नरीज खरे समकालीन युवा कहानीः स्मृतियों के भाष्य और यथार्थ का सवाल इक्कीसवीं सदी के आरंभ के साथ रचनात्मक सफ�र शुरू करने वाली हिन्दी कहान...
नरीज खरे
समकालीन युवा कहानीः स्मृतियों के भाष्य और यथार्थ का सवाल
इक्कीसवीं सदी के आरंभ के साथ रचनात्मक सफ�र शुरू करने वाली हिन्दी कहानी की नयी युवा पीढ़ी की कहानियाँ, अब समकालीन कहानी की पहचान बनाने में समर्थ दिखायी देने लगी हैं। साहित्य-जगत की अनेक पत्रिकाओं में इन कहानीकारों की उपस्थित, नवलेखन विशेषांकों की लहर और अब नए कहानीकारों के प्रकाशित कहानी-संग्रह भी सामने हैं। नयी रचनाशीलता का यह आगाज़ प्रमाणित कर रहा है कि हिन्दी कहानी की लगभग सौ सालों की अविरल परंपरा के साथ एक ताज़ा पीढ़ी शामिल हो चुकी है। वरिष्ठ और अपने अग्रज कहानीकारों के साथ, यह नयी पीढ़ी समकालीन कहानी की पहचान को अपनी रचनात्मक ऊर्जा से नया संस्कार प्रदान कर रही है। पिछले आठ-नौ सालों के भीतर उभर कर आयी, यह नयी रचनाशीलता और इस पर लगभग साथ-साथ ही पत्रिकाओं में हुई, पहचान-परख को देखकर लगता है कि एक दशक पूरा होते न होते ही नयी पीढ़ी ने हिन्दी कहानी का अगला मुकाम तय कर दिया हो!
नयी रचनाशीलता की अनेक कहानियों के रचनात्मक निकष ‘कहानी' को नयी ज़मीन से देखने की स्वतः अपील करते हैं। यह सच है कि कथा-आलोचना के पूर्वग्रह संभवतः इस रचनाशीलता के मूल्यांकन के लिए अपर्याप्त हो सकते हैं। विश्वसनीयता का संकट खड़ा कर देते हैं- वे चाहे प्रशंसात्मक हों या कटु-आलोचनात्मक। इसके चलते रचनाऔर आलोचना रचनाशीलता के लिए उस दौर में ही आलोचना भी अपनी भिन्नता के कारण साथ लेकर उपस्थित होती है। पर रचना का आगाज़ होते आलोचना को साँस लेने का इत्मीनान तो होना चाहिए, ताकि वह रचना के बारे में तात्काल्कि बयान ही न बन जाए! इसका आशय यह नहीं कि नयी रचनाशीलता के नए तेवरों के प्रति अनदेखा किया जाए या उन्हें बिना आधार के ही खारिज़ कर दिया जाए।
हिन्दी कहानी की नयी युवा पीढ़ी की कहानियों के भीतर अंतः सूत्रों और रचनात्मक आयामों- शिल्प, कथ्य और भाषा के नए मानक अपनी पहचान-परख चाहते हैं। कोई बहुत उदार न भी हो तो, इस नयी युवा पीढ़ी में कम-से-कम बीस कहानीकार ऐसे हैं, जिनने अपनी चार-चार या छः कहानियों से ध्यान खींचा है। इनकी कहानियों के जरिए समकालीन कहानी की रूपरेखा समझी जा सकती है। इस पीढ़ी के पास भरसक नयापन है और उत्फट रचनात्मकता है, लेकिन इसके प्रस्थान को पहचानना पहले जरूरी है कि अपने पहले से भिन्न इस पीढ़ी कहानी में नयापन क्या और कैसा है? इसे सिफ�र् नयापन कह देना तो सुविधाजनक और कतिपय तात्कालिक पद या मुहावरा है। प्रायः हर दौर में नयी रचनाशीलता का मूल्यांकन करते हुए उसे पहले से श्रेष्ठ, भिन्न और नया घोषित किया जाता ही है। ऐसा जरूरी भी है, पर इसका आशय पुराने को गै़रजरूरी सिद्ध करना नहीं होना चाहिए और नयी रचनाशीलता का अस्वीकार भी नहीं। इसके चलते प्रायः रचना या रचनाशीलता का वास्तविक मूल्य उद्घाटित नहीं हो पाता।
हिन्दी कहानी में जब ‘नयी कहानी' का दौर आया था, तो कहानी के नएपन के रेखांकन की सर्वाधिक पहल की गई थी और कहानी में पूर्व से भिन्न उभर कर आए नए रचनात्मक आयामों को व्याख्यायित और विश्लेषित करते हुए, उनके औचित्य पर बातें की गई थीं। कथा-आलोचना ने भरसक यह दायित्त्व निर्वहन किया था। यहाँ हमारा ध्यान आलोचना की जिम्मेदारी पर नहीं, नयी कहानी के बहाने कहानी में तलाशे गए उसे परिवर्तन को लेकर है, जिससे कई मायनों में कहानी ने पचासेक वर्षों में फार्म के स्तर पर अर्जित की गई अपनी पहचान का चोला बदल दिया था। प्रायः हर रचना की वस्तु तो समकालीन होती ही है, प्राचीन भी हो तो उसके आशय अपने वर्तमान से ही जुड़ते हैं। हिन्दी कहानी के पिछले पड़ावों पर व्यापक बहस और चर्चा करने का यहाँ अवसर नहीं है। नयी कहानी आंदोलन का उल्लेख प्रसंगवश इसलिए कि यह दौर स्वतः कहानी के नएपन का एक महत्त्वपूर्ण प्रस्थान-र्चिी है- अपनी उपल विधयों और सीमाओं के साथ। इधर इसके विस्तार में जाने का अवसर नहीं है, सीधे आज की नयी युवा पीढ़ी की कहानी के नएपन का रेखांकन करते हुए, यह देखा जाना चाहिए कि क्या आज की कहानियाँ उस तरह का व्यापक या बड़ा बदलाव लेकर उपस्थित हुई हैं? पिछले आठ-नौ वर्षों की नयी रचनाशीलता के बारे में कुछ कहने के पूर्व उन बदलावों के प्रस्थान और प्रक्रिया की वस्तुनिष्ठ जाँच-पड़ताल करे बिना संभव नहीं। इसके चलते ही इस नयी पीढ़ीं की अपनी उपलब्धियों पर निगाह जा सकेगी। नयी कहानी के बाद हिन्दी कहानी में बड़ा बदलाव कब आया? कहानी के तमाम आंदोलनों के समय भी कोई बहुत बड़ा बदलाव संभव नहीं हुआ, बल्कि बड़े बदलावों की प्रक्रिया आंदोलनों की समाप्ति के साथ आरंभ हुई। उनके बाद हिन्दी कहानी में एक मुक्ताकाश बनता दिखलायी पड़ता है- फार्म की दृष्टि से वैविध्य और वस्तु में असाधारण समय संलग्नता बिना किसी वैचारिक परिप्रेक्ष्य या प्रभाव के अनेक आयामों में अभिव्यक्त होती है। इस बीच विमर्शों का उदय अवश्य होता है।
हिन्दी कहानी में इन परिवर्तनों का समय, बीसवीं सदी के आखिरी दस-पंद्रह वर्षों के भीतर घटित हुआ। मौटे तौर पर इन बदलावों को भूमण्डलीकरण, सूचना क्रांति, बाजारवाद, उपभोक्तावाद, मीडिया के विस्तार के नाम से चीहते हैं। इनके जितने गहरे पद र्चिी हैं- इनके बरक्स बदलाव के अनगिनत घरातल हैं। बीसवीं सदी के आिख़री दशक में राजनीतिक अस्थिरता और विसंगतियाँ साफतौर पर दिखायी दी हैं। रामजन्म भूमि बनाम बावरी मस्जिद के आंदोलन अयोध्या की घटना तथा सांप्रदायिक दंगों ने राजनीति समेत सामाजिक जीवन को व्यापक रूप से प्रभावित किया है। दूसरी तरफ मंडलवादी राजनीति ने देश में जातिवाद की समस्या में भारी उभार पैदा किया। इसी दौर में भारतीय समाज में दलित और स्त्री-चेतना उत्कर्ष आंदोलन की तरह उभर आता है। वस्तुतः यही सब स्थितियाँ उस समय में कहानी की दशा और दिशा की निर्णायक हैं। इस समय की कहानी के विविध परिवर्तन, समय के तमाम बदलावों के साथ संबद्ध हैं। अतः इक्कीसवीं सदी के प्रथम दशक में हाजिर नयी युवा पीढ़ी की कहानी की रचनाशीलता को जानने-समझने हेतु, इसके ठीक पहले सक्रिय पीढ़ी की कहानी की ओर मुड़कर देखना होगा, जहाँ आज की युवा रचनाशीलता के प्रस्थान और नए प्रवर्तनकारी रचना-मूल्यों के उत्स छिपे हैं। यही नहीं पिछले से कतिपय भिन्न यानि नयी सर्जनात्मकता की पहचान भी इसके बिना संभव नहीं हो सकती।
सबसे पहले फार्म के नजरिए से ही देखें तो कहानी में एक बड़े बदलाव की प्रक्रिया आंदोलनों की समाप्ति के साथ उभरने लगती है। अपने स्पष्ट रूपों में इनका उद्घाटन सन् 1990 के बाद की कहानियों में दिखायी देने लगता है। कहानी की अंतर्वस्तु ही उसका फार्म निर्धारित करती है- यह तथ्य अपनी जगह सत्य है। इस दौर में समय के जितने अहम् परिवर्तन बड़ी तेज़ी से घटित हुए, उनके समानांतर कहानी की रचना-प्रक्रिया में अपूर्व परिवर्तन हुए। सर्वाधिक ध्यान देनेे वाला पहलू है। कि इस समय लंबी कहानियाँ लिखने का चलन बढ़ा और इस दौर की लंबी कहानियाँ पिछले दौर की लंबी कहानियों से भिन्न भी हैं। कहानी में वस्तुगत वैविध्य तो है ही, विशेषतः अपने समय के यथार्थ और अनेक जटिल संस्तरों पर उसके प्रगटन के लिए कहानी ने विविध लंबे फार्म ग्रहण किए। कहानी की अंतर्वस्तु के अनुरूप में उसका फार्म और इनका भाषा से अद्भुत संगठनात्मक संबंध उद्घाटित हुआ। सामयिक परिस्थितियों के दबाव से या मीडिया के धारावाहिकों और फिल्मों की नयी तकनीक के प्रभाव से ऐसा हुआ! बहरहाल, संरचनात्मक दृष्टि से आकार में विशालता और औपन्यासिक कलेवर कहानियों में बेहद नए परिवर्तनों की सूचनाएँ दे रहे थे। इस दौर में लिखी कतिपय कहानियाँ उल्लेखनीय हैं- ‘धर्मक्षेत्रः कुरुक्षेत्र' ओर ‘निष्कासन' (दूधनाथ सिंह), ‘ऐ लड़की' (ड्डष्णा सोबती), ‘और अंतम में प्रार्थना', ‘पॉल गोमरा का स्कूलटर', ‘वारेन हेस्टिंग्स का साँड़' और ‘पीली छतरी वाली लड़की' (उदयप्रकाश), ‘जलउमरुमध्य' और ‘शापग्रस्त' (अलिखेलश), ‘तिरिया चस्तिर' (शिवमूर्ति), ‘पाँव तले की दूब' (संजीव), ‘भै्यया एक्सप्रेस' (अरुण प्रकाश), ‘बलि' (स्वयं प्रकाश) और ‘अगले अंधेरे तक' (जितेन्द्र भाटिया) आदि। इनमें उपन्यास और कहानी के शास्त्रीय भेद को मिटा देने के लिए भरसक प्रयत्न दिखायी देता है। ऐसी बहुत सी कहानियाँ हैं जो यथार्थ के बहुआयामी स्वरूप को प्रकट करने के लिए बड़ा फार्म ग्रहण करती हैं। यथार्थ की बहुआयामिता नयी सदी में आकर अपने पूर्व जनित उपादानों में नए तकनीकी और सूचना-समाज की नयी प्रक्रियाओं के साथ विस्तर प्राप्त करती है। पहले से चली आ रही यथार्थ को बनाने/बदलने वाली विभिन्न कारण परिस्थितियाँ नए और भिन्न रूपों में शिफ़्ट होती दिखायी पड़ती हैं। नयी युवा रचनाशीलता की अनेक कहानियाँ अपने समय की चेतना को कहानी के लंब फार्म में संगठित करती है और अभिव्यक्ति का शिल्प पिछली परंपरा का अगला विस्तार बनता है। नयी पीढ़ी में ‘फूलों का बाड़ा' (मो. आरिफ), ‘सौ किलो का साँप' (गीत चतुर्वेदी), ‘रेखाचित्र में धोखे की भूमिका' और ‘शहर की खुदाई में क्या कुछ मिलेगा' (चंदन पाण्डेय), ‘रोमियो, जूलियट और अंधेरा (कुणालसिंह) ‘यूटोपिया' (वंदना राग), आदि कहानियों के मार्फत इस अंदाज़ पर गौर किया जा सकता है। इन कहानियों के अलावा भी नयी पीढ़ी में लंबी कहानियों के उदाहरण बहुत हैं- यहाँ तो कुछ नाम ही गिनाए हैं। पत्रिकाओं में निरंतर लंबी कहानियाँ छपती रहती हैं। इसका आशय यह नहीं कि नयी पीढ़ी आँख मूंद कर लंबी कहानियाँ ही लिखे जा रही है। यह तो समानता का ऊपरी कारण है, यों छोटे फार्म और औसत कद-काठी की कहानियाँ ढेरों हैं। इससे कहीं अधिक बड़ा सवाल कहानी के भीतर अपने समय की स्थापना या प्रवेश का है। यथार्थ के अन्वेषण और ग्रहण करने के लिए नयी रचनाशीलता का ‘नजरिया' पहले से सर्वथा भिन्न है।
उस भिन्नता के कारण कई हो सकते हैं। पर उदय प्रकाश, अखिलेश, संजीव, जयनंदन, प्रियंवाद, जितेन्द्र भाटिया, संजय खाती, हरि भटनागर, कैलाश बनवासी की कथा चिंताएँ नयी पीढ़ी में आकर ठहर नहीं जातीं। नए कहानीकार इस सिलसिले को आगे ले जा रहे हैं। भूमंडलीकरण की प्रक्रिया में औद्योगिकीकरण, वैज्ञानिक प्रगति, पर्यावरण विनाश और पूँजीवाद का घनघोर मिलाप धरती और मनुष्य के विरुद्ध अपना साम्राज्य फैला रहा है। सूचना-क्रांति ही भूमंडलीय-प्रक्रिया की वाहक बनकर आती है। समय के इन बदलावों में निहित विरोधाभासों और विसंगतियों को नए कहानीकार नयी यथार्थ दृष्टि से ग्रहण कर रहे हैं। नयी युवा पीढ़ी से दो कहानियों के मार्फत इस प्रक्रिया पर गौर किया जा सकता है। दोनों ही छोटे फार्म की कहानियाँ हैं- एक प्रभात रंजन की ‘जानकीपुल' और दूसरी प्रत्यक्षा की ‘जंगल का जादू तिल-तिल।' इनसे नयी युवा पीढ़ी की आंतरिक चेतना का पता चलता है कि भूमंडलीकरण से उपजी स्थितियों को लेकर उसका नैतिक विरोध है। इस नैतिक विरोध की कोई बहुत मुखर अभिव्यक्ति नयी पीढ़ी में कम ही मिलेगी, तो इसका आशय भूमंडलीकरण और उत्तर आधुनिक समय-स्थितियों के आगे घुटने टेक देने से नहीं लिया जा सकता। नयी पीढ़ी की कहानियों में मोबाइल और इंटरनेट की उपस्थिति और उनसे उपजी विडंबनाओं को लक्ष्य किया जा रहा है। युवा पीढ़ी के आगे भूंमडलीकरण, बाजार, सूचना क्रांति आदि के एकदशक बाद की दुनिया है। पहले तो यह सब आया-ही-आया था, अब रच-बस गया है या भिन्न-भिन्न स्थितियों में इनके परिवर्तन शिफ्ट हो गए हैं। उपर्युक्त दो कहानियों में परिवर्तनों की आहटें सुनी जा सकती हैं। प्रभात रंजन की सहारा समय कथा चयनः 2004 में पुरस्ड्डत कहानी ‘जानकी पुल' में सूचना प्रौद्योगिकी के बड़े दावों और सुविधाओं के माया-लोक के बीच गाँव और आम इंसान के मूलभूत विकास से बेपरवाह और उदासीन शासक वर्ग का रवैया है। जिसके चलते जानकी नदी पर बीस साल से पुल न बन सका, जो इंसान से इंसान को जोड़ने का एकमात्र साधन है- सुदूर कटे हुए ग्रामीण इलाके को विकास की धारा में लाने के लिए। वहीं इंटरनेट से यह सुदूर क्षेत्र विदेशों से जुड़ा है और ई-मेल आसानी से पहुँच रहे हैं। पुल के सपने को एक प्रतीक की तरह सामने रखकर सूचना-प्रौद्योगिकी पर इठलाने वाले सूचना समाज की वास्तविक विसंगतियों पर बेहद कला-कौशल से व्यंग्य करती है- यह कहानी। दरअसल, यह प्रतिरोध की नयी और सजग-चेतना का ही विस्तार है। प्रत्यक्षा की ‘जंगल का जादू तिल-तिल' जैसी कहानी इसी चेतना से ही उपजी हैं- जिसकी एक-एक पंक्ति में यथार्थ की अनुगूँज है। विकास का नया मॉडल, पूँजीवादी नीतियों की तरफदारी करता है और इसे फलीभूत करने के लिए जंगल के आदिवासियों का समूचा वजूद सूली पर टंगा है। ऐसी कहानियाँ नयी पीढ़ी के भीतर गहरे यथार्थ-बोध का उद्घाटन तो करती ही हैं, स्वतः अपनी पीढ़ी की रचनाशीलता के बारे में यथार्थ से मुक्ति की अवधारणा को खारिज कर समय-संगग्न होने का तर्क सामने रखती हैं। शशि भूषण द्विवेदी की ‘विप्लव' ओर चंदन पाण्डेय की ‘भूलना' कहानियों के मूल में भी इस चेतना को पहचाना जा सकता है।
नयी पीढ़ी का अपने समय के यथार्थ से गहरा वास्ता सांप्रदयिकता विरोध संबंधी कहानियों में अपेक्षाड्डत अधिक लेखकीय जवाबदेही के रूप में प्रकट होता हुआ देखा जा सकता है। बीसवीं सदी के आखिरी दशक में हिन्दी कहानी ने सांप्रदायिकता के विरोध में खड़े होकर, बड़ी रचनात्मक चुनौती को निभाया। यद्यपि इसी लेखन में फैशन बुल कहानियों की संख्या ज़्यादा मिलेगी। अयोध्या की घटना, विभाजक रेखा की तरह है। उस घटना के एक दशक बाद यानि इक्कीसवीं सदी के आरंभिक वर्षों में उसके परिणाम स्वरूप उपजी स्थितियों, हिन्दू-मुस्लिमों के बीच के वैमनस्य और सांस्ड्डतिक-सामाजिक ताने-बाने के टूटने की पीड़ा कहानियों में अनुभव की गई। )त्विक दास मिश्र की ‘कुम्हड़े की माँ' शशिभूषण द्विवेदी की ‘शिल्पहीन' और वंदना राग की ‘यूटोपिया' इसी यथार्थ की तस्वीर खींचती हैं। इन कहानियों में घटनाएँ हैं, लेकिन उन्हें अजाम देने वाली फ�ासीवादी ताकतों के खौफनाक ‘खेल' का खुलासा और उन्हें अपदस्थ किए जाने की भर्त्सना इन कहानियों का स्वर है। यथार्थ का चित्रण है तो संवेदना का प्रवाह भी। ये कहानियाँ यथार्थ को रखते हुए, उन कारकों की गहन पहचान करती हैं जिनसे मानवीयता लांछित हो रही है। यही नहीं ये कहानियाँ बार-बार इस बात के औचित्य को परखती हैं कि महज राजनीतिक कारणों-वश हुई एक घटना (अयोध्या में रामजन्म भूमि-बाबरी मस्जिद ढहाना) हिन्दू-मुस्लिम साझे को तहस-नहस कर सकती है। अपनी सिनेमाई कथा-योजना में ‘परिंदे का इंतजार- सा कुद (नीलाक्षी सिंह) कहानी में इसी साझे के टूटने की अनुगूँज है। डायरी शैली में लिखी गई, मो. आरिफ की ‘चोर-सिपाही' और विमल चंद पाण्डेय की ‘सोमनाथ का टाइम-टेबिल' कहानियाँ नयी पीढ़ी में सांप्रदायिक यथार्थ के ग्रहण की सूचना देती हैं। ‘चोर-सिपाही' में गुजरात की द्रावक घटनाओं की पृष्ठभूमि है और ‘सोमनाथ का टाइम-टेबिल' में एक शहर के भीतर धार्मिक और जातिगत विड्डतियों के सिर उठाने से उपजे विषाक्त होते माहौल को पहचानने की कोशिश है।
नयी युवा पीढ़ी की कहानियों में रचनाशील तत्त्वों की पहचान में प्रथमतः एक समान दिखने वाला तत्त्व है- प्रेम कथा। यथार्थ के किसी आयाम पर निगाह हो, पर उसके समानांतर मिलेगी प्रायः एक प्रेम कथा यद्यपि कुछ पीछे जाएँ तो उदय प्रकाश की ‘पीली छतरी वाली लड़की' कहानी याद आती है, जिसे सिफ�र् प्रेम कहानी भर कोई कैसे कह सकता है! यह चलन बढ़ा। प्रेमकथा के वरक्स यथार्थ के उद्घाटन की कला आज कहानियों में ज़्यादा प्रयुक्त हो रही है। इस सिलसिले में ‘परिंगे का इंतजार-सा कुछ' (नीलाक्षी सिंह), ‘रोमियो, जूलियर और अंधेरा' (कुणाल सिंह), ‘चोर-सिपाही' (मो. आरिफ), ‘बाकी धुआँ रहने दिया' (राकेश मिश्र), ‘दिल नवाज, तुम बहुत अच्छी हो' (प्रत्यक्षा) जैसी कहानियों की रचना प्रक्रिया पर गौर करें, तो यह विशेषता मिलेगी।
इधर प्रेम और स्त्री को केन्द्र में रखकर लिखी गई कहानियों में प्रायः स्त्री की दैहिक स्वाधीनता की जिरह भी अकारण नहीं। पर इसे ही स्त्री-मुक्ति का पर्याय मान लेने जैसे बाजारवादी और पश्चिमी मूल्य हिन्दी कहानियों में तैरते हुए दिखायी देना नयी बात नहीं रही। कुछ पत्रिकाएँ इसी तरह की कहानियों को छाप कर प्रगतिशील-मूल्यों को परिभाषित करती रहीं हैं। यह एक मौजू सवाल है कि पुरुष की तरह स्त्री की भी एक जैविक स्वाधीनता है- सामाजिक सांस्ड्डतिक मूल्यों की मर्यादा तो दोनों के लिए ही है। पर स्वाधीनता के मूल में उन मूल्यों की वास्तविक पहचान होना चाहिए। भूमंडलीय मीडिया ओर सहजात परिवेश स्त्री को लेकर खुलेपन की मुहिम चला रहा है, जिसके मूल में बाजारवादी ताकतें हैं। इस नवपूँजीवादी समय में फिल्म, मीडिया और सौंदर्य प्रतियोगिताओं ने स्त्री स्वाधीनता के जिन प्रश्नों को रख छोड़ा है, वे ही क्या हमारे यहाँ स्त्री-मुक्ति के वास्तविक प्रश्न हैं? नयी पीढ़ी की कतिपय कहानियाँ पढ़कर लगता है, इसे लेकर कुछ भ्रम की स्थिति है। मुझे इस सिलसिले में कुणाल सिंह की ‘साइकिल कहानी' का उल्लेख जरूरी लगता है। इस कहानी नायाब भाषा और शिल्प यानि कहन की सुचारुता इस भ्रम को तोड़ नहीं सकी। स्त्री के पक्ष में सार्थक संभावनाओं से परहेज करते हुए, कहानीकार अपने इरादे को इति सिद्धम् तक पहुँचा कर ही चैन लेता है। हिन्दी कहानियों में यौन-चित्रण को लेकर बहस नयी नहीं है। पर इसका ग्राफ क्रमशः ऊपर उठता गया है। आज की कहानियों में स्त्री पक्ष में बिना कार्य-कारण स्पष्ट हुए, इसे कुछ अधिक तरजीह ही जाने लगी है। तब इसके पीछे कहानीकार की मानसिकता, चर्चित होने का आसान रास्ता और मूल में बाजारवादी- उपभोक्तावादी समय में उन्याद और खुलेपन का असर साफ� देखा जा सकता है। प्रेम और देह को केन्द्रित करना कहानियों में त्याज्य नहीं होना चाहिए- लेकिन कहानी में कहानीकार का रचना-सूत्र क्या है और क्यों है? इसकी परिणिति को नैतिकता और स्वायत्तता की वास्तविक कसौटी पर देखना चाहिए। नए कहानीकारों में ही पराग कुमार मांदले की ‘बोध' कहानी में प्रेम की गहन भावात्मक अनुभूति की दृष्टि से अधिक परिपक्व एवं यौनांकन को तरजीह दिए बिना, प्रेम को ज़मीनी सच्चाई से पहचानने की कोशिश है। यही नहीं इसी पीढ़ी के भीतर स्त्री को लेकर सार्थक और तर्थाश्रित मूल्यों को जगह देती कहानियाँ लिखी जा रही हैं। ‘शहादत और अतिक्रमण' (वंदना राग), ‘पापा, तुम्हारे भाई' (शिल्पी), ‘फुलबरिया मिसराइन' (प्रत्यक्षा) और ‘सत्ताइस साल की सांवाली लड़की' (दीपक श्रीवास्तव) जैसी कहानियाँऋ स्त्री की स्वाधीनता को नए आलोक में देखने की जिरह छोड़ती हैं। इनमें स्त्री की स्वाधीनता और कतिपय सामाजिक प्रश्नों को लेकर रुढ़िवादिता और गलीज़पन के विरुद्ध नयी नैतिक अवधारणा की जगह खोजने की कोशिश है। ऐसी कहानियों में स्त्री आत्मविश्वास से भरी और सचेत है- वह पुरुष सत्ता के पाखंड से भरमाने वाली नहीं। इसी चेतना में ढली ‘मुक्ति-प्रसंग' (अल्पना मिश्र) और ‘कठपुतलियों' (मनीषा कुलश्रेष्ठ) कहानियाँ हैं। नयी पीढी की ऐसी कहानियाँ हो-हल्ला मचाने वाले स्त्री-विमर्श और नारीवादी मुद्रा से पृथक स्त्री संबंधी ‘मुक्ति' के प्रश्नों को स्त्री-चेतना के केन्द्र में रखती हैं। यह भी कहा जा सकता है कि उपर्युक्त कहानियाँ अपनी-अपनी तरह की साहसी स्त्रियों की कहानियों हैं।
हिन्दी कहानी में प्रेमचन्द की परंपरा को देखना प्रचलन में रहा है- यह अपनी जगह कायम जरुरी सवाल है। ऐसी कहानियाँ शहर, गाँव या कस्बों के समाज के निचले स्तर में रहने वाले निम्नवर्गीय लोगों के दुःख-दर्द, जिजीविषा और संघर्ष को लिखती हैं। इसका प्रेमचंद्र की परंपरा में होने का आशय अपने समय में उने ‘बोध' को ग्रहण करना है, जो इन कहानिकारों को आज के चकाचौंध और यथार्थ की महागाथा से हटाकर उन इंसानों की अँधेरी और निरीह जिन्दगी की ओर ले जाता है। पिछले बीस सालों की कहानी के इस पहलू पर गौर करें, तो यह परंपरा कायम मिलेगी। इस दौर की अनेक कहानियाँ, जिन्हें मजदूरों-किसानों या आमजनों के संघर्ष की कहानियाँ नाम दिया जा सकता है। अक्सर आलोचना की निगाह से जो फिसल जाती हैं। जबकि विद्यासागर नौटियाल, महेश कटारे, जयनंदन, पंकज विष्ट के बाद भी कहानी में यह परंपरा कायम है। ‘भूख' (सुभाष चन्द्र कुशवाहा), ‘सेवड़ी रोटियाँ और जले आलू' और ‘कामयाब' (हरिभटनागर), ‘बाजार में रामधन' और ‘इस समय चिड़ियों के बारे में' (कैलाश बनवासी), ‘चुपचंतारा रोना नहीं' (नीरजा माधव) और ‘महागिद्ध' (गौरीनाथ) जैसी कहानियाँ इस निरंतरता को सिर्फ बनाए ही नहीं रखती, स्वतः कहानी या उसकी धाराओं के समानांतर अपना शांत और सार्थक रचनात्मक हस्तक्षेप भी प्रस्तुत करती हैं।
इक्कीसवीं सदी के पहले दशक में उभर कर आयी कहानीकारों की नयी पीढ़ी पर यह आरोप जड़ दिया गया कि उनके यहाँ आम इंसान गायब हो रहे हैं। भूमंडलीकरण के युग में आर्थिक विसंगतियाँ भयावह रूप में फैल रही हैं। अब आमजन सिर्फ� पूर्व प्रचलित ‘संज्ञा' से ही नयी चीहे जा सकते, उनका दायरा निरंतर फैलता गया है। नए कहानीकारों की रचनात्मकता का अपना लोकतंत्र हैं उनकी कहानियों में बेशक इनकी उपस्थित कम हो सकती है। पर ख़त्म भी नहीं हो गयी है- ‘गुणा-भगा' और ‘गुल मेंहदी की झाड़ियाँ' (तरुण भटनागर), ‘लघुत्तम समापवर्त्त के (दीपक श्रीवास्तव), ‘सौ किलो का साँप' (गीत चतुर्वेदी), ‘बिलौती महतो की उधार फिकर' (पंकज मिश्र) कहानियाँ इसका प्रमाण देने के लिए काफ�ी होंगी। ऐसी कहानियाँ, कितनी कलात्मक के साथ प्रतिबद्धता का पैना पन बनाए रखती है, यह विश्लेषण का मुद्दा हो सकता है। वस्तुगत तानव रूप का निर्धारण करता है। फैेंसी और जादुई-शैली की महत्ता और लगन है। इनके चलते भी प्रेमन्द की कथा-धारा के बीच रूप पहचाने जा सकते हैं। इनके कहानियों का परिवेश, पात्र और चिंताएँ ही इनकी उद्घाटक हैं। यह कहानी की सार्थक, सोद्देश्य, जीवंत और समाजोन्मुखी धारा ही है, जो नए संदर्भों और परिस्थितियों के साथ भाषा और कहन के सहज-संभाग्य रूपों में फलित हो रही है। नयी पीढ़ी में इसे उपलब्धियों के रूप में शामिल होना चाहिए।
नयी पीढ़ी की कहानियों में ‘वस्तु-प्रवेश' कहानीकार के अपने कथा-बोध पर संभव हुआ है। उनका कोई सुनिश्चित एजेंडा नहीं है- पहले जैसी राजनीतिक संलग्नता, विचाधारा और आंदोलन धर्मिता से सर्वथा मुक्ति है। पिछली पीढ़ी में भूमंडलीकरण, बाज़ारवाद, उपभोक्तावाद, सांप्रदायिकता, स्त्री-चेतना, दलित-चेतना के साथ-साथ प्रशासनिक- राजनीतिक भ्रष्टाचार, सामाजिक जीवन में हिंसा-बलात्कार और तमाम मूल्यगत पतन को लेकर कहानियाँ लिखी जा रही थीं। नयी पीढ़ी ने सुनियोजित नहीं, तो कतिपय चिंताओं से किनारा कर अपनें कथा-बोध को निर्मित किया है। यद्यपि ऊपर हम कतिपय कहानियों को लेकर भूमंडलीकरण, सांप्रदायिकता, स्त्री-चेतना और निम्न वर्गीय संदर्भों की चर्चा कर चुके हैं। दरअसल आज की कहानियाँ इन वस्तुगत संदर्भों के सुविधाजनक दायरे से बाहर यथार्थ के प्रति मुक्त दृष्टि रखना चाहती हैं। ऊपर दिए गए अनेक कहानियों के मद्देनज़र, यह कहना कहाँ तक उचित है कि नयी पीढ़ी की कहानी से अपने समय की चिंताएँ गायब हो रहीं है? कई जगह अनेक स्थितियों को कोलाज़ बनाता दिखे तो आश्चर्य नहीं! ऊपर वर्णित जिन यथार्थ- बिन्दुओं की चर्चा हुई है, वस्तुतः उनका पारस्परिक अंतर्सबंध भी है। प्रायः आज की कहानियाँ इस समूचे परिवेश पर तैरती नज़र आती हैं। ऐसा लग सकता है कि कहानी का उत्स ठीक-ठीक पता नहीं लग रहा! पर यह आभास मात्र हैं, दरअसल ऐसी कहानियों का स्पष्ट सरोकार पहचान में आता है। यह बात ‘घेराव' (पंकज सुबीर), ‘तक्षशिला में आग' (राकेश मिश्र), ‘लू' (मो. आरिफ) और ‘खाल' (मनोज कुमार पाण्डेय) जैसी कहानियों के हवाले से कही ही जा सकती है।
यथार्थ को कहानी से देखने का ‘नज़रिया' ही, युवा पीढ़ी की कहानी में बदलाव का मुख्य बिन्दु है। इसकी बात पहले भी हुई। उनकी कहानियाँ इसी ‘नजरिए' से देखे जाने का आग्रह करती हैं अब कहानीकार का यथार्थ-बोध ऊपर-ऊपर नहीं, कहानी के भीतर-भीतर उसके ‘पाठ' से ध्वनित होता है। इसके लिए यथार्थ-निरूपण की किसी प्रचलित परिवाटी को छोड़, आज के कहानीकार भाषा और कहन के नए अंदाज़ को ग्रहण कर रहे हैं। इसके चलते भले ही यह आभासित हो कि नयी पीढ़ी यथार्थ से बचकर निकल रही है, पर वह दरअसल उसमें शामिल है और उसे अपनी कथा-शर्तों यानि कलात्मक कौशल से ही देखना चाहती है यही नयी पीढ़ी के बदलाव का खास बिन्दु है। पिछली पीढ़ी से यह अलगाव - कहानी की ऐतिहासिक विरासत के पक्ष में खड़ा है। अब कहानियों में आख्यान और कथापन की वापिस सुनिश्चित हो रही है। नयी पीढ़ी का कहानीकार अतीत के कथा-प्रसंग आरंभ करता है और वर्तमान तक आने की कोशिश करता है, अतीत-स्मरण में ही रह जाने से वह भरसक बचने की जुगत में रहता है। सफलता की संभावनाओं का उसे ज्ञान है। लेकिन, यथार्थ-छवियों को उद्घाटन में अब वह पिछली पीढ़ी की तरह अधिक नहीं रमता, वह छलांग लगाकर घटना पर आता है। उसे अख्यान बनाने, कथानक की रोचकता और गठन को तरजीह देने में नयी पीढत्री का कौशल किसी को भी हैरत में डाल सकता है। ‘कथा' होने के रोचकत तत्त्वों का विन्यास आज की कहानियों में भरपूर है। एक साथ कई कहानियाँ याद आ जाती है। सभी का उल्लेख संभव नहीं। पर मिसाल ही देना हो तो ‘रेखाचित्र में धोखे की भूमिका' (चंदन पाण्डेय), ‘रोमिया, जूलियर और अंधेरा' (कुणाल सिंह), ‘बाकी धुआँ रहने दिया' (राकेश मिश्र), ‘लापता नत्थू उर्फ दुनिया न माने' (रवि बुले), ‘दद्दा यानि मदर इंडिया का सुनील दत्त' (उमाशंकर चौधरी) आदि कहानियों का नाम लिया जा सकता है। इस क्रम में प्रभात रंजन, मो. आरिफ, संजय कुंदन की कहानियाँ भी इसमें शामिल हो सकती हैं। चंदन पाण्डेय की उपर्युक्त कहानी का आरंभिक वाक्य है- ‘एक थे नारायण।' और अंतिम वाक्य है- ‘मेरे गाँव का जीवन चल रहा है।' इस संदर्भ में चर्चा के लिए और कहानियाँ भी हो सकती हैं। इसे लेकर कहना इतना ही है कि नयी युवा पीढ़ी अपनी कहानी को अपने अग्रज कथाकारों के कथा-बोध का ही विस्तारित नहीं कर रही, वह कहानी को ‘कहानी' बनाने के लिए भारतीय ‘कथा' की विराट परंपरा का दाय भी स्वीकार कर रही है।
समकालीन युवा कहानीकार फैंटेसी और यथार्थ के मेल की कथा- संभावनाओं को फलित कर रहे हैं। आश्चर्य ही लगता है कि यह पीढ़ी फैंटेसी की कला-युक्तियों का जितना इस्तेमाल करती है उतना जादुई यथार्थवादी शैली का नहीं। हिन्दी कहानी में विशेषतः उदय प्रकाश और पंकज विष्ट इस युक्ति की सफल संभवनाओं को फलित कर चुके हैं। बाद में कतिपय अन्य कहानीकारों ने भी इन संभावनाओं को तलाशा। वर्तमान युवा पीढ़ी की कहानी के स्वभाव में संभवतः यह शैली मेल खा सकती थी, रवि बुले ‘लापता नत्थू उर्फ दुनिया न माने' में जादुई मिलावट करने का प्रयत्न हैं- उसे ओर जाने का संकेत है। अधिकांश युवा कहानियों में जादुई तत्त्व तैरते हुए मिलेंगे, जो फैंटेसी के अधिक निकट माने जाएंगे। जादुई यथार्थवादी शैली तो फैंटेसी से पृथक कला-युक्ति है। यह तो चयन की बात है। पर फैंटेसी के इस्तेमाल से व्यवस्था के चमकीले और लुभावने आवरण के भीतर छिपी विद्रूपताओं और छद्म को युवा कहानियाँ अजागर कर रही हैं। इस अभिव्यक्ति के खतरे हैं, जरा उड़ान ऊँची हुई तो कलावाद के खाँचे में डाल दिए जाने का जोखिम हैं नयी पीढ़ी इस जोखिम को उठा रही है। फैंटेसी के जरिए कथा-स्थापत्य निर्मित करने की बानगी ‘सनातन बाबू का दांपत्य' (कुणाल सिंह), ‘परिंदगी है कि नाकामयाब है' (चंदन पाण्डेय) और ‘क्वालिटी लाइफ' (शिल्पी) जैसी कहानियाँ हैं। हर पीढ़ी स्थापत्य में नया लाने के लिए प्रयोगधर्मिता अपनाती है। इतना होते हुए भी नयी पीढ़ी ने कहानी के फार्म में कोई ऐतिहासिक बदलाव नहीं किया है। पर कथा-भाषा के प्रति प्रयोग धर्मिता और रचनात्मक संभावनाओं की तलाश बढ़ी है।
हिन्दी कहानी में कथा-भाषा को लेकर पीछे एक समृद्ध विरासत खड़ी है। आज की नयी पीढ़ी में भाषायी-बोध उदयप्रकाश, अखिलेश, प्रियंवद, स्वयं प्रकाश, योगेन्द्र आहूजा, हरिभटनागर, संजय खाती, सारा राय, आनंद हर्षुल आदि की पीढ़ी से चलकर विस्तृत हुआ है। नयी युवा पीढ़ी की भाषायी- संवेदना का रास्ता कथा-भाषा के इसी मुकम्मल स्थान से फूटता हैं यह कहना नयी बात नहीं है कि कहानी की भाषा अंतर्वस्तु और रूप का ही अनिवार्य हिस्सा है। कथा-भाषा में धारदार खिलंदड़ापन, विनोदी, रंजक और व्यंग्य-मिश्रित प्रयोग बीसवीं सदी के अंत की हिन्दी कहानी की विशिष्टता है। यह अलग बात है कि इसी पड़ाव पर प्रेम, यौनांकना और गाली-गलौज की शब्दावली को लेकर आलोचनाएँ हुई हैं। पत्रिकाएँ ऐसी कहानियों को प्रश्रय देती रही हैं और कथाकार की बोल्डनेस और नए विषय को ‘ट्रीट' करने के लिए पीठ थपथपायी जाती रही है। हिन्दी कहानी में अब भी यह चलन कम नहीं हो गया है। नयी युवा पीढ़ी को इस सिलसिले में बेहद संतुलन बनाकर चलना होगा। यह बात अकारण नहीं, इसी पीढ़ी के भीतर भाषायी कला के जादू में उगमाने और फिसलने के उदाहरण कम नहीं हैं। अब इसे कहानी के ‘कथ्य' की माँग बताकर औचित्य सिद्ध किया जाए या फिर बाजार केन्द्रित समय में कहानी को भाषायी बूत पर लोकप्रिय बनाकर, चर्चित होने के लिए आसान रास्तों पर चलने की चाह! यह ठीक है कि नयी युवा पीढ़ी भाषा-प्रयोगों और कहन के बारीक ट्रीटमेंट के प्रति अधिक सचेत हुई है। कहानी के शीर्षक से लेकर भीतरी रास्तों में भाषा के कतिपय नैतिकतावादी और रूढ़ मानाकों का निषेधकर, हंसोड़ और खुशनुमा गद्य रचा जा रहा है। इसी के भीतर संवेदनाओं के �ोत छिपे होते हैं और यथार्थ के तमाम आयामों के प्रगट होने की उर्वर संभावनाएँ भी। यह अलग बात है कि ये संभावनाएँ निहितार्थों तक पहुँचाने में कितनी सफल हो सकती हैं? कहानी का कलावादी होना अलग बात है और कला-रूप होना अलग। कला-रूप होने का आशय अमूर्त्त, गूढ़ या सिफ�र् भाषा की सुचारूता या यथार्थ से पूर्ण मुक़्त होना नहीं है। अच्छी कहानियाँ यथार्थ और कला के गहरे मेल या टकराव से ही उत्पन्न हो सकती हैं। नयी पीढ़ी की जिन कहानियों से यह ‘संभव' हुआ, वे सहज ही स्मरण रह जाती है। इस पीढ़ी के लिए ‘यथार्थ' सिफ�र् वही परिचित नहीं कि घूम फिर कर उनकी वस्तु की ओर बार-बार लौटे। रचना के लिए कोई भी तार्किक विषय त्याज्य नहीं होता और सत्य सिर्फ बाहर नहीं व्यक्ति के भीतर भी होता है। समलैंगिकता को कानूनी मान्यता देने की पहल तो अब हुई है, यह तो अंधेरों में छिपा चिरपरिचित राज है- समाजों के भीतर। व्यक्ति के इस मनोवैज्ञानिक संदर्भ को पंकज सुबीर ने ‘अंधेरे का गणित' कहानी में उद्घाटित किया है। एक नवयुवक पात्र के जरिए एक सधी हुई भाषा में, सिफ�र् संकेतों के कमाल से वास्तविक समस्या पर निगाह- अश्लीलता का कहीं स्पर्श नही। देखा जाना चाहिए कि ऐसे बेशकीमती प्रयोगों की रचना में तार्किक परिणति क्या है? कहानी सिर्फ भाषायी आनंद-विहार और पाठ-रति के लिए नहीं लिखीं जातीं। ‘साइकिल कहानी' (कुणाल सिंह) और ‘फूलों का बाड़ा' (मो. आरिफ) कहानियों पर तीखी आलोचनाएँ अकारण नहीं हुईं। एक में कथागत तार्किकता का अभाव है तो दूसरे में भाषायी प्रयोगों का औचित्य पूछा जाना चाहिए। नीलाक्षी सिंह की भाषा में निर्दोष सुचारूता है और ‘परिंद्र का इंतजार-सा कुछ' में यथार्थ भले आभाषित लगे, पर यह खूबी आद्योपांत व्याप्त है।
समकालीन कहानी पर बात करते हुए, यहाँ नए युवा कहानीकारों की कहानियाँ विशेषतः ध्यान में हैं। पर इसी पीढ़ी में ही नामों की बहुत बड़ी संख्या है। इतनी कि उन नामों की सूची भी नहीं दी जा सकती, कुछ तो जरूर छूट जाएँगे। समकालीन कहानी के अभिलक्षणों के निर्माण में यही युवा पीढ़ी सर्वाधिक जवाबदेह है, लेकिन इस पीढ़ी के तजुर्बेदार सहयात्री कहानीकार हैं, जो पहले से ही लिख रहे थे। यानि वरिष्ठ युवा कहानीकार भी कहानी की संरचना और स्वभाव के निर्माण में शामिल हैं। इसमें उम्र का कोई आधार संभव भी कैसे हो सकता है! नयी पीढ़ी में ही कुछ बिल्कुल नवयुवक हैं तो उम्र में कुछ उनसे बड़े भी। दरअसल समकालीन कहानी में वैविध्य इसीलिए है। इसी दौर में उदय प्रकाश, अखिलेश, प्रियंवद, महेश कटारे, मैत्रेयी पुष्पा की पीढ़ी लिख ही रही हैऋ तो हरिभटनागर, मनोज रूपड़ा, कैलाश बनवासी, संजय खाती, गौरीनाथ आदि की पीढ़ी भी सक्रिय है। कहानी की समकालीनता में इन सबका अवदान है इन सभी पीढ़ियों में एक बड़ी संख्या स्त्री कहानीकारों की है। इन्हीं के बीच विचारों और विमर्शों का एजेंडा भी मौजूद है। यही नहीं अनेक पत्रिकाएँ नए-नए युवकों की कहानियों को खेपों में छाप रही है- नित नए नाम दिख रहे हैं। हिन्दी कहानी में एकदम ताज़ा पीढ़ी के अंककरण फूट चुके हैं। पर उनकी कहानियों को लेकर फिलहाल कुछ कहना, जल्दबाजी होगी। बहरहाल, हिन्दी कहानी के बहुत बड़े रचना-फलक के बीच नयी युवा रचनाशीलता का ‘आगाज़' नज़र अंदाज़ नहीं किया जा सकता। यही ‘आगज़' तो उनकी ओर खींच रहा है। इसके चलते कहानियों की भीतरी बुनावट बदल चली है। कहानी कहने के नए बोध की वाहक यह पीढ़ी सामयिक यथार्थ की चकाचौंध के बीच अपनी नैतिक जिम्मेवारियों को खोजने में संलग्न है। भले ही यह सब विचारों और विमर्शों के बाड़े तोड़ कर संभव हो रहा हो या अन्य किसी रचनात्मक उपक्रम से। इसका आशय यह नहीं हो जाता कि उनके लिए जनोन्मुखी संदर्भ अप्रसांगिक हो गए हैं। नए कहानीकार स्मृतियों के कुहासे निकलकर उनकी ओर अपने कदम बढ़ाते हैं। उनकी आहटें सुनने के लिए थोड़ा ध्ौर्य चाहिए। इसके बिना कहानी के सृजन-तत्त्वों की पहचान नहीं हो सकती और जिनकी उपस्थिति ही उनके सौंदर्यशास्त्र का निर्माण करती है। इसके चलते नयी युवा पीढ़ी पाठकीय अभिरुचि को अपनी ‘कहानी की ओर मोड़ रही है तो कहानी विद्या के लिए अच्छा लक्षण है।
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हिन्दी विभाग
काशी हिन्दूविश्व विद्यालय
वाराणसी
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अच्छी विवेचनात्मक आलेख ....
जवाब देंहटाएंनीरज भई, आपने बहुत गहराई से कहानी को परखने का कार्य किया है... साधुवाद!
जवाब देंहटाएंNiraj ji ka lekhan samyik bhi hai aur mahtvapurn bhi lekhan ke sath swachh alochana awashyak hai itne bare vishaya par likhne ke liye badhaiee
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