बाल मजदूरी -- मजदूरी के बोझ से दबता बचपन??? क्या खेलना मेरा हक़ नहीं ? क्या पेट-भर रोटी खाना मेरा हक़ नहीं ? मेरा रास्ता स्कूल तक क्यों नहीं...
बाल मजदूरी-- मजदूरी के बोझ से दबता बचपन???
क्या खेलना मेरा हक़ नहीं ? क्या पेट-भर रोटी खाना मेरा हक़ नहीं ? मेरा रास्ता स्कूल तक क्यों नहीं जाता ? क्या दुनिया सच में खूबसूरत है ? ऎसे तमाम सवाल इस खूबसूरत दुनिया के ही उन बच्चों की निगाहें हमसे पूछने की कोशिश करती हैं, जो किसी न किसी वज़ह से बाल-मजदूरी या चाइल्ड ऎब्यूज़ के साये में अपनी ज़िंदग़ी बसर करने को मजबूर हैं। इन सवालों के जवाब ढूंढते-ढूंढते वो कब बचपन की दहलीज़ पार कर जवानी की चौखट पर पहुँच जाते हैं, उन्हें पता ही नहीं चलता। सुबह जागने से लेकर रात को सोने तक जी-तोड़ मेहनत उनके और उनके परिवार के लिए दो जून की रोटी कमाने का साधन बनती है।
हालात तो इस कदर बिगड़ चुके हैं कि आज विश्व में लगभग 11 करोड़ बाल मजदूर हैं जो अत्यंत भयावह परिस्थितयों से गुज़र रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ की मानवाधिकार समिति द्वारा ऎसे बच्चों का सर्वेक्षण किया जा चुका है। रिपोर्ट में स्पष्ट रूप से ये बात सामने आयी है कि 97 प्रतिशत बाल-मजदूर अविकसित राष्ट्रों में हैं, जो अपना और अपने परिवार का पेट भरने के लिए जानवरों से भी बदतर ज़िन्दगी बसर करने पर मजबूर हैं। इसके चलते उनका शारीरिक विकास बेहद बुरॆ तरीके से बाधित होता है। यहाँ अग़र बात करॆं सिर्फ भारत की तो यूनिसेफ के एक सर्वेक्षण के अनुसार अकेले भारत में ही लगभग दो करोड़ बच्चों को अपना जीवन यापन करने के लिए दिन भर काम करना पड़ता है। ये बच्चे अव्यवस्थित व्यवसायों में लगे हुए हैं, जहाँ इनके मालिक इनका बेहिसाब शोषण करते हैं। ये बच्चे पूरी तरह से अपने मालिकों की दया पर ही जीते हैं, जहाँ ज़रूरत से ज़्यादा शारीरिक मेहनत करना और मार खाना इनकी नियति बन चुकी है। अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के अनुसार इन सब परिस्थितियों का बच्चों के मानसिक व शारीरिक विकास पर बहुत बुरा असर पड़ता है। कच्ची उम्र में ज़रूरत से ज़्यादा काम के बोझ से दबकर ये बच्चे कई असाध्य बीमारियों की चपेट में आ जाते हैं और समय से पहले ही काल के गाल में समा जाते हैं।
अंतर्रार्ष्ट्रीय श्रम संगठन के अनुसार हमारॆ देश में परिवार की कुल आमदनी का 23 प्रतिशत हिस्सा बाल मजदूरों की कमाई से आता है। बाल-मजदूरी की ये ज़ुल्मों से भरी दास्तान अभी यहीं खत्म नहीं हो जाती, क़हर तो तब टूटता है जब बच्चों को जानवरों की तरह ख़रीदा और बेचा जाता है। इस खूबसूरत दुनिया में बसने वाले इंसानी समाज की बदसूरती तो देखिए, जो अपने दिखावे की दुनिया में रंग भरने के लिए न जाने कितने ही मासूमों की जिंदगी को बेरंग कर देता है। आख़िर वो कौन से कारण हैं जिन्होनें मजबूर किया इन मासूमों को बाल-मजदूरी की क़ैद में सिसकने के लिए ? वो कौन से कारण हैं जो ज़िम्मेदार हैं समाज में लगी बाल-मजदूरी की इस दीमक के लिए, जिसने ज़िन्दगी की किताब से बचपन नाम के पन्ने को चट कर डाला।
किसी भी राष्ट्र का भविष्य उसके बच्चों के ऊपर निर्भर करता है। इसीलिए उनका ये पूरा-पूरा हक़ बनता है कि उन्हें बचपन से ही जीने के लिए अनुकूल परिस्थितियां, आवश्यक खान-पान, ठीक रहन-सहन और उचित शिक्षा मिले। ये सिर्फ एक बच्चे का हक़ ही नहीं बल्कि उसके मां-बाप का सपना भी होता है, जिसे वो उसके पैदा होते समय देखते हैं। हर ग़रीब अपने बच्चे को किसी भी तरह से पढ़ाना-लिखाना चाहता है, वो उसे हर हाल में गुलामी के उस भँवर से निकालना चाहता है, जहाँ फँसे उसका खुद का पूरा जीवन ही बीत गया। लेकिन अफसोस, हक़ीकत की ठोस चट्टान से सिर टकरा-टकरा कर वो समझ जाता है कि मज़दूर का बच्चा आख़िर मज़दूरी करने के लिए ही पैदा होता है और वाकई आँकड़े भी यही कहते हैं कि 85 प्रतिशत मामलों में मज़दूर का बच्चा मज़दूर बनकर ही रह जाता है। अगर हम इतिहास पर नज़र डालें तो बाल मजदूरी की जड़ें पूँजीवाद में दिखाई देती हैं क्योंकि पूँजीवाद की बुनियाद ही बच्चों के सस्ते श्रम को निचोड़कर तैयार हुई थी, और आज भी पूँजीवाद का ये राक्षस सस्ते श्रम की तलाश में देशभर में दौड़ रहा है। नतीजतन असंगठित दिहाड़ी और ठेका मजदूरी बच्चों की हड्डियाँ निचोड़ रही है।
उद्योग-जगत में ज़बरदस्त प्रतिस्पर्द्धा के चलते पिछड़े देशों के पूँजीपति अपने देशों के सस्ते श्रम की बदौलत उत्पादित माल को सस्ते में बेचकर साम्राज्यवादी देशों के पूँजीपतियों के सामने कुछ क्षेत्रों में प्रतिस्पर्द्धा की स्थिति पैदा करने की कोशिश करते हैं। लेकिन इस अंधी प्रतिस्पर्द्धा में पिसते हैं तो सिर्फ मज़दूर बच्चे। पूरी दुनिया के लिए जीने की बुनियादी चीजें उत्पादित करने वाले इन मजदूर बच्चों को खुद के जीने के लिए न्यूनतम चीजें भी मयस्सर नहीं होतीं। इंटरनेशनल कान्फेडरॆशन ऑफ फी ट्रेड यूनियन की रिपोर्ट बताती है कि जहाँ पिछड़े और विकासशील देशों में बाल मजदूरों का शोषण बदस्तूर जारी है, वहीं विकसित राष्ट्र भी इससे अछूते नहीं रह पाये हैं। यहाँ बाल-मजदूरों का उपयोग कृषि-कार्यों में किया जाता है, यहाँ इनसे 12 से 16 घंटे काम कराया जाता है। इसके बावजूद भी इनको बहुत कम मजदूरी दी जाती है। अब हम खुद ही इस बात का अंदाज़ा लगा सकते हैं कि एक तरफ तो जी तोड़ मेहनत और उस पर भी इतना कम पारिश्रमिक, क्या तो ये बच्चे खुद का ही भरण- पोषण कर पाते होंगे और क्या कर पाते होंगे अपने परिवार का, जिनकी ख़ातिर वो अपना बचपन दाव पर लगा देते हैं।
कितना स्वार्थी है ये समाज, जो सोचता है तो सिर्फ और सिर्फ अपने फायदे के बारॆ में। किस क़दर बेचारॆ मासूम बच्चे पूँजीवाद की भेंट चढ़ा दिये जाते हैं, और ज़िम्मेदार ठहरा दिये जाते हैं बच्चों के बेबस माँ-बाप। लेकिन क्या कभी किसी ने ये जानने की कोशिश की, कि आख़िर वो कौन सी मजबूरियाँ होती हैं जिनकी ख़ातिर माँ-बाप मजबूर हो जाते हैं बच्चों को काम पर भेजने के लिए ? शायद नहीं ???
शायद इस पूँजीवादी और साम्राज्यवादी दुनिया में ग़रीब माँ-बाप को थोड़ा कम इन्सान समझा जाता है, जो अपने बच्चों को प्यार नहीं करते, पढ़ा-लिखाकर उनका भविष्य संवारना नहीं चाहते बल्कि उन्हें कमाई का ज़रिया समझकर उनका वर्तमान और भविष्य बाल-मजदूरी के अंधेरॆ में झोंक देते हैं। लेकिन ये सोच काफी हद तक ग़लत है, यदि अपवाद स्वरूप अमानवीय और नशेबाज़ लोगों को छोड़ दें तो ग़रीब मां-बाप भी आम इन्सानों की तरह ही अपने बच्चों से बेइन्तिहा प्यार करने वाला होते हैं। लेकिन ज़िन्दगी की हक़ीकत उन्हें ग़रीबी के आगे घुटने टेकने को मजबूर कर देती है। अपने देश के व्यस्ततम् शहरों नोएडा और दिल्ली को ही ले लीजिए, यहाँ 40 से 60 रुपये की दिहाड़ी पर महिला और पुरुष मजदूर 12-12 घंटे काम करते हैं।
इसके अलावा महीने में कुछ दिन बेकारी के भी होते हैं, साथ ही मालिक या ठेकेदार की ओर से इनके बच्चों को शिक्षा, स्वास्थ्य या आवास की कोई सुविधा नहीं दी जाती। इन हालातों में बच्चों के माँ-बाप लगातार काम करने के बाद मुश्किल से पेट-भर रोटी, कमरॆ का किराया और कुछ कपड़ों की व्यवस्था कर पाते हैं। इस पर भी कभी खुद या बच्चों में से कोई बीमार पड़ जाये तो बिना कर्ज़ लिए इलाज ही नहीं हो पाता और फिर उस कर्ज़ को चुकाने का सिलसिला चलता ही रहता है। अब इतने पर भी अगर ये मां-बाप अपने बच्चों को स्कूल भेजने की सोचें तो बस ये सोचकर ही रह जाते हैं कि आख़िर स्कूल में पढ़ने के लिए भी तो पेट में रोटी डालना ज़रूरी है। मजबूरन कलेजे पे पत्थर रखकर वो ये तय करते हैं कि कप-प्लेट धो कर, सामान ढो कर, गाड़ियाँ साफ करके या जूते पॉलिश करके शायद बच्चा जिन्दा रह सके और आगे ज़िंदगी की कोई बेहतर राह निकाल सके।
बात आईने की तरह साफ है, कि माँ-बाप का अपने बच्चों को मजदूरी पर लगाने का या बच्चों का खुद से मजदूरी की राह पर निकलने का सबसे पहला उद्देश्य होता है- पेट भर रोटी, जिसे कमाते-कमाते ये बच्चे रह जाते हैं तो सिर्फ मजदूर बनकर ?????
-निशान्त शर्मा
आगरा
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