहा देंगे खून ऑखों से, हम ऑसू बनाकर,
जिस्म की वीरानियों में, कतरा जिगर का न नजर आया है।
अपनी मौज के लिये, बड़े शौक से अरे लोगों,
बरवादियों का मेरी, तुमने जश्न खूब मनाया है।
मेरी शान के करदो, भले तुम हजार टुकड़े,
जमाने से बड़कर हर टुकड़े ने, पीव खुद को बताया है।
प्राणों में तेरी प्यास है
ये जमी पर झुका-झुका सा लगे आसमॉ
पर पायोगे न उसे कहीं पर भी झॅुका।
बुलन्दी आसमॉ की शिखर चूमती है
सपनों को लेकर ये बुलन्दी घूमती है।
मालिक की इस दुनिया का, मैं कैसे करूॅ वयॉ
ऐसे हॅू दुनिया में, जैसे होकर भी मैं हॅू न ।
परिव्राजक हॅू में सदियों से, इस जहॉ का
मिला ना अब तक मुझे, तेरी दुनिया का कोई पता।
बिखरी है सारे जहॉ में, एक तेरी ही अस्मिता
लिख ना पाया अभी तक, फिर भी मैं कोई कविता।
शानोशौकत की तेरी, एक छटा है निराली
पर कहने का सबका है, अलग अपना अपना सलीका।
पीव प्राणों में मेरे, तेरी एक गहरी प्यास है
बुझ न जाये कहीं, गा गाकर मैं हो ना जाऊ रीता।
इस जहॉ में क्या कोई इश्क का दीवाना पैदा होगा?
खुदा जाने इंसानियत का , अब जाने क्या हश्र होगा?
मुर्दो की इस दुनिया में कभी, क्या कोई इंसान पैदा होगा?
मोहब्बत दफ़न होकर रह गयी है,बड़ी बड़ी किताबों में,
कभी इस जहॉ में क्या कोई, इश्क का दीवाना पैदा होगा?
कभी अपने ज़िगर में तलाशों, इश्क अरे लोगों,
जल्वाये खुदा का जरूर , वहॉ तुम्हें मिला होगा।
बेकरारी की आग सुलग रही हो अगर जिगर में ,
जलाकर खाक़ इस जिस्म को कर देना होगा।
ढ़ह जायेंगी उल्फ़त की जब सारी दीवारें
सारे जहॉ में तेरे, फिर उसी का आलम होगा।
दर्द देने जिगर को यहॉ, आये है ये सभी लोग
खुशी से दामन उनका , हमें अब थाम लेना होगा।
दुखों के कई कारवॉ गुजरे है पीव, मेरी जिन्दगी से,
दुख देकर अपने सभी,तुमने शायद मुझे आजमाया होता।
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शरद कुमार श्रीवास्तव
१ हूं बदनाम
करूं पर नेक कांम
खुद को मिटा कर तुम को बचाता
तुम गुलाब मॅँ हूँ कान्टा
हूँ बदनाम
करुँ पर नॅक काम
,,,.,.,.,.,.,.,.,.,.,.,.,.,.,,.,.,,,.,,..
२
पक्षी जन का मधुरिम कलरव
अल्हड सरिता मस्त कल्लोल
नीरव वन की हरित हरीत्त्त्मा
तरु रहे वायु से अविरल डोल
मुझे हृदय की प्रतिध्वनि
यहाँ सदा सुनाई देती है
तेरी सुन्दर काया प्रभुवर
मुझे यहीँ दिखाई देती है
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एकता नाहर
वो पहली कविता...
तुम्हे वो कविता याद है, जो मैंने पहली बार तुम्हारे लिए लिखी थी ...जितने ध्यान से मेरा दो साल का भतीजा यश तितलियाँ देखता है न और जितने ध्यान से तुम अपने ऑफिस और घर की जिम्मेदारियाँ निभाते हो,उतने ही ध्यान से लिखी थी,मैंने वह कविता तुम्हारे लिये. ..और तुमने भी तो उसको पढ़कर चूम लिया था,मैंने कहा था बस करो, कितनी बार पढोगे ......
......तुम भूल चुके हो न वह कविता, मुझे भी कहाँ याद थी ...वो तो आज पन्ने पलटते हुए वह कविता सामने आ गई। स्याही फीकी पड़ चुकी थी,कागज़ भी कुछ मुड़ सा गया था ...पर पन्नों के साथ अहसास कहाँ पुराने हुए,कविता भूलने से यादें कहाँ भूली ...जानती हूँ पन्ने पलटने से वक़्त नहीं पलटता ...पर शायद पलटता हो कि अगर तुम भी पलट लो कुछ पन्ने… तुम्हारे सामान में भी रखी हो कोई कविता ...कोई ख़त ...जिसके पढने से तुम्हे भी महसूस हो की अहसास पुराने नहीं होते ...और फिर शायद पलट जाये हमारा वक़्त…
...और तुम कहते हो मैं तुम्हारे लिए कुछ नहीं लिखती
तुम अक्सर कहते हो न कि मैं तुम्हारे लिए कुछ नहीं लिखती। लगता है, मेरी नज़्म को ध्यान से पढ़ा नहीं तुमने। यही कहना चाहते हो न कि उसमे तो फूलों का,चाँद का, हवाओं का और मेरे अहसासों का ज़िक्र होता है,तुम्हारा नहीं ....। सुनो,ये उपमाये तुम्हारे लिए ही तो लिखी हैं। अब प्रेम लिखूं या इंतज़ार, दर्द लिखूं या राहत,तुम्हारे ख्यालों को ही तो घूँट-घूँट पीकर कोई नज़्म रचती है मेरी कलम। मेरे बगीचे में खिलते अमलताश और गुलमोहर के फूल भी मुझे मुह चिडाते हैं कि मैं उनके रंगों में तुम्हे रंगती हूँ, उनकी खुशबू में तुम्हे महकाती हूँ और उनका ज़िक्र करके तुम्हारे अहसास बुनती हूँ और ये चाँद आज अमावस का बहाना करके मेरी छत पे भी नहीं आया कि मैं उसे देखकर, उसकी चांदनी में अपने रोम-रोम को भिगोकर तुम्हे महसूस करती हूँ। जिस दिन से तुमने अपनी नज़रों से मेरी रूह को सुलगाया है ना… उस दिन से मेरी कलम तुम्हे लिखकर ही सुकून पाती है…और तुम कहते हो मैं तुम्हारे लिए कुछ नहीं लिखती ....
अब चलना नहीं चढ़ना होगा…
हार जीत के पैमानों में झूलती ये ज़िन्दगी ...
कि यकायक मैदान सी हो गयी समतल,
फ़िर ...बहुत वक़्त से ..इसी हार के मैदान में
बढ़ रही थी ज़िन्दगी ...
कि अब जाके नज़र आ रहा है,
दूर कहीं जीत का पहाड़ ...
मुश्किल बहुत है शिखर तक पहुंचना
कि पहाड़ की ऊंचाईयाँ चढ़ना भूल चुकी हूँ अब,
मैदान पे चलने की आदत सी हो गयी है…
पर आदतें बदलनी होगी,
जीत के शिखर तक पहुचने के लिए
अब चलना नहीं चढ़ना होगा…
Ekta Nahar
Education :: B.E. (CSE)
City :: New Delhi
Hobbies :: writing, Sketching, Reading, Dancing
Email :: Ektanahar1@gmail.com
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- अखिलेष श्रीवास्तव
कारगिल का कातिल
कारगिल का दोशी मुशर्रफ, आज पड़ा है जेल में।
कभी शेर था अब चूहा है, कुदरत के इस खेल में॥
हजारों जवान शहीद हो गए, जिसके एक पागलपन में।
विधवाओं की हाय लगी है, तिल-तिल मरेगा जेल में॥
अटल बिहारी जैसे संत से, जिसने की थी दगाबाजी।
भुगतेगा अपनी करनी की, सजा मुशर्रफ जेल में॥
फैसला सुनकर भागा था, गीदड़ जैसे अदालत से।
जजों को धमकी देने वाले, चक्की पीसो जेल में॥
दुम दबाए छुपा था घर में, पुलिस पकड़कर ले आई।
गीदड़ की वह मौत मरेगा, एक दिन अपने देश में॥
कर्म फल तो भुगतना होगा, पर चिंता की बात नहीं।
भोजन पानी, कपड़ा कंबल, सब सुविधा है जेल में॥
यहीं स्वर्ग है यहीं नर्क है, मियां मुशर्रफ जान लो।
जो बोया सो काट रहे, अब काटो जीवन जेल में॥
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विवेकानंद नगर मार्ग -3 धमतरी ( छत्तीसगढ़ )
सम्पर्क 07722-232233 /9009051554
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sabhi kavitaye behatar hai akta nahar ki kavita me prem ras ke bhav pasand aaye sanjay verma"drushti" manawar distt dhar(m.p.)
जवाब देंहटाएंsabhi kavitayen ek se ek behtar hain par dil ko choo gayeen ekta nahar aur sharad kumar srivastava ji ki kavitayen sach much dil nikal kar rakh diya hai badhaee
जवाब देंहटाएंthank you Akhilesh ji,...
जवाब देंहटाएंYou can read my other poems on my blog http://ektakidiary.blogspot.com